साधुओं ने गंगा जी के लिये क्या किया - स्वामी सानंद

साधुओं ने गंगा जी के लिये क्या किया - स्वामी सानंद

Published on
5 min read

स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद - 19वाँ कथन आपके समक्ष पठन, पाठन और प्रतिक्रिया के लिये प्रस्तुत है:

मैं मानता हूँ कि मैं कड़ा हूँ। मतभेद रखने में कतराता नहीं हूँ। स्पष्टवादिता, मेरा स्वभाव है। इसके कारण कई नाराज हुए, तो लम्बे समय तक कई से प्यार भी मिला।

दिखावे के विरुद्ध


मैं दिखावे के समर्थन के भी विरुद्ध हूँ। जो ऐसे लोग मेरे सम्पर्क में आते हैं; उन्हें कड़ा कहता हूँ। मेरा उनसे विवाद हो जाता है। मैं कहता हूँ कि नहीं करना हो, तो मत करो; लेकिन दिखावा न करो। ‘मार्च ऑन द स्पॉट’ यानी एक जगह पैर पीटते रहना। यह भी मुझे पसन्द नहीं है।

अवधि नहीं, उपलब्धि महत्त्वपूर्ण


जो संगठन गंगा के लिये काम कर रहे हैं, उनमें से अक्सर आकर बताते हैं कि हम इतने वर्षों से काम कर रहे हैं। मैं उनसे कहता हूँ कि यह न बताएँ कि कितने वर्षों से काम कर रहे हैं; यह बताएँ कि उनकी उपलब्धि क्या रही। बी. डी. त्रिपाठी जी, एनजीबीआरए (राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण) के सदस्य हैं। त्रिपाठी जी कहते हैं कि 25 साल से काम कर रहे हैं। डॉ. वीरभद्र मिश्र जी से मेरा परिचय इमरजेन्सी के वक्त हुआ। 1982 में जब मैं केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का मेम्बर सेक्रेटरी था, वह मिलने आये थे। उन्होंने पुरानी यादें ताजा कीं। उन्होने गंगा की बात उठाई। मैंने उनसे कहा-

“सीधे-सीधे काम बताइए कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की स्थितियों में मैं क्या कर सकता हूँ?’’


महन्त जी ने कहा-

“बताओ, हमें बनारस में क्या करना चाहिए?’’



मैंने कहा-

“अगले पर्व पर एक समूह दशाश्वमेध घाट पर लेट जाये; आने वालों से कहे कि आप हमारे ऊपर से चलकर जाइए।’’



इस पर महन्त जी बोले-

“गंगा स्नान तो अधिकार है। माँ बीमार है, तो क्या हम छोड़ देंगे?’’



मैंने समझाया कि

मेरे कहने का मकसद स्नान रोकना नहीं है। मेरा मकसद तो सरकार पर दबाव बनाना है। आप करोगे, तो मैं सबसे पहले लेटुँगा।



उन्होंने कहा कि यह नहीं हो सकता।

अब देखिए, भले ही उनके-मेरे विचार नहीं मिले, लेकिन जब मैंने सीपीसीबी छोड़ा, तो उन्होंने मुझसे सम्पर्क किया और मैं उनके प्रयोग से जुड़ा।

(स्वभाव पर साफ-सफाई के बाद मैंने गंगा पर हुए कार्यों पर उनकी राय पूछी - प्रस्तोता)

गंगा कार्य


गंगा कार्यों की बात करुँ तो इसे कई खण्ड में बाँटा जा सकता है। 1840 से 1916 का कालखण्ड - इसमें गंगा पर जो कुछ हुआ, उसमें 1914 से 1916 तक हरिद्वार में आन्दोलन हुआ। दो साल के बाद अंग्रेज सरकार और राजाओं व हिन्दू सन्त समाज के बीच एक एग्रीमेंट हुआ।

1916 से 1947 के कालखण्ड में गंगा प्रदूषित होनी शुरू हो गई थी। इस कालखण्ड में अंग्रेज सरकार व विदेशी साइंटिस्टों ने गंगा पर कुछ काम किया, लेकिन भारत के लोगों ने कोई काम नहीं किया।

सिद्दिकी की समझ पर भरोसा


1947 से 1960 के दौरान कई कॉलेज व यूनिवर्सिटीज ने गंगा प्रदूषण पर अध्ययन किया था। रुड़की इनमें सबसे पीछे थी। मुजफ्फरनगर डीएवी कॉलेज ने काफी अध्ययन किया था। बॉटनी विभाग के 3-4 लोग थे। अलीगढ़ में काफी अध्ययन हुए। राशिद हयात सिद्दिकी साहब ने नरोरा से गढ़मुक्तेश्वर व काली नदी में आने वाले इंडस्ट्रियल व सीवेज पॉल्युशन पर अध्ययन किया था। 1965 में वह आईआईटी, कानपुर गए। उन्होंने काफी ठोस काम किया है। गंगाजी की जितनी समझ मुझे है, उतनी सिद्दिकी जी को भी है। इस नाते भी वह मेरे अनन्य मित्र हैं। बाद में वह ‘नीरी’ चले गए। उनके द्वारा ट्रेंड किये लोगों ने ही बाद में नीरी की अच्छी रिपोर्ट बनाई। उन्होंने समर्पण सिखाया।

अध्ययनों से गंगाजी को क्या लाभ?


कानपुर में काम हुआ। इलाहाबाद में खास काम हुआ। डॉ. आई.सी. अग्रवाल आईआईटी (कानपुर) से बीटेक, एमटेक, पीएचडी थे। मोतीलाल नेहरु रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज, इलाहाबाद में रहते हुए गंगा पर काफी काम किया। बनारस में सबसे ज्यादा काम महन्त जी का था और फिर यूके चौधरी और एसएन उपाध्याय का। पटना में आरके सिन्हा डॉल्फिन पर काम कर रहे हैं। बंगाल में भी काम हुआ। किन्तु ये सारा काम तो साइंटिफिक काम हुआ न। मेरा प्रश्न है कि इससे गंगाजी को क्या लाभ हुआ? बहुत सारे शोध छप गए। विद्यार्थियों ने पढ़े। ज्ञान व डाटा बढ़ा, लेकिन और कुछ कहाँ हुआ? इनके पास अधिकार भी नहीं था कि कुछ और करें।

(सच है कि यदि किसी वैज्ञानिक या अध्ययनकर्ता के पास उसके शोध या अध्ययन को लागू करने का अधिकार ही न हो, तो वह अध्ययन और उसके प्रचार से ज्यादा क्या कर सकता है? सोचना चाहिए - प्रस्तोता)

सबसे अधिक जिम्मेदारी किसकी?


जिस दौर में यह सब घट रहा था, उस दौर में साधु समाज खड़ा देख रहा था या एक ही जगह पर कदम ताल कर रहा था। बचपन में मेरे परिवार में एक सन्यासी आते थे। सच्चे सन्यासी थे। बचपन से ही मेरा उनसे सम्पर्क रहा। उन्होंने ही मेरा नाम रखा था। 1953-54 तक आते रहे। उन्होंने एक किस्सा सुनाया था। बोले कि अमृतसर के एक पण्डित जी थे। सुबह लोटा उठाकर शौच करने गए। उन्हे वहीं बस्ती में बैठ जाने को कहा। वह बैठ गए। दूसरे ने देखा तो कहा कि बताने वाले को अक्ल नहीं है, लेकिन पण्डित जी तो कर्मकाण्ड करते-कराते हैं; उन्हें तो जिम्मेदारी से काम लेना चाहिए था। मतलब यह कि समाज से ज्यादा जिम्मेदारी उनकी हैं, जिन्होंने गंगाजी को नाम दिया; जो गंगाजी की जय बुलाते रहे हैं। गंगा-केदार के हिस्से में जिम्मेदारी पीठों की है। ज्योतिष्पीठ की जिम्मेदारी ज्यादा मानता हूँ। वे जानते हुए भी देखते रहे। गंगा को दुरावस्था में होने का सबसे बड़ा दोष तो देखकर भी अनदेखा करने वाले उन अखाड़ों और आश्रमों का है, जो उद्गम से संगम तक गंगाजी के सबसे पास हैं। आखिर इन्हें इनके अपराध का दण्ड मिलना चाहिए कि नहीं?

शिवानंद व शिष्यों का काम वास्तविक


सुंदरलाल बहुगुणा जी ने टिहरी का विरोध किया था। रास्ता गलत था या सही था; प्रश्न यह नहीं है। उन्होंने विरोध तो किया। साधुओं ने क्या किया? मानों, मैंने आज संकल्प लिया है। मुझसे पहले साधु-सन्यासी क्या कर रहे थे? अभी वे क्या कर रहे हैं। गंगाजी के लिये यदि मैंने वास्तव में किसी साधु को करते देखा है, तो स्वामी शिवानंद जी और उनके शिष्यों को। बाकी सब कदमताल कर रहे हैं। गंगा जी की जमीन पर महल बना लिये हैं। यह अपराध है। ऐसे अपराध के लिये उन्हें दण्ड मिलना चाहिए कि नहीं? प्लास्टिक बोतल सजाई। सेमिनार कर लिया। फोटो खिंचवा ली। इससे गंगाजी का क्या होगा?

(स्वामी सानंद का स्वभाव स्पष्ट था। स्वामी जी की निराशा स्पष्ट थी। उनके घर-परिवार परिचय को लेकर अभी मेरी जिज्ञासा बाकी थी। जानना जरूरी था कि गंगा जी के लिये सन्यास लेने का दावा करने वाले इस सन्यासी परिवार में कितना रत है, कितना विरत? उत्तर जानने के लिये पढ़ें अगला कथन: प्रस्तोता)

अगले सप्ताह दिनांक 29 मई, 2016 दिन रविवार को पढ़िए स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद शृंखला का 20वाँ कथन

इस बातचीत की शृंखला में प्रकाशित कथनों कोे पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।

प्रस्तोता सम्पर्क
146, सुंदर ब्लॉक, शकरपुर, दिल्ली-92
ईमेल : amethiarun@gmail.com
फोन : 09868793799

संबंधित कहानियां

No stories found.
India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org