कई फसलें एक साथ बोने से पोषक तत्त्वों का चक्र बराबर बना रहता है। अनाज के साथ फलियों वाली फसलें बोने से नाइट्रोजन आधारित बाहरी निवेशों की जरूरत कम पड़ती है। उतेरा पद्धति के बारे में किसानों की सोच यह है कि अगर एक फसल मार खा जाती है तो उसकी पूर्ति दूसरी फसल से हो जाती है। जबकि नकदी फसल में कीट या रोग लगने से या प्राकृतिक आपदा आने से पूरी फसल नष्ट हो जाती है जिससे किसानों को भारी नुकसान होता है। हाल ही में यहां सोयाबीन की फसल खराब होने से 3 किसानों ने आत्महत्या की है। मिश्रित और मिलवां फसलें एक जांचा परखा तरीका है। इसमें फसलें एक दूसरे को फायदा पहुंचाती हैं।
इन दिनों खेती-किसानी का संकट गहरा रहा है। नौबत यहां तक आ पहुंची है कि किसान अपनी जान दे रहे हैं। पिछले 16 सालों में ढाई लाख आत्महत्या कर चुके हैं। होशंगाबाद जिले में भी आत्महत्या होने लगी है। अब सवाल है कि क्या आज की भारी पूंजी वाली आधुनिक खेती का कोई विकल्प है। मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में परंपरागत खेती में इस विकल्प के कुछ सूत्र दिखाई देते हैं, जो मैंने हाल ही उन किसानों से जाने जिन्हें आदिवासी किसान सालों से करते आ रहे हैं। सतपुड़ा घाटी के दतला पहाड़ की तलहटी में बसा है धड़ाव गांव। यहां की प्राकृतिक सुंदरता अपूर्व है। हाल ही मेरा यहां खेती-किसानी के अध्ययन के सिलसिले में जाना हुआ। तब चना की फसल कट रही थी। यहां का किसान गनपत हंसिया से चने काट रहा था। खेत में मचान बना था जहां से वह सुअर और चिड़िया भगाता है। जंगली सुअरों व सांभर से फसल की रखवाली करता है।होशंगाबाद जिला भौगोलिक रूप से दो भागों में बंटा है। एक है सतपुड़ा की जंगल पट्टी दूसरा है नर्मदा का कछार। धड़ाव जंगल पट्टी का गांव है और दूधी नदी के किनारे स्थित है। यह नदी जिले की सीमा निर्धारित करती है। जंगल पट्टी में प्रायः सूखी और असिंचित खेती होती है। जबकि नर्मदा के कछार में तवा की नहरें हैं। कछार की जमीन काफी उपजाऊ मानी जाती है लेकिन अब यह लाजवाब जमीन भी जवाब देने लगी है। सतपुड़ा की जंगल पट्टी में परंपरागत खेती की पद्धति प्रचलित है जिसे उतेरा कहा जाता है। इसमें 6-7 प्रकार के अनाजों को मिलाकर बोया जाता है। इस अनूठी पद्धति में ज्वार, धान, तिल्ली, तुअर, समा, कोदो मिलाकर बोते हैं। एक साथ सभी बीजों को मिलाकर खेत में बोया जाता है और बक्खर चलाकर पेंटा लगा देते हैं। फसलें जून (आषाढ़) में बोई जाती हैं लेकिन अलग-अलग समय में काटी जाती हैं। पहले उड़द, फिर धान, ज्वार और अंत में तुअर कटती है। कुटकी जल्द पक जाती है।
60 की उम्र पार कर चुके गनपत बताते हैं कि इसमें किसी प्रकार की लागत नहीं है। खुद की मेहनत, बैलों का श्रम और बारिष की मदद से हमारी फसल पक जाती है। हर साल हम अगली फसल के लिए बीज बचाकर रखते हैं और उन्हें खेतों में बो देते हैं। हमारे पास बैल हैं जिनसे हम खेतों की जुताई करते हैं। मवेशियों से हमें गोबर खाद मिलती है जिससे हमारे खेतों की मिट्टी उपजाऊ बनती है। उतेरा से पूरा भोजन मिल जाता है। दाल, चावल, रोटी और तेल सब कुछ। इसमें दलहन, तिलहन और मोटे अनाज सब शामिल हैं। इन सबसे साल भर की भोजन की जरूरत पूरी हो जाती है। मवेशियों के लिए चारा और मिट्टी को उर्वर बनाने के लिए जैव खाद मिल जाती है। यानी उतेरा से इंसानों के लिए अनाज, मवेशियों के लिए फसलों के ठंडल, भूसा और चारा, मिट्टी के लिए जैव खाद और फसलों के लिए जैविक कीटनाशक प्राप्त होते हैं।
कई फसलें एक साथ बोने से पोषक तत्त्वों का चक्र बराबर बना रहता है। अनाज के साथ फलियों वाली फसलें बोने से नाइट्रोजन आधारित बाहरी निवेशों की जरूरत कम पड़ती है। उतेरा पद्धति के बारे में किसानों की सोच यह है कि अगर एक फसल मार खा जाती है तो उसकी पूर्ति दूसरी फसल से हो जाती है। जबकि नकदी फसल में कीट या रोग लगने से या प्राकृतिक आपदा आने से पूरी फसल नष्ट हो जाती है जिससे किसानों को भारी नुकसान होता है। हाल ही में यहां सोयाबीन की फसल खराब होने से 3 किसानों ने आत्महत्या की है। मिश्रित और मिलवां फसलें एक जांचा परखा तरीका है। इसमें फसलें एक दूसरे को फायदा पहुंचाती हैं। कुछ साल पहले हर घर में बाड़ी होती है जिसमें उतेरा की ही तरह मिलवां फसलें हुआ करती थीं। बाड़ी में घरों के पीछे कई तरह की हरी सब्जियां और मौसमी फल और मोटे अनाज लगाए जाते थे। जैसे भटा, टमाटर, हरी मिर्च, अदरक, भिंडी, सेमी (बल्लर), मक्का, ज्वार आदि होते थे। मुनगा, नींबू, बेर, अमरूद आदि बच्चों के पोषण के स्रोत होते थे। इसमें न अलग से पानी देने की जरूरत थी और न ही खाद। जो पानी रोजाना इस्तेमाल होता था उससे ही बाड़ी की सब्जियों की सिंचाई हो जाती थी। लेकिन इनमें कई कारणों से कमी आ रही है।

चूंकि अलग-अलग समय में फसलें पकती हैं, इसलिए परिवार के सदस्य ही कटाई कर लेते हैं। इस कारण न तो अतिरिक्त महंगे श्रम की जरूरत पड़ती है और न ही हार्वेस्टर की। जिससे ग्लोबल वार्मिंग का खतरा है। यानी यह परंपरागत खेती खाद्य सुरक्षा, मिट्टी के संरक्षण, पशुपालन में मददगार, जैवविविधता व पर्यावरण का संरक्षण सभी दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। यह खेती की सर्वोत्तम विधि है जिसका कोई विकल्प अब तक नहीं है।
( इंक्लूसिव मीडिया फैलोशिप 2011 के तहत यह रिपोर्ट लिखी गई है)
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