ताकि न रहे कार्बन फुटप्रिंट का नामोनिशान
20 Jan 2020
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ताकि न रहे कार्बन फुटप्रिंट का नामोनिशान

टी वी रामाचन्द्र, भरत सेत्तुर, विनायक एस, भरत एच ऐथल, योजना, जनवरी, 2020

पेरिस में हुए जलवायु परिवर्तन समझौते में भारत ने 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 33-35 प्रतिशत कमी करने का वादा किया था जिसके लिए जरूरी है कि परती भूमि पर तत्काल स्थानीय प्रजातियों के पेड़-पौधे लगाकर ‘कार्बन कैप्चर’ को तत्काल कम किया जाए, भूमि के उपयोग और भूमि के आच्छादन का विनियमन किया जाए और नवीकरणीय और चिरस्थाई ऊर्जा विकल्पों का बड़े पैमाने पर उपयोग करके डीकार्बनाइजेशन यानी कार्बनमुक्त करने की प्रक्रिया को शुरू किया जाए। इस लेख में पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील पश्चिमी घाट क्षेत्र की मिसाल लेकर इस विषय का गहराई से अध्ययन किया गया है।

ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती के तापमान में असामान्य वृद्धि और मानवजनित ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बेतहाशा बढ़ने से लोगों की आजीविका पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। औद्योगिक युग से पहले कार्बन डाइऑक्सइड का उत्सर्जन 280 पीपीएम था, जो आज 400 पीपीएम के स्तर पर पहुँच गया है। इसके परिणामस्वरूप जलवायु में बदलाव आया है, पारिस्थितिकीय प्रणाली की उत्पादकता गिरी है और पानी का आधार घट गया है। मानवजनित गतिविधियों जैसे बिजली के उत्पादन, कृषि और उद्योग आदि में जीवाश्म ईंधन जलाने, पानी के स्रोतों के प्रदूषित होने और शहरी गतिविधियों से धरती के वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बहुत अधिक बढ़ गई है और इनमें कार्बन डाइऑक्साइड का हिस्सा 72 प्रतिशत के बराबर है। पारिस्थितिकीय प्रणाली की गतिविधियों को बरकरार रखने के लिए वायुमंडल से कार्बन डाइ ऑक्साइड का अवशोषण कर ग्रीन हाउस गैसों की उपस्थिति को संतुलित करना जरूरी हो गया है। कार्बन को अवशोषित करने में वनों की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका है और वे करीब 45 प्रतिशत कार्बन को अवशोषित कर ग्लोबल वार्मिंग के असर को कम करने में मदद करते हैं।

भूमि उपयोग भूमि आच्छादन की प्रक्रिया से वनों का ह्रास होता है और जमीन का खराब होना ग्लोबल वार्मिंग का प्रमुख कारण है क्योंकि इससे कार्बन उत्सर्जन होता है और कार्बन क्षमता में गिरावट आती है। पश्चिमी घाट जैव विविधता के 36 वैश्विक केन्द्रों में से एक हैं और इस क्षेत्र के वन वायुमंडलीय कार्बन का अवशोषण करते हैं जिससे दुनिया की जलवायु को सामान्य बनाए रखने में मदद मिलती है। इस क्षेत्र में 4,600 प्रजातियों के फूलवाले पौधे पाए जाते हैं (38 प्रतिशत स्थानिक), 330 प्रकार की तितलियां (11 प्रतिशत स्थानिक), 156 सरीसृप (62 प्रतिशत स्थानिक), 508 पक्षी (4 प्रतिशत स्थानिक) 120 स्तनपाई (12 प्रतिशत स्थानिक), 289 मछलियां (41 प्रतिशत स्थानिक) और 135 उभयचर (75 प्रतिशत स्थानिक) पाई जाती हैं। यह क्षेत्र 1,60,000 वर्ग किमी. में फैला हुआ है और इसे भारत का वाटर टावर माना जाता है क्योंकि अनेक धाराएं यहाँ से निकलती हैं और लाखों हेक्टेयर भूमि से जल की निकासी करती हैं। पश्चिमी घाट की नदियाँ प्रायद्वीपीय भारत के राज्यों के 24.5 करोड़ लोगों को पानी और भोजन की सुरक्षा उपलब्ध कराती हैं। इस क्षेत्र में उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनों के साथ-साथ आर्द्र पर्णपाती वन, झाड़ीदार वन, वनखंड और सामान्य व अत्यधिक वर्षा वाले सवाना वन हैं जिसमें से 10 प्रतिशत वन क्षेत्र ही कानूनी संरक्षण के अन्तर्गत है।

भूमि उपयोग के तौर-तरीकों का आकलन लैंडसैट 8 ऑपरेशन लैंड इमेजर (ओएलआई-30 एम रिजॉल्यूशन) 2018 के पृथ्वी सम्बन्धी दूर संवेदन आंकड़ों से किया गया और उन्हें क्षेत्रीय अनुमानों और इंटरनेशनल जीओस्फेयर-बायोस्फेयर कार्यक्रम (आईजीबीपी) से उपलब्ध दशकीय भूउपयोग अनुमानों (1985, 1995, 2005-100 मीटर रिजॉल्यूशन) के साथ समन्वित किया गया। इस तरह समन्वित किए गए आनुषंगिक आंकड़ों में आंकलन के फ्रेंच संस्थान द्वारा बनाए गए वनस्पति मानचित्र, उष्मकटिबंधीय मानचित्र (सर्वे ऑफ इंडिया) और वर्चुअल अर्थ डेटा (गूगल अर्थ, भुवन) को भी लिया गया था। वनों की पारिस्थितिकीय प्रणाली की कार्बन अवशोषित करने की क्षमता का आकलन (1) मानक बायोमास परीक्षणों पर आधारित लिखित साहित्य; और (2) कर्नाटक के पश्चिमी घाट वाले इलाके के वनों से ट्रांसेक्ट आधारित क्वाड्रेंट सैम्पलिंग तकनीक से एकत्र किए गए क्षेत्र आधारित मापनों से किया गया।

चित्र 1: पश्चिमी घाट का भूमि उपयोग (एल यू) विशलेषण 1985-2018 तक। चित्र 2: वनों का विखंडन 1985-2018।

चित्र 1 में दिए गए भू-अंतरिक्ष भूमि उपयोग विश्लेषण से मानवीय दबाव से वन क्षेत्र के नुकसान का पता चलता है। इस क्षेत्र में 1985 में 16.21 प्रतिशत क्षेत्र में सदाबहार वन थे जो 2018 में 11.3 प्रतिशत क्षेत्र में ही सिमट कर रह गए। यहां क्रमशः 17.92 प्रतिशत, 37.53 प्रतिशत, 4.88 प्रतिशत क्षेत्र बागान, कृषि, खनन और निर्मित इलाके के अन्तर्गत है। भू-उपयोग में बदलाव मोनोकल्चर यानी एक ही प्रकार के बागान, जैसे अकेशिया, यूकेलिप्टस, साल और रबड़ लगाने, विकास परियोजनाओं और कृषि विस्तार के कारण हुआ है। 1983 से 2018 के दौरान इस क्षेत्र में आस-पास के अंदरूनी क्षेत्र में वन आच्छादन नष्ट हुआ है जबकि वनेतर आच्छादन में बढ़ोत्तरी (11 प्रतिशत) हुई है। इस इलाके में अंदरूनी वन (जो 2018 में 25 प्रतिशत क्षेत्र में थे) प्रमुख संरक्षित क्षेत्र में हैं और लगातार बढ़ते मानवीय दबाव की वजह से सीमांत वन अधिक महत्त्वपूर्ण होते जा रहे हैं। (चित्र 2)। गोवा में अंधाधुंध खनन गतिविधियों की वजह से अंदरूनी वनाच्छादित क्षेत्र की बड़े पैमाने पर क्षति हुई है। 2031 के अनुमानित भूमि उपयोग आंकड़ों के अनुसार कृषि क्षेत्र और निर्मित क्षेत्र में क्रमश: 39 प्रतिशत और 5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी का पता चलता है। पश्चिमी घाट के पूर्वी केरल, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में कृषि और निर्मित क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बदलावों को देखा जा सकता है। अनुमान है कि पश्चिमी घाट में 2031 तक सदाबहार वन क्षेत्र सिमट कर 10 प्रतिशत ही रह जाएगा जिससे पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो जाएगा इसका असर प्रायद्वीपीय भारत के लोगों की खाद्य सुरक्षा और आजीविका पर पड़ने की आशंका है।

कार्बन अवशोषण

पश्चिमी घाट की कार्बन अवशोषण क्षमता का मात्रात्मक आंकलन कर लिया गया है जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि इस क्षेत्र के वन बायोमास के अनोखे भंडार हैं। यह आकलन वायुमंडलीय कार्बन (मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न) और ग्लोबल वार्मिंग के असर को कम करने में वनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को भी रेखांकित करता है। पश्चिमी घाट के दक्षिणी और मध्यवर्ती भागों में घने स्थानीय वन हैं और यहाँ की भूमि कार्बन से समृद्ध है (0.42 एमजीजी)। इसी तरह का रुझान मिट्टी में वृद्धिशील कार्बन अवशोषण में भी देखा गया है जिसमें इसकी मात्रा 15120 जीजी और पश्चिमी घाट के कर्नाटक तथा मध्यवर्ती केरल वाले इलाके में वार्षिक कार्बन वृद्धिशीलता के ऊंचे स्तर पर है। अगर उत्पादकता के जरिए होने वाली कार्बन क्षति को छोड़ दिया जाए तो कुल वृद्धिशील कार्बन की मात्रा 37507.3 जीजी बैठती है। पश्चिमी घाट में कार्बन अवशोषण क्षमता में होने वाले बदलाव का आंकलन भूमि उपयोग (1) संरक्षण परिदृश्य और (2) रोजमर्रा की गतिविधियों के परिदृश्य में भूमि संभावित उपयोग के आंकड़ों के आधार पर किया जाता है। रोजमर्रा की गतिविधियों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने से (जिसमें भूमि उपयोग में बदलाव से वनाच्छादित क्षेत्र में कमी का वर्तमान रुझान है) धरातल पर 1.3 एमजीजी के बायोमास पता चलता है जिसमें भंडारित कार्बन 0.65 एमजीजी और मृदा कार्बन 0.34 एमजीजी है।

कार्बन फुटप्रिंट

भारत में जहाँ कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन 3.1 एमजीजी (2017) और प्रति व्यक्ति कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन 2.56 मीट्रिक टन के बराबर है और यहाँ के कार्बन फुटप्रिंट में ऊर्जा क्षेत्र (68 प्रतिशत), कृषि क्षेत्र (19.6 प्रतिशत), औद्योगिक प्रकियाओं के (6 प्रतिशत) और भूमि के उपयोग में बदलाव (3.8 प्रतिशत) से होने वाले उत्सर्जन तथा वानिकी (1.9 प्रतिशत) का योगदान है। भारत के प्रमुख महानगरों में ऊर्जा, परिवहन, औद्योगिक क्षेत्र, कृषि, पशुधन प्रबंधन और अपशिष्ट क्षेत्र का वार्षिक कार्बन उत्सर्जन करीब 1.3 एमजीजी के बराबर है जिसमें दिल्ली (38633.20 जीजी), ग्रेटर मुम्बई (22783.08 जीजी), चेन्नई (22090.55 जीजी), बंगलुरु (19796.6 जीजी), कोलकाता (14812.1 जीजी), हैदराबाद (13734.59 जीजी) और अहमदाबाद (6580.4 जीजी) है।

पारिस्थतिकीय दृष्टि से नाजुक पश्चिमी घाट कार्बन फुटप्रिंट को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इनमें सभी दक्षिण भारतीय शहरों से होने वाले कार्बन डाइ ऑक्साइड को अवशोषित करने की क्षमता है। यहीं नहीं ये भारत के कुल कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन का 1.62 प्रतिशत अवशोषित कर सकते हैं। पश्चिमी घाट के राज्यों से कुल उत्सर्जन 352922.3 जीजी (टेबल 1) था और इनके जंगलों में 11 प्रतिशत उत्सर्जन अवशोषित करने की क्षमता है जो कार्बन कम करके जलवायु को सामान्य बनाने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करता है। भारत ने पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौता वार्ता में 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 33-35 प्रतिशत कमी करने की वचनबद्धता व्यक्ति की थी। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि कार्बन कैप्चर पर तत्काल अमल किया जाए। इसके लिए उजड़े हुए जंगलों के स्थान पर स्थानीय प्रजातियों के पेड़ लगाए जाने चाहिए और भूमि उपयोग और भूमि आच्छादन सम्बन्धी विनियमों में बदलाव किए जाएं। इसके अलावा नवीकरणीय ऊर्जा और चिरस्थाई ऊर्जा विकल्पों पर बड़े पैमाने पर अमल करके कार्बन मुक्ति का प्रयास किया जाना चाहिए। इसके लिए (1) पारिस्थितिकी की दृष्टि से नाजुक क्षेत्रों की हिफाजत की जानी चाहिए; (2) ‘प्रदूषण फैलाने वाला भुगतान करे’ के सिद्धान्त के अनुसार लगातार ज्यादा उत्सर्जन करने वालों को हतोत्साहित किया जाए (3) क्लस्टर आधारित विकेन्द्रित विकास दृष्टिकोण लागू किया जाए, और (4) उत्सर्जन में कमी के लिए प्रोत्साहन दिए जाएं। कार्बन ट्रेडिंग की अवधारणा ने कार्बन को अवशोषित करने की भारतीय वनों की क्षमता के महत्व को मौद्रिक रूप में साबित कर दिया है। पश्चिमी घाट के वनों की पारिस्थितिकीय प्रणाली 30 डॉलर प्रति टन की दर से 100 अरब रुपए मूल्य (1.4 अरब डॉलर) की है। कार्बन क्रेडिट प्रणाली और सहभागियों की भागीदारी को सुचारु बनाने से वनों का दुरुपयोग काफी हद तक कम हो जाएगा र किसानों को पेड़ लगाने तथा दूसरे बेहतरीन उपयोग के लिए जमीन का इस्तेमाल करने की प्रेरणा मिलेगी।

टेबल 1 - पश्चिमी घाट के राज्यों में कार्बन उत्सर्जन

राज्य/केन्द्रशासित प्रदेश

उत्सर्जन (जीजी) प्रति वर्ष

कुल (जीजी)

कार्बन की कमी की गई (जीजी) प्रति वर्ष

प्रतिशत कमी

CH (C02 समतुल्य

CO(C02 समतुल्य)

CO2

गोवा

233

337

3881

4451

872

20

गुजरात

15546

14498

79138

109182

1947

2

कर्नाटक

15662

15239

54337

85237

10401

12

केरल

3167

6108

26047

35321

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