विस्थापन, अभाव और विकास की प्रक्रिया
कुछ भी हो, यह याद रखा जा सकता है कि कुछ लोग विस्थापन के मुद्दे पर यह नजरिया रखते हैं कि यह तो इतिहास से चला आ रहा है। इस नजरिए से वे विस्थापितों के मसले पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का विरोध दरकिनार करने की कोशिश करते हैं। लेकिन तथ्य यह है कि समस्या को इसलिए नहीं टाला जा सकता क्योंकि यह अब पुरानी हो चुकी है। हमें याद रखना चाहिए कि कई अन्य क्षेत्रों जैसे लिंग समानता, लोकतंत्र आदि में भी जागरूकता हाल ही के वर्षों में बढ़ी है। विस्थापन और अभाव को पैदा करने वाला विकास इन दिनों मानवाधिकार का मुद्दा माना जा रहा है। न केवल अध्ययन बल्कि जमीनी अनुभव से भी यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि देश के विकास के नाम पर लोगों को उनकी आजीविका से वंचित किया जा रहा है, वे हाशिए पर धकेले जा रहे हैं और उनकी विपन्नता बढ़ती ही जा रही है। यह मुद्दा पश्चिम बंगाल के सिंगूर व नंदीग्राम, ओड़ीशा के नियामगिरि और काशीपुर, उत्तरप्रदेश व हरियाणा में हाइवे के खिलाफ जनांदोलन, मैंगलोर व नवी मुंबई में सेज के खिलाफ आंदोलन व ऐसे ही अन्य जन संघर्षों के चलते राष्ट्रीय स्तर पर उभरा है। ऐसे आंदोलनों ने कानूनों, निर्णय प्रक्रिया व ऐसी ही अन्य गलत प्रक्रियाओं पर सवाल खड़े किए हैं जिनकी वजह से लोगों को विस्थापित होना पड़ा या बेहद लचर पुनर्वास झेलना पड़ा।
ऐसे तमाम उपाय उन लोगों के अधिकारों के खिलाफ जाते हैं जो ऐसी परियोजनाओं की वजह से विस्थापित होते हैं या अभाव झेलते हैं, अथवा अपनी आजीविका से वंचित कर दिए जाते हैं। इस विफलता का सबसे प्रमुख कारण विकास का निर्धारित करने वाली विचारधारा है। इसके चलते मानवीय विकास की जगह आर्थिक विकास को ज्यादा तवज्जो दी जाती है। अध्ययन बताते हैं कि विस्थापन तथा आजीविका से बेदखली व विकास की वर्तमान सोच का ही नतीजा है कि ताकतवर और भी ज्यादा ताकतवर बनते जाते हैं तथा कमजोर पहले से कहीं ज्यादा अभावग्रस्त होकर और भी हाशिए पर चले जाते हैं। यही वजह है कि विस्थापन के अध्ययन में विकास के प्रतिमान केंद्र में आ जाते हैं। विकास प्रतिमानों से संबद्ध पूर्वानुमानों का परीक्षण जरूर होना चाहिए और अगर ये सही साबित हो जो समस्याओं के निदान के उपाय ढूंढे जाने चाहिए।
इस नतीजे तक पहुंचने के लिए हमें भारत में विस्थापन की प्रक्रिया को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखकर समझना चाहिए। इस पेपर में स्वतंत्रता से पहले विस्थापन की स्थिति तथा 1947 के बाद राष्ट्रीय विकास के संदर्भ में लोगों को उनकी आजीविका से वंचित करने के संदर्भ में ध्यान दिया गया है। साथ ही इस पेपर में यह चर्चा भी होगी कि भू-उपयोग कितने तरह के तथा किस हद तक किए गए हैं तथा विस्थापित व परियोजना प्रभावित व्यक्तियों पर इसका कितना असर पड़ा है।
1. विस्थापन तथा अभाव
पलायन, आपदा तथा संघर्ष के नतीजे में आंतरिक विस्थापन
विकास की वजह से होने वाले आईडीपी
2. विस्थापन, अलगाव और विकास प्रतिमान
उपनिवेश युग में विस्थापन व अभाव
विस्थापन और विकास प्रतिमान
भरोसे मंद आंकड़ों का अभाव
सारणी 1 : निजी तथा सार्वजनिक भू-प्रयोग का विस्तार व अनुपात (हैक्टेयर में.)
राज्य | निजी | % | सार्वजनिक | % | वन | % | जानकारी नहीं | % | कुल |
आंध्रप्रदेश | 684725.10 | 67.99 | 255077.73 | 25.33 | 67362.75 | 06.69 | 00 | 00 | 1007165.59 |
असम | 159205.14 | 28.06 | 316041.66* | 55.71 | 92034.49 | 16.23 | 567281.29 | ||
गोवा | 12649.74 | 77.85 | 2880.00 | 17.72 | 720.00 | 04.43 | 00 | 00 | 16249.74 |
गुजरात | 3126527.00 | 61.54 | 312653.00 | 6.15 | 1641427.00 | 32.31 | 00 | 00 | 5080607.00 |
झारखंड | 344952.75 | 55.11 | 141226.07 | 22.56 | 139710.67 | 22.32 | 00 | 00 | 625889.49 |
केरल | 66759.25 | 43.00 | 1222.32 | 0.79 | 40673.62 | 26.20 | 46608.33 | 30.02 | 155263.52 |
ओडिशा | 399859.05 | 41.81 | 267648.15 | 27.99 | 288845.85 | 30.20 | 00 | 00 | 956353.05 |
प.बंगाल | 1600404.86 | 82.98 | 328340.08* | 17.02 | 00 | 00 | 1928744.94 |
• असम तथा पश्चिम बंगाल में वन-सार्वजनिक संसाधन भूमि पूरी तरह आवंटित नहीं हुई है। इस वजह से नका कुल सार्वजनिक राजस्व भूमि में शामिल किया गया है : स्रोत : फर्नाडीज 2008 ए:
विस्थापित तथा पुनवर्सित किए लोगों की संख्या के आंकड़ों का अभाव यह दर्शाता है कि सामाजिक परिप्रेक्ष्य का हमारा नजरिया कितना कमजोर है। इस कमी की वजह से डीपी लोगों की संख्या को लेकर विवाद की स्थिति बन गई है। उदाहरण के तौर पर, अरुंधती राय (1999) ने बड़े बांधों से विस्थापित 5.6 करोड़ लोगों का जिक्र किया है। यह आंकड़ा लोक प्रशासन संस्थान के अनुमान पर आधारित है। सुरजीत भल्ला (2001) उनके इस आंकड़े को यह कहकर चुनौती दी कि हर बड़े बांध से होने वाले डीपी का औसत 1360 है। दोनों ही तथ्य अशुद्ध आंकड़ों के आधार पर कहे गए थे। उन्होंने सभी बड़े बांधों को एक ही श्रेणी में रख दिया था।
लेकिन बांधों की ऊंचाई तथा डूब क्षेत्र अलग-अलग होती हैं। बड़े बांध 15 मीटर से 300 मीटर तक की ऊंचाई के हो सकते हैं। इस तरह उन्हें उनके प्रभाव व ऊंचाई के मुताबिक प्रमुख व मध्यम श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। उनके डीपी/पीएपी की संख्या भी तदनुसार बदलती रहती है, जैसा कि निम्न अध्ययनों में आया भी है, आंध्रप्रदेश में (फर्नांडीज 2001), गोवा (फर्नांडीज एवं नाइक 2001), झारखंड (एकता एवं आसिफ 2000), केरल (मुरिकन 2003), ओडिशा (फर्नांडीज तथा आसिफ 1997) तथा गुजरात (लोबो एवं कुमार 2009) के मुताबिक देश के 4200 बड़े बांधों में से 300 प्रमुख हैं। अन्य मध्यम श्रेणी के हैं। एक बड़े या प्रमुख बांध से 25,000 से 250,000 तक लोग विस्थापित होते हैं। एक मध्यम श्रेणी के बांध से 400 से 8,000 तक लोग प्रभावित होते हैं। जाहिर है कि भल्ला का औसत मध्यम श्रेणी तक के बांधों की तुलना में बेहद कम है जबकि अरुंधती राय का अनुमान से कहीं ज्यादा।
1990 की शुरुआत में कुछ शोधकर्ताओं ने भरोसेमंद आंकड़ों के अभाव को दूर करने की कवायद शुरू की। मौजूदा अध्ययनों से निकाले गए द्वितीयक आंकड़ों के आधार पर यह आंकड़ा 2 करोड़ 13 लाख डीपी/पीएपी तक (150-1990 फर्नांडीज 1998: 231) पहुंचा। इस अध्ययन से साफ पता चलता है कि अधिकांश आधिकारिक आंकड़े अनुमान से कम रखे गए हैं। उदाहरण के तौर पर हीराकुंड से विस्थापित लोगों का आधिकारिक आंकड़ा 110,000 (ओडिशा सरकार 1968) था, लेकिन शोधकर्ताओं ने यह आंकड़ा 180,000 (पटनायक, दास एवं मिश्रा 1987)। इसी तरह त्रिपुरा में डुंबर बांध से विस्थापित परिवारों की आधिकारिक संख्या 2,583 रखी गई जबकि वास्तव में 9,000 परिवार या 40,000 व्यक्ति थे (भौमिक 2003: 84)। असम में नलबाड़ी जिले के पगलाडिया बांध के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक विस्थापित परिवारों की संख्या 3,271 थी, जबकि जमीनी आंकड़ों के मुताबिक प्रभावितों की यह संख्या 20,000 परिवार (भराली 2004) थी।
सारणी 2 : कुछ राज्यों में डीपी/पीएपी की संख्या, जहां अध्ययन किया गया *
राज्य/वर्ष | 1951-1995
| 1947-2000 | 1947-04 | 65-95 | कुल | ||||
प्रकृति | आंध्रप्रदेश | झारखंड | केरल | ओड़ीशा | असम | बंगाल | गुजरात | गोवा | |
जल | 1865471 | 232968 | 133846 | 800000 | 448812 | 1723990 | 2378553 | 18680 | 7602320 |
उद्योग | 539877 | 87896 | 222814 | 158069 | 57732 | 403980 | 140924 | 3110 | 1614402 |
खनन | 100541 | 402882 | 78 | 300000 | 41200 | 418061 | 4128 | 4740 | 1271630 |
ऊर्जा | 87387 | मौजूद नहीं | 2556 | मौजूद नहीं | 7400 | 146300 | 11344 | 0 | 254987 |
रक्षा | 33512 | 264353 | 1800 | मौजूद नहीं | 50420 | 119009 | 2471 | 1255 | 472820 |
पर्यावरण | 135754 | 509918 | 14888 | 107840 | 265409 | 784952 | 26201 | 300 | 1845262 |
यातायात | 46671 | 0 | 151623 | मौजूद नहीं | 168805 | 1164200 | 1356076 | 20190 | 2907565 |
शरणार्थी | मौजूद नहीं | मौजूद नहीं | 0 | मौजूद नहीं | 283500 | 500000 | 646 | एक भी नहीं | 78416 |
कृषिफार्म | मौजूद नहीं | मौजूद नहीं | 6161 | मौजूद नहीं | 11389 | 110000 | 7142 | 1745 | 238937 |
मानव आवास | मौजूद नहीं | मौजूद नहीं | 14649 | मौजूद नहीं | 90970 | 220000 | 16343 | 8500 | 350462 |
स्वास्थ्य | मौजूद नहीं | मौजूद नहीं | NA | मौजूद नहीं | 23292 | 84000 | मौजूद नहीं | 1850 | 109142 |
प्रशासनिक | मौजूद नहीं | मौजूद नहीं | NA | मौजूद नहीं | 322906 | 150000 | 7441 | 3220 | 483567 |
कल्याण | 37560 | 0 | 2472 | मौजूद नहीं | 25253 | 720000 | 20470 | मौजूद नहीं | 805755 |
पर्यटन | 0 | 0 | 343 | 0 | 0 | 0 | 26464 | 640 | 27447 |
शहरी | 103310 | 0 | 1003 | NA | 1241 | 400000 | 85213 | 1750 | 592517 |
अन्य | 265537 | 50000 | 0 | 100000 | 18045 | 0 | 15453 | 84 | 449875 |
कुल | 3215620 | 154807 | 552233 | 1465909 | 1918874 | 6944492 | 4098869 | 66820 | 19810834 |
* बीते 15 वषों में विस्थापन की समझ बढ़ी, इस पर अध्ययन भी किए गए हैं; इसी वजह से ओडीशा व आंध्रप्रदेश में अध्ययन के दौरान जहां बहुत ही कम श्रेणियां थीं, वहीं गोवा के अध्ययन में सबसे ज्यादा।
स्रोत: फर्नांडीज 2008एः 93
कुछ शोधकर्ताओं ने इस द्वितीयक आंकड़ों के आधार पर अनुमानित संख्या का अभिलेखीय तथा जमीनी आधार पर हुए अध्ययनों से मिले आंकड़ों से तुलनात्मक अध्ययन किया तथा 1951-1995 तक के सभी विस्थापनों का आंकड़ा निकाला। ओड़ीशा (फर्नांडीज तथा आसिफ 1997), झारखंड (एक्का तथा आसिफ 2000), आंध्रप्रदेश (फर्नांडीस 2001), केरल (मुरिक्कन 2003), 1965-2001 तक गोवा (फर्नांडीज तथा नाइक 2001), पश्चिम बंगाल में 1947-2000 तक (फर्नांडीज 2006), असम (फर्नांडीज तथा भराली 2006), मेघालय, मिजोरम तथा त्रिपुरा (फर्नांडीज तथा भराली 2010) तथा गुजरात में 1947-2004 (लोबो तथा कुमार 2009)। ये तथा अभी भी जारी ऐसे ही अन्य अध्ययनों से पता चलता है कि विकास परियोजनाओं में 1951 तथा 95 तक आंध्रप्रदेश, ओड़ीशा तथा झारखंड में हर परियोजना में 10 लाख हैक्टेयर जमीन ली गई, पश्चिम बंगाल में 20 लाख हैक्टेयर जमीन, असम में 567,000 हैक्टेयर, गुजरात में 20 लाख हैक्टेयर से ज्यादा, गोवा में कुल जमीन का 5 फीसदी तथा केरल में कुल जमीन का 3.5 फीसदी जमीन विकास परियोजनाओं की भेंट चढ़ गई। अध्ययनों से यह भी संकेत मिले कि विकास परियोजनाओं में वर्ष 2000 तक कुल ढाई करोड़ हैक्टेयर जमीन ली गई।
इसका 60 फीसदी हिस्सा निजी तथा जबकि शेष सार्वजनिक जमीन थी (सारणी1)।अधिकांश बांधों ने जो जमीन डुबोई उसका दो तिहाई हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र का था। इससे पता चलता है कि आखिर डीपी/पीएपी की संख्या क्यों इतनी कम अनुमानित है तथा क्यों हर 10 डीपी में 6 पीएपी होते हैं। उदाहरण के तौर पर हीराकुंड अधिकारियों ने सार्वजनिक जमीन पर निर्भर लोगों की संख्या गिनी ही नहीं। जबकि शोधकर्ताओं ने उन्हें शामिल कर यह संख्या 180,000 तक पहुंचा दी। आंधप्रदेश के नागार्जुनसागर बांध में डूबी 70,000 एकड़ जमीन का दो तिहाई हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र का था। इस वजह से यह दावा किया गया कि बांध से केवल 30,000 लोग ही विस्थापित हुए, क्योंकि इनमें सार्वजनिक क्षेत्र के प्रभावितों को गिना ही नहीं गया (फर्नांडीज 2001 : 61-63)।
इन अध्ययनों के आधार पर पहले के आंकड़ों को सुधारा गया। ओड़ीशा में 16 लाख डीपी/पीएपी की पहचान की गई जबकि आंधप्रदेश में 32 लाख की। इनमें से 80 प्रतिशत परियोजनाएं 1951-95 तक की थीं। झारखंड तथा केरल में करीब 60 प्रतिशत परियोजनाओं का अध्ययन किया गया। गुजरात में लगभग सभी परियोजनाओं के अध्ययन से यह संख्या 43 लाख डीपी/पीएपी तक पहुंची, वहीं पश्चिम बंगाल में ऐसे लोगों की संख्या 70 लाख रही। असम में यह आंकड़ा 19 लाख था जबकि गोवा में 60,000 (सारणी 2)। पुराने आंकड़ों को अपडेट किया जाए तो ओड़ीशा तथा झारखंड में 10 से 25 लाख तक डीपी/पीएपी होंगे। आंध्रप्रदेश में 40 लाख, केरल में 10 लाख तथा गोवा में यह संख्या एक लाख होगी। इस अध्ययन में छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र तथा मध्यप्रदेश सरीखे उच्च विस्थापन दरों वाले राज्यों को शामिल नहीं किया गया है। इन आंकड़ों के आधार पर तथा अभी भी जारी अध्ययनों के आधार पर मोटे तौर पर 1947-2000 तक कुल डीपी/पीएपी लोगों की संख्या 6 करोड़ तक पहुंचती है (फर्नांडीज 2008 : 93)।
कमजोर पुनर्वास
पुनर्बसाहट
सारणी 3 : डीपी तथा पुनर्बसाहट किए गए लोगों की संख्या
राज्य | डीपी | पुनर्बसाहट | %पुनर्बसाहट |
आंध्रप्रदेश | 1526813 | 440090 | 28.82 |
असम | 307024 | 11000 | 03.59 |
गोवा | 15950 | 5375 | 33.63 |
गुजरात | 690322 | 164498 | 23.82 |
केरल | 219633 | 30036 | 13.68 |
ओड़ीशा | 548794 | 192840 | 35.27 |
प. बंगाल | 3634271 | 400000 | 11.18 |
कुल | 6942807 | 1243839 | 17.94 |
स्रोत : फर्नाडीज 2008-95
अंगुल में अधिग्रहीत की गई जमीन का 18 प्रतिशत हिस्सा सार्वजनिक था, इसमें सड़कें, तालाब व स्कूलों आदि को विस्थापित किया गया। वहीं कोरापुट में 58 प्रतिशत अधिग्रहीत जमीन सार्वजनिक साझा संसाधन की थी जिन पर आदिवासियों की आजीविका निर्भर थी। न तो यह बदली गई ना ही इसका मुआवजा दिया गया। उन्हें प्रति एकड़ औसतन 2,700 रुपए की दर से मुआवजा बांट दिया गया, जबकि अंगुल में पट्टाधारियों को 25,000 हजार रुपए प्रति एकड़ का मुआवजा मिला (फर्नांडीज तथा राज 1992: 92)।
हमें पुनर्वास नीति को इसी संदर्भ में समझने की जरूरत है। 1960 में कुछ प्रशासकों ने महसूस किया कि भूमि अधिग्रहण समाज में बढ़ती असमानता की एक बड़ी वजह है, और इसीलिए इसकी प्रक्रिया में बदलाव लाया जाना चाहिए। तब खाद्य, कृषि, सहकारिता तथा सामुदायिक विकास मंत्रालय जो बाद में ग्रामीण विकास मंत्रालय बना, की ओर से एक 17 सदस्यीय विषेशज्ञों का समूह बनाया गया। इसे भूमि अधिग्रहण से संबंधित प्रक्रिया तथा कानूनों के अध्ययन का काम सौंपा गया। वर्ष 1967 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में इस समूह ने कई प्रमुख बदलाव संबंध सुझाव दिए (गुहा, 2007)। इसी वर्ष टीएन सिंह फार्मूला के तहत सार्वजनिक क्षेत्र की खदानों तथा उद्योगों से होने वाले विस्थापितों के हर परिवार को एक नौकरी दिए जाने का सुझाव दिया गया। वर्ष 2004 में घोषित पहली पुनर्वास नीति के पहले तक यही एकमात्र केंद्रीय सुझाव था जो पुनर्वास की झलक देता था। अपनी कमियों के बावजूद यह सही दिशा में उठाया गया एक कदम था। हालांकि मशीनीकरण के साथ-साथ अकुशल नौकरियों के अवसर घटने लगे और स्कोप (स्टैंडिंग कमिटी ऑफ पब्लिक एंटरप्राइजेस) ने इस फार्मूले को 1986 में खारिज कर दिया (एमआरडी 1993)।
इसके 18 वर्ष बाद गृह मंत्रालय के कल्याण विभाग ने आदिवासी पुनर्वास के अध्ययन के लिए एक समिति का गठन किया। इसकी जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग ने पाया कि 1951-1980 के बीच हुए डीपी/पीएपी में से 40 फीसदी आबादी आदिवासियों की थी। इस समिति ने पुनर्वास नीति की जरूरत को स्वीकार करते हुए सुझाव दिया कि यह सभी डीपी पर लागू होनी चाहिए ना कि महज आदिवासियों पर। साथ ही यह भी कहा कि नीति का क्रियान्वयन कानूनी बाध्यताओं के साथ होना चाहिए (भारत सरकार 1985)। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने आठ साल इसके लिए इंतजार किया, जब तक विश्व बैंक ने सरदार सरोवर परियोजना से अपने हाथ पीछे नहीं खींच लिए। इसके बाद कहीं जाकर नीति का एक प्रारूप तैयार किया गया (एमआरडी 1993), तथा इसको 1994 में संशोधित किया गया (एमआरडी 1994)।
1993 के प्रारूप में यह स्वीकारा गया था कि हजारों, लाखों डीपी के साथ अन्याय किया गया है, और उनका पुनर्वास नहीं हो पाया है। इसने यह भी जिक्र किया कि स्कोप (स्टैंडिंग कमिटी ऑफ पब्लिक एंटरप्राइजेस) की ओर से टीएन सिंह फार्मूले को खारिज कर दिया गया, जबकि न्याय की मांग यह है कि आदिवासियों और दलितों की विशेष जरूरतों को देखते हुए एक खास नीति बनाई जानी चाहिए। इस वजह से इस मुद्दे पर मंत्रालय की चिंता उनके प्रति नजर आई जो विकास की कीमत चुकाते हैं। वर्ष 1994 में पुनर्वास नीति के प्रारूप में 16 मंत्रालयों और विभागों की प्रतिक्रिया दर्ज थी, जो वास्तव में सरकार का नजरिया दर्शाती थी। इसने पहले की असफलताओं के सभी संदर्भ, यहां तक कि स्कोप की सिफ़ारिश को भी भुला दिया। बल्कि इसकी शुरुआत ही यह कहते हुए हुई कि नई आर्थिक नीति के लागू होने के बाद भारतीय व विदेशी निजी निवेशकों द्वारा और ज्यादा जमीनों का अधिग्रहण किया जाएगा। इसकी वजह से पुनर्वास नीति की जरूरत और शिद्दत से महसूस हुई (एमआरडी 1994: 1.1-1.4)। हालांकि इसके पीछे सारा जोर उदारीकरण का था ना कि डीपी/पीएपी की भलाई का।
एक हजार से भी ज्यादा सामाजिक कार्यकर्ताओं के समूह, शोधकर्ताओं, कानूनी कार्यकर्ताओं तथा हजारों डीपी/पीएपी ने पुनर्वास नीति के प्रारूप का विश्लेषण किया और नीति का एक विकल्प तैयार कर दिया। यह प्रक्रिया एक साल से भी ज्यादा समय तक चली और समन्वय ने कुछ ऐसे सिद्धांत विकसित किए जिनके आधार पर नीति तथा कानूनों को बनाया जाना चाहिए था। यह वैकल्पिक नीति सचिव, ग्रामीण विकास, भारत सरकार को अक्टूबर 1995 की शुरुआत में ही दे दी गई। ( फरवरी 1997 तक की सभी नीतियों, कानूनों, प्रारूपों तथा आलोचनाओं को देखें फर्नांडीज एवं परांजपे 1997)। तीन साल बाद ग्रामीण क्षेत्र व रोजगार से जुड़े मंत्रालय ने एक और प्रारूप (एनपीआरआर 1997) विकसित किया, इसमें एलएक्यू में कई संशोधन किए गए थे (एलएबी 1998)। नागरिक समूहों के समन्वय ने विश्लेषण के बाद पाया कि प्रारूप नीति का आधा हिस्सा तो स्वीकार करने योग्य है लेकिन यह भी पाया कि उसके सभी सिद्धांत खारिज कर दिए गए हैं। इस तरह एक बार फिर उन्होंने मंत्रालय के साथ विभिन्न विकल्पों पर चर्चा का दौर शुरू कर दिया। ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से जनवरी 1999 में बुलाई गई एक बैठक में इस बात पर अलिखित सहमति बन गई कि नागरिक समूहों के परामर्श से एक नीति बनाई जाएगी तथा कानून का प्रारूप भी विकसित होगा जिसमें उक्त सिद्धांतों को समाहित किया जाएगा।
विस्थापन की वजह से अधिकांश आदिवासी, दलित व अन्य ग्रामीण गरीब, खासतौर पर महिलाओं का नुकसान होता है। विस्थापन तथा वंचित रहने की वजह से इन वर्गों के अधिकांश डीपी/पीएपी उपेक्षित कर दिए जाते हैं। हालांकि विस्थापन तथा वंचितों के मुद्दे का एक अहम अंग डीपी/पीएपी का प्रकार तथा इस मुद्दे पर राष्ट्रीय जागरूकता का अभाव है। पुनर्बसाहट किए गए लोगों में से अधिकांश का पुनर्वास न हो पाने का एक अहम कारण यह है कि अधिकांश डीपी आदिवासी, दलित या अन्य ग्रामीण गरीब होते हैं जिनका समाज के अन्य वर्गों के साथ औपचारिक परिचय नहीं होता। हालांकि वर्ष 2003 में एक नीति बनाई गई और 2004 में बिना किसी सलाह-मशवरे के लागू कर दी गई। डीपी/पीएपी के अध्ययन में शामिल ज्यादातर लोगों का मानना था कि यह नीति बेहद कमजोर है (फर्नांडीज 2004)। इसलिए केंद्र सरकार की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने जो मई 2004 से अस्तित्व में आई, ने एक नई नीति का प्रारूप तैयार किया जिसे अधिकांश लोगों ने स्वीकार करने योग्य माना क्योंकि यह उनके विचारों से मिलती-जुलती थी (सेठी 2006)। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने इससे संबंधित एक अन्य प्रारूप तैयार किया जिसमें 2004 की नीति को थोड़ा और बेहतर किया गया था (सिंह 2006)। हालांकि केंद्र सरकार ने बाद वाली नीति की संशोधित नीति के तौर पर 31 अक्टूबर 2007 को घोशणा कर दी और पुनर्वास विधेयक तथा भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन के लिए प्रस्ताव भी तैयार कर लिया। इन दस्तावेजों की भूमिका काफी सीमित थी। इन सभी प्रारूपों तथा नीतियों में विस्थापन को बेहद सामान्य तौर पर लिया गया था।
हालांकि प्रारूप के दस्तावेजों के जरिए मंत्रालयों के प्रशासनिक अधिकारियों ने विस्थापन के दुष्प्रभावों की ओर ध्यान दिया और इसी संदर्भ में डीपी/पीएपी को राहत पहुंचाने की कोशिश की गई। हालांकि कई ताकतवर मंत्रालयों, जिनके इस मसले पर व्यापारिक हित जुड़े हुए थे ने इस प्रयासों को काफी हद तक सीमित कर दिया। इन सारे हालात के बीच नागरिक समूहों ने अनसुने तबके की आवाज बनने की अपनी मुहिम जारी रखी। इस वजह से प्रारूप में कुछ सुधार लाया जा सका। लेकिन इससे संबंधित अंतिम नीतियां तथा भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास से संबंधित विधेयकों ने ये प्रयास दृष्टिगत नहीं हो सके। इनमें डीपी/पीएपी के हितों की बजाय व्यावसायिक हित ज्यादा नजर आए।
लाचारी से बदहाली तक
कमजोर तबके की उपेक्षाः
हमले की जद में गरीबः
सारणी 4: कुछ राज्यों में डीपी/पीएपी में जाति-आदिवासी अनुपात
राज्य | आदिवासी | % | दलित | % | अन्य | % | जानकारी नहीं | % | कुल |
आंध्रप्रदेश | 970654 | 30.19 | 628824 | 19.56 | 1467286 | 45.63 | 148856 | 04.63 | 3215620 |
असम* | 416321 | 21.80 | जानकारी नहीं | जानकारी नहीं | 609015 | 31.90 | 893538 | 46.30 | 1918874 |
गोवा* | जानकारी नहीं | जानकारी नहीं | जानकारी नहीं | जानकारी नहीं | जानकारी नहीं | जानकारी नहीं | 66820 | 100 | 66820 |
गुजरात | 1821283 | 44.43 | 462626 | 11.29 | 1791142 | 43.70 | 23818 | 0.58 | 4098869 |
झारखंड | 620372 | 40.08 | 212892 | 13.75 | 676575 | 43.71 | 38178 | 02.47 | 1548017 |
केरल | जानकारी नहीं | जानकारी नहीं | जानकारी नहीं | जानकारी नहीं | जानकारी नहीं | जानकारी नहीं | 552233 | 100 | 552233 |
ओडीशा | 616116 | 40.38 | 178442 | 11.64 | 671351 | 48.01 | 0 | 0 | 1465909 |
प. बंगाल | 1330663 | 19.16 | 1689607 | 24.33 | 25662233 | 36.95 | 1357999 | 19.55 | 6944492 |
कुल | 5775409 | 29.15 | 3172391 | 16.01 | 7781592 | 39.28 | 3081442 | 15.55 | 19810834 |
स्रोत :
फर्नांडीज 2008 : 94
आदिवासियों व दलितों की संख्या के अनुमान से कम होने तक ही बात सीमित नहीं है। भूमि अधिग्रहण कानून में केवल उन्हीं को मान्यता मिलती है जो पट्टाधारक हैं। इसलिए केवल वही आधिकारिक आंकड़ों में शामिल हो सकते हैं। अधिकांश आदिवासी जो पारंपरिक तौर पर वनों तथा अन्य सामुदायिक साझा संसाधनों पर निर्भर हैं, इस गिनती में शामिल नहीं हैं। इसका उदाहरण छत्तीसगढ के राजनांदगांव में दल्ली राजहरा खदान, ओड़ीशा में हीराकुंड तथा आंध्रप्रदेश में नागार्जुनसागर के हैं, जिनका जिक्र पहले ही किया जा चुका है। अधिकांश दलित भूमिहीन मजदूर हैं और उनके पास अपना पट्टा तक नहीं है। वे गांव में अपने समुदाय के साथ सेवाओं के आदान-प्रदान पर निर्भर हैं। इसी वजह से वे डीपी/पीएपी के तहत गिनती में शामिल नहीं होते। जहां उनकी संख्या ज्यादा है वहां बड़े अनुपात में शामिल हैं। उदाहरण के तौर पर वे केरल में नेदुमबेसरी एअरपोर्ट के विस्थापितों में 43 प्रतिशत हैं। लेकिन पुनर्वास के नतीजों पर कई बार आश्चर्य होता है। कई पीएपी जो बेहतर परिवारों के हैं, समृद्ध जिलों में निवास करते हैं, अपनी उन जमीनों की बेहतर कीमत पा जाते हैं जो बहुत उपजाऊ नहीं है। जैसा कि ओड़ीशा के अंगुल जिले में कोयले की खदानों और नालको प्लांट के डीपी/पीएपी की स्थिति में हुआ (फर्नांडीज तथा राज 1992 : 123-125)।
अधिकांश आदिवासी तथा दलित न तो मुआवजे के पात्र बने और ना ही उनका पुनर्वास हो सका। ऐसे में उनकी आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक हालत में काफी गिरावट आ गई। उदाहरण के तौर पर सुप्रीमकोर्ट ने यह जानने के लिए ‘ओम्बड्समैन’ की नियुक्ति की कि 1982 में दिल्ली में आयोजित एशियन गेम्स की सुविधाओं के लिए बन रहे ढांचों का काम कर रहे 150,000 निर्माण मजदूरों में से 30-40,000 बंधुआ मजदूर थे। इन्हें ठेकेदारों द्वारा यह लालच देकर दिल्ली लाया गया था कि उन्हें बगदाद भेजा जाएगा। दिल्ली में दासों जैसी हालत में रहने के बाद उन्हें इस बात की भी कोई उम्मीद नहीं रह गई थी कि वे अपने परिवारों के पास लौट पाएंगे। जब उनसे यह पूछा गया कि उन्होंने ठेकेदारों की बात क्यों मानी तो उन्होंने अपना बचपन हीराकुंड व ऐसी ही अन्य परियोजनाओं, औद्योगिकीकरण की वजह से हुए निर्वनीकरण तथा विस्थापन की भेंट चढ़ा दिया था। ऐसे में बेहतर नौकरी की बातों के कारण वे आसानी से ठेकेदार के जाल में फंस गए (फर्नांडीज 1986 : 268-271)।