मलजल-प्रदूषण से अटी पड़ी हैं भारत की नदियां
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पुस्तक अंश: नदियों के लिए न्याय का सवाल

कुशाग्र राजेंद्र का लेख ‘नदियों के लिए न्याय का सवाल’ नदियों के साथ हो रही ज़्यादती पर लगाम लगाने की ओर ले जाता है। भारत की नदियाँ मलजल-प्रदूषण, बाँध और दोहन से व्यथित हैं। ऐसे में, नदियों को ‘कानूनी व्यक्ति’ का दर्ज़ा देना एक ज़रूरी पहल है। गंगा, यमुना और नर्मदा पर ऐसी पहलों की कोशिश हो चुकी हैं। न्यूजीलैंड, बांग्लादेश और कनाडा ने भी नदियों को अधिकार दिए हैं। यह ज़रूरी है कि हम भी नदियों को सिर्फ़ पानी का स्रोत नहीं, एक जीवित इकाई समझें। क्या हम उन्हें उनका हक दे पाएंगे? इसी सवाल को यह लेख बड़े फलक पर रखता है। - संपादक
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जलवायु परिवर्तन से बिगड़ते मौसम, तेज़ बारिश और बादल फटने की घटनाओं बाँध बनाने और प्राकृतिक प्रवाह को बदले जाने से नदी तंत्र व्यापक स्तर पर बदल जाते हैं। नदी तंत्र में आते इस असंतुलन का असर भूस्खलन, तेज़ बाढ़ आदि के रूप में देखने को मिलता है। नदियों की संकटग्रस्त अवस्था के मूल में दोहन आधारित विकास का व्यापारिक और मानव केन्द्रित प्रारूप है, जिसका नियंत्रण नदी से सीधे जुड़े समुदाय के पास न होकर लालफीताशाही के हाथों में है। 

पिछले कुछ दशकों में इस प्रकरण में बड़े पैमाने पर नदियों से संबंधित सांस्कृतिक-आध्यात्मिक परंपराओं और नदी पारिस्थितिकी समझ की अनदेखी होती आयी है। पिछले कुछ दशकों में नदी में आप्त प्रदूषण की समस्या के निपटारे के लिए गंगा और यमुना जैसी कुछ प्रमुख नदियों को साफ़ करने के प्रयास सरकारी स्तर पर शुरू हुए। पर नदियों की छिछली समझ के साथ किए जा रहे इन प्रयासों में अरबों खर्च कर देने के बाद भी नदियों की स्थिति नहीं सुधरी है। 

लोककथाओं में न्याय की प्रतीक नदी

एक लोक कथा में एक नन्ही चिड़िया खूँटे में फंसे दाल के एक दाने को प्राप्त करने के लिए बढ़ई, लाठी, सांप, रानी, राजा, आग सभी से मदद और न्याय की गुहार लगाती है पर कोई भी उसकी मदद नहीं करता। अंत में, हारी और गुमसुम चिड़िया नदी के पास जाती है और नदी अपने रौद्र रूप के साथ हहराती हुई खूंटे तक आकर चिड़िया को दाल का दाना दिलाती है, न्याय देती है। आज नदी खुद अपने ऊपर हो रहे तमाम किस्म के अन्याय सह लेने को अभिशप्त है।

‘कानूनी व्यक्ति’ के रूप में नदियों को देखने की पहल 

जलवायु संकट और पर्यावरण क्षय की विकराल होती स्थिति के प्रभाव में पिछले कुछ सालों में नदी या यह कहें प्रकृति को मानवीय उपभोग के नज़रिये से न देखकर पर्यावरणीय दृष्टिकोण से देखने की समझ बनने लगी है। भारत सहित वैश्विक स्तर पर खासकर स्थानीय नदियों को प्रशासनिक और कानूनी सुरक्षा के दायरे में लाने की अनेक पहल हुई हैं। 

नदी अपने आप में सम्पूर्ण प्रकृति की प्रतिबिंब है। इसे केवल उपभोग के लिए नहीं बल्कि मानव, मानवेतर जीवन और भौतिक अव्ययों के एक तंत्र के रूप में देखा जाना चाहिए। ये एक-दूसरे की ज़रूरत और जटिल पारस्परिक सम्बन्धों के माध्यम से ना सिर्फ़ जुड़े हैं, बल्कि सम्यक रूप से नियंत्रित भी करते हैं। इसी कड़ी में प्रकृति के विभिन्न अव्ययों, जिसमें नदी प्रमुख है, को मानवीय दोहन से बचाने और इनके प्राकृतिक स्वरूप को संरक्षित करने के लिए इन्हें एक 'कानूनी व्यक्ति' के रूप में देखने की समझ विकसित हो रही है। यह आवश्यक भी है, ताकि एक जीवित व्यक्ति की तरह नदी की नदी के रूप में अविरल बहने की ज़रूरत को कानूनी जामा पहनाया जा सके।

कुछ ही सालों पहले उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने वर्ष 2017 में गंगा, यमुना, उन्हें पोषित करने वाले हिमनदों, सभी सहायक नदियों और सम्पूर्ण जलग्रहण क्षेत्र को समग्रता में कानूनी व्यक्ति की मान्यता दी। इसी संदर्भ को आगे बढ़ाते हुए नदी तंत्र को एक आम मनुष्य की तरह सारे कानूनी अधिकारों के योग्य माना। 

उसी साल मध्य प्रदेश विधानसभा ने प्रदेश की जीवनदायिनी नदी नर्मदा को जीवित इकाई का दर्जा दिये जाने के शासकीय संकल्प को पारित किया। इसी तरह के एक फैसले में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने चण्डीगढ़ के महत्त्वपूर्ण पानी के स्रोत 'सुखना झील' को जीवित व्यक्ति की संज्ञा दी। 

बांग्लादेश में नदी संरक्षण आयोग को बनाया अभिभावक

राष्ट्रीय नदी संरक्षण आयोग को अभिभावक का दर्जा देते हुए, बांग्लादेश के उच्चतम न्यायालय ने ‘तुराग’ सहित देश की सभी नदियों को कानूनी व्यक्ति की मान्यता दी। साथ ही, आयोग को नदियों की सुरक्षा, संरक्षण, प्रदूषण मुक्त प्रवाह और अवैध कब्ज़े से मुक्ति सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी भी दी। 

हालांकि, भारतीय उच्चतम न्यायालय ने कानूनों पेचीदगियों का हवाला देते हुए नदियों के 'कानूनी व्यक्ति' के दर्जे सम्बन्धी विमर्श को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इन पेचीदगियों में नदियों में बाढ़ और सुखाड़ की स्थिति में आपदा की क्षतिपूर्ति के दावे का निपटारा प्रमुख है।

कहां से हुई नदी के कानूनी संरक्षण की शुरूआत

भारतीय संविधान ने प्रकृति और नदी के संरक्षण को अपने मूल नीति निर्देशक तत्त्वों में शामिल किया है। इक्वाडोर द्वारा प्रकृति के अविच्छेद्य अधिकार को संवैधानिक व्यवस्था (अनुच्छेद 10 और 71-74) में शामिल किए जाने को प्रकृति संरक्षण के लिए कानूनी मान्यता के विमर्श की वर्तमान शुरुआत माना जा सकता है। 

इन अनुच्छेदों में आम आदमी को प्रकृति के पक्ष से न्याय मांगने की व्यवस्था दी गयी है। न्यूजीलैंड ने तिउरेवेरा नेशनल पार्क, व्हगानुई नदी समेत समूचे पारिस्थितिकी तंत्र और माओरी जनजाति की श्रद्धा के केन्द्र तारानाकी पहाड़ को संसद से कानूनी व्यक्ति के तौर पर मान्यता दी। वहीं, बोलीविया ने ‘लॉ ऑफ मदर अर्थ’ पास किया। हाल ही में उसी तरह कनाडा के क्यूबेक राज्य की मैगपी नदी को संसद द्वारा एक आम इंसान की तरह सारे अधिकार दिये गये। 

नदी, जंगल, पारिस्थितिकी के अधिकार-आधारित कानूनों का उद्देश्य प्रकृति को केवल मानवीय सम्पति ना मानकर उनको उनके स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में स्वीकार करना है ताकि मनुष्य की देख-रेख में प्रकृति का सतत अस्तित्व और पारिस्थितिकी का विकास होता रहे। साथ ही, प्राकृतिक चक्रों को ना सिर्फ मानवीय परन्तु मानवेतर सन्दर्भ में भी बनाये रखा जा सके। 

नदियों को कानूनी पहचान देने से नदी में होने वाले मानव जनित दुष्परिणाम के खिलाफ न्यायिक सुरक्षा मिल जाती है। साथ ही, ज़िम्मेदार व्यक्ति या संस्था को जवाबदेह ठहराने की शक्ति भी मिलती है, जिसमें क्षतिपूर्ति और अन्य हक मिलना भी शामिल है। कानूनी सुरक्षा से नदी की मूल पहचान और प्रवृत्ति को बचाये रखने में प्रभावी मदद मिलती है। कानूनी रूप से नदी का स्थान एक मनुष्य के स्तर का हो जाता है, जिसमें उसके मौलिक अधिकारों के साथ-साथ मौलिक दायित्व भी निहित होते हैं।

वैश्विक उदाहरण: न्यायिक और प्रशासनिक ज़िम्मेदारी का संतुलन

प्रकृति जिसमें नदियाँ भी शामिल हैं, के 'कानूनी व्यक्तित्व' की अवधारणा अपेक्षाकृत एक नयी सोच है। सुप्रसिद्ध कानूनविद् क्रिस्टोफ़र डी. स्टोन मानते हैं कि पर्यावरण के महत्त्व को मानवीय महत्त्वाकांक्षा से अलग रखने की जरूरत है, जो अक्सर मानव की ज़रूरतों के आगे गौण हो जाता है। 

नदी का प्राकृतिक बहाव इसके कानूनी व्यक्तित्व की पहचान का आधार है। इस अवधारणा में वैसे सारे प्रकल्प जो नदी के बहाव और स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से और बड़े स्तर पर प्रभावित करते हैं, उनपर रोक लगाने का कानूनी अधिकार नदी को होगा जिसमें नदी पर बने बाँध, शहरी और औद्योगिक प्रदूषण, व्यापक स्तर पर मछली का शिकार आदि शामिल है। 

आम सरोकार के छोटे स्तर पर नदी आधारित स्थानीय अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से नदी के बहाव और स्वास्थ्य में सहायक होते हैं। इस अवधारणा में एक पेंच है कि नदी खुद अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय तो जाएगी नहीं, और इस काम के लिए नदी के लिए एक अभिभावक या संरक्षक की ज़रूरत होगी, जो नदी की ओर से नदी की समीक्षा करेगा और उसके कानूनी अधिकार सुनिश्चित करेगा। 

इस सन्दर्भ में बांग्लादेश ने राष्ट्रीय नदी संरक्षण आयोग को नदियों का अभिभावक नियुक्त किया है जो ना सिर्फ नदी को न्यायालय में प्रस्तुत करता है, बल्कि क्षतिपूर्ति से मिले धनराशि का सम्यक इस्तेमाल भी कर रहा है। इस आयोग ने बूढ़ीगंगा नदी में दूषित जल डालने वाली अनेक औद्योगिक इकाइयों को कानूनी तरीके से बन्द कराने में सफलता भी पायी है। वहीं, न्यूजीलैण्ड में संसद ने स्थानीय आदिम माओरी जनजाति के साथ सरकार के एक नामित प्रतिनिधि को नदी, पहाड़ सहित पारिस्थितिकी के अभिभावक का दर्जा दिया है। 

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भारत में नदियों को ‘जीवित इकाई’ का दर्ज़ा: प्रयास और रुकावटें

भारत के सन्दर्भ में यह विमर्श उसी साल लगभग खत्म हो गया जब सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय के उस आदेश को निरस्त कर दिया जिसमें गंगा और यमुना नदी के संरक्षण के उद्देश्य से इन्हें 'कानूनी व्यक्ति' का दर्जा देते हुए राज्य के मुख्य सचिव और महाधिवक्ता को उनका अभिभावक बनाया था।

दूसरी तरफ नर्मदा नदी को जीवित इकाई का दर्जा देने वाली प्रक्रिया राज्य के अफ़सरों की लालफीताशाही में न्यायालय की सीढ़ी तक भी नहीं पहुंच पायी। हालांकि, वैश्विक स्तर पर इस दिशा में पारिस्थितिकी और नदी संरक्षण में अच्छे काम हो रहे हैं पर सर्वोच्च न्यायालय ने क्षतिपूर्ति और मुआवजे जैसे मामूली कानूनी मसले का हवाला देते हुए, दूरगामी प्रभाव वाले इस विमर्श को खत्म ही कर दिया।

समस्या यह भी थी कि नदी से जुड़े समाज को नदी का अभिभावक न बनाकर सरकारी प्रतिनिधि को यह ज़िम्मा सौंप दिया गया था, जबकि नदी विघटन के अधिकतर मामलों में सरकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में शामिल रहती है। ऐसे में नदी के अभिभावक को पुनः परिभाषित करने की ज़रूरत थी, ताकि प्रकृति को एक 'कानूनी व्यक्ति' की पहचान देने के संदर्भ पर नदी संरक्षण के लिए भारत के आलोक में एक कामकाजी खाका बन जाता। पर सर्वोच्च कानूनी संस्था ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया। 

भारत में नदी तंत्र गहरे संकट से गुज़र रहा है और जलवायु परिवर्तन की स्थिति इसे और भयावह बना रही है। प्रदूषण, बाढ़, बाँध और नदी घाटी परियोजनाएं, बड़े क्षेत्र के जलमग्न होने से विस्थापन, जल बँटवारे संबंधी विवाद, बालू खनन, नदी बहाव का छिछला होना, बड़े पैमाने पर नदियों का सूख जाना आदि समस्याएँ पूरे नदी तंत्र के विघटन की ओर इशारा कर रही हैं। ऐसे में नदी और उससे जुड़ी पारिस्थितिकी को एक आदमी की तरह मौलिक अधिकार से लैस करना एक वैकल्पिक न्याय प्रणाली की शुरुआत है।

वास्तव में, नदी को एक जीवित आदमी यानी होमो सेपियंस के समान अधिकार देना कानूनी रूप से चाहे कितना भी जटिल हो, पर यह हमारी संयमित समृद्धि और प्रकृति के साथ मानवीय संबंधों के परीक्षण का भी अवसर है। नदी को जीवित व्यक्ति की कानूनी मान्यता देना, समाज को एक नयी दृष्टि देता है, ताकि प्रकृति के लिए सम्यक व्यवस्था का निर्माण हो सके। 

नदी के न्याय का सवाल रोज़-बरोज़ बड़ा होता जा रहा है

लोक कथाओं में जनमानस को न्याय देने वाली संस्था के प्रतीकात्मक रूप में स्थापित नदी का अस्तित्व बचाने के लिए आज उसे एक अदद जीवित व्यक्ति मानने पर भी सहमति नहीं बन पा रही है। हमारी परम्परा ने नदी को माँ माना है, पर आज हमारी विकास की भूख में नदी 'मानो तो मैं माँ हूँ', न होकर 'न मानो तो बहता पानी' होकर रह गयी है, जिसका बहाव अब शिथिल पड़ता जा रहा है। आज ज़रूरत है कि मनुष्य के लिए सदा से जीवनदायिनी रही नदियों को जीवित प्राणी का दर्ज़ा देकर उसके उद्गम से लेकर समुद्र से मिलने तक की सम्पूर्ण धारा को प्रदूषण और मानवीय गाँठों (अभियान्त्रिकी संरचनाओं) से मुक्त किया जाए।

आलेख साभार - 
पुस्तक : धरती का न्याय, 
लेखक: कुशाग्र राजेन्द्र

प्रकाशक: सेतु प्रकाशन, पृष्ठ: 122, मूल्य: 325 रु.

कुशाग्र राजेंद्र की विचारोत्तेजक पुस्तक धरती का न्याय पर्यावरण, सामाजिक न्याय और मानवीय मूल्यों पर केंद्रित है। यह धरती के साथ मानव के रिश्ते और प्रकृति के शोषण पर गहरा चिंतन करती है।

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