भारत में मानसून (Monsoon in India)
मानसून का पूर्वानुमान
भारत में मानसून की अवधि चार महीने यानी 1 जून से 30 सितम्बर तक मानी जाती है। इससे सम्बन्धित सभी भविष्यवाणियाँ 16 अप्रैल से 25 मई के दौरान की जाती हैं। मानसून विभाग लगभग 16 पैरामीटरों का बारीकी से अध्ययन कर मानसून की भविष्यवाणी करता है। इन 16 पैरामीटरों को चार भागों में बाँटा गया है और इन्हीं पैरामीटरों को आधार बनाकर मानसून के पूर्वानुमान निकाले जाते हैं। पूर्वानुमान निकालते समय तापमान, हवा, दबाव और बर्फबारी जैसे कारकों का ध्यान भी रखा जाता है।
समूचे भारत को विभिन्न भागों में बाँटा गया है। भारत के कुल 28 राज्य एवं 7 केन्द्र शासित क्षेत्र हैं जिनमें तापमान का प्रत्येक भाग में यंत्रों द्वारा अध्ययन किया जाता है। मार्च में उत्तर भारत के और पूर्वी समुद्री तट के मई में मध्य भारत के और जनवरी से अप्रैल तक उत्तरी गोलार्ध की सतह के अधिकतम एवं न्यूनतम तापमान नोट किये जाते हैं। तापमान के अलावा हवा का भी अध्ययन किया जाता है। वातावरण में छह किलोमीटर और 20 किलोमीटर ऊपर बहने वाली हवा के रूख को अलग-अलग महीनों में नोट किया जाता है। इसके साथ ही मानसून की भविष्यवाणी में वायुमंडलीय दबाव की भी अहम भूमिका है। वसंत ऋतु में दक्षिणी भाग का दबाव और समुद्री सतह का दबाव जबकि जनवरी से मई तक हिन्द महासागर में विषुवतीय दबाव को मापा जाता है। इसके बाद बर्फबारी का अध्ययन भी किया जाता है। मानसून की भविष्यवाणी में जनवरी से मार्च तक हिमालय के खास भागों में बर्फ का स्तर, क्षेत्र और दिसम्बर में यूरेशियन भाग में बर्फबारी की भी अहम भूमिका है। सारे पैरामीटरों के अध्ययन के लिये उपग्रह से आँकड़े एकत्र किये जाते हैं। इन सारे पैरामीटरों के अध्ययन में थोड़ी सी असावधानी या मौसम में किन्हीं प्राकृतिक कारणों से बदलाव का असर मानसून की भविष्यवाणी पर पड़ता है।
कैसे आता है मानसून?
एशिया और यूरोप का विशाल भूभाग, जिसका एक हिस्सा भारत भी है, ग्रीष्मकाल में गरम होने लगता है। इसके कारण उसके ऊपर की हवा गरम होकर उठने और बाहर की ओर बहने लगती है। पीछे रह जाता है कम वायुदाब वाला एक विशाल प्रदेश। यह प्रदेश अधिक वायुदाब वाले प्रदेशों से वायु को आकर्षित करता है। अधिक वायुदाब वाला एक बहुत बड़ा हिस्सा भारत को घेरने वाले महासागरों के ऊपर मौजूद रहता है क्योंकि सागर, स्थल भागों जितना गरम नहीं होता है और इसीलिये उसके ऊपर वायु का घनत्त्व अधिक रहता है। उच्च वायुदाब वाले सागर से हवा मानसून पवनों के रूप में ज़मीन की ओर बह चलती है। दक्षिण पश्चिमी मानसून भारत के ठेठ दक्षिणी भाग में जून 1 को पहुँचता है। साधारणतः मानसून केरल के तटों पर जून महीने के प्रथम पाँच दिनों में प्रकट होता है। यहाँ से वह उत्तर की ओर बढ़ता है और भारत के अधिकांश भागों पर जून के अन्त तक पूरी तरह छा जाता है।
अरब सागर से आने वाली पवन उत्तर की ओर बढ़ते हुए 10 जून तक मुम्बई पहुँच जाती है। इस प्रकार तिरूवनंतपुरम से मुम्बई तक का सफर वे दस दिन में बड़ी तेजी से पूरा करती हैं। इस बीच बंगाल की खाड़ी के ऊपर से बहने वाली पवन की प्रगति भी कुछ कम आश्चर्यजनक नहीं होती। यह पवन उत्तर की ओर बढ़कर बंगाल की खाड़ी के मध्य भाग से दाखिल होती है और बड़ी तेजी से जून के प्रथम सप्ताह तक असम में फैल जाती है। हिमालय रूपी विघ्न के दक्षिणी छोर को प्राप्त करके यह मानसूनी धारा पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। इस कारण उसकी आगे की प्रगति म्यांमार की ओर न होकर गंगा के मैदानों की ओर होती है।
मानसून कोलकाता शहर में मुम्बई से कुछ दिन पहले (साधारणतः जून 7 को) पहुँच जाता है। मध्य जून तक अरब सागर से बहने वाली हवाएँ सौराष्ट्र, कच्छ व मध्य भारत के प्रदेशों में फैल जाती हैं।
इसके पश्चात बंगाल की खाड़ी वाली पवन और अरब सागर वाली पवन पुनः एक धारा में सम्मिलित हो जाती हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, पूर्वी राजस्थान आदि बचे हुए प्रदेश 1 जुलाई तक बारिश की पहली बौछार अनुभव करते हैं।
उपमहाद्वीप के काफी भीतर स्थित दिल्ली जैसे किसी स्थान पर मानसून का आगमन कौतूहल पैदा करने वाला विषय होता है। कभी-कभी दिल्ली की पहली बौछार पूर्वी दिशा से आती है और कभी बंगाल की खाड़ी के ऊपर से बहने वाली धारा का अंग बनकर दक्षिण दिशा से आती है। मौसमशास्त्रियों को इस बात का निश्चय करना कठिन हो जाता है कि दिल्ली की ओर इस दौड़ में मानसून की कौन सी धारा विजयी होगी। मध्य जुलाई तक मानसून कश्मीर और देश के अन्य बचे हुए भागों में भी फैल जाता है। परन्तु एक शिथिल धारा के रूप में ही, क्योंकि तब तक उसकी सारी शक्ति और नमी खत्म हो चुकी होती है।
सर्दी में जब स्थल भाग अधिक जल्दी ठंडे हो जाते हैं तब प्रबल, शुष्क हवाएँ उत्तर-पूर्वी मानसून बनकर बहती हैं। इनकी दिशा गर्मी के दिनों की मानसून हवाओं की दिशा से विपरीत होती हैं। उत्तर-पूर्वी मानसून भारत के स्थल और जल भागों में जनवरी की शुरुआत तक, (जब एशियाई भूभाग का तापमान न्यूनतम होता हैं), पूर्ण रूप से छा जाता है। इस समय उच्च दाब की एक पट्टी पश्चिम में भूमध्य सागर और मध्य एशिया से लेकर उत्तर भाग में फैली होती है। बादलहीन आकाश, बढ़िया मौसम, आर्द्रता की कमी व हल्की उत्तरी हवाएँ इस अवधि में भारत के मौसम की विशेषताएँ होती हैं। उत्तर-पूर्वी मानसून के कारण वर्षा परिमाण में तो कम, परन्तु सर्दी की फ़सलों के लिये बहुत लाभकारी होती है।
उत्तरी-पूर्वी मानसून तमिलानाडु में विस्तृत वर्षा मानसून काल में ही करता है। सम्पूर्ण भारत के लिये औसत वर्षा की मात्रा 117 सेंटीमीटर है। वर्षा की दृष्टि से भारत एक ऐसा देश है जिसके एक भाग में प्रायः बाढ़ की स्थिति और दूसरे भाग में सूखे की स्थिति देखने को मिलती है। चेरापुँजी में साल में 1100 सेंटीमीटर वर्षा होती है, तो जैसलमेर में केवल 20 सेंटीमीटर ही। मानसून काल भारत के किसी भी भाग के लिये निरन्तर वर्षा का समय नहीं होता। कुछ दिनों तक वर्षा निर्बाध रूप से होती रहती है, जिसके बाद कई दिनों तक बादल चुप्पी साध लेते हैं। वर्षा का आरम्भ भी समस्त भारत या उसके काफी बड़े क्षेत्र के लिये अक्सर विलम्ब से होता है। कई बार वर्षा समय से पहले ही समाप्त हो जाती है या देश के किसी हिस्से में अन्य हिस्सों से कई अधिक वर्षा हो जाती है। यह अक्सर होता है और बाढ़ और सूखे की विषम परिस्थितियों से देश को जूझना पड़ता है।
भारत में वर्षा का वितरण पर्वत श्रेणियों की स्थिति पर काफी हद तक आधारित है। यदि भारत में मौजूद सभी पर्वत हटा दिये जाएँ तो वर्षा की मात्रा बहुत घट जाएगी। मुम्बई और पुणे में पड़ने वाली वर्षा इस तथ्य को बखूबी दर्शाती है। मानसूनी पवन दक्षिण पश्चिमी दिशा से पश्चिमी घाट को आने लगती है जिसके कारण इस पर्वत के पवनाभिमुख भाग में भारी वर्षा होती है। मुम्बई शहर, जो कि पश्चिमी घाट के इस ओर स्थित है, में लगभग 187.5 सेंटीमीटर वर्षा होती है, जबकि पुणे, जो कि पश्चिमी घाट के पवनाभिमुख भाग से केवल 160 किलोमीटर के फासले पर स्थित है, में मात्र 50 सेंटीमीटर वर्षा होती है।
पर्वत श्रेणियों के कारण होने वाली वर्षा का एक अन्य उदाहरण उत्तर-पूर्वी भारत में स्थित चेरापूँजी है। इस छोटे से कस्बे में वर्ष में औसतन 1100 सेंटीमीटर तक वर्षा होती है जो एक समय विश्वभर में सर्वाधिक समझी जाती थी। यहाँ वर्षा वाले प्रत्येक दिन 100 सेंटीमीटर तक वर्षा हो सकती है। यह विश्व के अनेक हिस्सों में वर्ष भर में होने वाली वर्षा से भी अधिक है।
चेरापूँजी खासी पहाड़ियों के दक्षिणी ढलान में दक्षिण से उत्तर की ओर जाने वाली एक गहरी घाटी में स्थित है। इस पहाड़ी की औसत ऊँचाई 1500 मीटर है। दक्षिण दिशा से बहने वाली मानसूनी हवाएँ इस घाटी में आकर फँस जाती हैं और अपनी नमी को चेरापूँजी के ऊपर उड़ेल देती हैं। एक कौतूहलपूर्ण बात यह है कि चेरापूँजी में अधिकांश बारिश सुबह के समय होती है।
चूँकि भारत के अधिकांश भागों में वर्षा केवल मानसून के तीन चार महीनों में होती है, बड़े तालाबों, बाँधों और नहरों से दूर स्थित गाँवों में शेष महीनों में पीने के पानी का संकट हो जाता है। उन इलाकों में भी जहाँ वर्षाकाल में पर्याप्त बारिश होती है। पानी के संचयन की व्यवस्था की कमी के कारण मानसून पूर्व काल में लोगों को कष्ट सहना पड़ता है।
भारतीय वर्षा न केवल बहुत भारी होती है बल्कि एक बहुत छोटी सी अवधि में ही हो जाती है, जिसके कारण वर्षाजल को ज़मीन के नीचे उतरने का अवसर नहीं मिल पाता। वर्षाजल तुरन्त बहकर बरसाती नदियों के सूखे पाटों को कुछ दिनों के लिये भर देता है और बाढ़ का कारण बनता है। ज़मीन में कम पानी रिसने से वर्षभर बहने वाले झरने कम ही होतेे हैं और पानी को सोख लेने वाली हरियाली पनप नहीं पाती। हरियाली रहित खेतों में वर्षा की बड़ी-बड़ी बूँदें मिट्टी को काफी नुकसान पहुँचाती हैं। मिट्टी के ढेले उनके आघात से टूटकर बिखर जाते हैं और अधिक मात्रा में मिट्टी का अपरदन होता है।
मानसून : समय में परिवर्तन
आज ग्लोबल वार्मिंग का असर पूरे भारत में साफ दिखाई देने लगा है। गत 37 वर्षों के मौसम सम्बन्धी आँकड़ों के विश्लेषण से साफ है कि प्रदेश में मानसून करीब 7 से 8 दिन की देरी से आ रहा है। तीन-चार दशक पहले की तरह अक्टूबर के दौरान अब अच्छी बारिश नहीं हो रही है। मौसम विभाग भी मानसून के आगमन की तारीख बदलने की तैयारी में जुट गया है। ऐसी स्थिति में कृषि योजना सहित खेती से जुड़ी सारी योजनाओं को नए सिरे से प्लान करना होगा।
मौसम विभाग के अनुसार छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और विदर्भ में मानसून के प्रवेश की सामान्य तिथि 10 जून होती है। लेकिन पिछले साढ़े तीन दशक के आँकड़े अलग ही कहानी कह रहे हैं। इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय के कृषि मौसम वैज्ञानिकों ने मानसून के प्रवेश की सही तारीख का पता लगाने के उद्देश्य से वर्ष 1971 से लेकर 2008 तक के आँकड़ों का विश्लेषण किया जिसके फलस्वरूप यह ज्ञात हुआ कि इन 37 सालों में सबसे जल्दी मानसून 1971 में (तीन जून को) आया था। मानसून के सर्वाधिक विलम्ब से पहुँचने का रिकार्ड 1987 का है, जब बारिश की पहली झड़ी पाँच जुलाई को आई थी।
वैज्ञानिकों का कहना है कि मानसून के प्रदेश में प्रवेश की तारीख का औसत 18 जून है। इस तिथि से छह दिन आगे या पीछे (यानि 12 से 24 जून के बीच) मानसून आने लगा है। इस अवधि में केवल पाँच साल (1971, 1977, 1984, 1993, 2001) मानसून 18 जून के पहले और तीन साल (1987, 2006, 2008) इस तिथि के बाद आया। इस दौरान जून में बारिश का औसत 194 मिमी आ रहा है। मानसून का समय बदलने के पीछे सबसे अहम वजह ग्लोबल वार्मिंग है।
किसी एक दिन में बहुत ज्यादा बारिश या बहुत लम्बे समय तक सूखा इसके स्पष्ट संकेत हैं। ग़ौरतलब है कि 2007 में 18 जून को एक ही दिन में 370 मिमी बारिश हुई थी। 11 जून 2004 में भी 173 मिमी बारिश हुई थी। मौसम विभाग का अनुमान है कि आने वाले सालों में जलवायविक परिवर्तनों (क्लाइमेटिकल चेंजेज) की वजह से उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र (ट्राॅपिकल एरिया) में बारिश कम होगी।
वर्ष | औसत वर्षा के दिन |
1951-80 | 44.3 |
1990-99 | 43.8 |
2000-09 | 40.6 |
मौसम विभाग के निदेशक एम एल साहू ने बताया कि 10 जून की तारीख वर्ष 1950 से 1980 तक के आँकड़ों के आधार पर तय की गई है, जबकि उसके बाद मौसम में काफी बदलाव आये हैं। 1980 से 2008 तक के आँकड़ों के आधार पर एक रिपोर्ट मुख्यालय को भेजी जा चुकी है। मध्य भारत में इसके हिसाब से मानसून के आने की तारीख करीब एक हफ्ते बाद 16 जून के आसपास की आ रही है।
वर्षा : दिन हो रहे हैं कम
सामान्यतः एक दिन में 3 मिमी या उससे अधिक बारिश होने पर उस दिन को वर्षा वाला दिन माना जाता है। सन् 2009 के मानसून में 3 मिमी से अधिक बारिश वाले दिनों की कुल संख्या 31 रही है जो पिछले 20 सालों में सबसे कम है। पिछले दो दशकोें के बारिश के आँकड़े बताते हैं कि राजधानी में वर्षा वाले दिनों की औसत संख्या 1980 के पूर्व के औसत की तुलना में लगातार घट रही है।
वर्ष | वर्षा के दिन | वर्ष | वर्षा के दिन | वर्षा | वर्षा के दिन |
2009 | 31 | 2002 | 41 | 1996 | 46 |
2008 | 40 | 2001 | 38 | 1995 | 42 |
2007 | 38 | 2000 | 37 | 1994 | 47 |
2006 | 47 | औसत | 40.6 | 1993 | 46 |
2005 | 41 | 1999 | 50 | 1992 | 36 |
2004 | 34 | 1998 | 40 | 1991 | 39 |
2003 | 59 | 1997 | 39 | 1990 | 53 |
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| औसत | 43.8 |
वैज्ञानिक इस तरह कम हो रहे वर्षा के दिनों की दीर्घकालीन औसत को राजधानी में जलवायु परिवर्तन की दस्तक मान रहे हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान, नई दिल्ली में जल-मौसम विज्ञान के अनुसार जलवायु परिवर्तन किसी स्थान पर तापमान, बारिश या आर्द्रता के दीर्घकालीन औसत (सामान्यतः एक या दो दशक या उससे अधिक) में आये परिवर्तनों के रूप में व्यक्त होता है। वर्षा के दिन कम होना और अतिवृष्टि की घटनाएँ बढ़ना जलवायु परिवर्तन के कई लक्षणों में से एक है।
वर्षा वाले दिन कम होने का अनुभव आज शहर के नागरिक भी कर रहे हैं। पर्यावरण पर नजर रखने वाले बागची का कहना है कि पहले सात-सात दिनों तक बारिश नहीं रुकती थी। उस दौरान लगातार कभी तेज तो कभी धीमी बारिश होती ही रहती थी। अब तो दिन में 3-4 घंटे लगातार बारिश होना भी बड़ी बात लगती है। जुलाई-अगस्त में कुछ दिन तेज बारिश होती है तो कुछ दिन तेज धूप और सूखा रहता है। यह जलवायु परिवर्तन के ही लक्षण हैं। प्रतिवर्ष कम हो रहे वर्षा के दिनों की जानकारी को निम्न सारणी में दर्शाया गया है:
ग्लोबल वार्मिंग के कारण मानसून में देरी
वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के कारण अगली सदी तक विश्व के ग्रीष्मकालीन मानसून में पाँच से पन्द्रह दिन का विलम्ब हो सकता है। इसके अतिरिक्त भारत सहित दक्षिण एशिया के बड़े हिस्से में वर्षा का स्तर काफी कम भी हो सकता है। अध्ययन के अनुसार वैश्विक तापमान में वृद्धि से मानसून पूर्व की ओर रूख कर सकता है, जिससे हिन्द महासागर, म्यांमार और बांग्लादेश में तो खूब बारिश होगी लेकिन पाकिस्तान, भारत तथा नेपाल में वर्षा का स्तर कम ही रहेगा। इस वजह से वर्षा का मौसम भी लम्बे समय बाद आने की आशंका होगी और पश्चिमी भारत, श्रीलंका तथा म्यांमार के कुछ समुद्रतटीय इलाकों में औसतन वर्षा में बढ़ोत्तरी होने से घातक बाढ़ आने का खतरा भी बढ़ सकता है।
डाॅ. रमा मेहता, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की से सम्बद्ध हैं।
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(Definition) 1. A monsoon is a seasonal reversal of surface winds and their associated precipitation, caused by the differential heating of a land mass and its adjacent ocean.