जलवायु परिवर्तन
ग्लोबल वॉर्मिंग का जन्तर गाँधी के पास
गाँधी अध्ययन के कुछ अध्येताओं ने छानबीन की तो पता चला कि गाँधी के लेखन या चिन्तन में ‘पर्यावरण’ शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। वैसे यह एक भाषागत मुद्दा है न कि वैचारिक। बहरहाल, पर्यावरण को लेकर आज जो भी आशय प्रकट किए जाते हैं या चिन्ता जताई जा रही है, गाँधी उससे पूरी तरह जुड़े दिखाई पड़ते हैं। आज जो सबसे बड़ा संकट-दुविधा दुनिया के सामने है, वह है तकनीक और विकास के अटूट साझे का उभरना।
‘‘ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैरह की खोज करना आता नहीं था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग यंत्र वगैरह की झंझट में पड़ेंगे तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ देंगे।”
‘‘हमें अपने हाथ-पैरों से जो काम हो सके वही करना चाहिए। हाथ-पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तन्दुरुस्ती है।”
श्रम आधारित उद्योग-शिल्प
“मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहाँ की हवा अब हिन्दुस्तान में चल रही है। यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महापाप है। मशीन की यह हवा अगर ज्यादा चली तो हिन्दुस्तान की बुरी दशा होगी।”
विकास की समावेशी दरकार
“गाँधी ऐसे पर्यावरणविद नहीं थे जो सभी प्रकार के जीवन के बीच अन्त:सम्बन्धों को मानते हुए भी मानव जातियों की उत्तरजीविता के प्रति उदासीन थे। वास्तव में पारिस्थितिकीय मामले उनकी सामाजिक व्यवस्था के मूल्य आवश्यकता मॉडल पर ध्यान केन्द्रित करने से उभरे हैं, जो प्रकृति का दोहन अल्पकालीन लाभों के लिये नहीं करेगा, बल्कि इससे केवल वही लेगा जो मानव का अस्तित्व बनाए रखने के लिये अत्यन्त आवश्यक है। गाँधी को स्वीकार करना पड़ा कि न चाहते हुए भी प्रकृति के प्रति कुछ मात्रा में हिंसा करनी पड़ती है। हम बस यह कर सकते हैं कि जहाँ तक हो सके इसे कम-से-कम करें।”
“ऐसा समय आएगा जब अपनी जरूरतों को कई गुना बढ़ाने की अन्धी दौड़ में लगे लोग अपने किये को देखेंगे और कहेंगे, ये हमने क्या किया?”
“गाँधी ने अपनी आधी सदी से अधिक चिन्तन के दौरान यह सिद्ध करने का अनवरत प्रयास किया कि लगातार धरती के पर्यावरण के विनाश की कीमत चुका कर अन्धाधुन्ध औद्योगीकरण आर्थिक दृष्टि से भी निरापद नहीं है। गाँधी हमें यह देखने की दृष्टि देते हैं कि हमारे जल-जंगल-जमीन के लगातार भयावह रूप से छीजने से हो रही भीषण हानि के सहस्रांश की भी भरपाई की क्षमता हमारे सुरसा की तरह बदन बढ़ते उद्योगों में नहीं है। इसका आर्थिक मूल्य अर्थशास्त्र की बारीकियों को बिना जाने भी समझा जा सकता है। गाँधी-चिन्तन का यह प्रबल उत्तर आधुनिक पक्ष है।”
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