जलवायु परिवर्तन - एक विकट समस्या | Climate Change in Hindi
ग्रीनहाउस गैसों का सान्द्रण विशेषकर कार्बन डाइऑक्साइड का सान्द्रण बीते कई दशकों के दौरान विद्युत उत्पादन जैसे ताप विद्युत उत्पादन में कोयले का अधिक प्रयोग और जीवाश्म ईंधन का अधिक प्रयोग होने के कारण बढ़ गया है। 18वीं सदी में औद्योगिक क्रान्ति के समय से वातावरण में इसकी मात्रा लगातार बढ़ रही है। जो वर्तमान समय में बढ़कर 390 ppm हो गई है। मीथेन गैस की मात्रा भी मवेशियों के उत्पादन, चावल की उपज, रेफ्रीजरेटर व एसी के प्रयोग से बढ़ रही है। आज विश्व एक विकट समस्या का सामना कर रहा है। इस समस्या के दुष्परिणाम धीरे-धीरे दूनिया के सामने आ रहे हैं। यह समस्या है जलवायु परिवर्तन वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन के वैश्विक तथा क्षेत्रीय प्रभाव के कारण यह एक बहस का मुद्दा बना हुआ है। इसके दुष्परिणामों के कारण विश्व के अनेक देशों का संसार के मानचित्र से अस्तित्व खत्म हो जाएगा। अतः यह एक विकट समस्या का रूप धारण कर चुकी है और अब विश्व के सभी देशों को एकजुट होकर इस जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटना होगा।
जलवायु परिवर्तन का अर्थ समय के साथ-साथ जलवायु में होने वाले किसी भी परिवर्तन से है, फिर चाहे वह प्राकृतिक विचलनशीलता के कारण हो या मानव के क्रियाकलापों के परिणामस्वरूप हो। जलवायु परिवर्तन कई दशकों से लेकर लाखों वर्षों की अवधि के दौरान मौसम के स्वरूप में सांख्यिकीय वितरण में होने वाला महत्त्वपूर्ण एवं चिरस्थायी परिवर्तन है। जलवायु परिवर्तन किसी एक विशिष्ट क्षेत्र तक ही सीमित रह सकता है अथवा सम्पूर्ण पृथ्वी पर घटित हो सकता है।
जलवायु परिवर्तन के कारण
विस्तार रूप से जलवायु परिवर्तन के कारणों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:-
1. प्राकृतिक कारण।
2. मानवजनित अथवा मानवीय कारण।
1. प्राकृतिक कारण
(क) महाद्वीपीय पृथक्करण :- महाद्वीपों का निर्माण तब हुआ था, जब लाखों वर्ष पूर्व धरती का एक बड़ा हिस्सा धीरे-धीरे पृथक होना शुरू हुआ। इस अलगाव का जलवायु पर भी प्रभाव पड़ा था क्योंकि इसने धरती, उसकी अवस्थिति तथा जलमण्डलों की स्थिति कि भैातिक विशेषताओं को परिवर्तित कर दिया। धरती के विखण्डन ने महासागरीय धाराओं तथा पवनों के प्रवाह को भी परिवर्तित कर दिया, जिसका प्रभाव जलवायु पर पड़ा। महाद्वीपों का यह पृथक्करण आज भी जारी है। हिमालयी श्रेणी प्रत्येक वर्ष करीब एक मिलीमीटर तक बढ़ती जा रही है।
(ख) ज्वालामुखी :- ज्वालामुखी विस्फोट से काफी मात्रा में सल्फर डाइऑक्साइड (SO2), जलवाष्प, धुलकण तथा राख वायुमण्डल में बिखर कर फैल जाते हैं। हालांकि, ज्वालामुखी गतिविधियाँ कुछ दिनों की ही हो सकती हैं, लेकिन उससे भारी मात्रा में निकलने वाली गैसें तथा राख कई वर्षों तक जलवायु पैटर्न को प्रभावित कर सकते हैं।
(ग) महासागरीय धाराएँ : महासागर जलवायु व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण घटक होते हैं। वे पृथ्वी के 71 प्रतिशत भाग में फैले हैं। वायुमण्डल अथवा भूमि की सतह द्वारा जितना सूर्य के विकिरण का अवशोषण किया जाता है, ये उससे दोगुना अवशोषित करते हैं। महासागरीय धाराएँ धरती के चारों ओर से ताप की बहुत बड़ी मात्रा को स्थानान्तरित कर देती हैं जो वायुमण्डल द्वारा स्थानान्तरित की गई मात्रा के लगभग बराबर ही होता है। महासागरीय धाराओं को पवनों की दिशा में परिवर्तन करने अथवा उनकी गति को धीमा करने के लिये जाना जाता रहा है। महासागरों से बचकर निकल जाने वाला काफी सारा ताप जलवाष्प के रूप में होता है जो धरती पर प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली ग्रीनहाउस गैस है।
(घ) आर्कटिक के नीचे दबी मीथेन गैसः- वैज्ञानिक एरिक काट के नेतृत्व में नासा (NASA) के वैज्ञानिकों के एक दल ने आर्कटिक के वातावरण का कई स्तरों पर अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला कि आर्कटिक के नीचे एक खतरनाक ग्रीनहाउस गैस मीथेन का विशाल भण्डार है, जो आर्कटिक पर जमी बर्फ को पिघला रहा है। इसी गैस से वातावरण भी गर्म हो रहा है। बर्फ में पड़ रही दरारों से मीथेन पानी मे घुलकर हवा के सम्पर्क में आ रही है, जिससे आर्कटिक क्षेत्र के साथ-साथ वैश्विक स्तर पर भी तापमान बढ़ रहा है।
2. मानवजनित कारण
इन्टरनेशनल पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज (IPCC) के अनुसार पिछली दो शताब्दियों से ग्रीनहाउस गैसों में होने वाली बढ़ोत्तरी के तीन प्रमुख कारण हैं- जीवाश्म ईंधन, भूमि उपयोग तथा कृषि।
(क) ग्रीनहाउस प्रभावः- ग्रीनहाउस प्रभाव एक ऐसी घटना है जिसके द्वारा पृथ्वी का वायुमण्डल गुजरते हुए सूर्य के प्रकाश से कार्बन डाइऑक्साइड, जलवाष्प तथा मीथेन जैसी गैसों की उपस्थिति में सौर विकिरण को न केवल अपने अन्दर समाहित कर लेता है बल्कि उस ताप को भी अवशोषित कर लेता है, जो पृथ्वी की सतह तथा निचला वातावरण सामान्य से अधिक गर्म हो जाता है। जलवाष्प (H2O) तथा कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) ग्रीनहाउस गैसों में प्रमुख हैं। मीथेन (CH4), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) क्लोरो फ्लोरो कार्बन (CFC) तथा अन्य ग्रीनहाउस गैसें बहुत ही निम्न मात्रा में मौजूद हैं, लेकिन अपने कई गुणा ताप अवशोषण गुणों एवं वायुमण्डल में दीर्घ अवधि तक बने रहने के गुणों के कारण इनका ताप प्रभाव भी काफी अधिक होता है।
ग्रीनहाउस गैसों का सान्द्रण विशेषकर कार्बन डाइऑक्साइड का सान्द्रण बीते कई दशकों के दौरान विद्युत उत्पादन जैसे ताप विद्युत उत्पादन में कोयले का अधिक प्रयोग और जीवाश्म ईंधन का अधिक प्रयोग होने के कारण बढ़ गया है। 18वीं सदी में औद्योगिक क्रान्ति के समय से वातावरण में इसकी मात्रा लगातार बढ़ रही है। जो वर्तमान समय में बढ़कर 390 ppm हो गई है। मीथेन गैस की मात्रा भी मवेशियों के उत्पादन (मवेशियों की जुगाली करते समय मीथेन गैस निकलती है।), चावल की उपज, रेफ्रीजरेटर व एसी के प्रयोग से बढ़ रही है।
कृषि के क्षेत्र में उपयोग की जाने वाली नई-नई तकनीकों के कारण पिछले आधी शताब्दी के दौरान खाद्य उत्पादन काफी तेजी से बढ़ा है। लेकिन इन तकनीकों के कारण ग्रीनहाउस गैसों में काफी वृद्धि हुई है। विशेषकर मीथेन एंव नाइट्रस ऑक्साइड में काफी हद तक बढ़ोत्तरी हुई है। चावल के खेतों की जुताई, मवेशियों का आंत्रकिण्वन तथा नाइट्रोजन मुक्त उर्वरक आदि क्रियाओं के कारण ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोत्तरी हो रही है। चावल के खेतों की जुताई के दौरान मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है। अधिक उपज प्राप्त करने की लालसा के कारण किसान अपनी फसलों में नाइट्रोजनयुक्त खाद का प्रयोग करते हैं। लेकिन मृदा में सूक्ष्म-जैविक क्रियाओं के परिणामस्वरूप, ये रसायन नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं।
(ग) जीवाश्म ईंधन का प्रयोग:- जीवाश्म ईंधन का अधिक प्रयोग होने के कारण वायुमण्डल में लगातार ग्रीनहाउस गैसों खासकर CO2 की मात्रा में बढ़ोत्तरी हो रही है। वर्तमान में तेल का दहन वायु में 33 प्रतिशत तक कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन हेतु उत्तरदायी है। सर्वाधिक उत्सर्जन कोयले के दहन के कारण होता है। जिसका प्रयोग मुख्य रूप से तापविद्युत में किया जाता है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव
जलवायु परिवर्तन का खतरा पूरे विश्व का खतरा है और इससे मानव जाति के अस्तित्व को खतरा है मानव का जीवन अस्त-व्यस्त होने लग गया है। इस जलवायु परिवर्तन के मानव जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ेंगे-
1. तापमान में सामान्य से अधिक बढ़ोत्तरी:- जलवायु परिवर्तन के दौरान पृथ्वी का तापमान सामान्य से अधिक बढ़ रहा है। जिसका मानव जीवन व भौतिक पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। पृथ्वी पर सामान्य से अधिक तापमान बढ़ने के कारण विश्व के पर्वतों की चोटियों पर जमी बर्फ लगातार पिघलने लग गई है। अनेक देशों की फसलों पर इसके प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहे हैं। ऋतु परिवर्तनों में असन्तुलन बन गया है। जिसके कारण मानव व पशु पक्षियों पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।
2. समुद्री स्तर का लगातार बढ़ना:- जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं। जिनका जल नदियों के द्वारा समुद्र में पहुँच रहा है, जिससे समुद्र का स्तर बढ़ रहा है। समुद्र स्तर के बढ़ जाने से देशों के तटीय भाग जलमग्न हो जाएँगे और वहाँ पर रहने वाले जीवों को दूसरी जगह जाना पड़ेगा एक अनुमान के अनुसार यदि समुद्र जलस्तर एक मीटर बढ़ जाये तो इससे भारत के 7.5 मिलियन लोग बेघर हो जाएँगे और बांग्लादेश का 35 प्रतिशत भू-भाग जलमग्न हो जाएगा।
3. प्राकृतिक आपदाओं का खतरा:- जलवायु परिवर्तन के कारण चरम घटनाओं की उत्पत्ति में होने वाली बढ़ोत्तरी भी मानव को सबसे ज्यादा प्रभावित करेगी। चक्रवात, भूस्खलन आदि घटनाएँ मानव जीवन को प्रभावित करेंगी।
जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम
जलवायु परिवर्तन के कारण मानव जीवन पर अनेक प्रकार की आपदाएँ आने की सम्भावनाएँ बढ़ गई हैं। वर्तमान में जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों को स्पष्ट देखा जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के निम्नलिखित दुष्परिणाम देखे जा सकते हैं जैसेः-
1. समुद्री जलस्तर बढ़ने के कारण तटीय क्षेत्रों के निमन भागों के जलमग्न होने से तटीय बाढ़ खतरा बढ़ जाएगा जिसके परिणामस्वरूप तटीय क्षेत्रों को खाली करना पड़ेगा।
2. जलवायु परिवर्तन के कारण मरुस्थलों का फैलाव बड़ी समस्या बन गई है।
3. पहले से ही पानी की कमी की समस्या झेल रहे क्षेत्रों में पानी की मात्रा में और गिरावट आने के कारण अधिक समस्या उत्पन्न हो रही है।
4. जलवायु परिवर्तन के कारण कम वर्षा होने से कृषि उत्पादन में कमी आई है। जिसके परिणामस्वरूप खाद्य फसलों में कमी हो गई है।
5. खाद्य फसलों तथा खाद्य पदार्थों की कमी के कारण लोग भुखमरी, कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। जिससे मृतकों की संख्या में वृद्धि हुई है।
6. जलवायु परिवर्तन के कारण जानवरों तथा पौधों की अनेक प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं।
7. अधिक तापमान से निजात पाने के कारण अतिरिक्त ऊर्जा के संसाधनों का उपयोग किया जा रहा है जिसके कारण वातावरण में और अधिक गैसों का जमाव हो रहा है।
8. हिमनद के पिघलने से भूस्खलन तथा हिमस्खलन की घटनाएँ सामान्य हो गई हैं।
निष्कर्षः-
वैश्विक ताप परिवर्तन का वातावरण पर सुस्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है हिमनद संकुचित हो गए हैं। पौधों व जानवरों के क्षेत्र विस्थापित हो गए हैं तथा पेड़ों में पुष्पण काफी जल्दी हो रहा है। आगामी जलवायु परिदृश्य प्रेक्षेपित करतें हैं कि गर्मियों के तापमान में 20 से 50 सेल्सियस तक बढ़ोत्तरी होने तथा वर्षा में लगभग 15 प्रतिशत तक कमी आने की उम्मीद है।
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र समर्थित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) ने चेतावनी देते हुए कहा है कि कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया। दुनिया को खतरनाक जलवायु परिवर्तनों से बचाना है, तो जीवाश्म ईंधन के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल को जल्द ही रोकना होगा। आईपीसीसी ने कहा है कि साल 2050 तक दुनिया की ज्यादातर बिजली का उत्पादन लो-कार्बन स्रोतों से करना जरूरी है और ऐसा किया जा सकता है। इसके बाद बगैर कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज के जीवाश्म ईंधन का 2100 तक पूरी तरह इस्तेमाल बन्द कर देना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा कि विज्ञान ने अपनी बात रख दी है। इसमें कोई सन्देह नहीं है। अब नेताओं को कार्यवाही करनी चाहिए। हमारे पास ज्यादा समय नहीं है। उन्होंने कहा कि जैसा आप अपने बच्चे के बुखार होने पर करते हैं, सबसे पहले हमें तापमान घटाने की जरूरत है। इसके लिये तुरन्त और बड़े पैमाने पर कार्यवाही किये जाने की जरूरत है।
अतः ऊपर लिखित तथ्यों से यह स्पष्ट है कि विश्व के विकसित एवं विकासशील देशों को साथ मिलकर इस समस्या का समाधान निकालना होगा। यह किसी एक देश या एक व्यक्ति की समस्या नहीं है। यह पूरे विश्व की समस्या है और इसका समाधान भी पूरे विश्व को साथ मिलकर करना होगा।
लेखक - श्री विनोद कुमार : Extension lecturer, Dept. of Geography, G.C.W. Mahender Garh.
श्री संदीप कुमार : Ph.D Research Scholar, O.P.J.S University, Churu, Rajashtan हैं।
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