जलवायु परिवर्तन बनाम कृषि विकास
जलवायु परिवर्तन पोषक तत्वों को जैविक से गैर-जैविक में बदलता है और उर्वरक इस्तेमाल की क्षमता को भी प्रभावित करता है। साथ ही मिट्टी से वाष्पन-उत्सर्जन को भी बढ़ाता है, जिससे आखिरकार प्राकृतिक संसाधनों का क्षय होता है। जलवायु परिवर्तन का असर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से फसल, पानी और मिट्टी पर पड़ता है क्योंकि ये पानी की उपलब्धता, सुखाड़ की तीव्रता, सूक्ष्मजीव की आबादी, मिट्टी में मौजूद जैविक तत्वों में कमी, कम पैदावार, मृदा अपरदन के चलते मिट्टी की उर्वरा शक्ति में गिरावट आदि को प्रभावित करता है।
सौर ऊर्जा
सौर ऊर्जा से संचालित सिंचाई प्रणाली
भारत में सौर ऊर्जा संचालित सिंचाई प्रणाली कृषि क्षेत्र में एक क्रांतिकारी समाधान के रूप में उभर रही है। भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां कृषि न केवल खाद्य उत्पादन का मुख्य स्रोत है, बल्कि लाखों किसानों के जीवनयापन का आधार भी है। सिंचाई प्रणाली कृषि की सफलता के लिए महत्वपूर्ण है और सौर ऊर्जा संचालित सिंचाई प्रणाली इसमें एक स्थायी, किफायती और पर्यावरण अनुकूल समाधान प्रदान करती है।
फसल सुरक्षा
रबी फसलों में खरपतवार नियंत्रण बहुत जरुरी
भारत में कृषि विकास दर कम या धीमी हो गई है और बढ़ती हुई जनसंख्या की बढ़ती जरुरतों को पूरा करने के लिए कृषि उत्पादकता में वृद्धि की जरूरत है। लगभग सभी फसलों की प्रति इकाई कम और स्थिर उपज भारतीय कृषि की एक नियमित विशेषता बन गई है। इस पृष्ठभूमि में खाद्य उत्पादन में अपेक्षित वृद्धि केवल सीधी या वर्टिकल उत्पादकता में वृद्धि के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है क्योंकि होरिजेंटल या क्षैतिज वृद्धि यानि कृषि योग्य क्षेत्र के विस्तार की संभावनाए काफी कम हैं।
बढ़ा बजट उबारेगा कृषि को संकट से
भारतीय कृषि सबसे निचले पायदान पर है, जिसकी सकल कृषि प्राप्ति 2022 में ऋणात्मक 20.18 प्रतिशत रही। दुनिया की 54 प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में भारत एकमात्र ऐसा देश है, जहां कृषि घाटे की भरपाई करने के लिए बजटीय सहायता का प्रावधान नहीं किया गया। हालांकि, अगर संसाधन आवंटन करते वक्त कृषि क्षेत्र में लगी आबादी की संख्या के अनुपात के अनुरुप यथेष्ट संसाधन दिए गए होते, तो आर्थिक रूप से बहुत बड़ी अक्लमंदी होती।
जलवायु परिवर्तन एवं कृषि विकास
जब देश को अनाज की जरुरत थी तो हरियाणा व पंजाब को हरित क्रांति अधीन अनाज उत्पादन के लिए चुना गया। इसका मुख्य कारण था इन राज्यों में प्राकृतिक स्रोतों की भरमार एवं जरखेज भूमि। पंजाब जिसको पंज-आब यानि पानी की भरमार के लिए जाना जाता था, उस समय यह महां पंजाब था, हरियाणा एवं हिमाचल इसमें से बाद में निकले। कहा जाये तो पंजाब ही हरित क्रांति का आरंभ था। उस समय सरकारों के उचित प्रतिनिधित्व अधीन एवं किसानों की मेहनत के कारण हरित क्रांति को कामयाब करके देश को अनाज के लिए आत्मनिर्भर बनाया गया।
परन्तु अनाज उत्पादन की ओर ही मुख्य ध्यान दिया गया। प्राकृतिक स्रोतों की संभाल के लिए अधिक तवज्जो नहीं दी गई। हमारे पास बहुत दरियाई पानी था परन्तु भूमिगत पानी के प्रयोग को उत्साहित करना हमारी बहुत बड़ी गलती थी। पानी के लिए फ्री बिजली के प्रबंधन ने पानी के दुरुपयोग में बहुत अहम भूमिका अदा की। इससे देसी खादों से रासायनिक खाद की जरुरत से अधिक प्रयोग से भूमि संतुलन में बिगाड़ आया। जरुरत से अधिक स्प्रे ने प्राकृतिक जीव-जतुंओं को प्रभावित किया। हवाएं भी दूषित हुईं। विशेषज्ञों ने अपनी जिम्मेदारी न समझते हुए किसानों को शिक्षित भी नहीं किया, बल्कि उनको बाजार के हवाले कर दिया, जिस कारण इन रसायनों का प्रयोग जरुरत से अधिक हुआ क्योंकि बाजार का मुख्य मुद्दा पैसा कमाना था, जिससे कृषि खर्च में बढ़ोतरी तो हुई ही, बल्कि इससे पर्यावरणिक समस्याएं भी बढ़ीं। इससे सब्मर्सीबल पंपों की आमदनी ने किसानों को अधिक पानी के प्रयोग के लिए उत्साहित किया परन्तु इन प्राकृतिक स्रोतों एवं खाद-स्प्रे के उचित प्रयोग के लिए कोई कानून या रेगूलेशन न होने के कारण इनका दुरुपयोग हुआ जिससे पर्यावरण प्रदूषित हुआ।
प्राकृतिक स्रोतों के दुरुपयोग ने विश्व व्यापी जलवायु को भी प्रभावित किया जिससे आज जलवायु परिवर्तन के कारण अनेक प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। खेती कभी भी प्रकृति के बिना संभव नहीं है और न ही हो सकती है। इसलिए यदि पर्यावरण हितेषी तकनीकों को समय पर प्रोत्साहित नहीं किया गया तो जलवायु परिवर्तन के कृषि पर बुरे प्रभाव पड़ेंगे जिससे बढ़ रही जनसंख्या का पेट पालना फिर से मुश्किल हो सकता है। इसलिए जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए कृषि गतिविधियों को बदलना समय की आवश्यकता है।