कब तक करते रहेंगे धरा का दोहन

Published on
5 min read

एक आँकड़े के मुताबिक पृथ्वी इस समय 75 करोड़ वाहनों का भार सह रही है, इसमें हर साल 5 करोड़ नये वाहन जुड़ रहे हैं। मानव अपनी हितपूर्ति के लिए पृथ्वी का बेपनाह दोहन कर रहा है। आज पृथ्वी का कोई क्षेत्र ऐसा बाकी नहीं बचा है, जो मानव की नाइंसाफी का शिकार न हुआ हो।पूरे ब्रह्माण्ड में पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह है जहाँ जीवन जीने के लिए अनिवार्य समस्त सुविधाएँ उपलब्ध हैं। इसी कारण हम इसे धरमी माँ के नाम से भी पुकारते हैं। इसी की गोद में हम बड़े हुए हैं। इसने हमारा भरण-पोषण एक माँ के समान ही निःस्वार्थ भावना से किया। यही कारण है कि आज हम मंगल और चन्द्रमा पर आशियाना बनाने की बात करने लगे हैं। विचारणीय प्रश्न है कि इस धरती माँ ने हमें सब कुछ दिया, लेकिन हमने इसे क्या दिया? शायद जख्मों के सिवा और कुछ भी नहीं। माँ का शृंगार करने वाले वृक्षों पर हमने निर्ममता से आरियाँ चलाईं । इसके गर्भ में इतने परीक्षण किए कि इसकी कोख अब बंजर हो गई। इसके बावजूद अब भी हम इसके दोहन और शोषण से थके नहीं हैं।

अक्सर ये सुनने को मिलता कि ध्रुवों की बर्फ तेजी से पिघल रही है। सूर्य की पराबैंगनी किरणों को पृथ्वी तक आने से रोकने वाली ओजोन परत में छेद हो गया है। इसके अलावा भयंकर तूफान, सुनामी और भी कई प्राकृतिक आपदाओं की खबरें भी आती रहती हैं। हमारी पृथ्वी पर यह जो कुछ भी उथल-पुथल हो रहा है, इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं। भविष्य की चिन्ता से बेफिक्र हरे वृक्ष काटे गए। इसका भयावह परिणाम भी दिखने लगा है।

सूर्य की पराबैंगनी किरणों को पृथ्वी तक आने से रोकने वाली ओजोन परत का इसी तरह से क्षरण होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी से जीव-जन्तु व वनस्पति का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। जीव-जन्तु अन्धे हो जाएँगे। लोगों की त्वचा झुलसने लगेगी और त्वचा कैंसर रोगियों की संख्या बढ़ जाएगी। समुद्र का जल-स्तर बढ़ने से तटवर्ती इलाके चपेट में आ जाएँगे। हमारी पृथ्वी धीरे-धीरे विनाश की ओर बढ़ रही है। विकास की दौड़ में पागल हुए लगभग सभी देश इस बात को क्यों नहीं समझ रहे हैं कि पृथ्वी ही नहीं बचेगी, जीवन जीना ही दुश्वार हो जाएगा, तो क्या मतलब रह जाएगा विकास का?

आज तेजी से बढ़ते कार्बन उत्सर्जन, पेड़ों की कटाई, ग्रीनहाउस गैसों से दूषित होता पर्यावरण और बढ़ते तापमान के दुष्परिणाम हम सभी भुगत रहे हैं। मौसम परिवर्तन इन्हीं के कारण हो रहा है। कहीं सूखा पड़ रहा है, तो कहीं बाढ़ आ रही है। समुद्र का जल-स्तर बढ़ रहा है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। ओजोन परत का छेद बढ़ रहा है। सूर्य की हानिकारक विकिरणों से कई तरह की बीमारियाँ फैल रही हैं। ये सब प्रत्यक्ष देखने के बाद भी किसी देश पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। सब इसके लिए बस एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने में लगे रहते हैं। जब हम पृथ्वी के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा करते हैं तो हम अपने अस्तित्व को भी खतरे में डालते हैं।

पर्यावरणविदों का कहना है कि पिछले 100 वर्षों में प्राकृतिक संसाधनों का जितना दोहन हुआ उतना कई हजार वर्षों में नहीं हुआ। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि ये संसाधन खत्म होने के कगार पर पहुँच गए हैं।पर्यावरणविदों का कहना है कि पिछले 100 वर्षों में प्राकृतिक संसाधनों का जितना दोहन हुआ उतना कई हजार वर्षों में नहीं हुआ। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि ये संसाधन खत्म होने के कगार पर पहुँच गए हैं। वायुमण्डल में खतरनाक ग्रीनहाउस गैसों के जमा होने से धरती का तापमान बढ़ रहा है। आर्कटिक की बर्फ और प्रमुख ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं जिससे समुद्र का जल-स्तर तेजी से बढ़ रहा है और तटवर्ती शहरों पर डूबने का खतरा मण्डरा रहा है। जंगलों की अन्धाधुध कटाई के कारण सैकड़ों प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी है। जीवनदायिनी नदियाँ प्रदूषित हो गईं हैं और विशाल महासागर कचरे का डम्पिंग ग्राउण्ड बन गए हैं।

संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के खतरों के कारण प्राकृतिक आपदाएँ बढ़ रही है जिसका सबसे ज्यादा खामियाजा हमें भुगतना पड़ रहा है। वर्ष 2012 में 57 प्रतिशत मौंते बाढ़ और तूफानों से हुई तथा 34 प्रतिशत आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा जबकि 74 प्रतिशत लोग इनसे प्रभावित हुए। वर्ष 2011 में सुनामी सहित इन आपदाओं के कारण अर्थव्यवस्था को 294 अरब डालर का नुकसान उठाना पड़ा था। नासा ने अपनी रिसर्च में बताया है कि पिछले 25 साल में धरती की झीलें गर्म हो गई हैं। 1985 से हर दशक में सभी झीलों का तापमान औसतन 0.85 डिग्री तक बढ़ रहा है। यह ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम है। इस सदी के अन्त तक सभी महासागरों का जल-स्तर साढ़े चार फुट तक बढ़ सकता है। साइण्टिफिक कमेटी ऑन अण्टार्कटिक रिसर्च के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग की वजह से अण्टार्कटिका की बर्फ तेजी से गल रही है और धरती के तटवर्ती भाग डूब रहे हैं।

दरअसल पूरी दुनिया पर ग्लोबल वार्मिंग का खतरा मण्डराते देख 22 अप्रैल, 1970 को आधुनिक पर्यावरण आन्दोलन की शुरुआत की गई। तभी से हर वर्ष 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस मनाया जाता है। पर्यावरण का सवाल जब तक तापमान में बढ़ोत्तरी से मानवता के भविष्य पर आने वाले खतरों तक सीमित रहा, तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर उतना ध्यान नहीं गया, लेकिन अब जलवायु चक्र का खतरा खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है। नतीजतन किसान यह तय नहीं कर पा रहे कि कब बुवाई करें और कब फसल काटें।

पृथ्वी से खिलवाड़ का ही परिणाम है कि लेह में आए जलजले और जापान के महाविनाश में हजारों लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी है। इन हादसों के बाद से कुछ ही देश इस खतरे की अनदेखी करने का साहस कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में यदि पर्यावरण पर सामूहिक प्रयासों के लिए हम जोर लगाते हैं तो उसका सबसे ज्यादा लाभ भी हमें ही मिलेगा। एक अहम सवाल यह भी है कि पर्यावरणविदियों को क्लीन एयर एक्ट, क्लीन वाटर एक्ट, खतरे में पड़ी प्रजातियों के लिए कानून जैसी कई सफलताएँ मिली हैं। लेकिन 45 साल बाद भी पर्यावरण के लिए एक नीति बनाने पर अभी तक कोई सफल नहीं हो सका है।

पृथ्वी दिवस मनाने के पीछे मूल उद्देश्य यह है कि मानव जीवन को बेहतर बनाया जाए। सवाल है कि जीवन बेहतर कैसे बने। साफ हवा और पानी बेहतर जीवन की पहली प्राथमिकता है, लेकिन आज हवा और पानी ही सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। प्रकृति से अन्धाधुन्ध छेड़छाड़ के चलते पृथ्वी का तापमान बढ़ता जा रहा है तथा वातावरण में कार्बन की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ गई है। इसके लिए औद्योगिक ईकाइयाँ और डीजल-पेट्रोल से चलने वाले असंख्य वाहन सबसे अधिक जिम्मेदार हैं, लेकिन वाहनों की बढ़ती संख्या कम करने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया जाना भी अपने-आप में एक बड़ा सवाल है।

एक आँकड़े के मुताबिक पृथ्वी इस समय 75 करोड़ वाहनों का भार सह रही है, इसमें हर साल 5 करोड़ नये वाहन जुड़ रहे हैं। मानव अपनी हितपूर्ति के लिए पृथ्वी का बेपनाह दोहन कर रहा है। आज पृथ्वी का कोई क्षेत्र ऐसा बाकी नहीं बचा है, जो मानव की नाइंसाफी का शिकार न हुआ हो। आखिरकार कब तक हम स्वार्थपूर्ति के लिए धरा का दोहन करते रहेंगे?

लेखक का ई-मेल : sunil.tiwari.ddun@gmail.com

संबंधित कहानियां

No stories found.
India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org