प्राकृतिक आपदाओं का बढ़ता विनाशकारी प्रभाव : जलवायु सम्मेलनों में सहमति का अभाव
विश्व मौसम विभाग के अनुसार इस वर्ष वायुमंडल का औसत तापमान औद्योगीकरण से पूर्व के तापमान से 1.54 डिग्री सेल्सियस ऊपर जा चुका है। तापमान वृद्धि के कारणों की जांच कर उसकी रोकथाम के लिए बने ‘संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के जलवायु सम्मेलन-1996’ से होते आ रहे हैं। 2015 के पेरिस सम्मेलन में तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकने के हरसंभव उपाय करने पर सहमति हुई थी। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी थी कि यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश नहीं लगा तो 2028 तक तापमान 1.5 डिग्री पार कर जाएगा, जिसके बाद सूखे, बाढ़ और तूफान जैसी आपदाओं से निपटने एवं तापमान वृद्धि की रोकथाम और कठिन हो जाएगी। सदस्य देशों ने अपनी-अपनी परिस्थितियों के हिसाब से जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के प्रयास किए, मगर तापमान वृद्धि की गति बता रही है कि वे पर्याप्त नहीं रहे हैं।
इसका परिणाम हम जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान में वृद्धि से उपजे संकटों के रूप में देख रहे हैं। मानव द्वारा प्रकृति और उसके संसाधनों के साथ किए गए दुर्व्यवहार का परिणाम है कि प्रकृति अब पलटवार पर उतारू दिख रही है। पिछले दिनों सूखे रेगिस्तान में स्थित मक्का शहर में आई बाढ़ इसका ताजा प्रमाण है। आशंका है कि जलवायु परिवर्तन अगले 25 वर्षों में दुनिया भर के लगभग सभी देशों में भारी आर्थिक नुकसान का कारण बनेगा। प्रकृति गरीब-अमीर का भेद नहीं करेगी। क्षति झेलने वालों में निर्धन देश भी शामिल होंगे और जर्मनी, ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित देश भी। आर्थिक विकास को ही अपना अभीष्ट मानने वालों को इस आशंका से भयभीत होना चाहिए कि यदि पर्यावरणीय परिस्थितियों में शीघ्र सकारात्मक सुधार न किया गया तो वर्ष 2100 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था को 60 प्रतिशत का नुकसान झेलना पड़ सकता है।
पृथ्वी का तापमान जिस तेजी से बढ़ रहा है, उस पर काबू नहीं पाया गया तो अगली सदी में तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है। यदि पृथ्वी के तापमान में मात्र 3.6 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है तो आर्कटिक के साथ-साथ अण्टार्कटिका के विशाल हिमखंड पिघल जाएंगे। बढ़ते तापमान के कारण उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव की बर्फ चिंताजनक रूप से पिघल रही है। लेकिन पर्याप्त सबक नहीं लिए जा रहे हैं।
अजरबैजान की राजधानी बाकू में हाल में संपन्न हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में केवल दो उल्लेखनीय समझौते ही हो पाए।
पहला कार्बन क्रेडिट स्कीम पर, जो लगभग दस साल से लंबित था।
दूसरा जलवायु परिवर्तन की रोकथाम लिए वित्तीय सहायता पर।
जलवायु सम्मेलनों में हर साल होने वाले समझौतों और बड़े-बड़े वादों के बावजूद निरंतर बढ़ता तापमान दिखा रहा है कि या तो अब तक किए जा रहे उपाय नाकाफी रहे हैं या उन्हें ईमानदारी से लागू नहीं किया जा रहा है।
निरंतर महाविनाश की ओर ले जा रहे जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए ठोस और त्वरित उपाय करने की जगह हर साल देशों के बीच अंतहीन सौदेबाजी चलती रहती है। इस बीच पर्यावरण को क्षति पहुंचा कर जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देने वाली गतिविधियां भी चलती रहती हैं। हालांकि इससे भी इन्कार नहीं कि जैसी विश्वव्यापी सहमति जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए बनी है, वैसी और किसी मुद्दे पर कभी नहीं बनी। नई और स्वच्छ तकनीक का विकास जलवायु परिवर्तन से होने वाले महाविनाश से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
धूप, हवा, पानी और परमाणु से पैदा की जाने वाली स्वच्छ ऊर्जा की लागत में तेजी से आ रही गिरावट और उससे चलने और कम ऊर्जा खपत वाले वाहनों और मशीनों के विकास को देखकर जैव ईंधनों से चलने वाले वाहनों, कारखानों, बिजलीघरों को स्वच्छ ऊर्जा वाली व्यवस्था में बदलने के लिए भारी निवेश की जरूरत है। वह कहां से और कैसे आएगा, इसका जवाब किसी के पास नहीं।
बाकू में 2035 से 300 अरब डॉलर सालाना मदद देने का वादा किया गया है। प्रश्न उठता है कि क्या तब तक तापमान में वृद्धि निरंतर बढ़ना थमा रहेगा?
विकसित देशों ने विकासशील देशों के आयात पर कार्बन शुल्क भी लगाने शुरू कर दिए हैं। यूरोपीय संघ के इस निर्णय से भारत जैसे देशों के निर्यातकों की लागत बढ़ जाएगी। इसलिए विकसित देशों को तापमान बढ़ाने में उनकी भूमिका याद दिलाते हुए वित्तीय सहायता का दबाव बनाए रखने के साथ-साथ विकासशील देशों को जलवायु की रक्षा के कारगर उपाय स्वयं ही करने होंगे।
तापमान बढ़ाने वाली एक तिहाई गैसें भोजन के उत्पादन, प्रसंस्करण और सप्लाई से जुड़ें उद्योगों से पैदा हो रही हैं, जिनकी रोकथाम पर गंभीर चर्चा तक नहीं हो रही। विश्व के 15 प्रतिशत जैव ईंधन की खपत खेती और उसके लिए जरूरी खाद और कीटनाशकों के उत्पादन में होती है। इसका समाधान गाय आधारित प्राकृतिक कृषि में निहित है। प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देकर कार्बन उत्सर्जन को कम किया जा सकता है।
भोजन के प्रसंस्करण, शीतलन, पैकिंग और सप्लाई के उद्योग भी जैव ईंधनों से चलते हैं। खेती को स्वच्छ ऊर्जा से चलाकर और आयातित की जगह ताजा एवं मौसमी भोजन और मांस की जगह शाकाहार को बढ़ावा देकर तापमान बढ़ाने वाली लगभग एक तिहाई गैसों की रोकथाम की जा सकती है, लेकिन विकसित से लेकर विकासशील देशों में किसान और भोजन उद्योग इतने संगठित हैं कि उन पर इतने बड़े परिवर्तनों का दबाव डालने की इच्छाशक्ति किसी सरकार में नहीं।
भारत में दिल्ली समेत पूरे उत्तरी भारत के हर साल तेजाबी धुंध की चादर से ढक जाने के बावजूद न चुनाव में यह प्रमुख मुद्दा बनता है और न इस पर कोई सार्थक चर्चा होती है। 1950 के आसपास लंदन का वायु गुणवत्ता सूचकांक या एक्यूआई दिल्ली से भी खराब हुआ करता था। आज दिल्ली से कई गुना जीडीपी देने के बावजूद लंदन का एक्यूआई औसतन 20 रहता है और दिल्ली का 150 जो अक्टूबर में 400 के पार चला जाता है। 2013 में बीजिंग का एक्यूआइ 600 और सिंगापुर का 400 पार कर गया था। आज बीजिंग और सिंगापुर दोनों का एक्यूआई दिल्ली से बहुत कम है। दीपावली के पटाखों पर ठीकरा फोड़ने की मानसिकता छोड़कर प्रदूषण को कम करने और जलवायु परिवर्तन को थामने की आवश्यकता है।