रास नहीं आया पुनर्वास

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नर्मदा नदी पर बन रहे सरदार सरोवर बाँध के पूर्ण होने पर सरकार भले ही जश्न मना रही हो लेकिन इससे उन लोगों के माथे पर फिर से चिन्ता की लकीरें दिखाई दे रही हैं, जो इसकी जद में आ रहे हैं। बाँध को पूर्ण क्षमता (138.68 मीटर) में भरने से बहुत से गाँव और घर जलमग्न हो जाएँगे।

मध्य प्रदेश के 176 गाँव और धरमपुरी कस्बा इसी चिन्ता में डूबा हुआ है। रोज राजस्व अधिकारी सुप्रीम कोर्ट के आदेश की प्रति और पुलिस के दलबल के साथ मध्य प्रदेश के बड़वानी और धार जिलों के अन्तर्गत आने वाले इन क्षेत्रों का मुआयना करते हैं। वे लोगों से कहते हैं कि घर, दुकान, खेत, पशुचर, भूमि और पूजा स्थल 31 जुलाई तक खाली कर दें।

धार जिले के नासिरपुर निवासी विजय मरोला का कहना है, “कुछ अधिकारियों ने धमकी दी है कि यदि उक्त तारीख तक हमने यह जगह नहीं छोड़ी तो हमारे गाँव पर सरदार सरोवर बाँध का पानी छोड़ दिया जाएगा।” मध्य प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में 2016 दायर किये गए ताजा शपथपत्र में कहा है कि मरोला, उनके वृद्ध माँ-बाप, उनका नवजात शिशु, पत्नी और छोटी बहन उन 1,10,000 हजार (21,808 परिवार) लोगों में शामिल हैं, जिनके घर और जमीन बाँध के 30 से अधिक फाटक बन्द कर दिये जाने के बाद जलमग्न होने की स्थिति में आ जाएँगे। बाँध के जलस्तर को 121.92 मीटर से 138.68 मीटर तक बढ़ाने के लिये इन फाटकों को बन्द किया जाएगा।

8 फरवरी को शीर्ष अदालत ने बाँध को उच्च भराव क्षमता पर संचालित करने की अनुमति दे दी और केन्द्र सरकार व राज्य सरकार को निर्देश दिया कि 31 जुलाई तक परियोजना प्रभावित परिवारों को विस्थापित और पुनर्वासित किया जाये।

उच्चतम न्यायालय का यह निर्देश नर्मदा बचाओ आन्दोलन (एनबीए) को झटका था। यह आन्दोलन 1985 से चल रहा है। एनबीए की माँग थी कि विभिन्न चरणों में विस्थापित किये गए सभी परिवारों को उचित मुआवजा मिले। एनबीए की माँग है कि नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण (एनडब्ल्यूटीए) ने पुनर्वास के लिये निर्धारित दिशा-निर्देश के तहत विस्थापित परिवारों, जिनकी इस परियोजना की वजह से 25 प्रतिशत जमीन गई है, उन्हें 2 हेक्टेयर सिंचित भूमि दी जाये। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश हुए सभी मामलों में 681 विस्थापित परिवारों की पहचान की गई है। जिनको इस परियोजना की वजह से भू-सम्पत्ति का नुकसान हुआ है और बदले में मुआवजा व जमीन नहीं मिली है, उन्हें 60-60 लाख रुपए प्रति परिवार दिये जाएँ।

इसके अलावा 1,358 परिवारों, जिनको गलत भूमि आवंटन पत्र या स्तरहीन जमीन आवंटित की गई है, उन्हें प्रति परिवार 15 लाख रुपए का मुआवजा दिया जाएगा। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि क्षतिपूर्ति हासिल करने की अर्हता रखने वाले परिवारों की संख्या अधिक हो सकती है।धरमपुरी के दिहाड़ी श्रमिक इकबाल रियाज कहते हैं, “2003 में मुझे बतौर मुआवजा 40 हजार रुपए और खुज नदी (नर्मदा की सहायक नदी) के बाढ़ आशंकित मैदानी क्षेत्र में एक प्लॉट दिया गया।” पाँच साल बाद रियाज पुनर्वासित कॉलोनी धरमपुरी बसाहट में विस्थापित हुए। वह पहले शख्स थे जिन्होंने यहाँ घर बनाया। लेकिन घर 2013 की बाढ़ में डूब गया। रियाज का कहना है कि किसी ने भी बाढ़ की वजह से उनके नए घर को हुए नुकसान की भरपाई नहीं की। उन्हें पुराने घर लौटना पड़ा।

सुनकी बाई (55) भी नई बसाई गई कॉलोनी में होने वाली समस्याओं से पूरी तरह वाकिफ थीं। उनकी इस कॉलोनी का नाम भी उनके गाँव के आधार पर तय हुआ है। चिकालदा बसाहट एक दूरस्थ क्षेत्र है जो पहाड़ियों से घिरा है। इस कॉलोनी के चारों ओर परिष्कृत सरकारी भवन और कंटीली वनस्पतियाँ हैं।

वह बताती हैं, “मुझे और मेरे बेटे को 2003 में यहाँ दो प्लॉट दिये गए। चार साल बाद परिवार बढ़ने की वजह से बेटा नई कॉलोनी में शिफ्ट हुआ। मैं वहाँ जाने में असहज महसूस कर रही थी क्योंकि वहाँ न तो पेयजल की सुविधा है, न ही बिजली, सड़क या अस्पताल। मेरे पड़ोसी भी उस सूने क्षेत्र में बसने को तैयार नहीं है।” चिकालदा बसाहट में सभी बुनियादी सुविधाएँ अभी सपने की तरह हैं। सुनकी बाई को पिछले साल नई कॉलोनी में आना पड़ा क्योंकि उनके बेटे के घर में चोरी हो गई और उसका परिवार भी दिहाड़ी मजदूर होने की वजह से बाहर चला गया था। उन्हें फिलहाल सबसे बड़ी चिन्ता अपने पोते-पोतियों की है जिन्होंने नई कॉलोनी में आने के बाद पढ़ाई छोड़ दी। पाँच साल पहले ही यहाँ सरकारी स्कूल का निर्माण हुआ था, जो क्षतिग्रस्त हो चुका है। दूसरा स्कूल प्राइवेट है और नई कॉलोनी से 7 किमी है।

अनिल गणपत, खाखरपेड़ा गाँव के रहने वाले हैं। उन्हें भी चिकालदा बसाहट के पास ही नया प्लॉट आवंटित हुआ है। वह नर्मदा घाटी के लोगों के विस्थापित नहीं होने की कुछ अलग ही वजह बताते हैं। उनके अनुसार, “मेरे गाँव में 3000 से अधिक गाय और भैंस हैं। रोजी के लिये 500 से भी अधिक परिवार इन पर आश्रित हैं। सरकार ने हमें प्लॉट आवंटित किये हैं। लेकिन हमारी पशु सम्पदा के लिये सरकार ने एक टुकड़ा जमीन भी नहीं दी। ऐसे में जीवनयापन कैसे सम्भव है?”

प्राधिकारी ही पुनर्समझौते और पुनर्वास (आरएंडआर) के लिये उत्तरदायी हैं लेकिन गणपत के इस सवाल का जवाब उनके पास नहीं है। उनका मानना है कि मौलिक सुविधाओं के अभाव में लोग नई कॉलोनी में जाने के अनिच्छुक हैं।

नर्मदा जल विवाद पंचाट के आदेश की अनुपालना की जिम्मेदार नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण के निदेशक (आरएंडआर) एस. आर. यादव का कहना है, “हम सड़कें बना रहे हैं और 88 स्थानों (जहाँ गाँवों को फिर से बसाया जाना है) पर केबल लाइन बिछाई जा रही है और कार्य पूरी गति से हो रहा है।”

यदि नर्मदा न्यायाधिकरण के फैसले पर गौर किया जाये तो प्रभावित परिवारों को हटाने से पहले नई कॉलोनी में प्रति 100 परिवार पर प्रशासन को एक प्राइमरी स्कूल बनाना है, प्रति 50 परिवार पर एक पेयजल कुआँ, 500 परिवारों के बीच बीज केन्द्र की व्यवस्था देनी है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू करने में एक महीने से कम समय है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या प्रशासन न्यायाधिकरण के दिशा-निर्देशों की अनुपालना कर पाएगा?

बड़वानी के जिला कलेक्टर तेजस्वी नाइक ने डाउन टू अर्थ को बताया कि वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश की पालना कर रहे हैं जिसके तहत प्रभावित गाँवों को 31 जुलाई तक विस्थापित करना है। जब उनसे पूछा गया कि उन परिवारों के साथ सरकार क्या करने वाली है जो पलायन नहीं करना चाहते तो नाइक ने कहा, निर्धारित तारीख निकट आने के साथ उनके पास विस्थापन के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं बचेगा।

लोगों ने 28 मई को केन्द्रीय सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत से भेंट की लेकिन उन्होंने कोई आश्वासन नहीं दिया।

संख्या में सीमित हुए लोग

सरोकार पर मीडिया की जलसमाधि


अनिल अश्विनी शर्मा


छह अगस्त 1993 को नर्मदा बचाओ आन्दोलन की नेता मेधा पाटकर सहित सात आन्दोलनकारियों ने जल समाधि की घोषणा की थी। आन्दोलनकारी केन्द्र सरकार से माँग कर रहे थे कि वह बाँध पर  बनी समीक्षा रिपोर्ट को लागू करे। सरकार ने आन्दोलनकारियों की आवाज अनसुनी कर दी तो जल समाधि की इस घोषणा का असर बिजली की तरह हुआ। दिल्ली से लेकर न्यूयॉर्क और लंदन तक का मीडिया नर्मदा के किनारे आ जुटा। मीडिया का जमघट देखकर केन्द्र पर दबाव बना और उसने इस जल समाधि के पहले ही घोषणा कर दी कि वह रिपोर्ट को लागू करेगी। तो क्या यह आन्दोलनकारियों नहीं मीडिया की जीत थी?


एक समय देश की राजधानी के बड़े मीडिया समूह नर्मदा आन्दोलन से जुड़ी छोटी सी भी खबर छापने से परहेज करते थे। भ्रम फैलाया गया कि यह विकास विरोधी आन्दोलन है। इसका दूसरा पक्ष यह भी था कि अखबारों में नर्मदा आन्दोलन से जुड़ी खबरें तो नहीं छपती थीं लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से मेधा पाटकर द्वारा बुलाई गई प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकार पहुँचते थे। यह अलग बात है कि वे इसकी रिपोर्ट नहीं करते थे या उनकी रिपोर्ट को छापा नहीं जाता था। आन्दोलन को नैतिक समर्थन देने में पत्रकार पीछे नहीं रहे।


पत्रकारों के जुड़े रहने का असर यह रहा कि धीरे-धीरे नर्मदा आन्दोलन को अखबारों में जगह मिलने लगी। और इसके असर को नीचे से ऊपर की तरफ से देखा जा सकता है। मीडिया का कोई भी माध्यम निजी पूँजी से ही चलता है और इसके सबसे बड़े स्रोत विज्ञापन हैं। बड़ी कम्पनियों के विज्ञापनों के कारण मीडिया का प्रबन्धकीय ढाँचा नर्मदा आन्दोलन को विकास विरोधी बताता है। लेकिन पत्रकारों का एक बड़ा तबका उस जल, जंगल और जमीन से जुड़ा हुआ है जिसे बाँध के पानी में डुबोया जा रहा था। आप भले शहर के अखबार में नौकरी कर रहे हों, आपके कोई दोस्त या रिश्तेदार तो जीविका के लिये प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं। जमीन के डूबने का और विस्थापित होने का खौफ उनकी आँखों में देखकर यह तो समझ आ जाता होगा कि निर्बाध नर्मदा ही सबका साथ और सबका विकास कर सकती है।


जब मीडिया को लगने लगता है कि किसी मुद्दे को खारिज करने का मतलब खुद को खारिज करना होगा तब वह उसे खारिज नहीं कर सकता। और, इसी खारिज होने के खौफ से मीडिया मालिकों ने नर्मदा आन्दोलन को जगह देनी शुरू कर दी। लेकिन मीडिया की यह मजबूरी है कि उसे आन्दोलन को भी खबर की तरह दिखाना है। उसका नयापन कुछ हफ्तों या महीनों तक हो सकता है लेकिन उसे सालों तक बरकरार नहीं रखा जा सकता है। उसे लगता है कि दर्शक एक आन्दोलन से ऊब गए हैं और वह दूसरे आन्दोलन की तरफ भागता है। मीडिया का संचालन तंत्र ही सरोकारी नहीं है तो फिर वह सरोकार वाली खबरों को लम्बे समय तक कैसे खींच सकता है। जब आपको बाँध बनाने वाली कम्पनी का विज्ञापन लेना है तो फिर आप बाँधों के खिलाफ खबरें कैसे चला सकते हैं। जिस सीमेंट कम्पनी का करार वहाँ निर्माण के लिये हुआ है, खबरों के बीच में व्यावसायिक विराम में उसी सीमेंट कम्पनी का विज्ञापन भी चलना है। फिर वह सीमेंट कम्पनी तो प्रचारित करेगी ही कि बाँध विकास विरोधी नहीं है।


‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा देते हुए डोनल्ड ट्रम्प ने पेरिस जलवायु समझौते से हाथ खींच लिये। जलवायु संकट के ऊपर शुद्ध कारोबारी लाभ को तरजीह दी गई। खनन और अन्य व्यावसायिक कम्पनियों के दबाव से जब अमेरिका देश पेरिस समझौते से हट सकता है तो हम नर्मदा आन्दोलन के बारे में कैसे उम्मीद करें कि मुख्यधारा का कारोबारी मीडिया यह चाहे कि नर्मदा बाँधी न जाये। इसलिये नर्मदा आन्दोलन को विकास विरोधी बताने का खेल चलता गया। विकास की राह में डूब गए लोगों का अस्तित्व उसके लिये बहस की चीज नहीं है। कारोबारी हितों की लाई बाढ़ ही उसके लिये विकास है। जो विकास के दायरे से विस्थापित हैं उनकी खबरें विकास विरोधी हैं। नर्मदा आन्दोलन एक बार मीडिया में जगह पा चुका है तो अब वह मीडिया के लिये काठ की हांडी है जो विज्ञापन की आँच नहीं झेल पाएगी। पर्यावरण का कोई पर्याय नहीं, विकास और पर्यावरण अलग-अलग नहीं चल सकते, इस चेतना को मुख्यधारा का मीडिया अपने कारोबारी मोतियाबिन्द के कारण नहीं देख पा रहा है।

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