जलवायु परिवर्तन औऱ स्वास्थ्य
जलवायु परिवर्तन औऱ स्वास्थ्य

जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य 

जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न आपदाजनक स्थितियां स्वास्थ्य सेवाओं को प्रभावित कर सकती हैं, जिनसे महामारियों से निपटना कठिन हो जाता है।
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विश्व में जलवायु परिवर्तन की विभीषिका से सबसे अधिक ग्रामीण क्षेत्रों के लोग प्रभावित होते हैं। भारत में विगत 60 वर्षों के दौरान बढ़ते शहरीकरण के बावजूद वर्ष 2000 में भारत की 72% आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती थी। जबकि वर्ष 1960 में ग्रामीण आबादी की संख्या 82% थी। वर्ल्ड बैंक ग्रुप 2016 के अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका में इन अवधियों के दौरान ग्रामीण आबादी की संख्या 30% से घटकर 21% हो गई थी। इस प्रकार हम एक विकसित देश जिसकी अधिकांश आबादी शहरी है, की तुलना एक विकासशील देश जिसकी अधिकांश आबादी ग्रामीण है, से करते हैं।

आर्थिक दृष्टिकोण से भारत की बराबरी संयुक्त राज्य अमेरिका से नहीं की जा सकती है। संयुक्त राज्य की तुलना में भारत की ग्रामीण और शहरी दोनों प्रकार की आबादी में निर्धनता व्याप्त है। यदि वर्ष 1957 को आधार माने तो भारत की अधिकांश ग्रामीण आबादी (62%) और लगभग आधी शहरी आबादी (49%) गरीबी के स्तर पर थी, जो वर्ष 2000 तक घटकर क्रमशः 31% और 21% हो गई। वर्ष 1999-2000 के बीच ग्रामीण क्षेत्र की 74% और शहरी क्षेत्र की 58% आबादी अल्प पोषण से प्रभावित थी। ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में उनकी दैनिक ऊर्जा खपत क्रमशः 2400 किलो कैलोरी और 2100 किलो कैलोरी से कम थी। वर्ष 1998-1999 के बीच भारत के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के 3 वर्ष से कम आयु के क्रमशः 50% और 38% बच्चों का शारीरिक विकास कम हुआ था तथा क्रमशः 48% और 36% बच्चों में बौनेपन की स्थिति थी। 

तापमान और अवक्षेपण में परिवर्तनः 

अवक्षेपण का आशय वायुमंडलीय जल के संघनित होकर किसी भी रूप में पृथ्वी की सतह पर वापस आने से होता है। पर्यावरणीय स्थितियों में परिवर्तन से मच्छरों, किलनी आदि जैसे रोग फैलाने वाले कीटों की वृद्धि को बढ़ावा मिलता है। 

पानी की मात्रा और गुणवत्ता में कमी : 

सूखा और बाढ़ की स्थितियां जल के स्रोतों को दूषित कर सकती हैं, जिसके परिणामस्वरूप जलजनित रोगों का विस्तार सुगम हो जाता है। 

खाद्य असुरक्षा और कुपोषण : 

जलवायु के कारण फसलों के क्षतिग्रस्त होने के परिणामस्वरूप खाद्यान्नों के उत्पादन में कमी आने से समुदाय के लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर होती है, जिसके परिणामस्वरूप उनके रोग ग्रस्त होने का खतरा अधिक बढ़ जाता है।

मानव प्रवास और विस्थापन : 

जलवायु परिवर्तन के कारण लोगों के विस्थापित होने के परिणामस्वरूप अन्य स्थानों पर बसने अर्थात प्रवास के कारण भीड़ होने, साफ-सफाई में कमी होने जैसी स्थितियां रोग के संचरण को बढ़ावा देती हैं। 

रोगवाहक जनित रोग : 

जलवायु परिवर्तन से मच्छरों, मक्खियों जैसे रोग पैदा करने वाले कीटों की व्यापकता बढ़ने केपरिणामस्वरूप मलेरिया, चिकुनगुनिया, डेंगी बुखार, स्वाइन फ्लू, जीका वायरस जैसे संक्रमणों का खतरा बढ़ जाता है। 

अत्यधिक गर्मी और लू का प्रकोपः 

गर्मी के महीनों में तापमान में अत्यधिक वृद्धि होने के कारण वृद्धों और छोटे बच्चों जैसी अतिसंवेदनशील आबादी को बीमार होने का खतरा बढ़ जाता है, उपयुक्त इलाज नहीं कराने की स्थिति में मौतें भी बढ़ जाती हैं। उन स्थितियों में निर्जलन यानी डीहाइड्रेशन अथवा खाद्य संक्रमणों के कारण उत्पन्न कॉलरा, अतिसार, टाइफाइड बुखार, अस्थमा अथवा सांस से संबंधित बीमारियां जैसी स्थितियां भी कष्टदायक और कभी-कभी जानलेवा साबित होती हैं। 

जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न आपदाजनक स्थितियां

जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न आपदाजनक स्थितियां स्वास्थ्य सेवाओं को प्रभावित कर सकती हैं, जिनसे महामारियों से निपटना कठिन हो जाता है। इस प्रकार मानव स्वास्थ्य और महामारियों के विस्तार की समस्या को कम करने के लिए जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार स्थितियों पर काबू पाना अनिवार्य है। 

आज विश्व के लगभग सभी देश जलवायु परिवर्तन के कारण भीषण बाढ़, सूखा, अत्यधिक गर्मी और अत्यधिक सर्दी, बर्फबारी, ग्लेशियर के पिघलने जैसी भयावह स्थितियों से उत्पन्न त्रासदी से त्रस्त हैं। विश्व की अनेक संस्थाएं जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में अनेक कदम उठा रही हैं। जिनमें कुछ प्रमुख हैं: यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) विश्व में जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में प्रयासरत एक प्राथमिक अंतर्राष्ट्रीय मंच है। 

पेरिस समझौता : 

इस समझौते के अंतर्गत विश्व के सभी देश जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का मुकाबला करने की प्रतिबद्धता के साथ एकजुट हुए हैं। इसके अंतर्गत वैश्विक तापमान को 1.5 सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। 

क्योटो प्रोटोकॉल:

इसके अंतर्गत सभी देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की प्रतिबद्धता का पालन करना अनिवार्य किया गया है।

क्लाइमेट ऐक्शन सम्मिट 2019: 

इसके अंतर्गत विश्व के शीर्ष नेतृत्व को राष्ट्रीय स्तर पर अपने योगदानों को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया गया है। विश्व के 25 देशों और यूरोपियन यूनियन ने अपने- अपने देशों में जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को पूर्णतया समाप्त करने तथा इसकी दिशा में राष्ट्रीय योजनाओं को तैयार करने एवं उनका अनुपालन करने के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त की है। इस प्रकार दुनिया के लगभग 400 शहरों में वर्ष 2050 तक अपने यहां फॉसिल ईंधन के प्रयोग को पूरी तरह समाप्त करने की प्रतिबद्धता जाहिर की है। 

दुनिया की आधी से अधिक आबादी शहरों में रहती है तथा संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक इनकी संख्या दो तिहाई और बढ़ जाएगी। जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप करोड़ों लोगों का जीवन सीधे प्रभावित हो जाएगा। व्यक्तिगत तौर पर उठाए गए कदम जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न विभीषिकाओं को कम करने में मददगार साबित हो सकते हैं। ऊर्जा की खपत तथा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार फॉसिल ईंधन के उपयोग में कमी लाना। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के प्रयासों से संबंधित संगठनों को सहायता प्रदान करना।

जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न प्राकृतिक आपदाओं और तरह- तरह के रोगों, आदि के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा करना तथा उसके विरुद्ध कदम उठाने को प्रेरित करना। सदियों से पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के अंधा-धुंध दोहन और फॉसिल ईधनों की निर्भरता ने आज समूचा विश्व जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों की त्रासदी झेलने को मजबूर है। तमाम वैश्विक संगठनों और सरकारों का ध्यान आकर्षित होना स्वाभाविक है, विभिन्न समझौतों पर हस्ताक्षर अभियान और उनके अनुपालन की प्रतिबद्धता का लगभग सभी छोटे-बड़े राष्ट्रों ने स्वागत करते हुए यथासंभव कदम उठाए हैं। 

आज दुनिया के अनेक राष्ट्रों में निम्नलिखित ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को वरीयता दी जा रही है : 

  • * सौर ऊर्जा पवन ऊर्जा 

  • * जलीय ऊर्जा 

  • * भूतापीय यानी 

  • * जियोथर्मल ऊर्जा 

  • * बायोमास ऊर्जा

  •  * हाइड्रोजन ऊर्जा 

  • * टाइडल यानी समुद्री लहरों से ऊर्जा 

  • * कार्बन कैप्चर और स्टोरेज के साथ जैवऊर्जा यानी बायो एनर्जी 

उपर्युक्त ऊर्जा स्रोतों के उपयोग की शुरुआत हो जाने से विश्व में वर्ष 2010 से नवीकरणीय ऊर्जा की वार्षिक क्षमता 20% तक बढ़ गई है। 

विगत दशक में सौर और पवन ऊर्जा के निवेश पर होने वाली लागत में 70 से 80% की गिरावट आई है। वर्ष 2020 तक विश्व में लगभग 36% नवीकरणीय ऊर्जा विद्युत से प्राप्त की गई। 

* यूरोपीय देशों द्वारा वर्ष 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को पूर्णतया समाप्त करने  का लक्ष्य रखा गया है। 

आज विश्व में नवीकरणीय ऊर्जा बाजार के क्षेत्र में संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत और चीन जैसे देश अग्रणी पंक्ति में हैं। वैश्विक स्तर पर नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में उठाए गए कदमों में निम्नलिखित परियोजनाएं अत्यंत सफल साबित हुई हैं : 

  • * डेनमार्क की पवन ऊर्जा चालितविद्युत 

  • * कोस्टा रीका का नवीकरणीय ऊर्जा ग्रिड 

  • * कैलिफोर्निया का सोलर रूफटॉप कार्यक्रम 

  • * चीन का सोलर हाईवे 

  • * भारत के नवीकरणीय ऊर्जा पार्क 

इस प्रकार नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के उपयोग में सफलता प्राप्त कर विश्व में होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को काफी हद तक कम किया जा सकता है। इन प्रयासों के आधार पर जलवायु परिवर्तन से होने वाले परिवर्तनों के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभावों को घटाकर विश्व की मौजूदा भीषण गर्मी और सर्दी, ओलावृष्टि, बर्फबारी, बाढ़, चक्रवाती तूफान, सूखा, जैसी जानलेवा स्थितियों से बचाने में मददगार साबित होगी। जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न विभीषिकाओं के परिणामस्वरूप उभरने वाली बड़ी संख्या में स्वास्थ्य समस्याओं को भी कम करने में सहायता मिलेगी।

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