जलवायु परिवर्तन से संकट में हिमालय,pc-सर्वोदय जगत
जलवायु परिवर्तन से संकट में हिमालय,pc-सर्वोदय जगत

हिमालय में तबाही राष्ट्रीय चिंता का विषय

पिछले एक दशक में हर साल हिमालय के किसी न किसी इलाके में बारिश से तबाही होती चली आ रही है। अब यह तबाही राष्ट्रीय चिंता का विषय बननी चाहिए। जिस भूभाग से देश को जीवन के सबसे महत्वपूर्ण अवयव मिलते हों, यदि वह संकट में हो तो फिर देश की परिस्थितियों को सुरक्षित नहीं समझ सकते। - पर्यावरणविद अनिल जोशी
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वर्षा ऋतु में हिमालय में हो रही अप्रिय घटनाओं को अब मात्र हिमालय की नहीं माना जा सकता। खास तौर से जब आने वाले समय में टूटते हिमालय के कारण देश में पारिस्थितिकी असुरक्षा बढ़ सकती हो, क्योंकि यह तो सब स्वीकार करेंगे ही किअकेला हिमालय देश के ६५ प्रतिशत से ज्यादा लोगों को पानी देता है। हवा का तो कोई मोल भाव ही नहीं है। यदि सबसे ज्यादा वन कहीं पनपते हैं तो वे हिमालय में ही हैं। इन सबके ऊपर ये हिमखंड ही हैं, जो हमारे लिए एक फिक्स डिपाजिट की तरह हैं, जो हर परिस्थिति में मानव को अमूल्य जल उपलब्ध कराते हैं। 

वर्तमान संकट फिर बारिश के रूप में कहर ढा रहा है। हिमालय का कोई भी कोना ऐसा नहीं है, खास तौर से पश्चिमी हिमालय, जहां उसका असर न दिखाई दे रहा हो। हिमाचल प्रदेश अबकी बार ज्यादा प्रभावित हुआ, लेकिन जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड भी उसकी चपेट में हैं। यह सब कुछ लंबे समय से होता चला जा रहा है और अब हिमालय के लोग चिंतित हैं। जब तमाम रास्ते उजड़ गए हों, आवाजाही बाधित हो गई हो और खाने-पीने का संकट सिर पर आ गया हो तो फिर कुछ बचा हुआ नहीं दिखता। देश की सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी रुकी हुई आवाजाही सीमाओं को असुरक्षित बना सकती है। 

इस बार की बारिश ने एक बार फिर 2013 की त्रासदी की याद दिला दी। तब केदारनाथ की घटना ने जान-माल का बड़ा नुकसान किया था। इस बार की बारिश ने फिर से हिमाचल और उत्तराखंड को पूरी तरह झकझोर दिया है। अब पहाड़ मानसून का स्वागत नहीं करते। स्थानीय लोगों के लिए मानसून का समय संकट भरा हो जाता है। पिछले एक दशक में हर साल हिमालय के किसी न किसी इलाके में बारिश से तबाही होती चली आ रही है। अब यह तबाही  चिंता का विषय बननी चाहिए। जिस भूभाग से देश को जीवन के सबसे महत्वपूर्ण अवयव मिलते हों, यदि वह संकट में हो तो फिर देश की परिस्थितियों को सुरक्षित नहीं समझ सकते। 

हिमालयी राज्यों का गठन आर्थिक असुरक्षा और पिछड़ेपन को दूर करने को लेकर हुआ था। इन राज्यों के गठन का एक उद्देश्य यह भी था कि उनके पिछड़ेपन को दूर करते हुए उन्हें देश की मुख्यधारा से जोड़ा जाए ताकि वहां से पलायन थमे। इस क्रम में उस सवाल की अनदेखी कर दी गई, जो पूरे हिमालय की पर्यावरण सुरक्षा को लेकर था। परिणाम सामने है, आज हिमालय त्रस्त है। आज हमें उन तमाम वैज्ञानिक अध्ययनों का संज्ञान लेना चाहिए, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो चुके हैं। धरती के बढ़ते तापमान ने सबको चिंतित कर दिया है। वैसे तो दुनिया का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं, जहां किसी न किसी तरह की प्राकृतिक आपदाएं न आती हों। 

इन्हीं वैज्ञानिक अध्ययनों का मानना है कि आने वाले समय में धरती के बढ़ते तापमान का सबसे ज्यादा असर हिमालयी क्षेत्रों में पड़ेगा। इसका कारण भी साफ है। हिमालय पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील हैं। पहाड़ों का हिस्सा कच्चा-पक्का है। एक छोटी सी छेड़छाड़ भी भारी पड़ जाती है। बढ़ते तापक्रम के साथ प्रकृति से छेड़छाड़ का सबसे अधिक असर कहीं दिखाई दे रहा है तो हिमालयी क्षेत्र में। 

दुर्भाग्य की बात है कि पहले हिमालय के पर्वत आर्थिक असमानता को झेलते थे और अब उन्हें पारिस्थितिकी असमानता ने भी घेर लिया है। हवा, मिट्टी, जंगल, पानी को पालने वाले लोग ही अब पारिस्थितिकी के दंश को झेल रहे हैं। भिन्न-भिन्न कारणों से पहाड़ जिस तरह टूटते चले जा रहे हैं, उसके कारण उनका अस्तित्व खतरे में है। पहाड़ी क्षेत्रों की तबाही का असर पूरे देश को झेलना पड़ेगा, क्योंकि अवैध खनन, अनियोजित निर्माण आदि के चलते पहाड़ बंजर हो जाएंगे। इससे वहां से पलायन की प्रवृत्ति को और बल मिलेगा। 

प्रधानमंत्री मोदी हमेशा पहाड़ों के प्रति संवेदनशील रहे हैं। उत्तराखंड को तो वह अपना घर मानते हैं। केदारनाथ के प्रति उनकी प्रबल आस्था है। वह जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब केदारनाथ आपदा के बाद उन्होंने अपने स्तर पर वहां कार्य कराने की इच्छा प्रकट की थी। उत्तराखंड की तरह हिमाचल से भी उनका खास लगाव है। समय आ गया है कि प्रधानमंत्री हिमालय की स्थिति का संज्ञान लेते हुए वहां के पर्यावरण की स्थितियों की गहन समीक्षा कराएं। हिमालयी राज्यों के पर्यावरण की जैसी अनदेखी हो रही है, उसे देखते हुए यह आवश्यक हो चुका है कि केंद्र सरकार हिमालय की रक्षा के लिए आगे आए। 

हिमालयी राज्यों की आर्थिकी ऐसी होनी चाहिए, जो पारिस्थितिकी पर केंद्रित हो। पहाड़ अब एक ऐसे माडल के प्रतीक्षा में हैं जो उसे हर तरह से स्थिरता प्रदान कर सकें। हिमालय और वहां के जनजीवन को बचाने की पहल तभी सार्थक सिद्ध हो सकेगी, जब उन कारणों का सही तरह निवारण किया जाएगा, जिनके चलते वे संकट में घिर रहे हैं। हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि जोशीमठ में क्या हुआ? जोशीमठ जैसी स्थितियां अन्यत्र भी उभर रही हैं। हिमालयी राज्यों के नीति-नियंताओं के साथ मिलकर एक ऐसी कार्यशैली बननी चाहिए, जो समस्त पर्वतीय क्षेत्रों के लिए आदर्श बने। यदि आज यह काम नहीं किया गया तो आने वाले समय में हिमालय एक बड़े खतरे से घिर जाएगा और यदि हिमालय खतरे में पड़ा तो देश भी पर्यावरणीय संकट से ग्रस्त हो जाएगा।

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