बड़े बांध और छोटे तालाब
हमारे पूर्वज जानते थे कि तालाबों से जंगल और जमीन का पोषण होता है। भूमि के कटाव एवं नदियों के तल में मिट्टी के जमाव को रोकने में भी तालाब मददगार हैं, लेकिन बड़े बांधों के निर्माण की होड़ ने हमारी उस महान परंपरा को नष्ट कर दिया।
1950 में भारत के कुल सिंचित क्षेत्र की 17 प्रतिशत सिंचाई तालाबों से की जाती थी। ये तालाब सिंचाई के साथ-साथ भू-गर्भ के जलस्तर को भी बनाए रखते थे, इस बात के ठोस प्रमाण उपलब्ध हैं। सूदूर भूतकाल में तो 8 प्रतिशत से अधिक सिंचाई तालाबों से ही होती थी। तालाबों में पाए गए शिलालेख इसके जीते-जागते प्रमाण हैं। इस स्वावलम्बी सिंचाई योजना का अंग्रेजों ने जानबूझकर खत्म करने का जो षड़यंत्र रचा था, उसे स्वतंत्र भारत के योजनाकारों ने बरकरार रखा है और वर्तमान, जनविरोधी,ग्राम-गुलामी की सिंचाई योजना को तेजी से लागू किया है। किसी भी देश की प्रगति या अवनति में वहां की जल संपदा का काफी महत्व होता है। जल की उपलब्धि या प्रभाव के कारण ही बहुत सी सभ्यताएं एवं संस्कृतियां बनती और बिगड़ी हैं। इसलिए हमारे देश की सांस्कृतिक चेतना में जल का काफी ऊंचा स्थान रहा है। हमारे पूर्वज जानते थे कि तालाबों से जंगल व जमीन का पोषण होता है। भूमि के कटाव एवं नदियों के तल में मिट्टी के जमाव को रोकने में भी तालाब मददगार होते हैं। जल के प्रति एक विशेष प्रकार की चेतना और उपयोग करने की समझ उनकी थी। इस चेतना के कारण ही गांव के संगठन की सूझ-बूझ से गांव के सारे पानी को विधिवत उपयोग में लेने के लिए तालाब बनाए जाते थे। इन तालाबों से अकाल के समय भी पानी मिल जाता था। जैसा कि गांवों की व्यवस्था से संबंधित अन्य बातों में होता था, उसी तरह तालाब के निर्माण व रख-रखाव के लिए भी गाँववासी अपनी ग्राम सभा में सर्वसम्मति से कुछ कानून बनाते थे। ये कानून ‘गंवई दस्तूर’ कहलाते थे। ये दस्तूर ‘गंवई बही’ में लिखे जाते थे, या मौखिक परंपरा के जरिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले जाते थे।
अलवर जिले के इस क्षेत्र में तालाब संबंधी कुछ पुराने गंवई दस्तूरों से ज्ञान हुआ है कि तालाब की ‘आगोर’ में कोई जूता लेकर प्रवेश नहीं करता था। शौचादि के हाथ अलग से पानी लेकर आगोर के बाहर धोए जाते थे। आगोर में किसी गांव सभा की अनुमति के बिना मिट्टी खोदना मना होता था। आगोर से नहीं बल्कि तालाब के जल ग्रहण क्षेत्र तक में शौचादि के लिए जाना मना था। तालाब के जल-ग्रहण क्षेत्र से भूमि कटकर नहीं आए और तालाब में जमा नहीं हो, इसकी व्यवस्था तालाब बनाते समय ही कर दी जाती थी, जिससे लंबे समय तक तालाब उथले नहीं हो पाते थे। जब तालाब की मरम्मत करने की आवश्यकता होती थी, तो पूरा गांव मिल-बैठकर, तय करके यह काम करता था। तालाब से निकलने वाली मिट्टी खेतों में डालने या कुम्हारों के काम में आती थी।
यह परंपरा 1890 तक तो बराबर चली। इसके बाद अंग्रेजों का ध्यान हमारे गंवई संगठनों, स्वैच्छिक संस्थाओं तथा लोगों के अभिक्रम को खत्म करने की तरफ गया। उन्होंने पूरी सक्रियता से इन सब सहज चलने वाली गंवई व्यवस्थाओं को खत्म करने की योजना विभिन्न प्रकार से बनाई-कहीं नहरी सिंचाई योजना तो कहीं बड़े बांध आदि के स्वप्न दिखाकर,तो कहीं हमारी उच्च सांस्कृतिक धरोहर, तालाब के जल की निंदा करके और कहीं हमारे देश की शिक्षापद्धति को प्रदूषित करके हमारे ही देशवासी तथा-कथित शिक्षित कहे जाने वाले लोगों द्वारा हमारी संस्कृति की बुराई कराके, लेकिन समृद्ध तालाबों की संपन्न परंपरा चालू रही। इन तालाबों से सिंचाई भी होती थी। इस तरह तालाब गांव की विकेंद्रित अर्थव्यवस्था का जीते-जागते उदाहरण थे। राजस्थान के जिन क्षेत्रों में केवल दो-चार सेंटीमीटर वर्षा होती थी, उनमें भी इन तालाबों के सहारे लोग व पशु जीवित रहते थे। जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर के महा मरुस्थल क्षेत्र कम वर्षा के बावजूद आज की अपेक्षा ज्यादा विकसित थे। पानी कम होते हुए भी इस क्षेत्र की पुरानी हवेलियां, महल, बड़े-बड़े बाजार, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार केंद्र यहां की तालाब व्यवस्था के कारण ही संपन्न हुए थे और उसकी उपयोगिता के प्रमाण थे।
1890 तक अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव देश में बढ़ गया था और अंग्रेजों का षडयंत्र सफल होने लगा था। सबसे पहले अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव हमारे यहां के राजाओं, सामंतों, जागीरदारों आदि पर पड़ा। जो पहले अकाल के समय तालाबों के निर्माण पर अधिक ध्यान देते थे, ये अब अपनी राजधानी के शहरों की चहारदीवारी बनाने आदि कामों को महत्व देने लगे। इनके पूर्वजों ने जो तालाब बनाए थे वे बिन देख-रेख के टूटने लगे, और जो एक बार टूट गया उसका पुनः निर्माण नहीं हुआ। इस प्रकार पुराने तालाब खत्म होते गए।
बड़े बांधों से ‘सिंचाई’ का बहाना तो सिर्फ लोगों की आंखों में धूल झोंकने के लिए था। अगर सही तथ्य सामने आएं तो वास्तव में बड़े बांधों के कारण कुल मिलाकर सिंचाई पहले की अपेक्षा कम ही हुई है, क्योंकि इन बांधों से नदियों के प्रवाह रुक जाने के कारण इन प्रवाहों के दोनों ओर की लाखों एकड़ जमीन और उसमें स्थित कुएं सूख गए हैं तथा भूगर्भ जल का स्तर पिछले दस-बीस बरसों में पचास से एक सौ फुट तक नीचे चला गया है स्वतंत्रता की लड़ाई में केवल बापू ने अपनी बातचीत और भाषणों में अवश्य गांव के तालाब को प्रतिष्ठित किया था, लेकिन अन्य लोगों का इस तरफ कोई विशेष ध्यान केंद्रित नहीं हुआ। अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेजियत में पले हमारे दूसरे नेता हमारी समाज व्यवस्था की खूबी को समझ नहीं पाए, बल्कि उसे हीन मानकर उसकी निंदा करते रहे। उस समय बापू ने चरखे के साथ-साथ गांव के तालाब-चारागाह के रख-रखाव को भी रचनात्मक कार्यक्रमों से जोड़ा होता तो अच्छा होता, हालांकि उनको खुद को तो इन सब बातों का ध्यान था। आजादी मिलने के समय ही बापू ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का ध्यान ग्राम-व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की ओर दिलाया था, लेकिन नेहरू पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित थे। उनकी प्राथमिकता भाखड़ा जैसे बांध बनाने की थी। देशी-विदेशी, निहित-स्वार्थी तत्वों ने इसका खूब फायदा उठाया। इन बड़ी-बड़ी सिंचाई योजनाओं से तालाबों पर सबसे अधिक प्रहार हुआ। बड़े बांध बनाने पर भारत सरकार 2008 तक अरबों-करोड़ों रुपये खर्च कर चुकी है। इन योजनाओं से दो करोड़ हेक्टेयर जमीन सिंचित होने का सरकारी दावा था। वास्तव में कितनी जमीन की सिंचाई ये योजनाएं कर रही हैं, यह कहा नहीं जा सकता, क्योंकि जिस प्रकार इनके आंकड़े इकट्ठे किए जाते हैं, उसके कारण सारी बात शंकास्पद है। इस अरसे में 246 बड़ी योजनाएं शुरू की गई थी, उनमें सिर्फ 65 योजनाएं अभी तक पूरी हुई हैं। इन बड़ी योजनाओं में अब जो घाटे की धारा बह रही है वह चौंकाने वाली है। असल में इन योजनाओं से बड़े-बड़े ठेकेदारों को मुनाफा, इंजीनियरों को घूस और नौकरी तथा नेताओं को लूट में हिस्सा मिलने के साथ वाह-वाही हासिल होती है और गांवों के पानी से बड़े उद्योगपतियों को सस्ती बिजली मिलती है। बड़े देशों की और बड़े कारखानों की बड़ी मशीनें, सीमेंट आदि की बिक्री करना, नहर बनाना, जिसमें गांव के गरीबों की जमीन जाए-इस तरह सारा लाभ चंद बड़े घरानों को मिलता है। यही सब हमारे नीति-निर्धारकों की ‘विकास’ की परिभाषा है।
बड़े बांधों से ‘सिंचाई’ का बहाना तो सिर्फ लोगों की आंखों में धूल झोंकने के लिए था। अगर सही तथ्य सामने आएं तो वास्तव में बड़े बांधों के कारण कुल मिलाकर सिंचाई पहले की अपेक्षा कम ही हुई है, क्योंकि इन बांधों से नदियों के प्रवाह रुक जाने के कारण इन प्रवाहों के दोनों ओर की लाखों एकड़ जमीन और उसमें स्थित कुएं सूख गए हैं तथा भूगर्भ जल का स्तर पिछले दस-बीस बरसों में पचास से एक सौ फुट तक नीचे चला गया है। इन बड़े बांधों का असली उद्देश्य तो किसान की स्वावलंबी व्यवस्था को तोड़कर उसे केंद्रित करने और बड़े-बड़े घरानों या बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ पहुंचाने का था। गांव-गांव में सिंचाई की जो परंपरागत स्वावलंबी व्यवस्था थी उसे समाप्त करके किसान का भाग्य इन लोगों के हाथों में सौंप दिया गया।
इन सीधे-सादे लेकिन असरकारक तालाबों की अब भी उपेक्षा करने की भूल की जा रही है। 1950 में भारत के कुल सिंचित क्षेत्र की 17 प्रतिशत सिंचाई तालाबों से की जाती थी। ये तालाब सिंचाई के साथ-साथ भू-गर्भ के जलस्तर को भी बनाए रखते थे, इस बात के ठोस प्रमाण उपलब्ध हैं। सूदूर भूतकाल में तो 8 प्रतिशत से अधिक सिंचाई तालाबों से ही होती थी। तालाबों में पाए गए शिलालेख इसके जीते-जागते प्रमाण हैं। इस स्वावलम्बी सिंचाई योजना का अंग्रेजों ने जानबूझकर खत्म करने का जो षड़यंत्र रचा था, उसे स्वतंत्र भारत के योजनाकारों ने बरकरार रखा है और वर्तमान, जनविरोधी,ग्राम-गुलामी की सिंचाई योजना को तेजी से लागू किया है।