अब भी ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को नजरअन्दाज करते हैं हम


आज हम जिस युग में जी रहे हैं, वह मानव निर्मित युग है, इस युग में किसी भी बदलाव को देख पाना हमारे लिये असम्भव नहीं है। लेकिन दुख इस बात का है कि हम अपने सामने के खतरे को जानबूझकर नजरअन्दाज करते जा रहे हैं। जबकि हम यह भलीभाँति जानते-समझते हैं कि इसका दुष्परिणाम क्या होगा। विचारणीय यह है कि यदि ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पर अंकुश लगाने में समय रहते हम नाकाम रहे और वह अपने चरम पर जा पहुँची, तब क्या होगा।

अब यह साबित हो चुका है कि ग्लोबल वार्मिंग की समस्या ने समूची दुनिया को अपनी जद में ले लिया है। जाहिर है कि इससे दुनिया के कमोबेश सभी देश जूझ रहे हैं। यही वह अहम वजह है जिसके चलते बीते साल पेरिस में दुनिया के तमाम देशों ने वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखने का लक्ष्य निर्धारित किया था।

दावे तो बहुत किये जा रहे हैं लेकिन विचारणीय यह है कि क्या हम ईमानदारी से उस लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। हकीकत यह है कि हम वैश्विक तापमान वृद्धि के मामले में पेरिस सम्मेलन में लिये निर्णय के बावजूद 3 से 4 डिग्री सेल्सियस तक तापमान वृद्धि की ओर तेजी से बढ़ते जा रहे हैं।

ग्रीनहाउस गैसों का अत्यधिक उत्सर्जन इसका प्रमुख कारण है। दुख इस बात का है कि इस दिशा में अभी तक हम कोई सार्थक पहल भी नहीं कर सके हैं। गौरतलब यह है कि उस दशा में क्या दुनिया रहने काबिल बची रह पाएगी? यही चिन्ता की असली वजह है।

इसमें भी दो राय नहीं है कि ग्लोबल वार्मिंग की समस्या आज के दौर की नहीं है। बल्कि यह समस्या तो आज से तकरीब दो सौ साल पहले जब औद्योगीकरण की शुरुआत हुई और इंसान ने कारखाना और भाप या कोयले से चलने वाले जहाजों और ट्रेनों का इस्तेमाल शुरू किया था, तब से ही शुरू हो गई थी। निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि 1800 शताब्दी के दौरान ही मानवीय गतिविधियों के चलते वायुमण्डल में ग्रीनहाउस गैसों का स्तर बढ़ना शुरू हुआ था।

इसका खुलासा बीते दिनों आस्ट्रेलियन नेशनल यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिक नैरोली अबराम के काफी लम्बे समय तक किये शोध के बाद हुआ है। इससे साफ हो जाता है कि आज ग्लोबल वार्मिंग की जो खतरनाक स्थिति है, वह बीते दो सौ साल के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के स्तर में धीरे-धीरे हुई बढ़ोत्तरी का परिणाम है जो आज इस भयावह स्थिति तक जा पहुँची है।

विडम्बना तो यह है कि आज हम जिस युग में जी रहे हैं, वह मानव निर्मित युग है, इस युग में किसी भी बदलाव को देख पाना हमारे लिये असम्भव नहीं है। लेकिन दुख इस बात का है कि हम अपने सामने के खतरे को जानबूझकर नजरअन्दाज करते जा रहे हैं। जबकि हम यह भलीभाँति जानते-समझते हैं कि इसका दुष्परिणाम क्या होगा।

विचारणीय यह है कि यदि ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पर अंकुश लगाने में समय रहते हम नाकाम रहे और वह अपने चरम पर जा पहुँची, तब क्या होगा। जाहिर है कि उस स्थिति में ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी, नतीजन समुद्र का जलस्तर तेजी से बढ़ेगा और समुद्र किनारे सैकड़ों की तादाद में बसे नगर-महानगर जलमग्न तो होंगे ही, तकरीब 20 लाख से ज्यादा की तादाद में प्रजातियाँ सदा-सदा के लिये खत्म हो जाएँगी। खाद्यान्न संकट होगा सो अलग। उसकी कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

इस सम्बन्ध में यदि दुनिया के जाने-माने वैज्ञानिक, अपना पूरा जीवन बर्फ की दुनिया के अध्ययन में खपाने वाले, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में ओशन फिजिक्स के प्रोफेसर और स्कॉट पोलर रिसर्च इंस्टीट्यूट के पूर्व डायरेक्टर पीटर बडहम्स की मानें तो 1970 में जब उन्होंने पहली बार ध्रुवीय अभियान की शुरुआत की थी, उस समय सितम्बर महीने में आर्कटिक महासागर में कम-से-कम आठ मीटर की बर्फ जमी थी। ग्रीनहाउस गैसों के अत्यधिक उर्त्सजन के चलते वह हर दशक में 13 फीसदी की दर से पिघल रही है। आज वहाँ केवल 3.4 मीटर की ही परत बची है। जिस दिन यह भी खत्म हो गई, तब क्या होगा।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस बार हमेशा बर्फ से ढँके रहने वाले इस इलाके में शिकागो, वियना और इस्ताम्बूल से ज्यादा गर्मी पड़ी है। वैज्ञानिकों ने भी काफी पहले इसके संकेत दे दिये थे। बीते सत्तर सालों में तीसरी बार उत्तरी ध्रुव में ऐसी गर्मी देखी गई। 1948 के बाद इस इलाके में तीसरी बार शून्य से ज्यादा पारा हुआ।

स्वाभाविक है कि उत्तरी ध्रुव के तापमान में इस बढ़ोत्तरी से आर्कटिक में बर्फ बनने की रफ्तार पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। ग्लोबल वार्मिंग के चलते पहले ही यहाँ बर्फ कम होती जा रही है। इस बारे में प्रख्यात मौसम विज्ञानी इरिक होल्थस कहते हैं कि मौसम में यह बदलाव भयानक और अविश्वसनीय रूप से दुर्लभ है। यह बदलाव का चरम है। मौसम में असामान्य बदलाव के चलते पहले ही यूरोप और पूर्वी अमेरिका में इस साल सर्दी के मौसम में तापमान बेहद ज्यादा रहा है।

वहीं दक्षिण अमेरिका में भारी बारिश हुई जो अप्रत्याशित थी। चीन और भारत भी इससे अछूता नहीं रहा हैं। जबकि उत्तरी अफ्रीका, पश्चिम और दक्षिण-पूर्व एशिया की तकरीब 50 करोड़ से अधिक की आबादी को अकाल और तापमान में बेहद बढ़ोत्तरी के चलते भीषण गर्मी झेलने को विवश होना पड़ा है।

चीन और भारत भी अमेरिका की तरह बीते एक दशक से बेहद गर्मी और बाढ़ की विभीषिका को झेलने को विवश हैं। यह कटु सत्य है कि आर्कटिक की बर्फ हमें असामान्य रूप से हुए अप्रत्याशित मौसमी कुप्रभावों से बचाने का काम करती है। बडहम्स के अनुसार ग्रीनहाउस गैसों के अत्यधिक उर्त्सजन के चलते आज आर्कटिक मौत का एक ऐसा कुचक्र बनता चला जा रहा है, जहाँ पर आने वाले दिनों में गर्मी के मौसम में बर्फ की सारी परतें न केवल थोड़ी बल्कि पूरी तरह पिघल जाएँगी।

यह स्थिति हम सबके लिये तबाही का कारण होगी। और तो और सितम्बर के महीने में वहाँ बर्फ बिल्कुल नहीं होगी और ऐसी स्थिति वहाँ लगभग चार से पाँच महीने तक बनी रहेगी। इसका दुष्प्रभाव समूची दुनिया पर पड़े बिना नहीं रहेगा।

अब सवाल यह उठता है कि इसका विकल्प क्या है? जाहिर है ऐसी स्थिति में तुरन्त कदम उठाने की जरूरत है तभी इस संकट से बचा जा सकता है।

यह तो निर्विवाद सत्य है कि इस समस्या का जनक भी मानव ही है और यह सब उसी के पागलपन का नतीजा है।

यह भी सच है कि उसे ही इसका हल तलाशना होगा। जाहिर है तकनीकी बदलाव के इस युग में किसी बात का दावा तो नहीं किया जा सकता और न किसी प्रकार की भविष्यवाणी ही की जा सकती है। हाँ उससे निपटने हेतु कुछ प्रयास अवश्य किये जा सकते हैं।

यह भी सच है कि इस समस्या का जन्मदाता ही इस खतरे से निपट सकता है। वह विकास का ऐसा दौर शुरू करे जो स्थायी भविष्य का आधार बने। उसका एकमात्र हल यही है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को तेजी से कम किया जाये। यही आशा का एक ऐसा बिन्दु है जो उज्ज्वल भविष्य की गारंटी दे सकता है। ऐसा किये बिना इस समस्या का निदान असम्भव है। अन्यथा यह विचार हीजीवन की आशा की डोर टूटने के लिये काफी है कि यदि यह बर्फ पिघल गई तब क्या होगा। आखिर तब कहाँ जायेंगे हम?

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading