आड़े नहीं आएगी सिंचाई की समस्या

कृषि अनुसंधान केंद्र, दुर्गापुरा के वैज्ञानिकों ने किसानों को नायाब तोहफा दिया है। उन्होंने किसानों की उस चिंता को दूर का दिया है जो अभी तक आए दिन बनी रहती थी। यानी अब किसान बिना पानी यानी सिंचाई के अभाव में भी फसल उगा सकेंगे। केंद्र के वैज्ञानिकों ने इस योजना को अमलीजामा पहनाने में करीब 10 साल तक मेहनत की तब जाकर वे अपने मकसद में कामयाब हो सके हैं। उन्होंने तैयार की है थायो यूरिया जैव नियामक तकनीक।राजस्थान देश का सबसे बड़ा राज्य है जिसका क्षेत्रफल 342 लाख हेक्टेयर है जोकि देश के क्षेत्रफल का 10.4 प्रतिशत है। देश की कुल जनसंख्या का 5.12 प्रतिशत राजस्थान प्रदेश में है जबकि पानी केवल एक प्रतिशत ही है जिसका ज्यादातर हिस्सा फसल उत्पादन में उपयोग होता है। इसलिए यह अत्यंतावश्यक है कि उपलब्ध पानी का उपयोग पूरी दक्षता के साथ हो। भारत की खाद्यान्न फसलों में गेहूं रबी की एक महत्वपूर्ण फसल है जो कि लगभग 98 प्रतिशत सिंचित क्षेत्रों में उगाई जाती है। राजस्थान में वर्ष 2008-09 में गेहूं के अंतर्गत क्षेत्रफल 20.73 लाख हेक्टेयर, उत्पादन 57.40 लाख टन मिला था एवं उत्पादकता 2773 किग्रा थी। वर्तमान समय में बढ़ती जनसंख्या व घटते संसाधनों (भूमि, सिंचाई, जल, श्रम आदि) के कारण गेहूं का उत्पादन एक स्तर पर आकर ठहर-सा गया है। गेहूं की उच्च उत्पादन दक्षता वाली उन्नत किस्मों के विकास के उपरांत भी उनकी दक्षता का पूर्ण दोहन नहीं हो पा रहा है एवं उपज में वांछित वृद्धि नहीं हो पा रही है।

अतः ऐसी परिस्थितियों में यह आवश्यक हो जाता है कि किस्मों की उच्च उत्पादन दक्षता का अधिक-से-अधिक दोहन हो सके। इसके लिए व्यापक अनुसंधान की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर एवं भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मुंबई के संयुक्त तत्वावधान से गेहूं में जैव नियामकों के प्रयोग संबंधित अनुसंधान राज्य अनुसंधान केंद्र व किसानों के खेतों पर किए गए जिनमें काफी सकारात्मक व उत्साहजनक परिणाम प्राप्त हुए। फण्डेड यह परियोजना 1998 में शुरू हुई और 2007-08 तक चली। दुर्गापुरा अनुसंधान केंद्र की प्रयोगशाला में सालों परखने के बाद इसे खेतों में लाया गया। इस परियोजना पर करीब डेढ़ करोड़ रुपये खर्च हुए। केंद्र के वैज्ञानिकों ने इस योजना को अमलीजामा पहनाने में करीब 10 साल तक मेहनत की तब जाकर वे अपने मकसद में कामयाब हो सके हैं। उन्होंने तैयार की है थायो यूरिया जैव नियामक तकनीक।

अनुसंधान के इन परिणामों से ज्ञात हुआ कि गेहूं की फसल में यदि जैव नियामकों का समयानुसार प्रयोग किया जाए तो कम खर्च में ही अधिक लाभ लिया जा सकता है। विभिन्न जैव नियामकों की तुलना में थायोयूरिया जैव नियामक अधिक उपयुक्त एंव आर्थिक रूप से फायदेमंद पाए गए हैं। थायोयूरिया एक प्रकार का पाउडर है जिसमें जैव नियामक सल्फाहाईड्रिल मिला रहता है। यह जैव नियामक पौधे के अंदर प्रकाश संश्लेषण द्वारा बनाए गए भोजन को तनों व पत्तियों तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। साथ ही यह पौधे को सूखने नहीं देता। जिन पौधों में सल्फाहाईड्रिल की मात्रा होती है, उनमें भोजन का संवहन उतना ही अधिक तेज व प्रभावी होता है। इससे पौधे में दाना निर्माण व भराव की प्रक्रियाएं तेज हो जाती हैं।

जैव नियामकों की फसल उत्पादन में भूमिका


फसल उत्पादन में सल्फाहाईड्रिल समूह युक्त जैव नियामकों की उपयोगिता व्यापक अनुसंधानों के परिणाम द्वारा भली-भांति स्पष्ट हो चुकी है। यह जैव नियामक फसल को अनेक प्रकार से लाभान्वित करते हैं। मुख्य रूप से ये जैव नियामक पौधों में प्रकाश संश्लेषण द्वारा संश्लेषित पदार्थों की संवहन प्रक्रिया को उत्प्रेरित कर उपज को बढ़ाने में सहायक होते हैं। पौधों में शुष्क पदार्थ संग्रहण एवं उपज के निर्माण के शुष्क पदार्थ शर्करा के संवहन में विशेष प्रकार से प्रोटीन की भूमिका होती है, इसको सुक्रोज ट्रांसपोर्ट प्रोटीन कहते हैं। इस प्रोटीन की क्रियाशीलता इसमें पाए जाने वाले सल्फाहाईड्रिल समूह की मात्रा जितनी अधिक एवं संतुलित होती है उन पौधों में शर्करा का संवहन उतना ही अधिक तेज एवं प्रभावी होता है जिससे पौधों में दाना निर्माण एवं भराव की क्रियाएं उतनी ही तेज एवं प्रभावी होती हैं। यही कारण है कि सूखा प्रभावित फसल में थायो यूरिया के पर्णीय छिड़काव से दोनों में शर्करा पदार्थ का संवहन तेज हो जाता है जिससे दोनों की संख्या व आकार बढ़ जाता है जिससे उपज अधिक हाती है। थायोयूरिया (आधा ग्राम प्रति लीटर पानी) के घोल का छिड़काव किया तथा फसल में 5 सिंचाईयां करने पर गेहूं के दाने की उपज 39 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, जल उपयोग दक्षता 12.18 तथा शुद्ध आय 36,303 रुपए रही जबकि बिना थायोयूरिया के प्रयोग के 6 सिंचाईयों से दाने की उपज 38.29 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, जल उपयोग दक्षता 10.34 तथा शुद्ध आय 35,641 रुपए प्राप्त हुई।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि गेहूं की फसल में थायोयूरिया के 500 पीपीएम का घोल बनाकर बीज को भिगोकर तथा एक छिड़काव 35-40 दिन बाद (फुटान की अवस्था पर) करने से अधिक उत्पादन किया जा सकता है तथा एक सिंचाई की बचत की जा सकती है। इस प्रकार थायो यूरिया के प्रयोग द्वारा गेहूं के उत्पादन में बढ़ोतरी कर अधिक लाभ प्राप्त कर देश एंव राज्य के खाद्यान्न के विकास में एक नया आयाम दिया जा सकता है।

वैज्ञानिकों का दावा


कृषि वैज्ञानिक डॉ. पीके शर्मा, डॉ. सुदेश कुमार ने दावा किया कि इस नई तकनीक से सरसों तो बिना पानी के ही तैयार हो सकती है। इसके अलावा गेहूं जौ, चना आदि फसलों में अभी तक जितने पानी की आवश्यकता पड़ती थी वह काफी कम हो जाएगी। यह थायो यूरिया जैव नियामक तकनीक जब किसानों के खेतों में परखी तो परिणाम आश्चर्यजनक आए। यह तकनीक गिरते भूजल से परेशान प्रदेश की धरती के लिए वरदान साबित हो सकती है।

यहां हुआ प्रयोग


चाकसू में टोंक रोड से पांच किमी. दूर बाडापदमपुरा के पास हरिपुरा गांव में 48 वर्षीय किसान प्रह्लाद शर्मा की चार हेक्टेयर जमीन में से एक हेक्टेयर में सरसों व एक हेक्टेयर में गेहूं बोया। वैज्ञानिकों के निर्देशन में वहां जैव नियामक तकनीक अपनाई गई, जिससे उनके पास वाले खेत में पानी में उगी इन्हीं फसलों में रात-दिन का अंतर नजर आया। उनके खेत में सरसों की फसल में दाने मोटे, गूदेदार और ज्यादा तेलयुक्त निकले। इस तकनीक में सरसों में दो छिड़काव होंगे। पहले में एक हेक्टेयर में 450 लीटर पानी में 225 ग्राम थायोयूरिया मिलाया जाता है। दूसरे छिड़काव में 450 लीटर पानी में 300 ग्राम थायो यूरिया डाला जाता है। मात्र 400 रुपये मूल्य के 550 ग्राम थायो यूरिया व 900 लीटर पानी में एक हेक्टेयर फसल तैयार हो सकती है। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि इस तकनीक को अपनाने से गेहूं में पांच की जगह तीन सिंचाई देनी पड़ती हैं। इसी तरह चना व जौ में भी लगभग आधा पानी लगता है। इसके बाद गेहूं में जैव नियामक तकनीक से दानों से भारी मोटी बालियां निकली। अब इस योजना को अपनाने के लिए आसपास के किसानों में होड़ लगी हुई है। गांव के किसान पेमाराम ने बताया कि वैज्ञानिकों से उन्होंने भी संपर्क किया है। अगली फसल वे जैव नियामक तकनीकी से ही तैयार करेंगे क्योंकि इसमें फायदे-ही-फायदे हैं। इसी तरह गांव के दूसरे किसान भी इस तकनीकी को अपनाने के लिए लालायित हैं।

हो सकती है तिलहन क्रांति


कृषि वैज्ञानिकों का दावा है कि इस तकनीक को अपनाकर राज्य में तिलहन क्रांति का सपना साकार किया जा सकता है। अभी तक राज्य में सरसों बुवाई करीब 20.62 लाख हेक्टेयर में होती है। देश का 40 फीसदी सरसों राज्य में ही पैदा होता है। थायोयूरिया तकनीक के इस्तेमाल से सिर्फ सरसों से ही 322 करोड़ रुपये की अतिरिक्त आय प्राप्त की जा सकती है। गेहूं में भी 362 करोड़ रुपये की अतिरिक्त आय ली जा सकती है। पानी लगातार जमीन के अंदर जा रहा है, ऐसे में यह तकनीक राज्य में क्रांती ला सकती है। तिलहन में तो क्रांती आएगी ही, गेहूं, चना, जौ व अन्य फसलों में भी यह तकनीक कारगर है। वहीं कृषि अनुसंधान केंद्र दुर्गापुरा के क्षेत्रीय निदेशक डॉ. ओपी गिल का कहना है कि इस तकनीक को अब हम सब्जियां उगाने में इस्तेमाल करने के लिए अनुसंधान करेंगे। निश्चित रूप से किसानों को इसका लाभ मिलेगा। एक तरफ जहां किसान कम लागत में अधिक उत्पादन कर सकेंगे वहीं राज्य में सब्जी की समस्या भी खत्म हो जाएगी। कई बार हम कुछ सब्जियों को दूसरे राज्यों से मंगवाते हैं; ऐसे में उनका मूल्य काफी अधिक पड़ जाता है। इस तकनीकी को अपनाने से आम लोगों को काफी फायदा मिलेगा।

तिलहन एवं दलहन उत्पादन मिशन


राज्य के किसानों को जागरूक करने के लिए तिलहन एवं दलहन उत्पादन मिशन चलाया जा रहा है। इसके तहत जहां किसानों को बीज पर छूट की व्यवस्था की गई है वहीं खेती के दौरान बरती जा रही सावधानियों से भी अवगत कराया जा रहा है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं), ई-मेलः jprvijay@yahoo.com

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