आदिवासियों का सहारा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना

आदिवासी समुदाय की सजगता, आपसी सहयोग, पंचायत प्रतिनिधियों की निष्ठा एवं स्वयंसेवी प्रयास से उपजी यह कहानी एक ग्राम पंचायत की है। यदि यह सफल कहानी न केवल झाबुआ वरन सम्पूर्ण राष्ट्र की बने तो न गाँव से शहरों की ओर पलायन होगा, न भूख से मौतें होंगी, न आदिवासी बनियों के ऋणी होंगे, न कोई बच्चा पलायन के कारण स्कूल छोड़ेगा और न ही योजनाओं में भ्रष्टाचार होगा। गरीबी, बीमारी, भुखमरी, बेरोजगारी और पलायन की मार झेल रहे आदिवासी समुदाय के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना एक सहारा बनकर उभरी है। उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश की 20.3 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासी समुदाय की है जो अनेक समस्याओं का सामना करते हुए अभावपूर्ण जीवन जी रही है। रोटी के अभाव मे भूखे पेट सोना, इलाज के अभाव में अकाल ही काल की गोद में समा जाना आदिवासी क्षेत्रों की कड़वी सच्चाई है। अपनी पारम्परिक अर्थव्यवस्था जो कि पूर्णतः वनों पर आधारित थी, के छिन्न-भिन्न हो जाने से वे दर-दर की ठोकरें खाने को विवश हैं। घने जंगल एवं वन्य प्राणी जिनसे वे मनोवैज्ञानिक रूप से जुड़े थे और जो उनके जीवनयापन के आधार थे, अब नष्ट हो गए हैं।

इस प्रक्रिया से जहाँ एक ओर प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ा वहीं दूसरी ओर आदिवासी और ज्यादा गरीब एवं असहाय हुए हैं। उनकी हस्तकला क्षीण हो गई है, संगीत और नृत्य जो उनके आनन्द एवं उत्सव के साधन थे, अब कहीं दिखाई नहीं देते। 60 वर्षों के विकास के प्रतिफल में यदि आदिवासियों को कुछ मिला है तो वह है विस्थापन और पलायन। विस्थापन विकास के नये मन्दिरों से उपजी समस्या है जिसने पलायन को और अधिक बढ़ाया है।

आदिवासी क्षेत्रों मे कृषि जोत का छोटा आकार, अनुपजाऊ भूमि, सिंचाई स्रोतों एवं बिजली का अभाव, स्थानीय श्रम की अनुपलब्धता एवं ऋणग्रस्तता आदि के कारण प्रतिवर्ष यह समुदाय छह या सात माह के लिए रोजगार की तलाश में पास के राज्यों में पलायन करता है। लक्षित सार्वजनिक प्रणाली हेतु जून 2003 में किए गए एक सर्वे के अनुसार, सम्पूर्ण झाबुआ जिले से करीब 27,007 परिवार स्थायी रूप से पलायन कर गए थे। दिनेश पाटीदार एवं ज्ञान प्रकाश (2004) ने इन्दौर शहर पर आधारित प्रवासी आदिवासी श्रमिकों के अध्ययन में बताया कि अकेले इन्दौर शहर में प्रवासी आदिवासी श्रमिकों की संख्या 44,694 थी जो कि कुल नगरीय जनसंख्या का 3.46 प्रतिशत थी। कुल मिलाकर आज से चार वर्ष पूर्व तक प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों की 75 प्रतिशत आबादी वर्ष में छह या सात माह अपने घर-परिवार को छोड़कर काम की तलाश में पलायन कर जाती थी।

पलायन के कारण एक तरफ तो आदिवासी समुदाय को कई समस्याओं यथा − पशुधन, गहने एवं भूमि को बेचना या गिरवी रखना, अपनों से दूर होना, जहाँ काम मिला उस व्यवस्था द्वारा शोषण आदि का सामना करना पड़ता है वहीं दूसरी ओर शासकीय योजनाओं का क्रियान्वयन भी बाधित होता है। बच्चे स्कूल छोड़कर माता-पिता के साथ पलायन कर जाते हैं और जब गाँवों में बुजुर्गों के अलावा कोई बचता ही नहीं तो योजनाओं का क्रियान्वयन भी कागजों पर चलना स्वाभाविक है।

पलायन एवं बेरोजगारी की समस्या एक-दूसरे से जुड़ी हुई है। इस समस्या से आदिवासी समुदाय को निजात दिलाने के लिए विगत छह दशकों से सरकार एवं स्वयंसेवी संस्थाएँ कृतसंकल्प हैं किन्तु इन सब के बावजूद पलायन एवं बेरोजगारी का आँकड़ा आदिवासी समुदाय के सन्दर्भ में सदैव उल्लेखनीय बना रहा है।

करीब दो साल पहले एक और सरकारी प्रयास राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना अधिनियम, 2005 के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत हुआ। अधिनियम को लागू हुए एक वर्ष से अधिक का समय बीत चुका है और इस दौरान कई प्रकार के अनुभव हमारे सामने आए हैं। इन्हीं अनुभवों में से एक है मध्य प्रदेश का पिछड़ा एवं आदिवासी बहुल झाबुआ जिले के पेटलावद विकासखण्ड का कचराखादन गाँव जो राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना की क्रियान्विति की एक सशक्त तस्वीर प्रस्तुत करता है। यह गाँव छह फलियों − हिंगार, परमार, डामर, पटेल, नवापाड़ा तथा हिंगाड़ से मिलकर बना है। गाँव में तीन इजीएस स्कूल, एक प्राथमिक, एक माध्यमिक स्कूल तथा दो आँगनवाड़ियाँ हैं। ग्राम पंचायत कचराखादन तीन गाँवों − जम्मूणियाँ, सापरी और कचराखादन की सम्मिलित पंचायत है। गाँव में स्वयंसेवी संस्था सम्पर्क ने जल-ग्रहण परियोजना के अन्तर्गत कार्य किया तथा गाँव में चार महिला स्व-सहायता समूह बनाए हैं जो अब भी सशक्त हैं। यूनीसेफ के माध्यम से संस्था ने गाँव में 25 सौर लाईट लगाई हैं।

पंचायत सचिव कहते हैं कि, इस वर्ष राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना लागू होने के कारण पंचायत में सम्मिलित तीनों गाँवों की 75 प्रतिशत आबादी को काम मिला है और मात्र 25 प्रतिशत आबादी ने ही पलायन किया है।पंचायत सचिव कहते हैं कि, इस वर्ष राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना लागू होने के कारण पंचायत में सम्मिलित तीनों गाँवों की 75 प्रतिशत आबादी को काम मिला है और मात्र 25 प्रतिशत आबादी ने ही पलायन किया है। गाँव की झंगुड़ी, दहमा, फुन्दी और दाफुबाई कहती हैं कि हमें 90 से 100 दिन के बीच काम मिला है। हम बहुत खुश हैं क्योंकि हमें पहली बार पुरुषों के बराबर काम दाम (मजदूरी) मिला है। भूरा भाई, धन्ना भाई, कांजी भाई और रतन भाई कहते हैं कि पहले सरपंच अपने करीबियों या रिश्तेदारों को ही काम देता था पर अब हम सब को काम मिल रहा है। रायचन्द, खुशाल एवं गट्टु भाई कहते हैं कि इस वर्ष हमने पलायन नहीं किया क्योंकि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना के द्वारा गाँवों में काम मिल गया है। जिनके घर में काम करने लायक एक से ज्यादा व्यक्ति हैं उन सभी को रोजगार दिया गया है।

शम्भू भाई कहते हैं कि पहले जो बोलता था उसी को काम मिलता था किन्तु अब जॉबकार्ड है तो सभी को रोजगार मिल रहा है, साथ ही पहले मजदूरी भी कम देते थे किन्तु अब 63 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी मिल रही है। हरू एवं राधु भाई कहते हैं कि इस वर्ष गाँव में मजदूरी मिलने के कारण हम हमारे परिवार, समुदाय एवं गाँव से दूर नहीं हुए हैं। हम खुश हैं क्योंकि मजदूरी मिलने के साथ-साथ जो भी कार्य किया उससे हमारे गाँव का विकास हुआ है। बच्चे स्कूल जा रहे हैं, इस वर्ष किसी को भी स्कूल नहीं छोड़ना पड़ा। रमेश भाई कहते हैं कि कई लोगों को 100 दिन पूरे होने के बावजूद भी मजदूरी दी जा रही है क्योंकि जो लोग पलायन कर गए हैं उनके काम के दिन बाकी हैं।

इस सफलता और खुशहाली की कहानी के पीछे स्वयंसेवी संस्था सम्पर्क का महत्त्वपूर्ण योगदान है जो आदिवासियों को अपने अधिकारों के प्रति सजग करने, उनमें मोल-तोल की ताकत पैदा करने तथा सम्मान के साथ जीने के बुनियादी अधिकार को बार-बार दोहरा रही है। आदिवासी समुदाय की सजगता, आपसी सहयोग, पंचायत प्रतिनिधियों की निष्ठा एवं स्वयंसेवी प्रयास से उपजी यह कहानी एक ग्राम पंचायत की है। यदि यह सफल कहानी न केवल झाबुआ वरन सम्पूर्ण राष्ट्र की बने तो न गाँव से शहरों की ओर पलायन होगा, न भूख से मौतें होंगी, न आदिवासी बनियों के ऋणी होंगे, न कोई बच्चा पलायन के कारण स्कूल छोड़ेगा और न ही योजनाओं में भ्रष्टाचार होगा।

(लेखक आईसीएसएसआर, उज्जैन में शोध अध्येता हैं)
ई-मेल : sr_uday20@rediffmail.com

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