ऐसे तो नहीं आएगी कृषि क्षेत्र में क्रान्ति

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देश की 60 फीसद कृषि भूमि की सिंचाई अब भी बारिश के भरोसे है। इन क्षेत्रों को सिंचाई के साधन मुहैया कराने का काम बहुत ही मन्द गति से चल रहा है। हर साल जितने रकबे की सिंचाई के दायरे में लाया जाता है उतनी ही पुरानी क्षमता खत्म हो जाती है। इससे सिंचित क्षेत्र का आँकड़ा लम्बे अरसे से 40 फीसद के स्तर पर ही टिका हुआ है। इस बार बजट में नाबार्ड में पहले से ही स्थापित दीर्घावधिक सिंचाई कोष को बढ़ाकर 40,000 करोड़ रुपए किया गया है। इसके साथ ही 5000 करोड़ रुपए के सूक्ष्म सिंचाई कोष की घोषणा की गई है।

कृषि क्षेत्र के लिये सरकार ने बजट में जो प्रावधान किये हैं फौरी तौर वह आकर्षक दिख सकते हैं, लेकिन इनकी तह में जाकर देखें तो किसानों के साथ सिर्फ धोखा किया गया है। वित्त वर्ष 2017-18 के लिये कृषि क्षेत्र को 51,026 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, जो सरकार के 51.47 लाख करोड़ रुपए के कुल बजट का महज 2.37 फीसद है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश की 125 करोड़ की आबादी का पेट भरने का जिम्मा इसी क्षेत्र पर है।

देश की कुल आबादी के 60 फीसद लोगों की आजीविका खेती-किसानी पर ही निर्भर है। इस स्थिति में मामूली रकम से कृषि क्षेत्र में कोई क्रान्ति नहीं लाई जा सकती। बजट में किये गए प्रावधानों पर सरकार भले ही अपनी पीठ थपथपा रही हो, मगर इनकी जमीनी हकीकत देखने पर साफ पता चलता है कि ये हास्यास्पद और सिर्फ कागजी उपाय हैं।

फसल ऋण का झाँसा

बजट में अगले वित्त वर्ष के लिये 10 लाख करोड़ रुपए का कृषि ऋण देने का लक्ष्य रखा गया है। जब इस क्षेत्र का कुल बजट 51,026 लाख करोड़ रुपए का है तो फिर 10 लाख करोड़ रुपए की घोषणा कैसे कर दी गई? हकीकत यह है कि विभिन्न बैंक और वित्तीय एजेंसियाँ किसानों को सीमित अवधि के लिये फसली ऋण मुहैया कराते हैं। बैंक किसानों को इतना कर्ज मुहैया करा पाएँगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं है।

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि बैंकों से कर्ज लेना अब भी आसान काम नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि यही बैंक उद्योग जगत को हर साल इससे भी काफी ज्यादा कर्ज देते हैं फिर बजट में उस धनराशि का जिक्र क्यों नहीं किया गया। इससे साफ जाहिर होता है कि कर्ज की राशि के नाम पर सीधे-सीधे किसानों को झाँसा दिया गया है। ऐसे में कृषि ऋण को बजट में दिखाया जाना किसी भी सूरत में उचित नहीं है। कुल मिलाकर देखें तो यह संसदीय नियमावली के खिलाफ है।

सिंचाई की अनदेखी

देश की 60 फीसद कृषि भूमि की सिंचाई अब भी बारिश के भरोसे है। इन क्षेत्रों को सिंचाई के साधन मुहैया कराने का काम बहुत ही मन्द गति से चल रहा है। हर साल जितने रकबे की सिंचाई के दायरे में लाया जाता है उतनी ही पुरानी क्षमता खत्म हो जाती है। इससे सिंचित क्षेत्र का आँकड़ा लम्बे अरसे से 40 फीसद के स्तर पर ही टिका हुआ है। इस बार बजट में नाबार्ड में पहले से ही स्थापित दीर्घावधिक सिंचाई कोष को बढ़ाकर 40,000 करोड़ रुपए किया गया है। इसके साथ ही 5000 करोड़ रुपए के सूक्ष्म सिंचाई कोष की घोषणा की गई है।

इस कोष का लक्ष्य ‘प्रति बूँद, अधिक फसल’ रखा गया है। मैंने सरकार को बार-बार देता आया हूँ कि सिंचाई के साधन बढ़ाने के लिये एक प्रभावी योजना की जरूरत है। इस पर करीब छह लाख करोड़ रुपए का खर्च आएगा। इसमें केन्द्र और राज्यों की बराबर भागीदारी होनी चाहिए। दस साल की इस योजना में हर साल 60,000 करोड़ रुपए खर्च करने होंगे। इस योजना के सिरे चढ़ने पर देश में अनाज की पैदावार पहले वर्ष से ही ढाई गुना तक बढ़ जाएगी। इसके जरिए देश से बेरोजगारी, गरीबी और सब्सिडी जैसी बड़ी समस्याओं को दूर किया जा सकता है। बजट में सिंचाई के लिये जो उपाय किये गए हैं वह मौजूदा स्थिति में कारगर साबित नहीं हो पाएँगे। 

 

 

कृषि को प्रावधान

1.

वर्ष 2017-18 के लिये कुल 51,026 लाख करोड़ रुपए का आवंटन

2.

किसानों को 10 लाख करोड़ रुपए का कर्ज मुहैया कराने का लक्ष्य

3.

फसल ऋण पर ब्याज सहायता के लिये 15,000 करोड़ रुपए मिलेंगे

4.

फसल बीमा योजना का दायरा बढ़ाकर 40 फीसद तक किया जाएगा

5.

इस योजना के लिये आवंटन बढ़ाकर 9000 करोड़ रुपए किया गया

6.

सिंचाई के लिये नाबार्ड का कोष बढ़ाकर 40,000 करोड़ रुपए होगा

7.

नाबार्ड में सूक्ष्म सिंचाई योजना के लिये 5000 करोड़ रुपए का कोष

 

मंडी व्यवस्था में सुधार


किसानों की उपज का वाजिब दाम दिलाने के लिये मंडी व्यवस्था में सुधार की सख्त दरकार है। सरकार ने बाजार हस्तक्षेप योजना और मूल्य समर्थन योजना के तहत अगले वित्त वर्ष के लिये करीब 200 करोड़ रुपए का प्रावधान किया है। राज्यों को जल्द खराब होने वाली जिंसों कृषि मंडी कानून की सूची से बाहर करने का सुझाव दिया गया है, ताकि किसान इन उत्पादों को मंडी से बाहर बेहतर मूल्यों पर बेच सके। साथ ही इलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-नाम) के दायरा बढ़ाने की घोषणा की गई है।

हकीकत यह है कि ई-नाम से किसानों को कोई फायदा नहीं हो रहा है और भविष्य में होने की भी कोई उम्मीद नहीं है। इसका लाभ सिर्फ व्यापारी वर्ग उठा रहा है। देशभर की मंडियों में अब भी लाइसेंसराज चल रहा है। सरकार को किसानों के हित में लाइसेंस की व्यवस्था को समाप्त करना चाहिए। देशभर में ब्लॉक स्तर पर मंडी स्थापित की जाएँ। यहाँ लाइसेंस की जगह आढ़ती का सिर्फ पंजीकरण सुनिश्चित किया जाये। इससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा और किसानों को एक साथ कई मोर्चों पर फायदा भी होगा।

फसल बीमा योजना


मोदी सरकार प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को किसानों के हित में अपनी विशेष उपलब्धि के रूप में मानकर चल रही है। इस बीमा के दायरे में अगले वित्त वर्ष में 40 फीसद कृषि रकबे को लाने का लक्ष्य तय किया गया है।

बजट में इस योजना के लिये 9,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। वास्तव में यह कोई नई योजना नहीं है। वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में फसल बीमा योजना के नाम से एक प्रभावी योजना शुरू की गई थी। अब इसमें प्रधानमंत्री शब्द और जोड़ दिया गया है। हकीकत यह है कि इससे ज्यादा प्रभावी तो पुरानी योजना थी। नई योजना में नुकसान का आकलन ब्लॉक या तालुका स्तर पर करने का प्रावधान किया गया है। साथ ही क्षेत्र की 70 फीसद फसल बर्बाद होने पर बीमा का दावा किया जा सकता है।

जाहिर है, यदि किसी आपदा से 10 या 15 फीसद किसानों की फसल नष्ट होने पर नुकसान की भरपाई नहीं की जाएगी। जब बाजार में टीवी, फ्रिज, मोबाइल, बाइक और कार का बीमा हो सकता है तो फिर एक किसान की फसल का अलग से बीमा क्यों नहीं किया जा सकता? दरअसल, सरकार बीमा का दायरे तो बढ़ा रही है परन्तु किसानों के आर्थिक सुरक्षा कवर पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा। इससे साफ जाहिर होता है कि फसल बीमा क्षेत्र में काम कर रही निजी और सार्वजनिक कम्पनियों को फायदा पहुँचाया जा रहा है। बजट में किसानों को व्यक्तिगत रूप से फसल बीमा का दावा करने का प्रावधान किया जाना चाहिए था।

कैसे बढ़ेगी आय

मोदी सरकार ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा है। सरकार की इस पहल की निश्चित तौर पर सराहना होनी चाहिए। लेकिन पिछले करीब ढाई साल में तो किसानों की स्थिति में कोई सुधार नहीं दिख रहा है। इस दिशा में सरकार की योजनाएँ कागजों पर बेशक आकर्षित दिखती हों किन्तु धरातल पर सिर्फ कोरी साबित हो रही हैं। देश में किसानों को हर साल पैदावार बढ़ाने के लिये कहा जाता है। जब किसी फसल की बम्पर पैदावार हो जाती है तो उसके दाम कम हो जाते हैं। दूसरा, जब फसल किसान के घर में होती हैं तो व्यापारी औने-पौने दाम लगाते हैं।

यही फसल जब व्यापारियों के गोदामों में पहुँच जाती है तो वे कई गुना कीमतें बढ़ा देते हैं। आलू और टमाटर का ताजा मामला सबके सामने है। उचित दाम नहीं मिल पाने की वजह से देश के कई हिस्सों में किसानों को अपने आलू और टमाटर की फसलें खेतों में ही जोतनी पड़ी हैं। जबकि सरकार ने वर्ष 2014 के लोक सभा चुनाव के घोषणा पत्र में स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करने की घोषणा की थी। इस रिपोर्ट में किसानों की कुल लागत में 50 फीसद लाभ जोड़कर फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने का सुझाव दिया था। इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है। यह लिखित वादा पूरा न करना सरासर धोखाधड़ी है।

लेखक पूर्व केन्द्रीय कृषि मंत्री हैं।
 

 

 

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