अकाल मंडराने लगा है

23 Jul 2012
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शिवराम की एक कविता है अकाल। उसकी कुछ लाइनें हैं
‘रूठ जाते हैं बादल/ सूख जाती हैं नदियाँ /सूख जाते हैं पोखर-तालाब/ कुएँ-बावड़ी सब/ सूख जाती है पृथ्वी/ बहुत-बहुत भीतर तक / सूख जाती है हवा / आँखों की नमी सूख जाती है / हरे भरे वृक्ष / हो जाते हैं ठूँठ /डालियों से /सूखे पत्तों की तरह /झरने लगते हैं परिंदे/ कातर दृष्टि से देखती हैं /यहाँ-वहाँ लुढ़की / पशुओं की लाशें’
इस बार के अकाल में कई ऐसे हैं जो महाभोज की तैयारी कर रहे हैं। इस आलेख में अकाल की राजनीति और उपजने वाली दर्द को व्यक्त कर रहे हैं कुमार प्रशांत।

मुश्किल यह है कि हम किसकी मानें- कृषिमंत्री शरद पवार की या मानसून से आते संदेशे की? पवार वर्षों से यही कह रहे हैं कि देश में खेती-किसानी अच्छी चल रही है, पैदावार बढ़ी है और हमारे गोदामों में भरे अनाज के कारण हमारी स्थिति इतनी अच्छी है कि चिंता की कोई बात नहीं है। इस बार बरसात का मौसम बारिश लेकर नहीं, सूखा लेकर आया है। लेकिन शरद पवार कहते हैं कि वर्षा के लिए चिंतित होने की जरूरत नहीं है क्योंकि जुलाई में पूरी बारिश होगी।

जब यह लिख रहा हूं, जुलाई का आधा महीना गुजर चुका है और मौसम विभाग के आकलन के मुताबिक देश भर में कोई तीस फीसद बारिश कम हुई है। बादल खाली आते हैं और लौट जाते हैं, खेत प्यासे पड़े हैं, जो रोपाई हुई थी वह सूख कर खत्म होने की हालत में है। किसान नई रोपाई कैसे करे जबकि खेत तैयार ही नहीं हो पा रहे हैं! इसलिए सर्वशक्तिमान सरकार के सर्वज्ञानी मंत्री को उनके हाल पर छोड़ कर, हम देखते हैं कि देश में क्या हाल है।

माना यह जाता रहा है कि जब बारिश दस फीसद कम हो और उसका असर देश की बीस से चालीस फीसद खेती पर पड़े तो सूखे का खतरा घोषित करना चाहिए। हमारी स्थिति इसके आगे पहुंच गई है। जुलाई का महीना हमारे देश में रोपाई का सबसे व्यस्त महीना होता है जिसमें धरती बूंद-बूंद पानी पीती जाती है और किसान इंच-इंच धरती में बीज डालता जाता है।

अब हम वे आंकड़े देखें जो खाद्य मंत्रालय के ही हैं, कि 10 जुलाई तक धान की रोपाई 5़5.4 करोड़ हेक्टेयर में हुई है जो पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में 16़3 फीसद कम है। मोटे अनाजों की रोपाई 21.95 लाख हेक्टेयर में हुई है जो पिछले साल से 34़6 फीसद कम है। इसी अवधि में दालों की रोपाई 13़ 9 फीसद और तिलहन की रोपाई 7़ 7 फीसद कम हुई है। इस खतरे को कोई कैसे नजरअंदाज कर सकता है कि जब बीज डाले ही नहीं गए हैं तो वे उगेंगे कैसे? और जब बारिश है ही नहीं तो डाले गए बीज भी कैसे उगेंगे!

योजना आयोग के सदस्य और उसके कृषि प्रभाग से जुड़े अभिजीत सेन कह रहे हैं कि अब वर्षा लौट कर आएगी इसकी संभावना कम है और इसलिए कृषि क्षेत्र में चार फीसद की वृद्घि का जो लक्ष्यांक हमने रखा था, वह हासिल होने वाला नहीं है। चार फीसद की वृद्घि दर हो पाती तो उससे सकल घरेलू वृद्घि दर को जो उछाल मिलती, वह अब संभव नहीं है, बल्कि आशंका यह है कि अगर सूखे की स्थिति बनती है तो हमें दूसरे क्षेत्रों से संसाधन बटोर कर खेती-किसानी में डालने होंगे।

जुलाई मध्य तक उत्तर-पश्चिम भारत में वर्षा चालीस फीसद कम हुई है, दक्षिण में अट्ठाईस, मध्य भारत में बाईस और पूर्वोत्तर में तेरह फीसद की कमी है। हमें ध्यान में रखना चाहिए कि पूर्वोत्तर भारत में ही खरीफ की फसल सबसे ज्यादा होती है। पंजाब में इकहत्तर फीसद और हरियाणा में तिहत्तर फीसद कम बारिश हुई है, झारखंड में इकतीस फीसद की कमी है।

अंदाजा यह आ रहा है कि पूरे देश के बासठ फीसद इलाकों में कम से लेकर बहुत कम तक बारिश हुई है। गुजरात में यह कमी छियासठ फीसद है। कर्नाटक सरकार ने 123 तालुकों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया है और स्थिति को काबू में रखने के लिए एक करोड़ रुपए प्रति तालुका आबंटित किया है। तटीय कर्नाटक में तेरह फीसद, उत्तर कर्नाटक में सैंतालीस फीसद और दक्षिण कर्नाटक में इक्यावन फीसद कम बारिश से स्थिति गंभीर हो गई है। अधिकारी बता रहे हैं कि यह स्थिति आगे खराब ही होगी, क्योंकि मानसून लगातार कमजोर पड़ता जा रहा है।

हमारे यहां पानी सुरक्षित जमा रखने की जो व्यवस्था है, उसका अध्ययन कर केंद्रीय जल आयोग बता रहा है कि पिछले साल की तुलना में इस साल बासठ फीसद कम पानी जमा है। हिमाचल प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, केरल, त्रिपुरा और पंजाब में पानी का भंडार सामान्य से भी कम बचा है।

महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और राजस्थान का अध्ययन बता रहा है कि सूखे की स्थिति की सबसे बड़ी मार पशुओं पर पडेÞगी, क्योंकि उनके चारे की कमी होने वाली है। इसका मतलब है कि मनुष्यों के लिए ही नहीं, मवेशियों के चारे और पानी की भी व्यवस्था करने की चुनौती सिर पर आने वाली है। चारे की कमी होगी तो दूध और इससे बनने वाले पदार्थों में कमी होगी, और इससे भी एक दूसरे रास्ते से किसानों की ही कमर टूटेगी।

खाद्य मंत्रालय किसानों में चारे के वैसे बीज बांटने की योजना बना रहा है जिन्हें पानी की कम जरूरत पड़ती है। लेकिन वह भूल रहा है कि उसकी योजना बनने में और उसे किसानों तक पहुंचने में जितना वक्त लगेगा उसके बाद तो उन बीजों की बुआई की हालत भी नहीं रहेगी।

किसान का मनोबल काफी कमजोर हुआ है। महाराष्ट्र के किसान आनंद पाटील बताते हैं कि हम सूखे से पिछले साल से ही जूझ रहे हैं। पिछले अक्तूबर से हमें टैंकर से पीने का पानी मिल रहा है और वह भी आठ दिन में एक बार! आनंद के पास पंद्रह एकड़ की खेती है। उनके इलाके में किसान जुआर, बाजरा और कपास की खेती करते हैं, लेकिन इस साल किसी ने एक भी बीज नहीं बोया है।

आनंद कहते हैं, किसानों की हिम्मत टूट गई है। सरकार जिस भी तरह की मदद का आश्वासन देती है, वह कब कहां पहुंचती है, हमें पता नहीं चलता है। वैकल्पिक बीज और खेती की उसकी बातों का हमें भरोसा नहीं रहा है। सरकारें चाह रही हैं कि सोयाबीन उगाने वाले किसान अब सूरजमुखी उगाएं और दूसरे किस्म की बीज वाली फसलों की तरफ जाएं ताकि दलहन की कमी का मुकाबला किया जा सके। किसान कहना चाहता है कि भूख मिटाने वाली खेती से हटा कर हमें सोयाबीन की तरफ लाने वाले भी आप ही थे और कम बारिश वाले विदर्भ में हमें कपास लगाने का लालच देने वाले भी आप ही थे। आपकी वे बातें मान कर हम जितने बरबाद हुए हैं, उसके बाद हमें आपका भरोसा नहीं रहा।

प्राकृतिक विपत्ति का कई तरह से, कई स्तरों पर सामना कर सकते हैं। सबसे बड़ा तत्त्व तो मनोबल है जो किसी भी विपत्ति से निकलने की सूझ और सामर्थ्य देता है। मगर सरकार की अदूरदर्शिता और स्वार्थी नीतियों ने, नौकरशाही के भ्रष्टाचार और कछुआ चाल ने और हमारी दकियानूसी किसानी समझ ने उस मनोबल को चूर-चूर कर दिया है। कपास लगाने वाले किसानों को बीटी कॉटन के जाल में क्यों फंसाया गया, इसका जवाब महाराष्ट्र सरकार क्या देगी, पता नहीं। आज बीटी किसानों की और खेती की बदहाली का दूसरा नाम बनता जा रहा है।

अभी-अभी महाराष्ट्र सरकार ने उसी बीटी पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है, जिसे किसानों के गले उतारने के लिए उसने साम-दाम-दंड-भेद सबका सहारा लिया था। बीटी पर प्रतिबंध की महाराष्ट्र सरकार की घोषणा का आमतौर पर यहां के किसानों ने स्वागत ही किया है। लेकिन सवाल तो यह है कि जीवन चलाने के लिए जो जरूरी चीजें हैं उनके साथ आप ऐसा खिलवाड़ कैसे करते रह सकते हैं? केंद्र के पास भी और राज्यों की सरकारों के पास भी जवाब का अकाल पड़ा है।

इस आसन्न सूखे की स्थिति में आशा की दो किरणें हैं। एक, गन्ना और कपास की रोपनी के आकार में पांच फीसद की ही सही, बढ़ोतरी हुई है। इनमें अपेक्षया कम पानी की जरूरत पड़ती है। हमारी सरकारी मशीनरी अगर इसे चुनौती की तरह ले और हम इन दोनों फसलों को बचा सकें, तो किसान के लिए यह एक बड़ा सहारा बन सकता है। दुनिया में मंदी छाई है और चीनी, रूई का बाजार बहुत भरा हुआ और ठंडा है। इसलिए सरकार को ही शायद यह सारी पैदावार खरीदनी होगी। चीनी मिलों और कपड़ा मिलों को अभी से सरकार इसके लिए तैयार करे कि कैसे और किस व्यवस्था के तहत किसान को इस पैदावार की पूरी और तत्काल कीमत मिल सकेगी। थोड़े वक्त के लिए जो भी और जितना भी भुगतना पड़े, सरकार और मिलें मिल कर भुगतें और किसान को सांस लेने का मौका दें।

आशा की दूसरी किरण है कि सरकार के पास अनाज का पर्याप्त भंडार है। बाजार में भी अनाज की कमी नहीं है अभी। पर सरकारी मशीनरी की परीक्षा का दौर आ रहा है। अनाज की कालाबाजारी और जमाखोरी किसी भी सूरत में न होने दी जाए, इसका नक्शा बने। सरकार अभी से बाजार की आला ताकतों के साथ बैठ कर इसकी व्यवस्था पक्की करे और उसका सख्ती से पालन करे। इसमें किसी किस्म की राजनीति अक्षम्य मानी जाए।

दूसरी तरफ सरकार अपनी वितरण व्यवस्था के छिद्र बंद करे। केंद्र सरकार और राज्यों की सरकारें इस मामले में कितनी ईमानदार और सजग हैं, इसकी तीन कसौटियां हैं। सरकारी गोदामों में बंद एक-एक दाना अनाज जरूरतमंदों के पास ही पहुंचेगा, सही कीमत पर पहुंचेगा और समय से पहुंचेगा। क्या सरकार इन तीनों चुनौतियों को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करेगी? अगर वह ऐसा करती है और कमर कस कर इस अकाल का मुंह मोड़ देती है तो यह आसन्न संकट उसके लिए आशा के नए दरवाजे खोल सकता है। वह 2014 में इसकी पूरी फसल काट सकती है।

एकदम ताजा स्थिति यह है कि बारिश में कुछ सुधार हुआ है। ऐसा तो नहीं है कि बारिश जरूरत भर होने लगी है, लेकिन विदर्भ के एक किसान के शब्दों में कहूं तो यह बारिश वैसी ही है जो जीने भी नहीं देगी और मरने भी नहीं देगी। हमारी खेती-किसानी की स्थिति की इससे अच्छी व्याख्या और क्या हो सकती है!

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