अलकनन्दा के लिये नया चोला, नया नाम, नई जिम्मेदारी

28 Feb 2016
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स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद - सातवाँ कथन आपके समक्ष पठन, पाठन और प्रतिक्रिया के लिये प्रस्तुत है:

.आठ सितम्बर को चातुर्मास समाप्त हो गया। मेरा स्वास्थ्य अच्छा था। मैं जगन्नाथपुरी गया, मालूम नहीं क्यों? अकेला गया; पुरुषोत्तम एक्सप्रेस से। नक्सल के कारण वह टाटानगर में 10 घंटे खड़ी रही। पुरी में स्वामी निश्चलानन्द जी से मिला। उनसे बातचीत कर लगा कि वह भारतीय संस्कृति के काम में लगे हैं, लेकिन गंगाजी में उनकी पकड़ नहीं है। फिर मैं स्वरूपानन्द जी के पास गया।

एक हायर सेकेण्डरी स्कूल, जो शंकराचार्य जी ने अपनी माँ की याद में स्थापित किया था, वहाँ 10 हजार की भीड़ थी। उन्होंने वहीं मुझे सम्मानित भी किया और बोलने का मौका भी दिया। स्वरूपानन्द जी ने मंच से कहा - “पहले हमने इनका अनशन सहजता से लिया, लेकिन इस बार जल छोड़ दिया, तो हमें चिन्ता हुई और मैंने प्रधानमंत्री जी से कहा कि इनकी रक्षा होनी चाहिए।’’

 

मैं तो सिर्फ एक टूल मात्र


दरअसल, चित्रकूट में रहते हुए ही मुझे लगा था कि जैसे रामजी मेरी उँगली पकड़कर काम करा रहे हैं। मैं सोचने लगा था कि ईश्वर को जो कराना है, वह करा लेता है। यही तो वेदान्त है; गीता है। मैं तो एक टूल था, कराया तो रामजी ने ही सब। मुझे हुआ कि यह जो कुछ हुआ, उसमें शंकराचार्य जी की भूमिका है, प्रधानमंत्री जी की भूमिका है। जो हुआ, वह सन्तों के पत्र से या मिलने से; मैं तो सचमुच सिर्फ एक टॅूल ही था। अतः मैं इसका क्रेडिट नहीं लेता।

 

आचार्य प्रमोद कृष्णम से मुलाकात


लौटकर आचार्य प्रमोद कृष्णम से मिला। उनसे दो-तीन घंटा बात हुई। उन्होंने बताया कि वह इंदिरा परिवार से कितना जुड़े हुए हैं। उन्हें एम पी का टिकट देने की बात थी। टिकट देने से दो दिन पहले ही उन्हें पिता के कैंसर की सूचना मिली। प्रश्न था कि कांग्रेस की सेवा करें कि पिता की सेवा करें? उन्होंने बताया कि वह कांग्रेस की सेवा चुनी। मुझे लगा कि एक रोल प्रमोद कृष्णम भी प्ले कर सकते हैं।

 

अलकनन्दा पर निगाह, जुड़ाव की जुगत


यूँ तो जो संकल्प प्रिया पटेल और मेहता जी के साथ लिया था, वह एक तरह से पूरा हो चुका था, लेकिन यह बात मेरे मन में आने लगी थी कि अलकनन्दा का भी महत्त्व है। ज्योतिष्पीठ का तीर्थ वहाँ है, तो अलकनन्दा भी बचनी चाहिए। यह बात भी समझ में आने लगी थी कि सामाजिक कार्यकर्ताओं का रोल अभी खत्म नहीं हुआ है; क्योंकि अब गंगा अकेले की बात नहीं है। मुझे लगा कि किसी के साथ जुड़कर ही आगे के लक्ष्य की प्राप्ति होगी, तो क्यों न शंकराचार्य जी से जुड़ जाऊँ। मैंने सोचा कि यदि मैं पूरी तरह शंकराचार्य जी से जुड़ जाऊँ, तो मेरी स्ट्रेंथ बढ़ सकती है।

 

सन्यास में दिखी सम्भावना


परिवार का दबाव न रहे; स्वतंत्र निर्णय ले सकूँ; इसके लिये सोचा कि सन्यासी हो जाऊँ। मैंने अक्टूबर-नवम्बर, 2010 में अविमुक्तेश्वरानंद जी से चर्चा की। मैंने कहा - “मुझे दीक्षा दिला दो।’’ उन्होंने कहा - “सन्यास पूरी तैयारी से होता है; तो रुक जाओ, तुम्हारी तैयारी देख लें।’’

तभी एक बात हुई। मैं अपनी चाची के पास रहकर पढ़ा था। जहाँ तक मुझे याद है कि मैंने उन्हें कभी चाची नहीं कहा; हमेशा अम्मा ही कहा। वह व्हीलचेयर पर थीं। मैं उन्हें कुम्भ लेकर गया था।

अविमुक्तेश्वरानंद जी को पता चला, तो वह खुद आये और खड़े रहे। मैंने कहा, तो बोले कि नहीं जैसे तुम्हारी अम्मा, वैसे ही मेरी अम्मा; वह बैठे नहीं, खड़े ही रहे। उन्होंने यह भी कहा - “तुम्हारी अम्मा को सेवा की जरूरत है। अतः हम तुम्हें दीक्षा नहीं दे सकते।’’ उन्होंने मुझे बनारस भी नहीं रुकने दिया। अम्मा के पास भेज दिया। दिसम्बर, 2010 में मेरी अम्मा का स्वर्गवास हो गया। मैंने अम्मा के शरीर को क्षय होते हुए देखा।

 

सन्यास की तैयारी परीक्षा


अम्मा के स्वर्गवास के बाद मैंने अविमुक्तेश्वरानंद जी से दीक्षा देने के बारे में फिर कहा। उन्होंने फिर छह माह रुकने को कहा। मैंने सोचा कि गंगा दशहरा पर जोशीमठ में दीक्षा लेना चाहूँगा। यह बात है जून, 2011 की। तरुण और मैं जोशीमठ के लिये चले। दीक्षा से पूर्व दो दिन तक उपवास लेना होता है। अतः हम 11 जून तक पहुँचना चाहते थे। हम रुड़की के आसपास थे कि अविमुक्तेश्वरानंद जी का फोन आया। बोले - “हम बनारस से नहीं आ पा रहे हैं।’’

 

मैंने पूछा कि दीक्षा का क्या होगा?


मैंने सोचा था कि गंगाजी का काम है; अविमुक्तेश्वरानंद जी से दीक्षा लूँगा। शंकराचार्य स्वरूपानन्द जी से दीक्षा लेने की बात नहीं थी, पर उन्होंने कहा- “शंकराचार्य जी करा देंगे। वह हरिद्वार में ही हैं।’’

मैंने कहा कि बाद में करेंगे; फिर हरिद्वार आने की बात हुई, तो बोले - ‘नहीं, तुम जोशीमठ ही चले जाओ। शंकराचार्य जी वहाँ के लिये निकल पड़े हैं।’ हम पहुँच गए। शंकराचार्य जी से मैं पूछना चाहता था, तो कहा गया कि रुक जाओ, वह स्वयं बताएँगे। फिर हमें तीर्थ घुमाने भेज दिया। लौटे, तो शंकराचार्य जी ने कहा कि सन्यास संस्कार का एक खास पण्डित होता है। वह नहीं है; सो, हरिद्वार व बनारस जाकर ही होगा।

मेरी स्थिति अजीब हो गई। मैंने कहा कि मैं परिवार को बताकर आया हूँ। खैर, 12 जून की सुबह हो गई। शंकराचार्य जी से सम्पर्क नहीं हुआ। 10 बजे स्टार न्यूज से एक फोन आया कि एक लाइव प्रोग्राम कर रहे हैं और उसमें मुझे लाइव चाहते हैं। शंकराचार्य जी से उनकी बात हुई। शंकराचार्य जी ने मुझसे कहा कि मैं कार्यक्रम के लिये दिल्ली चला जाऊँ। मैंने सुबोधानन्द जी से कहा कि यह तो ‘लॉस ऑफ फेथ’ होगा। सुबोधानन्द जी ने कहा कि मंत्र दीक्षा ले लो; कहा कि 18 के बाद हरिद्वार आ जाना।

 

ईश्वर का तय किया कार्यक्रम


शंकराचार्य जी ने मंत्र दीक्षा दे दी। गुरू के प्रसाद में जो मिला, उसी का हिस्सा मेरे लिये आया। यह कायदानुसार ही हुआ। इसके बाद जोशीमठ से रुद्रप्रयाग आते-आते स्टार न्यूज से भव्य का फोन आया कि टी वी प्रोग्राम कैंसिल हो गया है। रात 12 बजे मुजफ्फरनगर में तीन छोटे भाइयों में से एक के घर रुक गया। अपने भाइयों में मैं सबसे बड़ा हूँ। सवेरे पाँच बजे उसने जगाया। इस तरह मुझसे तीन साल छोटे भाई के स्वर्गवास की खबर मिली। वह एम. एड. थे। एजुकेशन डिपार्टमेंट में प्रोफेसर थे। पता चला कि बाथरूम में अटैक पड़ा और गिर गए थे। सवेरे ही उनकी शवयात्रा में सम्मिलित होना था। मैंने सोचा कि इसीलिये ईश्वर ने यहाँ भेजा। यदि जोशीमठ के मेरे तय कार्यक्रमानुसार ही होता, तो शायद मैं शवयात्रा में शामिल न हो पाता।

 

सन्यास का अधिकारी होने पर उठा सवाल


भाई के स्वर्गवास के बाद मैं वाराणसी गया। तय था कि दो जुलाई को सन्यास दे दिया जाएगा। कुछ विशेष पण्डित हैं। कुछ दक्षिण से आये हैं। जो पण्डित संस्कार कराने आये थेे, वही मुझे कह रहे थे कि मैं ब्राह्मण नहीं हूँ। कलियुग में सिर्फ ब्राह्मण का ही सन्यास होता है। मैं जानता था कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य करा सकते हैं। बहस चली। हालांकि स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी भी बीच-बीच में मेरे पक्ष में कह देते थे, किन्तु मुझे इस बहस से वितृष्णा हुई। एक जुलाई को मैंने कहा कि यदि मेरे सन्यास के अधिकारी होने के बारे में जरा भी सन्देह है, तो मैं सन्यास नहीं लूँगा। अविमुक्तेश्वरानंद जी ने कहा - ‘नहीं, यह हमारी परेशानी है; तुम्हारी नहीं।’

 

सन्यास प्रक्रिया और नया नाम


खैर प्रक्रिया शुरू हुई: रेत से, गोबर से नहाना, गंगाजल से नहाना; फिर गंगा से मठ तक पूरी तरह नग्न होकर जाना; फिर गुरू के पास जाना; वहाँ नए नाम का मिलना। मुझे यह पता चल गया था कि ज्योतिष्पीठ के तहत सन्यास देंगे, तो मेरा नाम ‘आनन्द’ से पूरा होगा। ‘सरस्वती’ एक उपाधि होती है। द्वारकापीठ से जो सन्यासी होता है, उसका नाम ‘स्वरूप’ से सम्पन्न होता है। मुझे ‘ज्ञानस्वरूप’ नाम दिया; बाद में ‘सानंद’ शब्द जोड़ा। यूँ मुझे क्या फर्क पड़ता, लेकिन यदि द्वारकापीठ का सन्यासी होता, तो अलकनन्दा से कैसे जुड़ता? मेरे पिता का नाम ‘आनन्दस्वरूप’ था। मेरे नाम के साथ सानंद जुड़ा। यह सब बताता था कि सन्यास तो अविमुक्तेश्वरानंद जी ने ही दिया, लेकिन कन्ट्रोल स्वरूपानन्द जी रख रहे थे।

 

‘गंगा सेवा अभियानम’ का भारत प्रमुख


पहला चातुर्मास, गुरू के साथ करना होता है। स्वरूपानन्द जी, अपना चातुर्मास कलकत्ता में कर रहे थे। मुझसे कहा गया कि वहीं चातुर्मास करना है। जबलपुर से अविमुक्तेश्वरानंद जी आ गए। दो से 12 जुलाई के बीच हमने गंगाजी पर काफी चर्चा कर ली थी। ‘गंगा सेवा अभियान’ का नाम बदलकर ‘गंगा सेवा अभियानम’ कर दिया गया। मैं, भारत प्रमुख और अविमुक्तेश्वरानंद जी, सार्वभौम प्रमुख बनाए गए।

संवाद जारी...

अगले सप्ताह दिनांक 06 मार्च, 2016 दिन रविवार को पढ़िए स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद शृंखला का आठवाँ कथन


प्रस्तोता सम्पर्क:
ईमेल : amethiarun@gmail.com
फोन : 9868793799

इस बातचीत की शृंखला में पूर्व प्रकाशित कथनों कोे पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।

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