आम आदमी के हिस्से में अंधेरा

सरकार की रणनीति है कि आम आदमी को अंधेरे में रखो। इससे बिजली उत्पादन बढ़ाने के पक्ष में जनमत बनाया जा सकेगा। गरीब को समझाया जा सकेगा कि उत्पादन के दुष्प्रभावों को वह सहता रहे। इसके बाद उत्पादित बिजली संभ्रांत वर्ग व मॉल को दी जायेगी।

विद्वानों का मानना है कि गरीब को बिजली उपलब्ध कराने के लिए उत्पादन में वृद्धि जरूरी है। प्रथम दृष्ट्या बात सही लगती है। लेकिन पेच यह है कि उत्पादन में वृद्धि कर संभ्रांत वर्ग को बिजली दी जाये तो भी आम आदमी अंधेरे में ही रहेगा। यानि सवाल बिजली उत्पादन बढ़ाने का नहीं, उपलब्ध बिजली के वितरण का है। मुझे लगता है कि सरकार की रणनीति है कि आम आदमी को अंधेरे में रखो। इससे बिजली उत्पादन बढ़ाने के पक्ष में जनमत बनाया जा सकेगा। गरीब को समझाया जा सकेगा कि उत्पादन के दुष्प्रभावों को वह सहता रहे। इसके बाद उत्पादित बिजली को संभ्रांत वर्ग तथा मॉल को दे दिया जायेगा। यदि गरीब को बिजली सप्लाई कर दी गयी तो उत्पादन में वृद्धि के पक्ष में जनमत समाप्त हो जायेगा और संभ्रांत वर्ग को बिजली नहीं मिल सकेगी।

नेशनल पावर ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट के अध्ययन में बताया गया है कि हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्य में 2004 में ही 95 प्रतिशत जनता को बिजली उपलब्ध थी। मध्य प्रदेश जैसे ’गरीब‘ राज्य में 70 प्रतिशत लोगों को बिजली उपलब्ध है। विकसित राज्यों की स्थिति ही कमजोर दिखती है। अतः मुद्दा राजनीतिक संकल्प का दिखता है, न कि बिजली के उत्पादन का। देश में लगभग चार करोड़ लोगों के घरों में बिजली नहीं पहुंची है। इन्हें 30 यूनिट प्रतिमाह बिजली उपलब्ध कराने के लिए 1.2 बिलियन यूनिट बिजली प्रतिमाह की आवश्यकता है। वर्तमान में देश में बिजली का उत्पादन लगभग 67 बिलियन यूनिट प्रति माह है।

अतः उपलब्ध बिजली में से केवल दो प्रतिशत बिजली ही इन गरीबों के घरों को रोशन करने के लिए पर्याप्त है। समस्या यह है कि बिजली का उपयोग संभ्रांत वर्ग की विलासिता की असीमित जरूरतों को पूरा करने के लिए किया जा रहा है। इससे गरीब के घर में पहुंचाने के लिए बिजली नहीं बचती है। मुंबई में एक प्रमुख उद्योगपति के घर का बिजली का मासिक बिल 70 लाख रुपये है। इस प्रकार के दुरुपयोग से बिजली का संकट पैदा हो रहा है। घर में यदि माता संरक्षण न दे तो ताकतवर बच्चे भोजन हड़प जायेंगे और कमजोर बच्चा भूखा रह जायेगा। इसी प्रकार भारत सरकार द्वारा संरक्षण न देने के कारण गरीब अंधकार में है।

संभ्रांत वर्ग द्वारा इस प्रकार की खपत के लाभकारी होने में संशय है। गरीब द्वारा बिजली की खपत रोशनी, पंखे, कूलर, फ्रिज तथा टीवी के लिए की जाती है। इससे जीवन स्तर में सुधार होता है। परंतु इसके आगे एसी, वाशिंग मशीन, डिश वाशर, फ्रीजर, गीजर आदि में हो रही खपत से जीवन स्तर ज्यादा सुधरता नहीं दिखता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा मानव विकास सूचकांक बनाया जाता है। इसे बनाने में जनता की आय, शैक्षिक स्तर एवं स्वास्थ को देखा जाता है।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ केप टाउन के विषेशज्ञों ने बिजली की खपत और मानव विकास के संबंध पर शोध किया है। विशेषज्ञों ने पाया कि बिजली की खपत शून्य से 1000 यूनिट प्रति व्यक्तिक प्रति वर्ष पहुंचने से मानव विकास सूचकांक 0.2 से बढ़कर 0.75 हो जाता है। पर प्रति व्यक्ति खपत 1000 से 9000 यूनिट पर पहुंचने से मानव विकास सूचकांक 0.75 से बढ़कर मात्र 0.82 पर पहुंचता है। पहली 1000 यूनिट बिजली से सूचकांक 0.55 बढ़ता है। बाद की 8000 यूनिट से सूचकांक मात्र 0.07 बढ़ता है, जो नगण्य है। साफ़ है कि संभ्रांत वर्ग द्वारा ज्यादा खपत विलासिता के लिए है, विकास के लिए नहीं। इनके द्वारा बिजली की खपत में कटौती से उनके स्टैंडर्ड में कम ही गिरावट आयेगी, जबकि वह बिजली गरीब को देने से उसके स्टैंडर्ड में भारी वृद्धि होगी। अत: सवाल खपत में संतुलन का है। ओवर इटिंग करने वाले की खुराक काटकर भूखे गरीब को दे दी जाये तो दोनों सुखी होंगे। कुछ इसी प्रकार बिजली के बंटवारे की जरूरत है। अमीर यदि एसी कमरे से बाहर निकलकर प्रातः सैर करे तो उसका स्वास्थ भी सुधरेगा और गरीब को बिजली भी उपलब्ध हो जायेगी।

बिजली का अधिकाधिक उत्पादन आर्थिक विकास के लिए भी जरूरी नहीं दिखता। भारत सरकार के केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार बिजली की खपत उत्पादन के लिए कम एवं घरेलू उपयोग के लिए ज्यादा बढ़ रही है। घरेलू खपत 7.4 प्रतिशत की दर से, जबकि उत्पादन के लिए खपत मात्र 2.7 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। अर्थात् विकास के लिए बिजली की जरूरत कम ही है।

देश के आर्थिक विकास में सेवा क्षेत्र का हिस्सा बढ़ रहा है। इस क्षेत्र में स्वास्थ्य, शिक्षा, सॉफ्टवेयर, मूवी, रिसर्च आदि आते हैं। इस क्षेत्र का हमारी आय में हिस्सा 1951 में 30 प्रतिशत था। आज यह 60 प्रतिशत है। अमरीका जैसे देशों में सेवा क्षेत्र का हिस्सा करीब 90 प्रतिशत है। इस क्षेत्र में बिजली की खपत कम होती है। सॉफ्टवेयर इंजीनियरों की सेना कंप्यूटरों पर बैठ कर करोड़ रुपये का उत्पादन कर लेती है। सीमेंट अथवा स्टील के उत्पादन में बिजली की खपत लगभग 10 गुणा ज्यादा होती है। चूंकि देश के ओर्थक विकास में सेवा क्षेत्र का हिस्सा बढ़ रहा है, इसलिए आर्थिक विकास के लिए बिजली की जरूरत कम हो रही है।

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