अमीर धरती पर गरीब लोग

आज एक तरफ खदानों, विद्युत या औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जंगल साफ किए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ स्थानीय लोगों को स्कूल, पानी की टंकी या सम्पर्क मार्ग के लिए थोड़ी सी जमीन भी नहीं दी जा रही है उससे भी बुरी बात यह है कि जंगलों की सम्पदा को उनकी अर्थव्यवस्था के लिए कभी इस्तेमाल नहीं किया जाता। उन्हीं की पीठ पर और उन्हीं की ज़मीन पर बाघों का संरक्षण होता है पर उन्हें कोई फायदा नहीं होता। क्या उनके गुस्से पर अभी भी हैरानी होनी चाहिए? यह स्थिति बदलनी चाहिए और उसकी गुंजाइश भी है। भारत का नक्शा उठाइए और उन पर निशान लगाइए जहां वन सम्पदा उपलब्ध है और जहां पेड़ों का भरापूरा और सघन आवरण मौजूद है। उसके बाद उस पर उन नदियों और धाराओं को चिह्नित कीजिए जिससे हमें और हमारी जल-सम्पदा को जीवन मिलता है। फिर उन पर खनिज भंडारों की खोज कीजिए। इन भंडारों में लौह अयस्क, कोयला, बाक्साइट और वे सभी खनिज शामिल हैं जिनसे हमारी अर्थव्यवस्था समृद्ध होती है। पर यहीं मत रुकिए। इस सम्पदा के ऊपर एक और सूचकांक को चिह्नित कीजिए। वहां उन जिलों की निशानदेही कीजिए जहां हमारे देश के सबसे गरीब लोग रहते हैं। वे सब हमारे आदिवासी जिले हैं। यहां आपको एक संपूर्ण तालमेल मिलेगा। धरती के सबसे समृद्ध इलाके में सबसे गरीब लोग रहते हैं। अब आप देश की इस श्रेणी वाले हिस्से को लाल रंग से घेर दीजिए। यही वे जिले हैं जहां नक्सलवाद का प्रभाव है। इन्ही जिलों के बारे में सरकार मानती है कि वहां उन्हें अपने ही लोगों से युद्ध लड़ना पड़ रहा है। क्योंकि वे आतंक फैलाने और मारने के लिए बंदूक उठा चुके हैं। खराब विकास के इस सबक को हमें ध्यान से समझना चाहिए।

आइए इस मानचित्र में पिछले कुछ हफ्तों की घटनाओं को पिरोएं। मधु कोडा झारखंड राज्य के करीब एक साल तक मुख्यमंत्री थे। वह राज्य खनिज और वन सम्पदा से समृद्ध है पर वहां के लोग गरीब हैं। आज जांच एजेंसियों को पता चला है कि वहां सारे घोटालों का बाप मौजूद है। उन्होंने वहां मधु कोडा और उनके सहयोगियों के पास से चार हजार करोड़ का घोटाला पकड़ा है। उन्होंने राज्य को लूट कर अपनी अकूत संपत्ति बनाई थी। इतनी बड़ी राशि का घोटाला राज्य के सलाना बजट का पांचवां हिस्सा है। उससे भी बड़ी बात यह है कि यह घोटाला उन खनिजों के माध्यम से किया गया है जिन्होंने अपनी जनता को कभी समृद्ध नहीं बनाया।

यह मामला यहीं खत्म नहीं होता। इसका सिलसिला देश की दूसरी घटनाओं से भी जुड़ता है। पिछले हफ्ते जब कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी के असंतुष्ट विधायकों ने मुक्यंमंत्री को हटाने के लिए सरकार को घुटनों के बल ला दिया था तब हम इस घटना को भारत के सूचना मानचित्र यानी कार्टोग्राफी से नहीं जोड़ पाए थे। यह खेल रेड्डी बंधुओं का था। इनमें से एक जनार्दन रेड्डी बीएस येदुरप्पा सरकार में पर्यटन मंत्री और दूसरे करुणाकर रेड्डी राजस्व मंत्री हैं। वे दोनों खनन क्षेत्र के दिग्गज हैं। उनकी सम्पदा और सत्ता कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के अमीर-गरीब जिलों में विनाशकारी खनन से पैदा होती है।

इन रेड्डी बंधुओं की रियासत बेल्लारी जिले में है जहां से देश के लौह अयस्क का 20 फीसदी हिस्सा पैदा होता है। यहां होने वाले अयस्क की खुदाई में पर्यावरण सुरक्षा का बहुत कम या बिल्कुल ध्यान नहीं रखा जाता। खदान से होने वाले उत्सर्जन के कारण इस इलाके का पानी लाल हो गया है। यहां की जमीन खोखली हो गई है, जंगल गायब हो गए हैं और लोगों की आजीविका तबाह हो गई है। दूसरी तरफ बेल्लारी में सबसे ज्यादा निजी विमान पंजीकृत हैं। इसके विपरीत यह मानव विकास सूचकांक के लिहाज से कर्नाटक में नीचे से तीसरे नम्बर पर आता है। वही इलाक़ा इसकी साक्षरता दर सिर्फ पचास प्रतिशत है तो कि अपने को प्रगतिशील राज्य बताने वाले कर्नाटक के लिए शर्मनाक है। रेड्डी बंधुओं की अमीरी का राज उस इलाके की असाधारण सम्पदा है जिसे हम अभी भी गरीब कहते हैं। ऐसे में हमें उस समय क्यों आश्चर्य होता है जब अपनी ज़मीन की लूट के साक्षी लोगों की नाराजगी का फायदा नक्सलवादी उठाते हैं?

दिक्कत यह है कि जिनकी ज़मीन को हम इस्तेमाल कर रहे हैं हमने उन लोगों के साथ सम्पदा बांटने के विचार को कभी गंभीरता से नहीं लिया। जंगलों का ही मामला लीजिए। देश के सघन और जैव विविधता से भरे जंगलों का 60 फीसदी हिस्सा उन्हीं आदिवासी जिलों में ही पाया जाता है। यहीं शानदार बाघ भी पाए जाते हैं। वही सवाल फिर उठता है कि अगर वहां असाधारण सम्पदा है तो वहां रहने वाले लोग गरीब क्यों हैं? सच्चाई यह है कि हमने प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित मॉडल कभी बनाया ही नहीं। ऐसा मॉडल जो कि टिकाऊ हो और स्थानीय अर्थव्यवस्था और लोगों के लिए फ़ायदेमंद हो। विकास का पहला चरण यह था जब सरकार जंगलों से लाभ लेती थी और उनका दोहन करती थी। बड़े इलाके को कागज़ और लुगदी उद्योग को सौंप दिया गया। यह स्थिति वैसी ही थी जैसी आज खनिजों के साथ हो रही है। घने जंगलों के इलाके के इलाके काटे जा रहे हैं। और आर्थिक सम्पदा तैयार करने के नाम पर धरती का चीरहरण किया जा रहा है। लेकिन इसमें स्थानीय लोगों की कोई भागीदारी नहीं है। इन्हीं जंगलों के आधार पर सरकारें और निजी कंपनियां अपनी सम्पदा का निर्माण कर रही हैं। लेकिन इससे स्थानीय लोगों का कोई विकास नहीं किया जा रहा है।

उसके बाद संरक्षण का दौर शुरू हुआ। राष्ट्र ने वनों के संरक्षण का फैसला किया। कहा गया था कि बाघ और वन्य जीवों की हिफाज़त की जानी है। लेकिन इस बार भी ऐसा आर्थिक मॉडल नहीं बनाया गया जिसमें संरक्षण का लाभ लोगों को दिया जाता। सरकार ने जनता को फिर हाशिए पर डाल दिया। मान्यता थी कि जंगलों की रक्षा स्थानीय लोगों की मदद से की जाएगी। आज इन इलाकों में लोगों की तरफ से हिंसा का सहारा लेने के पीछे एक मात्र कारण है 1980 के वन अधिनियम को ठीक से लागू न किया जाना। यह कानून वन भूमि को गैर वनीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल किए जाने की इजाज़त नहीं देता जो कि कई मामलों में सही भी है। इसी नाते लोगों का गुस्सा लगातार बढ़ रहा है।

आज एक तरफ खदानों, विद्युत या औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जंगल साफ किए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ स्थानीय लोगों को स्कूल, पानी की टंकी या सम्पर्क मार्ग के लिए थोड़ी सी जमीन भी नहीं दी जा रही है उससे भी बुरी बात यह है कि जंगलों की सम्पदा को उनकी अर्थव्यवस्था के लिए कभी इस्तेमाल नहीं किया जाता। उन्हीं की पीठ पर और उन्हीं की ज़मीन पर बाघों का संरक्षण होता है पर उन्हें कोई फायदा नहीं होता। क्या उनके गुस्से पर अभी भी हैरानी होनी चाहिए? यह स्थिति बदलनी चाहिए और उसकी गुंजाइश भी है।

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