आन्तरिक जल परिवहन : चुनौतियाँ व सम्भावनाएँ

सरकार ने अन्तरदेशीय जल परिवहन के विकास की दिशा में जो ठोस पहल की है, वे अगर ज़मीन पर उतरती हैं तो यह भविष्य के लिहाज से मील का पत्थर साबित होंगी लेकिन योजनाकारों को बहुत सावधानी से काम करने और प्राकृतिक पथ के संरक्षण की दिशा में लगातार सक्रिय रहने की जरूरत होगी। साथ ही जलयानों की कमी को दूर करने के लिये एक ठोस योजना और नया माहौल भी बनाना होगा। ऐसा करने से इस क्षेत्र के कायाकल्प को कोई रोक नहीं सकता है।

जलमार्गों को प्राकृतिक पथ कहा जाता है। क्योंकि इसे आदमी ने नहीं प्रकृति ने बनाया है। यही प्राकृतिक पथ कभी हमारी परिवहन की जीवनरेखा हुआ करता था लेकिन समय के साथ आये बदलावों और परिवहन के आधुनिक साधनों के चलते बीती एक सदी में यह क्षेत्र बेहद उपेक्षित होता चला गया।

हालांकि भारत के पास 14,500 किमी जलमार्ग है और हमें तमाम विशाल सदानीरा नदियों, झीलों और बैकवाटर्स का उपहार भी मिला है लेकिन हम इसका उपयोग नहीं कर सके और समय के साथ इनकी क्षमता बुरी तरह प्रभावित हुई। शक्तिशाली नदियों की नौवहन क्षमता तक प्रभावित हो गई।

इस क्षेत्र में जो निवेश होना था और जो नए साजो-सामान आने थे वे नहीं आ सके लेकिन पहली बार प्रधानमंत्री वर्तमान की पहल पर भारत के जलमार्गों का विकास सरकार के खास एजेंडे पर है। तमाम नई विकास परियोजनाएँ आरम्भ करते हुए कायाकल्प की योजना को जमीन पर उतारने की तैयारी में हैं। अगर ऐसा होता है तो परिवहन क्षेत्र में एक क्रान्ति देखने को मिलेगी और भारी दबाव से जूझ रहे सड़क और रेल परिवहन तंत्र को भी काफी राहत मिलेगी।

आजादी के बाद यह पहला मौका है जब सरकार 101 राष्ट्रीय जलमार्गों की घोषणा की दिशा में आगे बढ़ गई है। संसद में इस बाबत विधेयक प्रस्तुत किया जा चुका है। विधेयक की पड़ताल संसद की परिवहन, पर्यटन और संस्कृति सम्बन्धी स्थायी संसदीय समिति कर रही है।

चूँकि भारत के सभी राजनीतिक दलों में जलमार्गों के विकास को लेकर आम सहमति है और संसदीय समिति खुद लगातार इसकी पैरोकारी करती रही है, इस नाते इस विधेयक को पास होने में कोई दिक्कत नहीं आनी है। सरकार अगले पाँच वर्षों में जलमार्गों के विकास पर 50 हजार करोड़ रुपए की भारी-भरकम राशि खर्च करके एक मजबूत ढाँचा खड़ा करने की तैयारी में है।

केन्द्र सरकार की योजना है कि आगामी एक दशक में जल परिवहन के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को आगे करते हुए पाँच लाख करोड़ रुपए तक का निवेश हो जाये। भारत सरकार एक एकीकृत राष्ट्रीय जलमार्ग परिवहन ग्रिड की स्थापना की दिशा में भी आगे बढ़ रही है। इसके तहत 4503 किमी जलमार्गों के विकास की योजना है।

इस परियोजना के पूरा होने पर सड़क तथा रेल से काफी माल परिवहन अन्तरदेशीय जलमार्गों की ओर मोड़ने में सफलता मिल सकेगी। केन्द्रीय सड़क परिवहन और जहाजरानी मंत्री इस मामले को लेकर सरकार बनने के बाद से ही सक्रिय हैं। उनका कहना है कि परियोजना के लिये धन की कमी नहीं होगी।

भारत को तमाम पवित्र और विशाल नदियों का वरदान मिला है। हमारे देश में अनेक छोटी-बड़ी नदियों का जाल फैला हुआ है। इनमें कुछ नदियाँ तो विश्व की बड़ी नदियों में शामिल हैं। साथ ही नहरों, झीलों, बड़े जलाशयों जैसे अन्तःस्थलीय जल संसाधन बिखरे पड़े हैं।

भारत के 14,500 किमी नौचालन योग्य अन्तरदेशीय जलमार्गों में से करीब 5,200 किमी नदियाँ और 485 किमी नहरें ऐसी हैं जिन पर यांत्रिक जलयान चल सकते हैं। अन्तरदेशीय जल परिवहन के तीन हिस्से हैं। पहला है फेयरवे यानि चैनल जिस पर जलयान चलता है। दूसरा है टर्मिनल या जेट्टी, जहाँ माल को चढ़ाया या उतारा जाता है और यात्री चढ़ते उतरते हैं और तीसरा है स्वयं जलयान। यही तीनों मिलकर एक सक्षम और सफल जलमार्ग बनाते हैं।

जल परिवहन के तीन प्रकार है। पहला, अन्तरदेशीय जलमार्ग है जिसमें नदियाँ, नहरें, झीलें और बैकवाटर आते हैं। फिर समुद्री जलमार्ग है जिसमें तटीय मार्ग तथा महासागरीय मार्ग आते हैं। आज भी यूरोप, अमेरिका, चीन तथा पड़ोसी बांग्लादेश में काफी मात्रा में माल की ढुलाई अन्तरदेशीय जल परिवहन तंत्र से हो रही है।

आज ज़मीनी हकीक़त यह है कि हमारे देश में केरल, असम, गोवा और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों (जहाँ जलमार्ग इलाकाई लोगों की जीवनरेखा बने हुए हैं) को छोड़ दें तो बाकी जगहों की स्थिति ठीक नहीं है। राइट्स का एक अध्ययन बताता है कि आज कुल घरेलू परिवहन में जल परिवहन का हिस्सा महज 0.24 फीसदी है, जबकि रेलवे का हिस्सा 36.6 फीसदी और सड़क परिवहन का 50.12 फीसदी हो गया है।

संकुचित होती सड़कें और रेलों पर दबाव


आज हमारी सड़कों और रेलों पर लगातार दबाव बढ़ रहा है। हमारी सड़कें दुनिया में सबसे असुरक्षित बनती जा रही हैं। हमारे यहाँ वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है, जबकि सड़कें सिकुड़ रही हैं। देश में सड़क दुर्घटनाओं के कारण सालाना 65 से 75 हजार करोड़ रुपए की हानि हो रही है।

फिर भी हमारे वाहनों की संख्या में 8 से 10 फीसदी सालाना की दर से वृद्धि हो रही है। योजना आयोग द्वारा 10वीं योजना के लिये गठित समेकित परिवहन नीति कार्यबल की रिपोर्ट बताती है कि हमारे ट्रकों की रोज औसत दौड़ 200 किमी से अधिक नहीं है।

दूसरी ओर रेल परिवहन पर भी भारी दबाव है और प्रमुख उच्च घनत्व वाले सात प्रमुख रेल मार्गों यानि दिल्ली-हावड़ा, दिल्ली-मुम्बई, मुम्बई-हावड़ा, हावड़ा-चेन्नई, मुम्बई-चैन्नई, दिल्ली-गुवाहाटी और दिल्ली-चैन्नई के 212 रेल खण्डों में लगभग 141 खण्डों की क्षमता उपयोगिता 100 फीसदी से भी अधिक है।

इन पर ही सबसे अधिक यात्री और माल परिवहन होता है। इससे तस्वीर की परिकल्पना की जा सकती है। दूसरी बार लागत की भी है। आज ईंधन लगातार महंगा हो रहा है और बिजली दरें भी सामग्री लागत के नाते बढ़ रही हैं। ऐसे में सस्ते और भरोसेमन्द तंत्र के रूप में जल परिवहन के उपयोग की दिशा में आगे बढ़ने के अलावा हमारे पास विकल्प भी नहीं है।

जल परिवहन-गौरवशाली अतीत


हालांकि आज़ादी के बाद अन्तरदेशीय जल परिवहन के विकास के सवाल पर तमाम समितियाँ बनीं और अध्ययन भी हुए लेकिन उनकी सिफारिशें ज़मीन पर उतर नहीं सकीं। पहली बार इस दिशा में सरकार का बहुत गम्भीर प्रयास दिख रहा है। हालांकि इसकी सफलता दिखने में थोड़ा समय लगेगा लेकिन इससे देश के कई हिस्सों में माल परिवहन के परिदृश्य में काफी बदलाव आ सकता है।

भारत सरकार की बेहद महत्त्वकांक्षी नदी जोड़ परियोजना पर भी काम आरम्भ हुआ है। इसका भी जलमार्ग विकास में कुछ जगहों पर फायदा होगा। अभी हमारे अधिकांश जलमार्गों पर आधारभूत सुविधाओं की भारी कमी है लेकिन अगर इस क्षेत्र का सलीके से विकास हो गया तो काफी संख्या में रोजगार की सम्भावनाएँ विकसित हो सकती हैं।

इतिहास साक्षी है कि भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में अन्तरदेशीय जलमार्गों का विशेष महत्त्व रहा है। भारत एक दौर में अन्तरदेशीय जल परिवहन के क्षेत्र में दुनिया का सिरमौर था। यहाँ तमाम अभिनव प्रयोग हुए, जिसकी दुनिया के कई देशों ने नकल की।

सदियों तक जलमार्ग हमारे परिवहन की जीवनरेखा रहे। इसके माध्यम से बड़ी मात्रा में यात्री और माल यातायात होता था लेकिन परिवहन के आधुनिक साधनों और खासतौर पर रेलों के आगमन के बाद से इसकी उपेक्षा होने लगी। दूसरी ओर नौवहन के काम आने वाली तमाम नदियों, नहरों और झीलों की अनदेखी हुई, जिससे उनकी क्षमता बुरी तरह प्रभावित हुई।

बढ़ते शहरीकरण और खेती तथा उद्योग के लिये पानी के बढ़ते उपयोग से जल संसाधनों पर दबाव बढ़ा। नदियों के पानी की बड़ी मात्रा सिंचाई और पेयजल के लिये उपयोग में लाये जाने से उनकी नौवहन क्षमता प्रभावित होना लाज़िमी था। कई नदियों और नहरों में गाद जमा हो जाने के कारण भी जल परिवहन को झटका लगा।

अंग्रेजों ने रेल और सड़कों पर खास ध्यान दिया और जल परिवहन की उपेक्षा की। बाद में यह क्रम जारी रहा और यह तंत्र पिछड़ते हुए आखिरी साँसें गिनने लगा। हालांकि आजादी के बाद कई बार हमारे योजनाकारों ने परिवहन के सभी साधनों के बीच बेहतर सन्तुलन स्थापित करने के इरादे से योजनाएँ बनाई लेकिन जलमार्ग उच्च प्राथमिकता नहीं पा सका।

आजादी के बाद से 11वीं योजना तक इस क्षेत्र को कुल 1200 करोड़ रुपए से भी कम आवंटन मिल पाया। केवल 12वीं योजना में संसदीय समितियों की सिफारिशों और तमाम तथ्यों के आलोक में भारत सरकार ने जल परिवहन के विकास के लिये 1500 करोड़ की राशि का प्रावधान किया।

अब केन्द्र सरकार ने जल परिवहन को अपने मुख्य एजेंडे में रखा है। हालांकि देश में नदियों और झीलों की दशा को देखते हुए तमाम विशेषज्ञ योजना की सफलता को लेकर कुछ सवाल खड़े कर रहे हैं लेकिन योजना की नेकनीयती पर सन्देह नहीं किया जा सकता है।

भारतीय अन्तरदेशीय जलमार्ग प्राधिकरण


अन्तरदेशीय जल परिवहन के विकास के लिये दुनिया के कई देशों में विशेषज्ञ संगठन हैं। भारत सरकार ने भी अक्टूबर 1986 में भारतीय अन्तरदेशीय जलमार्ग प्राधिकरण की स्थापना की लेकिन संगठन के तौर पर यह बहुत सफल नहीं रहा क्योंकि इसके गठन के बाद से इसे बहुत कम धनराशि मिल सकी।

फिर भी इसने जलमार्गों के महत्त्व के बारे में जागरुकता के प्रसार और तमाम क्षेत्रों में आधारभूत ढाँचे के विकास के साथ अपनी सीमाओं के भीतर काफी काम करने की कोशिश की। इस प्राधिकरण का गठन राष्ट्रीय परिवहन नीति समिति, 1980 की सिफारिशों के आधार पर भारतीय अन्तरदेशीय जलमार्ग प्राधिकरण अधिनियम 1985 के तहत किया गया।

अन्तरदेशीय जलमार्गों का विकास और नियमन करने वाला देश का यही सर्वोच्च निकाय है। जो जलमार्ग राष्ट्रीय नहीं हैं उनके विकास का जिम्मा राज्य सरकारों पर है। लेकिन राष्ट्रीय जलमार्गों से इतर जलमार्गों की सम्भाव्यता अध्ययन करने के साथ प्राधिकरण ने कई ज़मीनी काम किये हैं।

केन्द्र सरकार को अन्तरदेशीय जल परिवहन के मामले में सलाह देने के साथ राज्यों का मार्गदर्शन करने का काम भी प्राधिकरण करता है और राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित करने सम्बन्धी प्रस्ताव भी यही तैयार करता है।

भारत के राष्ट्रीय जलमार्गों का महत्त्व


भारत में आजादी के बाद अब तक पाँच घोषित राष्ट्रीय राजमार्गों में से केवल तीन ही सक्रिय हो सके हैं। पहला गंगा-भागीरथी-हुगली का जलमार्ग है दूसरा असम में ब्रह्मपुत्र और तीसरा केरल का जलमार्ग। अब तक घोषित हो चुके राष्ट्रीय जलमार्गों का क्रमवार विवरण तालिका-1 में है-

तालिका 1 : स्वीकृत जलमार्ग


जलमार्ग

क्षेत्र

लम्बाई

वर्ष

राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या-1

गंगा-भागीरथी-हुगली नदी प्रणाली

1620 किमी

1986

राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या-2

ब्रह्मपुत्र-सादिया से धुबरी

891 किमी

1988

राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या-3

केरल

205 किमी

1993

राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या-4

आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु एवं पुडुचेरी

1078 किमी

2008

राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या-5

ओड़िशा तथा पश्चिम बंगाल

588 किमी

2008

 

जाहिर है सीमित संसाधन आवंटन और निम्न प्राथमिकता के नाते काफी धीमी रफ्तार से विकास हो रहा था। प्राधिकरण ने पहले चरण में राष्ट्रीय जलमार्गों को पूरी तरह से कार्यात्मक बनाने पर जोर देते हुए फेयर वे, चौबीस घंटे परिवहन संसाधन, टर्मिनलों के विकास, तटीय नौवहन से जलमार्गों को जोड़ने और पीपीपी को प्रोत्साहित करने की दिशा में प्रयास किया।

उसे कुछ मोर्चों पर सफलताएँ मिली हैं तो कई जगह विफलताएँ भी लेकिन अब सरकार 101 राष्ट्रीय जलमार्ग बनाने की तैयारी में है। देश के करीब सभी हिस्सों में इनका जाल बिखरा हुआ है। उनके विकास का तानाबाना बुना जा रहा है।

भारतीय अन्तरदेशीय जलमार्ग प्राधिकरण के अध्यक्ष अमिताभ वर्मा के मुताबिक अतीत के अनुभवों, आँकड़ों और विशेषज्ञों के सुझावों के आधार पर 101 राष्ट्रीय जलमार्ग बनाने की सूची तैयार की गई है। हालांकि यह अन्तिम सूची नहीं हो सकती है और कई ऐसी नदियाँ और नहरें हैं जिनमें नौवहन सम्भव है।

हमारी जिम्मेदारी नदी का विकास, नौवहन और जल परिवहन की रुकावटों को दूर करना है। दूसरा उस पर अगर कोई ढाँचा, पुल, बिजली या पानी की लाइन आदि खींची जा रही हो तो नौवहन के लिहाज से उसे स्वीकृति देने तक है। कुछ राज्यों की धारणा है कि राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित हो जाने पर उनके अधिकार कम हो सकते हैं लेकिन ऐसा नहीं है।

संसाधनों के मसले पर उनका कहना है कि इसके विकास के लिये हमें भारी राशि की जरूरत है। हम प्रयास कर रहे हैं कि पीपीपी, बजटरी संसाधनों और बाजार से यह साकार हो सके। भारत सरकार का प्रयास है कि राज्य सरकारें भी राज्य जलमार्ग विकसित करें।

छोटी नदियाँ गाँव और जिला स्तर पर विकसित हों और उनसे 10 टन तक के जलयान जिला और राज्य के माध्यम से राष्ट्रीय जलमार्ग और फिर बन्दरगाहों तक पहुँचे और जहाँ वे एक लाख टन के जहाज तक चढ़ें।

गंगा: व्यापक सम्भावनाओं वाला जलमार्ग


हल्दिया से इलाहाबाद के बीच 1620 किमी लम्बे राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या-एक को व्यापारिक उद्देश्य से सुगम बनाने के लिये विश्व बैंक के आर्थिक सहयोग से तेजी से विकसित करने की तैयारी चल रही है। हालांकि इस जलमार्ग पर पहले काफी संसाधन लग चुके हैं लेकिन बड़े स्तर पर नौवहन के लिये अभी आधारभूत सुविधाओं की कमी है।

इस नाते 4200 करोड़ रुपए से विकसित होने वाले इस जलमार्ग पर कई काम आरम्भ किये जा रहे हैं और वाराणसी को एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र बनाया जा रहा है। इसकी जलमार्ग विकास योजना चार वर्ष में पूरी हो जाएगी।

तमाम अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस इस जलमार्ग पर बड़े आकार के जलयानों की आवाजाही होगी और काफी माल परिवहन सम्भव हो सकेगा। साथ ही पर्यटन के लिहाज से कई नदी क्रूज भी चलेंगे।

माल परिवहन और ओवर डाइमेंशनल कार्गो


देश के तमाम बिजलीघर कोयले की कमी से परेशान रहते हैं। सड़क और रेल परिवहन से समय पर कोयला नहीं पहुँच पाता लेकिन अन्तरदेशीय जलमार्गों के द्वारा कोयला ढुलाई की व्यापक सम्भावनाएँ हैं। अकेले गंगा का राष्ट्रीय जलमार्ग ही भविष्य में लाखों टन कोयले की ढुलाई में सक्षम है।

नई विकसित हो रही कोयलरियों में से तलचर अन्तरदेशीय जलमार्ग के नजदीक है और ब्राह्मणी नदी के द्वारा कोयला ढुलाई की जा सकती है। ब्राह्मणी नदी और धामरा तथा पारादीप बन्दरगाह के माध्यम से तटीय जहाजरानी की भी मदद लेकर यह कोयला पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश तथा पूर्वोत्तर भारत तक पहुँच सकता है।

राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या एक और दो के क्षेत्र में एक दर्जन से अधिक ऐसे ताप बिजलीघर हैं जो कोयला परिवहन के लिये रेलवे पर निर्भर हैं।

एनटीपीसी और भारतीय अन्तरदेशीय जलमार्ग प्राधिकरण के बीच 24 सितम्बर, 2008 को हल्दिया सागर से फरक्का तक आयातित कोयले की जलमार्ग से ढुलाई के बाबत जो ऐतिहासिक समझौता हुआ था, वह अब साकार हो चुका है। इसकी परियोजना लागत 650 करोड़ रुपए थी और इससे सालाना ऊर्जा बचत 84 करोड़ रुपये आँकी गई है।

अब दूसरा समझौता बाढ़ बिजलीघर को कोयला आपूर्ति करने के लिये साकार होने वाला है। यह प्राधिकरण की एक बड़ी सफलता की कहानी है लेकिन दूसरे कई सम्भावनाओं वाले क्षेत्र भी हैं।

हमारी कई बड़ी विकास परियोजनाएँ राष्ट्रीय जलमार्गों के नजदीक साकार होने जा रही हैं। उदारीकरण के बाद बहुत से नए कारखाने और पनबिजली इकाइयाँ इन इलाकों में खुल चुके हैं। इनके निर्माण में भारी-भरकम मशीनरी की सड़क से ढुलाई आसान काम नहीं है।

खासतौर पर बिजली इकाइयों में ब्वाइलर, ट्रांसफार्मर, स्टेटर्स आदि या तो आयातित होते हैं या बीएचईएल के कारखानों में बनते हैं। कई ओवर डाइमेंशनल कार्गो तो 100 टन से अधिक वजनी होते हैं। इनकी ढुलाई के काम में रेलवे या सड़क की तुलना में जलमार्ग सबसे अधिक प्रभावी हैं। सड़कों पर ऐसे सामानों की ढुलाई बेहद कठिन है।

रेलवे में भी खासतौर पर ऐसे खण्डों में जहाँ सुरंगे और संकरे पुल हैं, वहाँ से इनको लादकर ले जाना असम्भव होता है लेकिन जल परिवहन के लिये यह विशेषज्ञता वाला क्षेत्र है और काफी सम्भावनाओं वाला भी। आज राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या एक, दो और तीन पर काफी ओवरडाइमेंशनल सामानों की ढुलाई हो रही है।

नुमलीगढ़ रिफायनरी के सामग्री को रेलवे नहीं ढो सकी पर अन्तरदेशीय जलमार्गों ने उनको प्रभावी तरीके से ढोया। इसी तरह कोच्चि रिफायनरी ने भारी-भरकम रिएक्टर की ढुलाई जल परिवहन की मदद से की।

अनाज और उर्वरकों की बड़ी मात्रा में ढुलाई जल परिवहन से सम्भव है। आज पंजाब एवं हरियाणा से हर माह 2.5 लाख टन अनाज पश्चिम बंगाल भेजा जाता है। इसका एक बड़ा हिस्सा अन्तरदेशीय जल परिवहन के माध्यम से भेजना सम्भव है। ऐसा हो तो सड़कों से काफी बोझ कम होगा। इसी तरह उर्वरकों की ढुलाई भी राष्ट्रीय जलमार्गों की मदद से बड़ी मात्रा में सम्भव है।

वैसे भी उर्वरक क्षेत्र वैकल्पिक साधनों की तलाश कर रहा है। खाद की उपलब्धता के बावजूद व्यस्त कृषि मौसम में रेल और सड़क तंत्र के द्वारा समय पर उर्वरक न पहुँचने से काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। जल परिवहन के माध्यम से भले ही धीमी गति से सामान की ढुलाई हो लेकिन समयबद्ध योजना बना कर उसे प्रभावी बनाया जा सकता है।

उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल तथा पूर्वोत्तर भारत में अगर इस तंत्र की मदद ली जाये तो पीक मौसम में उर्वरकों की कमी नहीं होगी। हालांकि बहुत से लोगों का तर्क है कि हल्दिया से वाराणसी तक जलमार्ग से उर्वरक पहुँचने में 13 दिन का समय लगेगा, जबकि रेलवे इसे 24 घंटे में ही पहुँचा सकता है लेकिन सवाल यह है कि उर्वरक नष्ट होने वाला उत्पाद नहीं है और आते ही इसके उपयोग की जरूरत भी नहीं होती।

इस नाते अगर समयबद्ध योजना बनाई जाये तो सस्ते में प्रभावी तरीके से उर्वरकों की ढुलाई क्यों नही हो सकती है। उर्वरक क्षेत्र की अग्रणी कम्पनियों खासतौर पर इफको, कृभको, सीएफएल, पीपीएल, एनएफएल आदि ने अन्तरदेशीय जल परिवहन तंत्र के द्वारा उर्वरक ढुलाई में दिलचस्पी दिखाई है।

जल परिवहन क्षेत्र के विशेषज्ञों का मानना है कि जलमार्गों के विकास के लिये कुछ ठोस उपाय और करने होंगे। जैसे इस बात की वैधानिक व्यवस्था हो कि विभिन्न नदी तटीय इलाकों के कारखाने तथा अन्य उपक्रम अपनी माल ढुलाई में एक खास हिस्सा जलमार्गों को दें। इससे अन्तरदेशीय जल परिवहन और तटीय जहाजरानी दोनों को बढ़ावा मिलेगा, सस्ते में परिवहन होगा और इन संगठनों का आधार मजबूत होगा।

हमें अपने जलयानों के बेड़े का विस्तार करना भी बहुत जरूरी है। अभी हमारे जलमार्गों पर सीमित संख्या में जलयान चल रहे हैं। हमें अपनी जलयान निर्माण क्षमता का विस्तार करने की भी जरूरत है और इस क्षेत्र में व्यापक अनुसंधान एवं विकास के लिये भी संसाधन उपलब्ध कराने होंगे लेकिन यह तभी सम्भव होगा जब इस क्षेत्र में गारंटीशुदा माल आने लगेगा।

जलयान अगर एक हजार टन से कम होगा तो वह खास लाभकारी नहीं है। वह 2000 टन क्षमता का होगा तो तीन मीटर की गहराई और वापसी में माल की सुनिश्चितता उसे काफी लाभकारी बना देगी। जलयानों की डिजाइन में भी हमें परिवर्तन करना होगा ताकि वे कम गहराई में भी ज्यादा क्षमता से चल सके।

ऐसे बहुत से उपायों की जरूरत है। राष्ट्रीय जलमार्गों और तटीय जहाजरानी में माल ढुलाई के क्षेत्र में कुछ सब्सिडी देने की बात भी उठ रही है ताकि थोक माल वाले लोग सड़क से इधर आ सकें। साथ ही खतरनाक सामग्री और गैस, पेट्रोल या रसायनों का एक हिस्सा जल परिवहन को शिफ्ट किया जाये।

हाल के वर्षों में कई सकारात्मक बदलाव भी आ रहे हैं, जैसे अन्तरदेशीय जलमार्गों की अवसंरचना का दर्जा हासिल हो गया है। इसे सेवाकर के भुगतान से भी छूट प्राप्त हो गई है और कई दूसरी रियायतें भी दी जा रही हैं। इससे यह क्षेत्र नई ताकत हासिल करने की स्थिति में आ रहा है।

पर्यटन विकास की सम्भावनाएँ


विभिन्न राज्यों में बड़ी नदियों और उनकी कई सहायक नदियों के किनारे बहुत कुछ देखने लायक है। नदियों के किनारे तमाम अनूठी सांस्कृतिक गतिविधियाँ तथा मेले और पर्व होते हैं। इस नाते पर्यटन विकास की व्यापक सम्भावनाएँ भी अन्तरदेशीय जल परिवहन क्षेत्र में छिपी हुई है।

गंगा से लेकर ब्रह्मपुत्र और देश के दूसरे हिस्सों की प्रमुख नदियों के किनारे जाने कितने तीर्थ, प्राचीन मन्दिर, धरोहरें, प्राकृतिक स्थल तथा सुन्दर जगहें हैं। असम, पश्चिम बंगाल, केरल और गोवा में तो काफी इलाकों में पर्यटकों की आवाजाही होती है। कश्मीर की डल झील में नौकायान गतिविधियों तथा हाउसबोटों के नाते पर्यटकों की आवाजाही हाल के वर्षों में फिर से होने लगी है।

राजस्थान, हिमाचल, उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश और ओड़िशा की कई झीलों में जलक्रीड़ा और नौकायान की काफी गतिविधियाँ चलने लगी हैं। गोवा और केरल में तो नदी पर्यटन के क्षेत्र में काफी लोगों को रोज़गार मिला हुआ है। नदी क्रूज भी कई इलाकों में खास लोकप्रिय हो रहे हैं। नदी क्रूज पर्यटन के विकास की दिशा में और अधिक ध्यान देने से जलमार्गों का राजस्व बढ़ने की काफी सम्भावनाएँ हैं।

तटीय जहाजरानी से जुड़ाव


अन्तरदेशीय जल परिवहन के विकास से जुड़ा एक अहम सवाल बन्दरगाहों और तटीय जहाज़रानी से जोड़ने का भी है। इससे हमारी कई नदी प्रणालियों को लाभ होगा।

भारत के महत्त्वपूर्ण जलमार्गपहले से ही गंगा-ब्रह्मपुत्र-सुन्दरबन नदी प्रणाली को कोलकाता-हल्दिया बन्दरगाह, ब्राह्मणी-महानदी प्रणाली को पारादीप बन्दरगाह, कृष्णा-गोदावरी-बकिंघम नहर को चैन्नई बन्दरगाह, पश्चिम तटीय नहर की कोचीन बन्दरगाह और मांडवी-जुआरी नदी तथा कम्बर्जुआ के जलमार्गों को मरमुगाँव बन्दरगाह से जुड़ा हुआ है। जलमार्गों के विकास के साथ इसे और प्रभावी बनाया जा सकता है और इसके कई लाभ होंगे।

हालांकि संसदीय समितियों ने भी इसकी सिफारिश की थी और जल परिवहन नीति, 2001 में भी इसकी वकालत की गई है लेकिन इस पर अभी अधिक ध्यान नहीं दिया जा सका है। आज हॉलैंड जैसे देशों में माल परिवहन का तीस फीसदी से अधिक हिस्सा अन्तरदेशीय जल परिवहन से होता है और नदियाँ बन्दरगाहों से जुड़ी है।

लिहाजा जलयान से जो माल आता है उसे सीधे नदी प्रणाली के माध्यम से गन्तव्य को भेज दिया जाता है। भारत में बन्दरगाहों की सड़कों और रेल सम्पर्कता पर ही जोर दिया जाता रहा है लेकिन अब इसमें जलमार्गों को भी शामिल करने की दिशा में पहल की जा रही है।

राज्यों में अन्तरदेशीय जल परिवहन तंत्र


अभी अधिकतर राज्यों में जल परिवहन के लिये विशेषज्ञ संगठनों का अभाव है। फिर भी केरल, असम और पश्चिम बंगाल में इन संगठनों का प्रभाव नजर आता है। केरल सरकार के पास एक व्यवस्थित जल परिवहन तंत्र है। केरल में पर्यटन विकास में जल परिवहन का विशेष योगदान है। अकेले अलेप्पी में ही एक हजार हाउसबोट हो गए हैं।

इन हाउसबोटों का स्थापत्य देश के दूसरे हिस्सों के हाउसबोटों से अलग और केरल की परम्परा के आधार पर है। स्थानीय उपलब्ध सामग्रियों पर बने ये हाउसबोट बहुत सुन्दर हैं और इनका किराया ढाँचा भी ऐसा है कि हर आय वर्ग का पर्यटक इसे वहन कर सकता है। इसी तरह केरल में राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या तीन पर माल ढुलाई की भी व्यापक सम्भावनाएँ हैं।

हालांकि केरल में केवल 205 किमी राष्ट्रीय जलमार्ग ही है फिर भी इस पर सालाना करीब चालीस लाख टन कार्गों सम्भाव्यता आँकी गई है। यह राष्ट्रीय जलमार्ग कोचीन बन्दरगाह से सीधे जुड़ा हुआ है। पूरे दक्षिणी भारत में केरल जैसा प्राकृतिक उपहार किसी और के पास नहीं है। यहाँ पर नदियाँ, नहरें, झीलें और बैकवाटर्स की भरमार है। ये आपस में जुड़े भी हैं।

ऐसा प्राकृतिक नेटवर्क देश के किसी और प्रान्त में नहीं है लेकिन इसकी पूरी क्षमता का वास्तविक उपयोग होना अभी बाकी है। आज केरल जैसे राज्य में सड़क के लिये ज़मीन मिलना कठिन है और यहाँ पर भूमि अधिग्रहण बहुत टेढ़ा काम है। केरल की सड़कों पर इतना अधिक दबाव हो गया है कि जलमार्ग के विकास के अलावा कोई दूसरा विकल्प है भी नहीं।

वहीं पूर्वोत्तर भारत के कई हिस्सों में अन्तरदेशीय जल परिवहन बहुत प्रभावी है। वहाँ कई छोटी-बड़ी नदियाँ हैं और विशाल ब्रह्मपुत्र तो अंग्रेजी राज में रेलों के विकास के बाद भी परिवहन का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन रही है। तमाम बाधाओं के बाद भी राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या दो धीरे-धीरे विकास की नई गाथा लिख रहा है।

असम में ब्रह्मपुत्र नदी के सदिया और धुबरीखण्ड के 891 किलोमीटर लम्बे दायरे में बीते वर्षों में आधारभूत सुविधाओं के विकास के लिये काफी काम हुए हैं। भारत सरकार पूर्वोत्तर राज्यों की जलमार्गों के विकास से सम्बन्धित परियोजनाओं को 100 फीसदी वित्तपोषण कर रही है।

असम सरकार का अपना अन्तरदेशीय जल परिवहन निदेशालय भी काफी कार्य कर रहा है। आज भी असम के तमाम दुर्गम इलाकों में सम्पर्क का सबसे प्रभावी साधन अन्तरदेशीय जल परिवहन ही है। सड़क और रेलवे से सस्ता होने के नाते यह आम आदमी की पसन्द बना हुआ है।

आज असम में ही सालाना 54 लाख लोग फेरी सेवाओं का लाभ उठा रहे हैं, जबकि 2020 तक यह आँकड़ा बढ़कर एक करोड़ होने वाला है। असम सरकार का अन्तरदेशीय जल परिवहन निदेशालय ही राज्य में 97 फेरी सेवाएँ चला रहा है। इसके अलावा पंचायत और जिला परिषद तथा निजी क्षेत्र में दूसरी नदियों में फेरी सेवाएँ संचालित हो रही है।

जल परिवहन निदेशालय के पास विभिन्न श्रेणी के 212 जलयान हैं। बड़ी संख्या में निजी जलयान काफी मात्रा में माल और यात्री यातायात सम्भाल रहे हैं। असम में ब्रह्मपुत्र और बराक पर वाणिज्यिक आधार पर जल परिवहन सेवाएँ संचालित होती हैं। इन सेवाओं का उपयोग यात्री और माल यातायात में होता है।

यहाँ से कोयला, उर्वरक, वनोत्पाद, कृषि उत्पादों और मशीनरी आदि की बड़ी मात्रा में आवाजाही होती है। यहाँ से चिटगाँव बन्दरगाह (बांग्लादेश) तथा कोलकाता और हल्दिया बन्दरगाह के मध्य भी सीधा सम्पर्क है।

पूर्वोत्तर में आपदाएँ आती रहती हैं और बाढ़ तो सालाना आयोजन है लेकिन मानसून में जल परिवहन ही राहत पहुँचाने का एकमात्र रास्ता बचता है। इस खण्ड में खासतौर पर लम्बी दूरी के माल परिवहन को लेकर काफी सम्भावनाएँ हैं। अनुमान है कि इसके द्वारा 2020 तक करीब 60 लाख टन सालाना माल ढुलाई सम्भव हो सकेगी।

जल परिवहन विकास : संसद का समर्थन


पिछले कई वर्षों से संसदीय समितियाँ जल परिवहन के विकास पर काफी समर्थन देती रही है। आजादी के बाद पहली बार संसद की परिवहन, पर्यटन और संस्कृति सम्बन्धी संसदीय स्थायी समिति ने इस विषय को लेकर 2013 में एक विशेष अध्ययन भी किया था और देश के कई हिस्सों का दौरा भी किया।

वरिष्ठ सांसद सीताराम येचुरी की अध्यक्षता वाली इस समिति ने कई अहम सिफारिशें की थीं। समिति ने जलमार्गों की क्षमता के इष्टतम उपयोग सुनिश्चित करने के लिये टर्मिनलों पर जलयानों के लंगर डालने के लिये जेट्टी, माल लदाई और उतराई के लिये स्थान, भण्डारण क्षेत्र और दूसरी जरूरी सुविधाओं के उचित विकास की वकालत की।

समिति की राय थी कि अन्तरदेशीय जल परिवहन में व्यापक सम्भावनाएँ हैं। इसके लिये कच्चे माल, रसायनों, कंटेनरों और तैयार उत्पादों को जल परिवहन से प्रोत्साहित करने की जरूरत है।

समिति की राय में जल परिवहन की राह की प्रमुख बाधाओं में अन्तिम छोर तक सम्पर्क सुविधा का अभाव। इसके लिये सेवा प्रदाता खोजना आसान नहीं है। इस नाते एक एकीकृत सम्भर तंत्र मॉडल विकसित करना होगा, जिससे एक छोर से दूसरे छोर तक माल ढुलाई की जिम्मेदारी ली जा सके।

अभी माल भेजने वालों को कई समस्याओं से जूझना पड़ता है और हताश होना पड़ता है। इसी तरह जलमार्गों की क्षमता का इष्टतम उपयोग सुनिश्चित करने के लिये सभी नदी टर्मिनलों को उचित सड़क और रेल सम्पर्क से जोड़ा जाना जरूरी है।

टर्मिनलों पर माल लदाई और उतराई के लिये उचित स्थान, भण्डारण क्षेत्र, वाहनों के आवागमन और पार्किंग जैसी सुविधाएँ भी सरकार की ओर से विकसित की जानी चाहिए। साथ ही टर्मिनलों के भीतर सीमा शुल्क और दूसरी सहायक अवसंरचना सुविधाओं की स्थापना को प्रोत्साहित करना चाहिए।

जल परिवहन से जुड़े कुछ अहम सवाल


परिवहन के दूसरे साधनों की तुलना में जलमार्गों का अनुरक्षण सस्ता है लेकिन इनमें कुछ दिक्कतें भी हैं। जैसे अगर किसी जलमार्ग का एक छोटा टुकड़ा भी खराब या नौवहन योग्य नहीं है तो पूरा खण्ड ही बड़े जलयानों के लिये अनुपयोगी सा हो जाता है। इस नाते लगातार सर्वेक्षण और चैनलों की ड्रेजिंग बहुत जरूरी है।

खासतौर पर राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या एक और दो जलोढ़ होने के कारण हर वर्ष मानसून के बाद दिक्कतें पैदा करता है। इसकी प्रकृति ही ऐसी है कि तमाम खूबियों के बाद भी स्थायी नौवहन चैनल बनाना कठिन काम है। इस नाते उथले खण्डों में लक्षित न्यूनतम गहराई को बनाए रखने के लिये बंडलिंग और ड्रेजिंग की जरूरत होती है लेकिन राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या तीन को ज्वारीय नहर होने के नाते अलग स्थिति प्राप्त है।

इसमें कम अनुरक्षण की जरूरत पड़ती है। तीनों जलमार्ग वर्ष में 330 दिनों के लिये लक्षित अधिकतम गहराई उपलब्ध करा रहे हैं लेकिन एक दूसरी समस्या नहरों को लेकर है। हमारी नहरों की चौड़ाई 9 से 20 मीटर तक है। इसके खास तौर पर संकरे खण्डों में करीब 9 मीटर चौड़े माल वाहक जलयानों का संचालन कठिन हो जाता है।

वहीं कम ऊँचाई वाले पुलों से भी जलयानों के संचालन में बाधा पहुँचती है। वैसे तो भारतीय अन्तरदेशीय जलमार्ग प्राधिकरण कानूनी तौर पर राष्ट्रीय जलमार्ग की राह में आने वाली बाधाओं या रुकावटों को दूर करने के लिये सक्षम हैं। उसने कुछ पुलों का पुनर्निर्माण भी कराया है लेकिन यह भारी लागत वाला काम है।

अभी खासतौर पर उपेक्षित इलाकों में निजी निवेश का मसला टेढ़ी खीर बना हुआ है। भारत सरकार ने राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या चार और पाँच के विकास में निजी क्षेत्र की खास भूमिका तय की थी लेकिन संसदीय समिति ने इससे असहमति जताई। समिति ने कहा कि पीपीपी मोड में केवल व्यापारिक लिहाज से लाभकारी खण्ड शामिल करने का मतलब यह है कि घाटे और जोखिम वाले खण्ड की देख-रेख सरकार करेगी। इस नाते समिति ने सरकार को नए रास्तों की तलाश की सलाह दी है।

यह भी ध्यान रखने की बात है कि इसे क्षेत्र में निवेश लम्बा समय लेने वाली प्रक्रिया है और परिणाम भी देर से सामने आते हैं। वहीं सेवाओं की दक्षता और गुणवत्ता में सुधार करने के लिये इस क्षेत्र को काफी संसाधन चाहिए और विशेषज्ञता से लैस करने की भी जरूरत है।

राष्ट्रीय जलमार्ग 2दूसरा अहम मसला सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों द्वारा किये जाने वाला माल परिवहन है। इसका एक तय हिस्सा जल परिवहन के माध्यम से करने के बाबत एक ठोस नीति बनानी होगी। साथ ही कच्चे माल, रसायनों, कंटेनरों और तैयार उत्पादों को जल परिवहन से प्रोत्साहित करने की दिशा में भी नई पहल करनी होगी। अभी अधिकतर एजेंसियाँ सड़क और रेल पर ही निर्भर हैं लेकिन उस क्षेत्र में कई दिक्कतें और अवरोध हैं।

भारतीय खाद्य निगम जैसी विशाल एजेंसी इस काम में पहल कर सकती है क्योंकि उनके यहाँ वर्ष भर अनाज की ढुलाई होती रहती है लेकिन अनाज के मामले में क्या अतिरिक्त सुविधाएँ चाहिए उसे पहले जुटा लेना चाहिए। साथ ही जल परिवहन तंत्र की विश्वसनीयता के लिये भी काफी कुछ करने की जरूरत है।

अन्तरदेशीय जल परिवहन क्षेत्र में भारत के जाने-माने विशेषज्ञ एन. उन्नी का मानना है कि पर्यावरण मैत्री और किफायती होने के बाद भी हम इसका अपेक्षित लाभ नहीं उठा पाये जबकि बीते दशक में दुनिया के कई देशों ने इससे काफी फायदा उठाया है। यूरोप और कुछ दूसरे देशों में तो तीस फीसदी तक घरेलू माल परिवहन अन्तरदेशीय जलमार्गों से जा रहा है।

यहाँ कई देश आपस में इसी साधन से बहुत मजबूती से जुड़े हैं लेकिन हमारे देश के विशाल आकार और विशाल नदियों के नाते बहुत सम्भावनाएँ हैं। इसके लिये हमें कुछ क्षेत्रों पर खास ध्यान देने की जरूरत है। इसमें ड्रेजिंग क्षमता का विकास सबसे प्रमुख है। ऐसा करके हम अपना पुराना गौरव लौटा सकते हैं।

इस क्षेत्र में नीचे से ऊपर तक एक नया माहौल बनाने की जरूरत है। साथ ही राज्य सरकारों को भी अहम भूमिका निभाते हुए जल परिवहन के क्षेत्र के लिये हितैषी नीतियाँ बनानी होंगी।

अन्तरदेशीय जल परिवहन की राह में एक बड़ी बाधा खासतौर पर आधुनिक जलयानों की कमी होने से भी है। जलयान में पूँजी लगाने में निजी क्षेत्र को आगे आना है लेकिन इसके लिये एक माहौल बनाना भी जरूरी है। जलमार्ग उपयोग करने वालों को सब्सिडी देने के साथ इस क्षेत्र में पूँजी लगाने वालों को प्रोत्साहन देने के लिये नई रणनीति की जरूरत है।

यह प्रमाणित तथ्य है कि अन्तरदेशीय जल परिवहन पर्यावरण मैत्री है और सड़क और रेल की तुलना में काफी किफायती भी है। इसमें प्रदूषण न्यूनतम होता है और अगर हम डीजल इंजनों की जगह सीएनजी इंजन स्थापित कर दें तो और भी लाभकारी हो सकता है।

परिवहन के अन्य साधनों की तुलना में जल परिवहन सुरक्षित है लेकिन खासतौर पर बाढ़ के दिनों में नौका दुर्घटनाएँ सुर्खियाँ बनती रहती हैं। अधिकतर मामलों में यही देखा गया है कि उचित निगरानी तंत्र के अभाव तथा नौकाओं में क्षमता से अधिक यात्रियों या माल लाद लेने के नाते दुर्घटनाएँ घटती हैं।

राष्ट्रीय जलमार्गों पर सुरक्षित नौवहन की दिशा में प्राधिकरण ने परम्परागत साधनों के साथ आधुनिक प्रौद्योगिकी की मदद से कई कदम उठाए हैं। डिफरेंशियल ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (डीजीपीएस) की मदद भी ली जा रही है। इसमें राज्यों का प्रभावी भूमिका भी तय करने की जरूरत है।

अन्तरदेशीय जलयान अधिनियम, 1917 के प्रावधानों में यांत्रिक अन्तरदेशीय जलयानों के पंजीकरण के साथ कर्मी दल व सवारियों की सुरक्षा सुनिश्चित कराना राज्य सरकारों के जिम्मे है लेकिन असम, बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश में अधिकतर दुर्घटनाएँ देशी नौकाओं से होती है। असम और पश्चिम बंगाल में इंजनों से लैस स्पीड बोटें भी खतरा बनी हैं। इस पर ध्यान देने की जरूरत है।

लेखक रेल मंत्रालय के पूर्व सलाहकार और संचार और परिवहन क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। भारत सरकार के जहाजरानी मंत्रालय की परियोजना के तहत भारत के अन्तरदेशीय जल परिवहन के इतिहास के लेखक।

ईमेल : arvindksingh.rstv@gmail.com

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading