अणु बिजली के विकल्प भी खोजने होंगे
जर्मनी की सरकार ने परमाणु ऊर्जा को शून्य पर लाने की योजना बनाने की कार्रवाई भी शुरू कर दी है। खुद अमेरिका में 1976 के बाद से कोई भी नया परमाणु संयंत्र नहीं लगाया गया है। भारत को प्रकृति की अनुपम भेंट है कि हमारे यहाँ पूरे साल अधिकांश इलाकों में सूरजदेव की कृपा बनी रहती है। हमारे रेगिस्तान व पहाड़ी इलाके पवन शक्ति के असीम भण्डार हैं। ये दोनों ही माध्यमों से बिजली उत्पादन ना केवल अनन्त व निरापद है, बल्कि इसे संसाधनों पर किसी का पहरा भी नहीं है। दो बातों से कोई इंकार नहीं कर सकता- देश के समग्र विकास के लिये ऊर्जा की जरूरत है, दूसरा कोयला जैसे उत्पाद पर आधारित बिजली उत्पादन के दिन ज्यादा नहीं हैं, ना तो इतना कोयला उपलब्ध है और उससे बेइन्तिहा पर्यावरणीय संकट खड़ा हो रह है, सो अलग।
सालों साल बिजली की माँग बढ़ रही है, हालांकि अभी हम कुल 4780 मेगावाट बिजली ही परमाणु से उपजा रहे हैं जो कि हमारे कुल बिजली उत्पादन का महज तीन फीसदी ही है। लेकिन अनुमान है कि हमारे परमाणु ऊर्जा घर सन् 2020 तक 14600 मेगावाट बिजली बनाने लगेंगे और सन् 2050 तक हमारे कुल उत्पादन का एक-चौथाई अणु-शक्ति से आएगा।
अब दुनिया भर के विकसित देश भी महसूस कर रहे हैं कि परमाणु ऊर्जा को बिजली में बदलना, ऊर्जा का निरापद विकल्प नहीं है। इसके साथ सबसे बड़ा खतरा तो परमाणु बम को रोकने के लिये हो रहे प्रयासों पर है।
जब तक परमाणु ऊर्जा से बिजली बनेगी, तब तक दुनिया पर आज से 70 साल पहले जापान के हीरोशिमा में गिराए गए बम से उपजी त्रासदी की सम्भावनाएँ बनी रहेंगी। भले ही आज का सभ्य समाज किसी दूसरे देश की आबादी को बम से प्रहार ना करे, लेकिन परमाणु रिएक्टरों में दुर्घटनाओं की सम्भावनाएँ हर समय बम के असीम दर्द को बरकरार रखती हैं।
जापना के फुकुशिमा के परमाणु बिजलीघर के हादसे बानगी हैं कि चाहे परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा का कितना भी दावा किया जाये, वो पूरी तरह सुरक्षित नहीं कहे जा सकते। फुकुशिमा में चारों रिएक्टरों में हुए विस्फोट से परमाणु विकिरण कहाँ तक पहुँचा, इसके दुष्परिणाम कब तक और कितने लोगों को सहने होंगे इन सवालों का ठीक-ठीक जवाब देने की स्थिति में न तो राजनीतिज्ञ हैं और न ही वैज्ञानिक।
सन् 1986 में रूस के चेर्नोबिल की दुर्घटना से 4000 वर्ग किमी का क्षेत्रफल हजारों वर्षों के लिये रहने योग्य नहीं रह गया। परमाणु ईंधन के रिसाव से करीब सवा लाख वर्ग किमी ज़मीन परमाणु विकिरण के भीषण असर से ग्रस्त है। कोई कहता है कि वहाँ सिर्फ 6 लोगों की मौत हुई जबकि कुछ दावे कई लाख लेागों की तिल-दर-तिल मौत के हैं।
यह भी अब खुल कर सामने आ गया है कि परमाणु बिजली ना तो सस्ती है और ना ही सुरक्षित और ना ही स्वच्छ। हम परमाणु रिएक्टर व कच्चे माल के लिये दूसरे देशों पर निर्भर हैं, वहाँ से निकलने वाले कचरे के निबटारे में जब जर्मनी व अमेरिका को कोई विकल्प नहीं दिख रहा है तो हमारे यहाँ यह कचरा निरंकुश संकट बनेगा ही।
फिर जादुगोड़ा, रावतभाटा, और पोकरण गवाह हैं कि परमाणु बिजली के लिये किये जा रहे प्रयास किस तरह आम लोगों व प्रकृति के लिये नुकसान पहुँचा रहे हैं।
जर्मनी में ज़मीन की गहराई में दबाए गए कचरे के भण्डार में नमकीन पानी के रिसाव से उपजे संकट से जूझने के लिये सरकार को पौन अरब यूरो का खर्च करना पड़ा। अमेरिका के हैनफार्ड में भूमिगत परमाणु कचरे के इलाके में रिसाव कई तरह के संकट खड़े कर चुका है। तभी तो जर्मनी की सरकार ने परमाणु ऊर्जा को शून्य पर लाने की योजना बनाने की कार्रवाई भी शुरू कर दी है। खुद अमेरिका में 1976 के बाद से कोई भी नया परमाणु संयंत्र नहीं लगाया गया है।
भारत को प्रकृति की अनुपम भेंट है कि हमारे यहाँ सारे साल अधिकांश इलाकों में सूरजदेव की कृपा बनी रहती है। हमारे रेगिस्तान व पहाड़ी इलाके पवन शक्ति के असीम भण्डार हैं। ये दोनों ही माध्यमों से बिजली उत्पादन ना केवल अनन्त व निरापद है, बल्कि इसे संसाधनों पर किसी का पहरा भी नहीं है।
बिजली के व्यय को भी गम्भीरता से देखना होगा,- मुम्बई के एक उद्योगपति के 28 मंजिला मकान में महीने भर में जितनी बिजली खर्च होती है, वह एक शहर के दस हजार परिवार के विद्युत व्यय के बराबर है। दस गाँवों को साल भर निरापद बिजली मिलने की आवश्यकता को हम एक रात में कुछ हजार लोगों के मनोरंजन मात्र के लिये स्टेडियम में फूँक देते हैं।
ऊर्जा का असमान वितरण, ट्रांसमिशन -लॉस जैसे विषयों पर गम्भीरता से काम कर हम परमाणु बिजली पर निर्भरता से मुक्त हो सकते हैं और हीरोशिमा-नागासाकी की बम से अभिशप्त चौथी पीढ़ी को परमाणु-बम मुक्त दुनिया के आश्वस्त कर सकते हैं।