अनुसंधान, मगर किसके फायदे के लिए?

कृत्रिम ढंग से उगाई गई चीजें लोगों की क्षणिक तृष्णा को भले ही संतुष्ट कर दे,अंततः वह मानव शरीर को कमजोर बनाकर उसकी रासायनिक प्रणाली को ही बदल देती है कि वह ऐसे ही खाद्यों पर आश्रित हो जाती है। जब ऐसा हो जाता है तो दवाएं और विटामिन पूरक लेना जरूरी हो जाता है।

जब मैंने पहले चावल तथा जाड़े के अनाज को सीधे बोना शुरू किया था तो फसल को हंसिए से काटने के लिहाज से मुझे बीजों को सीधी कतारों में बोना सुविधाजनक लगा। कई कोशिशों के बाद एक नौसिखिए की तरह जोड़-तोड़कर मैंने एक हस्तनिर्मित बुआई उपकरण बनाया। यह सोचकर कि यह औजार अन्य किसानों के लिए फायदे का हो सकता है, मैं उसे परीक्षण केंद्र के आदमी के पास ले आया। उसने मुझसे कहा कि चूंकि हम इस समय बड़ी-बड़ी मशीनों के युग में रह रहे हैं,वह इस तरह के ‘हाथ से बने’ औजार को लेकर अपना वक्त बर्बाद नहीं करेगा। इसके बाद मैं एक कृषि उपकरण निर्माता के पास गया। यहां मुझे बताया गया कि इस तरह की सरल मशीन चाहे कितनी भी उपयोगी क्यों न हो सौ-रुपए से ज्यादा में नहीं बेची जा सकती है,‘यदि हम इस तरह की टुटपूंजी चीजें बनाने लगे तो किसान सोचेंगे कि हजारों डालर मूल्य के जो ट्रैक्टर हम लोग बनाकर बेंच रहे हैं, उनकी कोई जरूरत ही नहीं है।’ उसने कहा कि आजकल चलन यह है कि चावल रोपने की मशीनें फटाफट बनाकर, जब तक संभव हो बेची जाएं और फिर थोड़े समय बाद कोई नई मशीन का आविष्कार कर उसे बेचना शुरू कर दिया जाए।

मेरी तरकीब तो उन्हें दो कदम पीछे ले जाने वाली लगी। युग की मांग को पूरा करने की नियत से हमारे संसाधन बेकार के अनुसंधानों को बढ़ावा देने डटे हैं,और मेरे बनाए उपकरण का पेटेंट अब तक ताक पर रखा हुआ है। यही चीज उर्वरकों और रसायनों के मामले में भी रही है। बजाए किसान की जरूरतों को दिमाग में रखते हुए,उर्वरकों का विकास और अन्य चीजों के उपयोग करने पर जोर दिया जाता है। पैसा बनाने के लिए लोग कुछ भी बनाकर बेंच रहे हैं। परीक्षण केंद्रों की अपनी नौकरियां छोड़ने के बाद तकनीशियन बड़ी-बड़ी रसायन कंपनियों में काम करने लग जाते हैं। हाल ही में मैं कृषि तथा वानिकी मंत्रालय के एक अधिकारी से बात कर रहा था। उसने मुझे एक मजेदार किस्सा सुनाया। ग्रीन-हाऊसों में उगाई गई सब्जियां बहुत ही बेस्वाद होती हैं। यह सुनकर की सर्दियों में उगाए बैंगनों में कोई विटामिन नहीं थे तथा खीरे में कोई खुशबू नहीं थी। उसने इस पर शोध किया और उसे इसका कारण पता चल गया। सूर्य की कुछ खास किरणें उन शीशे और प्लास्टिक के घरों में प्रवेश नहीं कर पाती थीं।

जहां इन्हें उगाया जा रहा था वहां से उसका अनुसंधान ग्रीन-हाऊसों में प्रकाश व्यवस्था की ओर बढ़ गया। यहां बुनियादी प्रश्न यह है कि इंसान को सर्दियों के मौसम में खीरे और बैंगन खाना चाहिए या नहीं। लेकिन इस मुद्दे को परे सरका कर - इन्हें सर्दियों में उगाने का एक मात्रा कारण यह है कि उस समय उन्हें ऊंची कीमत पर बेचा जा सकता है। हम में से कोई इन्हें बे-मौसम में उगाने का तरीका खोज लेता है और फिर कुछ समय बीतने के बाद पता चलता है कि उन सब्जियों में कोई पोषक तत्व ही नहीं हैं। इस पर तकनीशियन सोचते हैं कि यदि पोषक तत्वों को नुकसान हो रहा है,तो इस बात को रोकने का कोई तरीका सोचना चाहिए। चूंकि यह समझा गया कि दिक्कत प्रकाश-व्यवस्था के कारण आ रही है,वह प्रकाश किरणों पर शोध करना शुरू कर देता है। वह सोचता है कि यदि उसने विटामिनयुक्त बैंगन ग्रीन-हाऊस में उगा लिया तो सब ठीक हो जाएगा। मुझे बतलाया गया है कि ऐसे भी कुछ तकनीशियन हैं जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी इसी तरह के अनुसंधान पर खपा दी।

स्वाभाविक है,चूंकि इस तरह के बैंगन उगाने पर जब इतने संसाधन और मेहनत खर्च होंगे,और उस सब्जी में पोषक तत्व भी बहुत होना बतलाया जाएगा,तो उन्हें बहत मंहगे दामों पर ही बेचा जाएगा। कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है। यदि इसमें मुनाफा है और आप उन्हें बेंच पाते हैं तो इसमें गलत कुछ भी नहीं हो सकता। लोग कितनी ही कोशिश कर लें,वे प्राकृतिक रूप से उगाए गए फल-सब्जियों में कोई सुधार,कृत्रिम तरीकों से नहीं कर सकते। कृत्रिम ढंग से उगाई गई चीजें लोगों की क्षणिक तृष्णा को भले ही संतुष्ट कर दे,अंततः वह मानव शरीर को कमजोर बनाकर उसकी रासायनिक प्रणाली को ही बदल देती है कि वह ऐसे ही खाद्यों पर आश्रित हो जाती है। जब ऐसा हो जाता है तो दवाएं और विटामिन पूरक लेना जरूरी हो जाता है। यह स्थिति किसानों के लिए मुश्किल तथा उपभोक्ताओं के लिए तकलीफों का ही कारण बनती है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading