अंधी आस्था से मरती नदियां

1 Aug 2010
0 mins read

आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन पर्यावरण पर किस कदर कहर बरपाता है, इसे समझने के लिए आनेवाले दो-तीन महीने अहम होंगे। क्योंकि थोड़े दिनों बाद पूरे देश में जोर-शोर से गणेशोत्सव मनाया जाएगा, और फिर उसके बाद दुर्गापूजा का आयोजन होगा। एक मोटे अनुमान के मुताबिक,हर साल लगभग दस लाख मूर्तियां पानी के हवाले की जाती हैं और उन पर लगे वस्त्र, आभूषण भी पानी में चले जाते हैं। चूंकि ज्यादातर मूर्तियां पानी में न घुलनेवाले प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी होती हैं, इसलिए हर साल उनके विसर्जन के बाद पानी की बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड काफी घट जाती है, जो जलीय जीवों के लिए मौत बनकर आती है। कुछ ही साल पहले मुंबई में मूर्ति विसर्जन के बाद लाखों की तादाद में मछलियां मरी हुई मिली थीं।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा दिल्ली में यमुना नदी का अध्ययन इस संबंध में आंखें खोलने वाला रहा है कि किस तरह यमुना का दम घुट रहा है। बोर्ड के निष्कर्षों के मुताबिक, सामान्य काल में पानी में पारे की मात्रा न के बराबर होती है, लेकिन उत्सवों के समय वह अचानक बढ़ जाती हैं। पांच साल पहले उसने अनुमान लगाया था कि हर साल लगभग १,७०० मूर्तियां दिल्ली के विभिन्न इलाकों में बहाई जाती हैं, जिनसे नदी में प्रदूषण फैल रहा है।

गनीमत है कि मूर्तियों से पैदा होते प्रदूषण पर हाल के दिनों में समाज में जागरूकता बढ़ रही है। कहीं-कहीं मूर्ति विसर्जन के लिए कृत्रिम जलाशयों का भी निर्माण किया जाने लगा है। पुणे नगरपालिका ने पिछले दिनों पूजा समितियों से आग्रह किया कि वे शाडू (एक विशिष्ट किस्म की चिकनी मिट्टी) की मूर्तियां रखें, जैसेपहले रखी जाती थीं। ये मूर्तियां जलाशयों में आसानी से घुल जाती थीं। उसने यह भी कहा कि चूंकि मूर्तियों के वस्त्र-आभूषण भी प्रदूषण बढ़ाते हैं, अतः उन्हें जलाशयों में न डालें। गणेश चतुर्थी के मद्देनजर मूर्तियों के विसर्जन संबंधी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी दिशा-निर्देश भी सामने आए हैं। इनमें विषैले रंगों से बचने के अतिरिक्त कृत्रिम जलाशयों के निर्माण के निर्देश भी हैं।

चार वर्ष पहले आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने पर्यावरणप्रेमी समूहों की याचिका पर जब मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था के लिए विभिन्न विभागों को आदेश दिया था, तब कुछ पार्टियों ने कहा था कि यह आदेश बहुसंख्यकों के ‘धार्मिक अधिकारों’ का हनन है, जबकि उन्हीं दिनों गुजरात सरकार मूर्तियों से पैदा प्रदूषण को चिंताजनक मानते हुए दिशा-निर्देश जारी कर रही थी। हालांकि समाज के एक हिस्से में बढ़ती जागरूकता का यह मतलब नहीं है कि त्योहारों के इस समय में सब कुछ विधिसम्मत और पर्यावरण के अनुकूल ही होगा। इसके लिए नागरिकों को न सिर्फ जागरूक बनना होगा, बल्कि स्वतःस्फूर्त हस्तक्षेप भी करना होगा, ताकि आने वाली पीढ़ियां हमें यह न कहें कि पर्यावरण बचाने के लिए हम सरकारों का मुंह ताकते रहे।

यह अच्छा है कि हाल के वर्षों में देश के कई इलाकों में पर्यावरण की रक्षा के लिए सामूहिक कदम उठाए गए हैं। पिछले साल हैदराबाद तथा पुणे के पर्यावरणप्रेमियों ने उन तमाम जगहों पर स्वयंसेवक तैनात किए थे, जहां मूर्ति विसर्जन होना था। उन्हें यह जिम्मा सौंपा गया था कि मूर्तियों के साथ जो कुछ पानी में बहाया जाता है, वे उन्हें एकत्र करें। हैदराबाद के ग्रीनकार्प्स ने तो चिकनी मिट्टी से मूर्तियां बनाते हुए बच्चों को इसके बारे में समझाया। इन सब का लाभ तभी है, जब पूरा समाज और देश जगे।
 
Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading