आपदा प्रबन्धन की कमजोरियाँ

9 Mar 2015
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आपदाओं में अक्सर मानवता खण्डित होती दिखती है लेकिन हमें धीरज और विवेक से आपदाओं से निबटना चाहिए। आपदाओं से बचने के लिए मानव समाज का संवेदनशील होना बेहद जरूरी है यदि संकट में हमने धीरज और संवेदना खो दी तो यकीन मानिए हमारी जान तो बच सकती है लेकिन हम जीने लायक नहीं रह पाएँगे। इसलिये हर खास और आम व्यक्ति को चाहिए कि आपदाओं में धीरज, सहनशीलता और सहिष्णुता को न छोड़ें।हम लोग आपदाओं के दौर में जी रहे हैं। कहने को आपदाएँ अनिश्चित हैं लेकिन यह तो तय है कि आपदाएँ आती रहती हैं। मुश्किल तो यह है कि ये अचानक आकर भीषण तबाही मचाती हैं। जब भी आपदाएँ आती हैं तो सरकार या नागरिक संस्थाएँ ऐसा व्यवहार करती हैं मानों उन्हें इसका कुछ अन्दाजा ही नहीं था। इधर कुछ वर्षों से आपदाओं के आने का सिलसिला बढ़ गया है। ये आपदाएँ भीषण तबाही मचा रही है। अभी हाल ही में बिहार में आए कोसी के बाढ़ ने महाप्रलय का रूप धारण किया था। यह बाढ़ पिछले 150 वर्षों में अभूतपूर्व थी। इससे 25 लाख लोग सीधे प्रभावित हुए, हजारों मौत के मुँह में गए। नष्ट हुई सम्पत्तियों का ठीक-ठीक आकलन भी नहीं हो पाया। अनुमान 65 हजार करोड़ रुपए तक जाता है। बिहार सरकार ने 14 हजार करोड़ रुपए की माँग की है ताकि उजड़े लोगों का पुनर्वास किया जा सके।

गुजरात में भूकम्प के महाविनाश को आठ वर्ष हो चुके हैं लेकिन वहाँ के सर्वाधिक तबाही वाले क्षेत्र भुज, भचाऊ अजार, मोरबीए मलिया, जामनगर के सैकड़ों गाँव में पुनर्वास के जो भी काम उस समय हो पाए उसे छोड़ दें तो आज भी वहाँ के आपदा प्रभावित लोग अपनी तत्कालीन नुकसान के साथ ही जी रहे हैं। यही हाल उड़ीसा के महाचक्रवात प्रभावित क्षेत्र एरसामा तथा सुनामी प्रभावित क्षेत्रों का है। सवाल है कि आपदाओं के इन भयावह साक्षात्कार के बाद भी क्या हमारे पास एक प्रभावी आपदा प्रबन्धन नीति और व्यवस्था है ताकि भविष्य के आपदाओं से हम निबट सकें?

प्रभावी आपदा प्रबन्धन के लिए जरूरी है समय से जानकारी और सफल समन्वय। अक्सर छोटी या बड़ी आपदाओं में समन्वय की कमी से राहत और मदद प्रभावित स्थान या व्यक्ति तक समय से नहीं पहुँच पाती। उदाहरण के लिए गुजरात में आए भूकम्प में भुज और अजार में भयानक क्षति हुई। मीडिया की खबर पर विभिन्न राहत एजेंसियाँ भुज और भचाऊ तो पहुँच गईं लेकिन भुज से आगे कच्छ के दूसरे गाँवों में राहत पहुँचने में दो दिन लग गए क्योंकि वहाँ की कोई सूचना समय पर नहीं मिल पाई थी। त्वरित सूचना और समन्वय का प्रभावी तन्त्र कुशल आपदा प्रबन्धन की महत्पूर्ण शर्त है।

सफल आपदा प्रबन्धन के लिए हमें यह भी जानना होगा कि आपदाएँ कितने प्रकार की हो सकती हैं? इन्हें दो या तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है। तीव्र, मध्यम एवं धीमी आपदाएँ। तीव्र आपदाओं में बाढ़, चक्रवात, सुनामी, भूकम्प, आग आदि को रख सकते हैं। जबकि मध्यम आपदा में महामारी, युद्ध आदि घटनाओं को रखा जाता है। सूखा, अतिवृष्टि आदि आपदाओं को धीमी आपदाएँ मानते हैं। इन आपदाओं के प्रभावों का अध्ययन कर एक प्रभावी सूचना प्रणाली के माध्यम से आपदा राहत समिति को सक्रिय किया जा सकता है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि यह अन्तरराष्ट्रीय विद्वेष और साजिशों से भरा दौर है। इसे वर्ग, जाति, सम्र्रदाय एवं दो देशों के बीच आपसी नफरत और घृणा की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जा रहा है। ऐसे समय में जैव व रासायनिक आतंक के खतरे भी हैं। एन्थ्रेक्स, सार्स आदि रोगों को इसी सन्देह से देखा जाता है। मस्टर्ड गैस, बम, फास्जीन, मिथाइल आइसो साइनेट (मिक) आदि जहरीले रासायनिक गैसों का इस्तेमाल अन्तरराष्ट्रीय आतंक फैलाने के लिए किया जाता है। यह एक नयी प्रकार की आपदा है। इससे बचाव के उपाय भी हमें जानना होगा। आपदा प्रबन्धन की नयी चुनौतियों में यह एक बड़ी चुनौती है। इससे बचाव के लिए बिल्कुल अलग प्रकार के तकनीकी ज्ञान और प्रचार की जरूरत है। बचाव व राहत दल को इस चुनौती से निबटने की तकनीक का ज्ञान भी जरूरी है।

अन्तरराष्ट्रीय रेडक्रॉस सोसायटी का अनुमान है कि प्राकृतिक आपदाओं के कारण प्रत्येक वर्ष दुनिया में डेढ़ से दो लाख लोगों की जानें जाती है और लगभग 13 करोड़ लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। ऐसे में यह भी जरूरी है कि आपदाओं के खतरों को बराबर लोगों को बताया जाना चाहिए। इस अभियान में मीडिया की भूमिका मुख्य हो सकती है।बाढ़, सुनामी या भूकम्प जैसे तीव्र आपदाओं में अक्सर यह देखा गया है कि सार्वजनिक सूचना तन्त्र सर्वाधिक प्रभावित होता है। वर्ष 2003 में गुजरात भूकम्प के दौरान भूकम्प प्रभावित क्षेत्रों से संचार सम्पर्क का टूट जाना एक महत्वपूर्ण दिक्क़त थी जिसे सेना के जवानों ने अपने संचार तन्त्र के माध्यम से सम्भाला था। बाढ़ में अहमदाबाद के कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने ‘हैम रेडियो’ के माध्यम से आपदा प्रभावित क्षेत्रों में संचार व्यवस्था कायम की थी। प्रभावी आपदा प्रबन्धन के लिए सफल संचार व्यवस्था का होना सबसे जरूरी है। सभी आपदा सम्भावित क्षेत्रों में स्वयंसेवी समूहों को आपस में मिल-जुलकर हैम रेडियो या इंटरनेट या स्थानीय संचार प्रणाली को सदा सक्रिय रखना चाहिए। संचार प्रणाली में वैकल्पिक संचार प्रणाली की भी व्यवस्था रहनी चाहिए। ध्यान रहे कि ये संचार प्रणाली आत्मनिर्भर हों जैसे बैटरी से चलने वाला हैम रेडियो या इंटरनेट क्योंकि आपदा में विद्युत व्यवस्था पहले बाधित होती है।

वर्ष 1993 से अब तक की प्रायः सभी बड़ी आपदाओं में लेखक ने देखा है कि विभिन्न राहत एजेंसियों के बीच समुचित तालमेल के अभाव की वजह से राहत कार्य ठीक से नहीं चल पाते और राहत सामग्री ज्यादातर बर्बाद हो जाती है। अभी हाल ही में आए कोसी के महाप्रलय में लगभग 30 से 40 प्रतिशत राहत सामग्री बेकार पड़ी रही और आपदा के दो महीने बाद भी उसका वितरण नहीं हो पाया। वजह थी स्वयंसेवी संस्थाएँ आपसी समन्वय के अभाव में यह नहीं समझ पाई कि किस क्षेत्र में क्या राहत पहुँचानी है। समन्वय और सूचना के अभाव में कहीं केवल पानी की बोतलों की भरमार थी तो कहीं कपड़ों का अम्बार लगा था कहीं खाद्य सामग्री भरी पड़ी थी तो कहीं दवाओं के ढेर थे। जहाँ जो जरूरी था वहाँ उस सामग्री को पहुँचाने की मुकम्मल नीति नहीं होने से बाढ़ प्रभावित लोगों में गहरा असन्तोष था। सरकारी तन्त्र एकदम अविश्वसनीय हो गया था। इसे संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में कुछ सरकारी कर्मचारियों ने राहत सामग्री को पानी में ही फेंक कर अपनी ड्यूटी पूरी कर ली।

वास्तव में सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं में समन्वय बेहद जरूरी है और केन्द्रीय स्तर पर यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि प्रत्येक प्रखण्ड एवं जिला के प्रमुख अपने क्षेत्र में स्वयंसेवी संस्थाएँ व सरकारी कर्मचारियों को मिलाकर एक प्रभावी तन्त्र पहले से ही तैयार रखें जो हर आपदा की स्थिति में समन्वित व आपसी सहयोग से काम करें। इस समन्वय की निगरानी के लिए नागरिक समिति भी बनाई जाए जिसमें अवकाश प्राप्त सैनिक, अधिकारी, चिकित्सक, इंजीनियर, योजनाकार आदि शामिल रहें। हालाँकि सरकारी आपदा प्रबन्धन में गैर-सरकारी संस्थाओं के साथ मिलकर सरकार की व्यवस्था की रूपरेखा तैयार होती है, लेकिन व्यवहार में यह प्रभावी नहीं रह पाता। बेहतर तो यह होगा कि जनसंचार माध्यम एवं गैर-सरकारी संस्थाओं को संयुक्त रूप से आपदा प्रबन्धन के तन्त्र में शामिल किया जाए और सामान्य दिनों में ‘मॉक अभ्यास’ के द्वारा यह सुनिश्चित किया जाए कि हमारी तैयारी कितनी कारगर है।

हम नागरिक पहल कर प्रत्येक घर में एक आपदा राहत किट बनाएँ जिसमें आवश्यक दवाएँ, खाद्य सामग्री, चाकू, टार्च, रस्सी, पट्टी आदि शामिल हो। स्वयंसेवी संस्थाएँ पहल कर ऐसी किट विकसित कर आपदा सम्भावित क्षेत्रों में बाँट सकती हैं। यही पहल सामुदायिक रूप से प्रखण्ड या जिला स्तर पर किया जाना चाहिए।हमारे देश में आपदा प्रबन्धन की एक मुख्य कमजोरी यह है कि आपदा राहत केन्द्र एवं पुनर्वास केन्द्र आम दिनों में सदा उपेक्षित रहते हैं। इस लेखक ने राष्ट्रीय राजधानी, दिल्ली के रघुवीर नगर आपदा राहत केन्द्र का दौरा कर पता लगाया कि यहाँ सिवाय कुछ क्रेन, बुलडोजर के और कोई उपकरण नहीं है। उसमें भी आधे से ज्यादा क्रेन एवं बुलडोजर खराब पड़े हैं। हमें लगभग प्रत्येक जिले में एक बड़ा क्षेत्र आपदा राहत केन्द्र एवं पुनर्वास केन्द्र के रूप में चिह्नित करना और सुनिश्चित करना चाहिए। अध्ययन और सर्वेक्षण के आधार पर आपदा सम्भावित क्षेत्रों को पहले से घोषित किया जाना चाहिए। जैसे दिल्ली भूकम्प संवेदी क्षेत्र में आता है तो लगभग एक महीने के अन्तराल पर यहाँ के लोगों को भूकम्प से बचाव एवं एहतियात के लिए जरूरी सूचनाएँ उपलब्ध कराते रहना चाहिए। लोगों को मालूम होना चाहिए कि भूकम्प या आपदा से बचाव के लिए राहत की कौन-कौन सी सामग्री उपयोगी है और उसका एक पैकेट प्रति व्यक्ति के हिसाब से हमेशा तैयार रखना चाहिए।

वास्तव में हमारे समाज में आपदा प्रबन्धन को ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं माना जाता है। आमतौर पर यह समझा जाता है कि आपदा प्रबन्धन सरकार का काम है इसलिए हम इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देते। विडम्बना यह है कि आपदाओं का मुख्य शिकार तो आम आदमी होता है इसलिए जरूरी है कि हम नागरिक पहल कर प्रत्येक घर में एक आपदा राहत किट बनाएँ जिसमें आवश्यक दवाएँ, खाद्य सामग्री, चाकू, टार्च, रस्सी, पट्टी आदि शामिल हो। स्वयंसेवी संस्थाएँ पहल कर ऐसी किट विकसित कर आपदा सम्भावित क्षेत्रों में बाँट सकती हैं। यही पहल सामुदायिक रूप से प्रखण्ड या जिला स्तर पर किया जाना चाहिए।

उदाहरण के लिए बाढ़ सम्भावित क्षेत्र में प्रत्येक प्रखण्ड या गाँव में एक ऊँची जगह पर गाँव की आबादी के अनुपात में कम से कम एक या दो हफ्ते का अनाज, पीने का पानी, आवश्यक दवाएँ, नाव, बाँस व लकड़ी के बल्ले, कपड़े आदि सामुदायिक योगदान या सरकारी या गैर-सरकारी मदद से जमा किए जा सकते हैं। बाढ़ की तिथियाँ लगभग तय होती हैं। अतः मई-जून महीने में प्रत्येक वर्ष यह तैयारी कर लेनी चाहिए। इस तैयारी या तत्परता से हम लाखों जानें बचा सकते हैं।

जागरुकता सफल आपदा प्रबन्धन की एक और महत्वपूर्ण शर्त है। यदि हम जागरूक नहीं हैं तो आपदाओं की चपेट में फंसकर यों ही हमारी जानें जा सकती हैं। अन्तरराष्ट्रीय रेडक्रॉस सोसायटी का अनुमान है कि प्राकृतिक आपदाओं के कारण प्रत्येक वर्ष दुनिया में डेढ़ से दो लाख लोगों की जानें जाती है और लगभग 13 करोड़ लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। ऐसे में यह भी जरूरी है कि आपदाओं के खतरों को बराबर लोगों को बताया जाना चाहिए। इस अभियान में मीडिया की भूमिका मुख्य हो सकती है। गुजरात भूकम्प और बिहार में कोसी प्रलय के बाद वहाँ के कुछ समाचारपत्रों ने नियमित खबरें प्रकाशित कर स्वयंसेवी संस्थाओं और सरकार को बराबर झकझोरे रखा और उन्हें राहत कार्य में ढिलाई नहीं बरतने के लिए बाध्य किया। आपदा प्रभावित क्षेत्रों में प्रतिष्ठित अखबारों के जागरुकता अभियान का व्यापक असर दिखा और उन क्षेत्रों में जहाँ राहत सामग्री नहीं पहुँच पाई थी वहाँ राहत सामग्री पहुँचाने में स्वयंसेवी संस्थाओं ने अहम भूमिका निभाई।

आपदा प्रबन्धन में सामान्य रूप से मनुष्य के लिए राहत और बचाव कार्य पर पर्याप्त ध्यान रहता है। लेकिन दूसरे जीव जैसे- पालतू पशु, पेड़-पौधे आदि की कोई परवाह नहीं करता। विगत वर्ष में आए कोसी की बाढ़ में कई लोग तो अपने पालतू पशुओं को नहीं बचा पाने की वजह से मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गए। कुछ लोगों की जान जाने की खबरें आईं क्योंकि उनके पशुधन डूब चुके थे। ऐसा ही वाकया गुजरात के भूकम्प के दौरान देखने को मिला था। 26 जनवरी, 2001 की सुबह आए भूकम्प में जितने लोग मरे थे उससे कहीं ज्यादा पालतू जानवरों के मारे जाने की पुष्टि हुई थी। ऐसे ही बिहार में लोगों से दस गुना ज्यादा पालतू जानवर बाढ़ में बह गए। अतः जरूरी है कि कुशल आपदा प्रबन्धन में मनुष्य के साथ-साथ पालतू जानवरों के बचाव व राहत के भी इन्तजाम किए जाएँ। समुचित तैयारी के अभाव में ‘जान बचे तो लाखों पाए’ की तर्ज पर ही राहत कार्य चलाए जाते हैं। अक्सर देखा गया है कि सौ रुपए की राहत सामग्री बाँटने का खर्च 1,000 रुपए से ज्यादा बैठता है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2006 में बिहार में आई कोसी की बाढ़ में 2 करोड़ रुपए मूल्य की राहत सामग्री बाँटने में 24 करोड़ रुपए का खर्च आया था।

अक्सर देखा गया है कि सौ रुपए की राहत सामग्री बाँटने का खर्च 1,000 रुपए से ज्यादा बैठता है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2006 में बिहार में आई कोसी की बाढ़ में 2 करोड़ रुपए मूल्य की राहत सामग्री बाँटने में 24 करोड़ रुपए का खर्च आया था।सफल आपदा प्रबन्धन के लिए कारगर पुनर्वास एवं पुनर्निर्माण नीति एवं व्यवस्था का होना बेहद जरूरी है। अक्सर देखा गया है कि आपदाओं में तत्काल राहत कार्य के बाद संस्थाएँ चुप बैठ जाती हैं। इससे स्थिाति गम्भीर हो सकती है। इस लेखक का अनुभव है कि वर्ष 2001 में गुजरात भूकम्प के बाद बचाव व राहत दल घटना स्थल पर तुरन्त पहुँच कर घायलों की मरहम-पट्टी तो कर आया लेकिन दो-तीन हफ्ते बाद उनके पुनर्वास के लिए वहाँ संस्थाओं और समूहों का अभाव था। बड़ी संख्या में ऐसे हताहत देखे गए जिनके जख्म पर्याप्त देखभाल के अभाव में बिगड़ गए थे। ऐसे में जरूरी है कि आपदा प्रबन्धन के लिए सक्रिय समूह पुनर्वास की मुकम्मल व्यवस्था करे। जनस्वास्थ्य एवं सामुदायिक सफाई के लिए स्थानीय युवाओं को प्रशिक्षित कर उनकी सेवाएँ ली जा सकती हैं। पुनर्वास में ध्यान रखना चाहिए कि व्यवस्था टिकाऊ और प्रभावी हो। कई जगह पुनर्वास के नाम पर फटे टेंट या पुराने टीन शेड के इन्तजाम पर हुए खर्च में थोड़ा और जोड़कर स्थायी पुनर्वास किया जा सकता है। आवश्यकता है पर्याप्त सूझ-बूझ एवं समुचित संयोजन की।

आपदा प्रबन्धन में सही निगरानी और मूल्यांकन एक महत्वपूर्ण घटक है। यदि हम आपदा का सही मूल्यांकन कर सकें तो राहत भी सही तरीके से पहुँचा सकते हैं। आमतौर पर ‘सम्भाव्य नमूना तकनीक’ से आपदा का मूल्यांकन कर यह तय किया जा सकता है कि आपदा की तीव्रता व गम्भीरता कितनी है और उसके लिए कैसी राहत व्यवस्था चलाई जानी चाहिए।

यहाँ मैं विशेष रूप से यह उल्लेख करना चाहूँगा कि आपदा प्रबन्धन की प्रचलित तकनीक और सरकारी पहल से इतर अलग-अलग क्षेत्रों और आपदाओं के अनुसार विभिन्न स्थानीय समुदायों अथवा नागरिक समूहों को एक स्थानीय एवं जनपक्षीय आपदा प्रबन्धन नीति या योजना बनानी चाहिए। इसमें एक प्रभावी प्रबन्धन समूह, आपदा एवं राहत कार्य सूची बनाकर स्थानीय युवाओं को प्रशिक्षित करना चाहिए। सूचना व संचार तंत्रों के लिए इलाके के उत्साही युवाओं का समूह बनाकर हैम या कम्युनिटी रेडियो की स्थापना कर सकते हैं, जनस्वास्थ्य एवं पुनर्निर्माण/नवनिर्माण समिति बनाई जा सकती है। उड़ीसा में महाचक्रवात के बाद वहाँ सरसामा गाँव में स्थानीय युवाओं ने ‘एरसामा नवनिर्माण समिति’ बनाकर अच्छा पुनर्वास कार्य किया।

आपदाएँ यों तो मानवता की बड़ी दुश्मन मानी जाती हैं लेकिन ये हमारे लिए एक सबक की तरह हैं। हर समझदार समाज सभी आपदाओं से कुछ न कुछ अवश्य सीखता है और भविष्य में उस सीख को आपदा के काट या उपचार के रूप में इस्तेमाल करता है। आपदाओं में अक्सर मानवता खण्डित होती दिखती है लेकिन हमें धीरज और विवेक से आपदाओं से निबटना चाहिए। आपदाओं से बचने के लिए मानव समाज का संवेदनशील होना बेहद जरूरी है यदि संकट में हमने धीरज और संवेदना खो दी तो यकीन मानिए हमारी जान तो बच सकती है लेकिन हम जीने लायक नहीं रह पाएँगे। इसलिये हर खास और आम व्यक्ति को चाहिए कि आपदाओं में धीरज, सहनशीलता और सहिष्णुता को न छोड़ें। महज थोड़े अनुशासन से हम न केवल समुचित राहत सामग्री प्राप्त कर सकते हैं बल्कि दूसरों को भी जीवन दे सकते हैं। लगभग सबने देखा होगा कि संकट के समय एक ही स्थान पर खतरनाक जीव और मनुष्य एक साथ टिके होते हैं और वे सब सुरक्षित बच जाते हैं। यह आलेख भविष्य की किसी आपदा से पहले यदि कोई ऐसी नसीहत दे पाए जिससे हम जनपक्षीय आपदा प्रबन्धन की मिसाल पेश कर सकें तो मैं इसे एक सार्थक प्रयास मानूँगा।

(लेखक चिकित्सक हैं और आपदा प्रबन्धन पर उनकी एक पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य है)
ई-मेल : ysamvad@gmail.com)

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