आपदा प्रबन्धन की समस्याएँ एवं चुनौतियाँ

इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक में भारत को अनेक भीषण आपदाओं का सामना करना पड़ा। इनमें 2001 का भुज का भूकम्प, 2004 की हिन्द महासागर की सुनामी, 2005 में कश्मीर का भूकम्प, 2008 में कोसी की बाढ़, 2009 में आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक में आई बाढ़, 2010 में लेह में बादल फटने और उत्तराखण्ड की बाढ़ तथा 2011 का सिक्किम का भूकम्प प्रमुख हैं।इण्टरनेशनल फेडरेशन ऑफ रेड क्रॉस एण्ड रेड क्रेसेण्ट सोसायटीज (आईएफआरसी) द्वारा 2010 में प्रकाशित विश्व आपदा रिपोर्ट के अनुसार 2000 से 2009 के बीच आपदाओं से प्रभावित होने वाले लोगों में 85 प्रतिशत एशिया प्रशान्त क्षेत्र के थे। यूनाइटेड नेशंस इण्टरनेशनल स्ट्रेटेजी फॉर डिजास्टर रिडक्शन (यूएनआईएसडीआर) द्वारा प्रकाशित 2011 की वैश्विक मूल्याँकन रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि विश्व में जो लोग बाढ़ से प्रभावित होते हैं, उनमें से 90 प्रतिशत दक्षिण एशियाई, पूर्व एशियाई और प्रशान्त सागर क्षेत्र में रहते हैं। दक्षिण एशिया के बाढ़ सम्भावित क्षेत्रों में भारत और बांग्लादेश प्रमुख हैं।

भारत की विशाल जनसंख्या का काफी बड़ा हिस्सा आपदाओं का शिकार बनता रहता है, जबकि बांग्लादेश में भौगोलिक नदी और तटवर्ती क्षेत्रों की स्थलाकृतिक विशेषताओं के कारण बाढ़ और चक्रवात का जोखिम बना रहता है। भारत में प्रति वर्ष लगभग 20 करोड़ लोगों को हर साल आने वाली बाढ़ का सामना करना पड़ता है। भूगर्भीय, जल-मौसम विज्ञानी और मानव-जनित एवं प्रौद्योगिकीय आपदाओं की सम्भावना वाले क्षेत्रों में करोड़ों भारतीयों के प्रभावित होने की आशँका को देखते हुए यह लाजिमी हो जाता है कि आपदाओं के शमन, निवारण और उनसे निपटने की तैयारियों को सुदृढ़ बनाने के लिए मिशन की भाँति एक अभियान चलाया जाए।

भवन निर्माण सामग्री प्रौद्योगिकी संवर्धन परिषद (वीएमटीपीसी) द्वारा तैयार किए गए संवेदनशीलता मानचित्र (वल्नरेविलिटी एटलस) में दर्शाया गया है कि भारत के भौगोलिक क्षेत्र का 58.6 प्रतिशत भाग तृतीय, चतुर्थ और पंचम श्रेणी के भूकम्पीय क्षेत्र में आता है। इनमें हल्के से लेकर अत्यधिक तीव्रता का भूकम्प आ सकता है।

लगभग 4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में व्याप्त यानी देश के भौगोलिक क्षेत्र का 12 प्रतिशत क्षेत्र बाढ़, नदियों के बदलते प्रवाह क्षेत्र और नदियों के तटों के कटाव से बार-बार प्रभावित होता रहता है। भारत के 7,516 कि.मी. लम्बे तटीय क्षेत्रों में से लगभग 5,700 कि.मी. में तूफान, चक्रवात और सुनामी की आशँका बनी रहती है। कृषि योग्य क्षेत्र के 68 प्रतिशत से अधिक पर सूखे का खतरा मण्डराता रहता है। कच्चे ढलानों में भू-स्खलन और ऊँचाई वाले क्षेत्रों में बर्फीले तूफान भी प्रायः अपना कहर ढाते रहते हैं। तेजी से बढ़ते शहरीकरण से मानव-जनित और प्रौद्योगिकीय आपदाओं का खतरा बढ़ गया है क्योंकि आधुनिक औद्योगिक इकाइयों में खतरनाक रसायनों और सामग्रियों का उपयोग, भण्डारण और परिवहन बढ़ गया है।

विश्व बैंक के अनुसार, 1996 से 2000 के बीच भारत में प्राकृतिक और मानव-जनित आपदाओं के कारण प्रति वर्ष सकल घरेलू उत्पाद में 2.25 प्रतिशत और राजस्व में 12.15 प्रतिशत का ह्रास हुआ। इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक में भारत को अनेक भीषण आपदाओं का सामना करना पड़ा। इनमें 2001 का भुज का भूकम्प, 2004 की हिन्द महासागर की सुनामी, 2005 में कश्मीर का भूकम्प, 2008 में कोसी की बाढ़, 2009 में आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक में आई बाढ़, 2010 में लेह में बादल फटने और उत्तराखण्ड की बाढ़ तथा 2011 का सिक्किम का भूकम्प प्रमुख हैं। सम्बन्धित राज्य सरकारों द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार अनुमान है कि 2008 की कोसी की बाढ़, 2009 की आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक की बाढ़ तथा 2010 की उत्तराखण्ड की बाढ़ से कुल मिलाकर करीब रु. 80,000 करोड़ की हानि हुई।

भारत की विशाल जनसंख्या का काफी बड़ा हिस्सा आपदाओं का शिकार बनता रहता है, जबकि बांग्लादेश में भौगोलिक नदी और तटवर्ती क्षेत्रों की स्थलाकृतिक विशेषताओं के कारण बाढ़ और चक्रवात का जोखिम बना रहता है। भारत में प्रति वर्ष लगभग 20 करोड़ लोगों को हर साल आने वाली बाढ़ का सामना करना पड़ता है।यह देखते हुए कि 2005 से 2010 की अवधि के लिए 12वें वित्त आयोग ने आपदा प्रबन्धन के लिए केवल रु. 21,333 करोड़ का वित्तीय प्रावधान किया था, स्पष्ट है कि प्राकृतिक आपदाओं से होने वाला नुकसान और आर्थिक क्षति स्वीकार्य स्तर से कहीं अधिक है। इससे आपदा प्रभावित क्षेत्रों से विकास के लाभों पर पानी फिर जाता है। साथ ही, आपदा उपरान्त राहत, पुनर्निर्माण और पुरानी स्थिति की ओर वापस लौटने में सीमित संसाधनों का जो उपयोग करना पड़ता है, उससे स्वास्थ्य, शिक्षा, समाज कल्याण आदि क्षेत्रों के लिए आवश्यक संसाधनों में कटौती करनी पड़ती है। इसी सन्दर्भ में भारत में आपदा प्रबन्धन की समस्याओं और चुनौतियों का विश्लेषण करने का प्रयास प्रस्तुत आलेख में किया गया है।

कमजोर संस्थाएँ


सम्भावित आपदाओं का मुस्तैदी से सामना करने के लिए भारत सरकार के राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने 2009 में आपदा प्रबन्धन पर एक राष्ट्रीय नीति तैयार की। इस नीति में यह परिकल्पना की गई थी कि निवारण, शमन और त्वरित कार्रवाई की संस्कृति के जरिये समग्र, सक्रिय, बहुआपदा-उन्मुखी और प्रौद्योगिकी-चालित रणनीति तैयार कर भारत को आपदाओं से जूझने में सक्षम और सुरक्षित देश बनाया जाए। राष्ट्रीय नीति में अब तक चली आ रही आपदा के बाद की राहतोन्मुखी व्यवस्था के स्थान पर अधिक सक्रिय, तत्काल त्वरित कार्रवाई की बेहतर क्षमता पर जोर दिया गया है ताकि आपदाओं के शमन, निवारण और तैयारियों के लिए एक सुदृढ़ वातावरण निर्मित किया जा सके।

आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 में निहित निर्देशानुसार ऊपर से लेकर नीचे तक संस्थागत तन्त्र की स्थापना की गई। राष्ट्रीय स्तर की संस्था राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में, राज्य स्तरीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण सम्बन्धित राज्यों के मुख्यमन्त्रियों की अध्यक्षता में, जिला स्तरीय प्रबन्धन प्राधिकरण सम्बन्धित जिलों के जिला अधिकारियों की अगुवाई में और जिला परिषद के सभापतियों की सह-अध्यक्षता में काम करेगी। परन्तु अनेक मामलों में ये संस्थाएँ, एक दो अपवादों को छोड़कर न तो सक्रिय हैं और न ही ढंग से काम कर रही हैं।

इसी प्रकार, यद्यपि अधिनियम में राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तरों पर आपदा शमन कोष और त्वरित कार्रवाई कोष की स्थापना की बात कही गई थी, परन्तु अभी तक केवल राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर ही ये कोष काम कर रहे हैं। बारम्बार आने वाली आपदाओं से जनजीवन, संपत्ति और अधोसंरचना को होने वाली क्षति को देखते हुए यह जरूरी हो गया है कि आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 के प्रावधनों को अक्षरशः लागू किया जाए।

आपदाओं के विनाशकारी प्रभावों से खतरे में आए लोगों की समस्याओं और कठिनाइयों को दूर करने के लिए प्रशासन का चुस्त-दुरुस्त और संवेदनशील होना आवश्यक है और इसमें कोई ढिलाई नहीं होनी चाहिए। इस कार्य से जुड़े सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों को पूरी पारदर्शिता के साथ अपना उत्तरदायित्व निभाना होगा। उन्हें ‘सब चलता है’ की मनोवृत्ति त्याग कर पूरे दायित्व के साथ नयी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए अपने आचरण में आमूल परिवर्तन लाना होगा। अचानक आई आपदा की स्थिति में छिन्न-भिन्न हुई सेवाओं की बहाली, आपदाग्रस्त लोगों को कुशलतापूर्वक सेवाएँ प्रदान करने और राहत सामग्री के सुचारू रूप से वितरण की पारदर्शी व्यवस्था करनी होगी।

इस तरह का संवेदनशील उत्तरदायी और पारदर्शी व्यवस्था जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कायम करनी होगी। आपदा प्रबन्धन का यह अभिन्न अंग है। आपदाओं से प्रभावित कुछ देशों में मानवीय सहायता हेतु बायोमीट्रिक्स और स्मार्ट कार्ड जैसी संचार की अभिनव प्रौद्योगिकी का उपयोग किया गया है, वे एक अच्छे प्रशासन का अनुकरणीय उदाहरण हैं। प्रभावित लोगों की मदद के लिए उन्हें तत्काल राहत पहुँचाने, अनावश्यक विलम्ब से बचने, लाल फीताशाही रोकने और असली पीड़ितों के बजाय फर्जी दावेदारों को मदद देने के लिए बाहरी दबावों से बचने के लिए हमारी प्रशासनिक व्यवस्था को कार्यकुशलता तथा प्रभाविकता सुनिश्चित करने के तौर-तरीके विकसित करने होंगे।

आपदा ग्रस्त लोगों के लिए समान अवसर प्रदान करने और सहायता पहुँचाने में समुदाय आधारित संगठन और स्वयंसेवी संगठन एक प्रहरी के रूप में काम करते हैं। जहाँ भी अपरिहार्य और सुविधाजनक हो, सूचना का अधिकार और जनहित याचिका जैसे सुशासन के वैकल्पिक प्रावधनों का उपयोग कर न्याय सुनिश्चित किया जाना चाहिए। नेपाल, थाईलैण्ड और चीन में हाल के दिनों में सरकारी कर्मचारियों को उनकी कथित लापरवाही और भ्रष्ट आचरण के लिए कानूनी चुनौती दी गई है। इससे स्पष्ट है कि आपदाग्रस्त क्षेत्रों में अकर्मण्यता और निकम्मेपन के लिए जवाबदेही तय करना नागरिक कार्रवाई की एक प्रमुख विशेषता बनती जा रही है।

नीतियों का कमजोर अनुपालन


केंद्र सरकार की राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन नीति भारत को जुझारू बनाने के संकल्प का प्रमाण है। आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 में दिए गए प्रावधानों के अनुसार राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण ने देश के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों के परामर्श से आपदा प्रबन्धन क्षेत्र की कमजोरियों और खामियों को सुधारने की कार्ययोजना तैयार की है। परन्तु तैयारियों, शमन और निवारण के लिए आपातकालिक कार्रवाई और प्रयासों को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए नोडल एजेंसियों से जो अपेक्षा थी वह अभी तक शुरू नहीं हो सकी है। विभिन्न प्रकार की आपदाओं के प्रबन्धन पर राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन के जो दिशा-निर्देश हैं उनकी सम्बन्धित पक्षों द्वारा समय-समय पर समीक्षा की जानी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन नीति में जो आमूल परिवर्तन किए गए हैं वे केवल प्रेरणा बन कर ही न रह जाएँ।

व्यवस्थाजन्य अक्षमताएँ


ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेश में आपदा प्रबन्धन को विकास की योजनाओं में प्रमुखता देने के लिए रणनीतिक मोड़ दिया गया है और इस सम्बन्ध में अनेक सुझाव दिए हैं। केंद्रीय वित्त मन्त्रालय ने 2009 में केंद्र और राज्यों के विभिन्न मन्त्रालयों और विभागों द्वारा भेजे जाने वाले योजना प्रस्तावों के प्रारूप में भारी बदलाव किया है।

उनसे प्रस्तावों को भेजते समय यह प्रमाणपत्र देने को कहा गया है कि सम्बन्धित भौगोलिक क्षेत्र में सम्भावित आपदाओं के जोखिम को ध्यान में रखकर ही योजनाएँ तैयार की गई हैं। परन्तु सम्पत्ति, परिसम्पत्ति और अधोसंरचनाओं की क्षति और विनाश में हो रही वृद्धि को देखते हुए यह जरूरी हो जाता है कि आपदा प्रभावित क्षेत्रों में इन प्रस्तावों का आकस्मिक अंकेक्षण किया जाता रहे ताकि वित्तीय हानि के लिए जिम्मेदार अधिकारियों की जवाबदेही तय की जा सके।

विकास योजनाओं में आपदा का जोखिम कम करने वाले उपायों को प्रमुखता देना आवश्यक हो गया है। यह दुर्भाग्य की बात है कि ग्यारहवीं योजना में प्रस्तावित शमन प्रस्तावों में अधिकांश पर काम ही शुरू नहीं हुआ है। बारहवीं योजना में इन प्रस्तावों को शामिल करना बहुत आवश्यक हो गया है, क्योंकि इन्हें यह सोचकर तैयार किया गया है कि भारत में प्रभावी आपदा प्रबन्धन के क्षेत्र में जो खामियाँ हैं, उन्हें दूर किया जा सके।

नवीन प्रणालियों, तकनीक और प्रविधियों को अपनाने की आवश्यकता


अनेक आधुनिक देशों ने आपदा प्रबन्धन की प्रभाविकता को सुधारने के लिए नयी सोच वाली व्यवस्थाएँ, तकनीक और प्रविधियों को अपना लिया है। सतर्कता और पूर्व चेतावनी देने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी, सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया जा रहा है। भौगोलिक सूचना प्रणाली, वैश्विक स्थितिक प्रणाली (जीपीएस), जनरल पॉकेट रेडियो सेवा (जीपीआरएस), रिमोट सेंसिंग, वायस ओवर इण्टरनेट प्रोटोकॉल (वीओआईपी), रेडियो ओवर इण्टरनेट प्रोटोकॉल (आरओआईपी), परिस्थिति विश्लेषण और नमूना तैयार करना, आपदाओं और जटिल मानवीय परिस्थितियों में पिछड़े परिवारों को मिलाने, डिजिटल एलीवेशन मॉडल्स, सुनामी में जलप्लावन की मॉडलिंग के लिए बैथीमेट्री, पूर्व चेतावनी प्रणालियाँ, डाप्लर रडार आदि का उपयोग अनेक देशों में बहुतायत से किया जा रहा है।

भारत में आपदा सम्भावित क्षेत्रों में लोगों तक सूचनाएँ प्रदान करने के लिए टेलीविजन और अखबारों में महंगे विज्ञापन देने की अपेक्षा सूचना प्रौद्योगिकी विभाग की उपग्रहयुक्त सामान्य सेवा केन्द्रों (सीएससी) का उपयोग किया जा सकता है। इसके जरिये स्थानीय भाषा में लोगों तक सन्देश पहुँचाया जा सकता है। सामग्री, रेल टिकटों और विमान कम्पनियों के बोर्डिंग पासों पर जनजागृति के सन्देशों की छपाई से भी वांछित प्रभाव प्राप्त किया जा सकता है। आपदाओं के खतरे और जोखिम के बारे में बेहतर जागरुकता फैलाने के लिए पारम्परिक स्वदेशी ज्ञान और आधुनिक तकनीक का तर्कसंगत मिश्रण आवश्यक है।

सभी सम्बन्धित पक्षों की क्षमताओं को सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता


सम्बन्धित पक्षों के विभिन्न समूहों की क्षमता का विकास तमाम भीषण आपदाओं का खतरा झेल रहे भारत जैसे विशाल देश के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। स्थानीय स्तर पर आपदाओं के शमन, निवारण और तैयारियों के लिए लोगों को प्रशिक्षण, जनजागृति और आपदा प्रबन्धन में शिक्षा और अनुसंधान की सुविधाएँ उपलब्ध होना जरूरी है ताकि आपदाओं को झेलने में सक्षम पुनर्निर्माण, तात्कालिक राहत/बचाव कार्रवाई और पुनर्वास को सहज रूप से अंजाम दिया जा सके। इन गतिविधियों में नागरिक संगठनों, स्थानीय प्रशासन के अधिकारियों व कर्मचारियों, निर्वाचित जनप्रतिनिधियों और वृत्तिजीवियों को शामिल करना आवश्यक है।

आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक में 2009 में आई बाढ़ में दोनों राज्यों के क्रमशः साढ़े सात लाख और साढ़े पाँच लाख मकान बह गए थे अथवा नष्ट हो गए थे। इस दुखद अनुभव से सीख लेते हुए सरकारी विभागों को यह सुनिश्चित करना होगा कि ग्रामीण क्षेत्रों में इन्दिरा आवास योजना और शहरी तथा अर्धशहरी क्षेत्रों में राजीव आवास योजना जैसे सामूहिक आवास योजनाओं के निर्माण में आपदाओं के झटके को सह सकने लायक विशेषताओं को अवश्य शामिल किया जाए ताकि आपदा सम्भावित क्षेत्रों में जोखिम भरा पुनर्निर्माण नहीं हो सके।

बारहवीं योजना के दृष्टिपत्र में कहा गया है कि इन्दिरा आवास योजना की एक बड़ी खामी रही है उसके मकानों की खराब गुणवत्ता। कमजोर नींव, छतों की खराब सामग्री और अधूरे निर्माण को लेकर अनेक शिकायतें रही हैं। विभिन्न संस्थानों के सहयोग से ऐसी नवाचारी तकनीक का विकास करने और उसे लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता है जिससे कम लागत में पर्यावरण के अनुकूल आपदा रोधी मकान बन सकें। उनका डिजाइन भी अच्छा हो और सामग्री भी। इन मकानों के निर्माण में स्थानीय सांस्कृतिक रुचियों का भी ख्याल रखा जाना चाहिए। इस समूचे कार्यक्रम की निगरानी की बेहतर व्यवस्था की भी आवश्यकता है।

इस बात को सभी सम्बन्धित पक्षों को स्वीकार करना होगा कि राज्य सरकारों द्वारा आपदाओं से निपटने की व्यापक तैयारी किए बिना आपदा उपरान्त राहत के लिए दावा करने का लोभ अनुचित है। यह तो ठीक ऐसा ही होगा जैसाकि टपकते नल को बन्द किए बिना भरे टब से बहते पानी को रोकना। नल को बन्द करना अथवा उसके वाशर को बदलना बेहतर होगा ताकि पानी का टपकना बन्द हो सके बजाय इसके कि टब से फालतू बहते पानी को रोकने की कोशिश की जाए। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो अपने सीमित साधनों को आपदा उपरान्त राहत कार्यों के रूप में नष्ट सम्पत्ति, परिसम्पत्ति और अधोसंरचना के पुनर्निर्माण पर व्यर्थ ही खर्च करते रहेंगे, जबकि ये संसाधन पीढ़ियों से वंचित समाज के लोगों की शिक्षा, स्वास्थ्य, विद्युत आपूर्ति, जलापूर्ति, स्वच्छता, समाज कल्याण आदि पर खर्च होने चाहिए। बारहवीं योजना में जिस त्वरित, समावेशी एवं सतत विकास की बात कही गई है उसे तभी पूरा किया जा सकता है जब हमारे योजनाकार, प्रशासक और नीति-निर्माता इस कटु सत्य को हृदयंगम कर सकें।

(लेखक भारत सरकार के राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के पूर्व सदस्य रह चुके हैं)
ई-मेल : nvcmenon@gmail.com

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