आर्थिक विकास और जलवायु परिवर्तन की कीमत


भारत का आईएनडीसी का प्रपत्र एक एडीबी अध्ययन को उदृत करते हुए बताता है कि 2050 तक जलवायु परिवर्तन से भारत में आर्थिक क्षति तथा नुकसान वार्षिक रूप से इसकी जीडीपी का 1.8 प्रतिशत के लगभग होगा। यह नीति आयोग के अनुमानों को भी उद्धृत करता है कि उदार निम्न कार्बन के विकास के लिये शमन गतिविधियों की लागत 2011 के मूल्यों पर 2030 तक लगभग 834 बिलियन अमेरिकी डॉलर होगा। आईएनडीसी के अनुसार प्रारंभिक अनुमान इंगित करते हैं कि कृषि, वनीकरण, मत्स्य पालन के आधारभूत संरचना, जल संसाधनों तथा परितंत्र में अनुकूलन के लिये 2015 से 2030 के बीच लगभग 206 बिलियन अमेरिकी डॉलर (2014-2015 के मूल्य पर) की आवश्यकता होगी तथा नाजुक स्थिति एवं आपदा प्रबंधन को सशक्त करने के लिये अतिरिक्त निवेश की आवश्यकता होगी।

आर्थिक विकास के सिद्धान्त और आख्यानों/माल्थसवादी, शास्त्रीय, मार्क्सवादी तथा स्टिगलिट्ज आयोग आदि ने इस बात की समझ का निर्माण किया है कि आखिर आर्थिक विकास है क्या और वो कौन से सबसे महत्त्वपूर्ण कारक हैं, जो इसे निर्धारित करते हैं तथा आर्थिक विकास के आकलन के मुख्य आयाम क्या हैं? आर्थिक विकास की प्रक्रिया में प्राकृतिक संसाधनों द्वारा निभाई गई भूमिका तथा इनकी प्रासंगिकता के इन सवालों के जवाब में कुछ भी नया नहीं है। आर्थिक विकास को समझने में जनसंख्या, मानव पूँजी, सामाजिक पूँजी, संसाधन निधि, प्रौद्योगिकी, संस्थाएँ तथा राजनीतिक अर्थव्यवस्था ने इसे महत्त्वपूर्ण रूप से दर्शाया है। विकास में प्रकृति की भूमिका को समझने में जलवायु परिवर्तन ने खासकर जलवायु परिवर्तन तथा इसके प्रभाव के प्रति कुछ निश्चित और विचित्र विशेषताओं जैसे एक महत्त्वपूर्ण अतिरिक्त आयाम जोड़ा है। जलवायु परिवर्तन के इस विज्ञान तथा आम सहमति के उच्च स्तर की एक उन्नत समझ ने ग्लोबल वार्मिंग के विपरीत परिणाम को लेकर पिछले दशक में वैज्ञानिकों के बीच अपनी पहुँच बनाई है तथा इसने आर्थिक विकास से लेकर विकास प्रक्रिया की निरन्तरता तक पर ध्यान केन्द्रित करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है।

जिस तरह से निरन्तर विकास की परिभाषा विकसित हुई है, उसमें भी यह प्रतिबिंबित होता है। निरन्तर विकास के व्यापक पैमाने पर उपयोग होने वाली अभिव्यक्ति वही है, जो यूएनडीपी (1995) में है और वह है : विकास का वह रूप जो वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, मगर साथ में इस बात की चिन्ता कि आने वाली पीढ़ी की आवश्यकता की पूर्ति किस तरह होगी। (पर्यावरण तथा विकास पर विश्व आयोग, 1987) तथा भविष्य के विकास के लिये प्राकृतिक परिसंपत्तियों के संरक्षण की कल्पना भी की गई है। अभी हाल ही में जलवायु परिवर्तन पर अपनाए गए सतत विकास के लक्ष्यों (एसडीएस) (यूएन 2015) में इस लक्ष्य को विशेष रूप से शामिल किया गया है कि जितनी जल्दी हो सके, जलवायु परिवर्तन तथा इससे पड़ने वाले प्रभाव से पार पाने के लिये कदम उठाए जाएँ। एसडीजी के जलवायु लक्ष्य के अन्तर्गत चर्चित पहला उद्देश्य सभी देशों में जलवायु से सम्बन्धित खतरनाक एवं प्राकृतिक आपदा के लचीलेपन तथा अनुकूलन सक्षमता को बढ़ाना है। वास्तव में, अन्य लक्ष्यों के ज्यादातर पहलू आपस में पर्यावरण के साथ जुड़े हुए हैं तथा इन सबकी एक ही मांग है कि प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण हो तथा उनका टिकाऊ उपयोग हो। मानव समाज में प्रगति के सटीक पैमाने के रूप में सोच विचार के साथ यह मांग उसकी बेहतरी के लिये रखी गई है।

आईपीसीसी की हालिया रिपोर्ट में अनुमानित रूप से जलवायु परिवर्तन के दिखने वाले तथा सम्भावित प्रभाव इस बात के प्रमाण देते हैं कि विश्वभर के क्षेत्रों के लिये जलवायु परिवर्तन एक खतरा है। उन समुदायों तथा पर्यावरण तंत्र के लिये भविष्य में होने वाले ये परिणाम शायद सबसे ज्यादा खतरनाक हों, जो पहले से ही खतरे के मुहाने पर हैं। इनमें गरीब, ग्रामीण क्षेत्रों के वो लोग जो अपनी आजीविका के लिये प्राकृतिक संसाधन पर निर्भर हैं तथा जो पारितंत्र एवं प्रजातियाँ पहले से नाजुक स्थिति में हैं। खतरे का स्तर निम्न से उच्च दिशा की ओर है तथा यह क्षेत्र और इलाकों के हिसाब से एक दूसरे से भिन्न भी हैं। उदाहरण के लिये, कोरल रीफ का खतरा बहुत उच्च स्तर का है। यह खतरा 1 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में भी है, जहाँ औसतन ज्यादातर क्षेत्रों के लिये फसल उत्पादन का जोखिम उच्च स्तर तक नहीं पहुँचता है तथा फसलें 2 डिग्री सेंटीग्रेड या उच्च तापमान पर भी बढ़ती है (आईपीसीसी एआर5 2014)।

एशिया के लिये तीन महत्त्वपूर्ण जोखिम चिह्नित किए गए हैं। इनमें शामिल हैं आधारभूत संरचना, आजीविका तथा आवास को क्षति पहुँचाने वाली बढ़ती बाढ़, ऊष्मा से सम्बन्धित मानव मृत्यु-दर तथा सूखे के कारण भोजन तथा पानी की कमी (आईपीसीसी एआर5 2014)। संक्षेप में, जलवायु सम्बन्धित जोखिम की मौजूदा समझ के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण पड़ने वाले संभावित प्रभाव भारत की अर्थव्यवस्था के विकास और उसकी संवृद्धि पर कुछ इस तरह से नकारात्मक होंगे कि उससे कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं होगा। इनमें से कुछ संभावित प्रभाव तो निकट भविष्य में ही महसूस किए जा सकेंगे (2040 तक), जबकि कुछ अनुमानित प्रभाव लंबे समय के दरम्यान (2100 तक) देखने को मिलेंगे। बाढ़ का जोखिम तथा उससे सम्बन्धित नुकसान के लिहाज से भारत चोटी के उन 20 देशों में है, जहाँ इस तरह की परेशानियाँ चरम तक जाएँगी।

2050 तक इन परेशानियों में 80 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है तथा समुद्र स्तर के बढ़ने से यह खतरा और बड़ा होगा। कोलकाता तथा मुंबई जैसे दो बड़े शहरों में जान माल का बड़ा नुकसान होगा। बढ़ता तापमान श्रम उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव डालेगा तथा भारत में खतरनाक स्तर की गर्मी से लू का बड़ा खतरा पैदा होगा और ये खतरा उन श्रमिकों के लिये ज्यादा होगा, जो निर्माण कार्यों तथा कृषि गतिविधियों के कारण घर के बाहर कई-कई घंटों तक काम कर रहे होंगे। ऐसे कई क्षेत्र होंगे, जिस पर आर्थिक रूप से बुरा असर पड़ेगा। ऐसे क्षेत्रों में समुद्र तट तथा पर्वतीय पर्यटन होंगे एवं इन इलाकों में मलेरिया तथा डायरिया जैसी बीमारियों से स्वास्थ्य पर बुरा असर होगा।

जलवायु परिवर्तन से भारत पर जो ठोस आर्थिक प्रभाव पड़ेंगे, वो हैं- देश के भौगोलिक क्षेत्रों में निम्न स्तर की अनुकूलन क्षमता वाले क्षेत्रों का विकास, आजीविका आधारित प्राकृतिक संसाधन पर बड़ी संख्या में निर्भरता तथा कृषि पर प्रभाव। वायु तापमान में वृद्धि के कारण खाद्य उत्पादन प्रणालियों तथा खाद्य सुरक्षा पर पड़ने वाले अनुमानित असर से सम्बन्धित अध्ययनों से आर्थिक प्रभावों की विशालता और व्यापकता का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। अनुमान है कि चारा से सम्बन्धित अनाज का उत्पादन 2020 तक 2-14 प्रतिशत तक गिर जाएगा तथा 2050 इसके उत्पादन में और भी जबरदस्त गिरावट देखी जाएगी, जबकि सबसे विश्वसनीय अनुमानों के मुताबिक, भारतीय गंगा के मैदान में गेहूँ के उत्पादन में 51 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की जाएगी। उत्तरी भारत (अक्टूबर), दक्षिण भारत (अप्रैल, अगस्त) तथा पूर्वी भारत (मार्च-जून) में धान की खेती के विकास के विभिन्न चरणों में आवश्यक तापमान को लेकर दावा किया जा रहा है कि मौजूदा तापमान पहले ही नाजुक स्तर तक पहुँच चुका है। हाल फिलहाल में किए गए एक अध्ययन में अनुमान जताया गया है कि 2050 तक खाद्य अनाजों के उत्पादन में 18 प्रतिशत तक गिरावट आ जाएगी (दासगुप्ता 2013)।

संक्षेप में, अनुमान किया गया है कि ये प्रभाव व्यापक क्षेत्र वाले होंगे तथा यह स्पष्ट रूप से आर्थिक बोझ डालेगा। नुकसान के स्तर उन्हीं कारकों द्वारा प्रभावित हैं, जो कारक होने वाले खतरों की संभावना को प्रभावित करते हैं तथा अन्य हस्तक्षेपों द्वारा उन प्रभावों को उस समय कम जरूर किया जा सकता है, जब उस तरह की घटनाएँ घटती हैं। पहला, उन गतिविधियों की व्याख्या करता है, जिससे ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन कम (शमन) हो सकता है तथा बाद के पहलू में वो कार्रवाई शामिल हैं, जिससे इन प्रभावों के नाजुकपन को कम कर सकता है या जिससे सहयोगात्मक क्षमता (अनुकूलन) बढ़ सकती है। उपभोग संरचना, जनसंख्या वृद्धि, प्रद्यौगिकी तथा ज्ञान की उपलब्धता तथा संस्थागत सामर्थ्य जैसे कुछ ऐसे घटक हैं, जो अनुकूलन या शमन जैसी क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। संसाधन आवंटन के प्राथमिकीकरण के सिलसिले में आर्थिक निर्णय निर्माण तथा आर्थिक नीति जलवायु की चुनौती को निर्धारित करने के महत्त्वपूर्ण उपकरण हैं। अनुमानित प्रभावों तथा उचित शमन एवं अनुकूलन हासिल करने के लिये आवश्यक संसाधनों की लागत निर्णय निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण घटक है।

जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित आर्थिक लागत पर विभिन्न तरीके से विमर्श किया जा सकता है। एक तरफ, विपरीत प्रभाव अर्थव्यवस्था के लिये नुकसान है, जिसका सावधानीपूर्वक आकलन किया जाना बाकी है। दूसरी तरफ, शमन तथा अनुकूलन गतिविधियों के अंगीकरण के माध्यम से नुकसान को कम करने वाली लागत हैं। उल्लेखनीय है कि दोनों एक ही बात नहीं है। मौसम विज्ञान सबूत उपलब्ध कराता है कि पड़ने वाले प्रभाव को पहले से ही अनुभव किया जा रहा है, जिनमें से कुछ अनुत्क्रमणीय हैं तथा ऊष्मीकरण की कुछ मात्रा अनिवार्य है। यहाँ तक कि प्रभावों को कम करने के लिये उठाए जाने वाले कदम की खातिर संसाधन की कमी नहीं थी लेकिन इसकी अपनी सीमाएँ हैं कि अनुकूलन क्या-क्या हासिल कर सकता है।


जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित आर्थिक लागत पर विभिन्न तरीके से विमर्श किया जा सकता है। एक तरफ, विपरीत प्रभाव अर्थव्यवस्था के लिये नुकसान है, जिसका सावधानीपूर्वक आकलन किया जाना बाकी है। दूसरी तरफ, शमन तथा अनुकूलन गतिविधियों के अंगीकरण के माध्यम से नुकसान को कम करने वाली लागत हैं।

उदाहरण के लिये, तापमान सम्बन्धित मृत्यु दर के लिये खतरे का स्तर बहुत उच्च है, चाहे लंबी अवधि में एक काल्पनिक रूप से परिभाषित उच्च अनुकूलन स्थिति क्यों न पाया जाए, जबकि कुपोषण देने वाले सूखा सम्बन्धित जल एवं खाद्य की कमी के बढ़ते खतरे की स्थिति में उच्च अनुकूलन निकट भविष्य में (2030-2040) खतरे के स्तर को निचले स्तर तक ले आएगा तथा इसे 2080-2100 तक तापमान में एक 2-4 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि के भीतर लंबी अवधि में निम्न से मध्यम तक कायम किया जा सकता है। तापमान सम्बन्धित परेशानियों को प्रबंधित करने वाले इस अनुकूलन के तरीकों में शामिल है तापमान स्वास्थ्य ऊष्मीकरण प्रणालियों में निवेश, ऊष्मा के टापुओं को कम करने के लिये शहरी योजना तथा निर्मित पर्यावरण का उन्नयन। बाद के लिये अनुकूलन व्यवस्था में शामिल है। आपदा तैयारियों पर निवेश, शीघ्र ऊष्मीकरण प्रणालियाँ तथा स्थानीय अनुकूलित दक्षता (आईपीसीसी एआर5 2014) में वृद्धि।

आर्थिक विकास पर प्रभाव तथा शमन के दृष्टिकोण से जलवायु परिवर्तन की लागतों को कम करने के लिये प्रारूपों की एक श्रृंखला का उपयोग किया गया है। इस तरह के कई प्रारूपों का प्रयोग भारतीय अर्थव्यवस्था के लिये किया जा चुका है तथा इन प्रारूपों में छोटे से छोटे तथा बड़े से बड़े एवं एकीकृत आकलन प्रारूप शामिल हैं। आर्थिक विकास पर जलवायु परिवर्तनों के प्रभावों को प्रारूपित करना एक सामान्य दृष्टिकोण है, जिसे उत्पादकता संसाधन देयता, उत्पादन एवं उपभोग संरचना में परिवर्तन के माध्यम से महसूस किए जाने की उम्मीद है। पारंपरिक रूप से ये अध्ययन भविष्य के लिये बिना नए जलवायु परिवर्तन (शमन) को एक संदर्भ स्थिति बनाम जीएचजी उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य वाले विकल्प का उपयोग करते हुए वैकल्पिक स्थिति का निर्माण करते हैं। लागतें गतिविधियों के साथ हालात से निपटने के लिये तथा आम तौर पर सकल घरेलू उत्पाद की प्रतिशतता में अभिव्यक्त होती है। आर्थिक लागत को अर्थव्यवस्था के सकल घरेलू उत्पादन के एक नुकसान के रूप में मापा जाता है। लक्ष्यगत कार्यों को आमतौर पर इस तरह संरक्षित किया जाता है कि आर्थिक विकास (या बीतते समय के साथ उपभोग व्यय) ज्यादा से ज्यादा किया जाए, बचत तथा निवेश पर राष्ट्रीय आय लेखा का तादात्म्य को कायम रखने के रूप में शमन या स्थूल अर्थशास्त्र के नियम के कार्यान्वयन की लागत का न्यूनीकरण किया जाए।

समग्र चुनौतियों से पार पाने के लिये ज्यादातर प्रारूप धारणाओं का सरलीकरण किया जाता है तथा कुछ ही क्षेत्रों पर अपना ध्यान केंद्रित किया जाता है और ऐसे में बहुत सारे पहलू वास्तव में छूट जाते हैं। इस तरह के दृष्टिकोण अपनाने से सामाजिक तथा संस्थागत पहलू एवं गैर बाजार मूल्य उपेक्षित हो जाते हैं। क्षेत्रगत दृष्टिकोण, जो चिंता विशेष से जुड़े होते हैं, वह यह है कि किस हद तक स्वच्छ करने वाली प्रौद्योगिकी के अपनाए जाने के कारण किसी उद्योग विशेष में लागत बढ़ेगी या वैश्विक बाजारों में उद्योगों के बीच की प्रतियोगिता को किस सीमा तक नुकसान पहुँचाएगी। इससे और भी ज्यादा सूक्ष्म सूचनाएँ उपलब्ध होती हैं। इस समय, समग्र अर्थव्यवस्था-जलवायु परिवर्तन की व्यापक लागत के उपलब्ध आकलनों के बीच एक व्यापक भिन्नता है। प्रौद्योगिकी कारक उत्पादकता तथा ऊर्जा कुशलता में विकास जैसे शमन परिदृश्यों, समय सीमाओं तथा धारणाओं के संबंध में बदलते विशेषीकरण के कारण आकलन भिन्न-भिन्न होते हैं। पारीख के आकलन के मुताबिक 2005-2050 के बीच सकल घरेलू उत्पाद में 12.5 प्रतिशत हानि, शुक्ला एवं धार के अनुसार इसी अवधि के लिये सकल घरेलू उत्पाद में 6.7 प्रतिशत का नुकसान होगा, जबकि प्रधान तथा घोष का अनुमान है कि 2030 तक सकल घरेलू उत्पाद विकास दर में 1.1-1.3 प्रतिशत तक का नुकसान होगा।

यूएनएफसीसीसी (आईएनडीसी 2015) को सौंपे गए भारत के प्रपत्र में जैसा कि कहा गया है कि शमन रणनीति में 2030 तक गैर ईंधन आधारित ऊर्जा संसाधनों से संपूर्ण विद्युत ऊर्जा स्थापित क्षमता के 40 प्रतिशत तक का एक लक्ष्य शामिल है। इस प्रपत्र में 2030 तक वन तथा वृक्ष आच्छादन के जरिए कार्बन डायऑक्साइड के 2.5 से 3 बिलियन टन के एक अतिरिक्त कार्बन खड्‌डे का निर्माण करना शामिल है। इसके अलावा, ऊर्जा कुशलता को उन्नत करना, 100 स्मार्ट शहरों में जलवायु अनुकूलन आधारभूत संरचना का विकास करना, जन परिवहन प्रणालियों को विकसित करना तथा इसी तरह की भिन्न पहल जैसे अन्य उपाय हैं।

अनुकूलन से सम्बन्धित लागत को जलवायु परिवर्तन के कारण क्षति और नुकसान के संदर्भ में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का एक आकलन तथा इनसे सम्बन्धित लागतों के आकलनों की आवश्यकता है। परंपरावादी दृष्टिकोण जो सांख्यकीय विश्लेषण या मौद्रिक मूल्यों/लागत प्रभावकारिता विश्लेषण, लागत लाभ विश्लेषण तथा अन्य लागत विचलन दृष्टिकोण) पर पहुँचने में मानक तकनीक के इस्तेमाल पर आधारित है, अपर्याप्त साबित हो सकता है क्योंकि खतरे को आंकने में असक्षम हैं तथा इनका जो अनिश्चित पहलू है, वह जलवायु परिवर्तन विश्लेषणों का केंद्र बिंदु है। उपायों में से ज्यादातर इस तरह के लागत आकलन के लिये आवश्यक है, जिसमें लागत लाभ दृष्टिकोण शामिल है तथा जो अपेक्षाकृत नया तथा समरूपता के साथ एक समय आयाम से जुड़ा हुआ है और इसमें बहु-मौसम दृष्टिाकोण एवं अन्य निर्णय समर्थन उपकरण सम्मिलित हैं।

चूँकि जलवायु को परिवर्तन विश्वभर की अर्थव्यवस्थाओं तथा आबादियों को अलग-अलग तरीके से प्रभावित करने वाले घटक की तरह दर्शाया जाता है, ऐसे में मुख्य आर्थिक चिंता यह है कि जलवायु प्रभावों के लागत आकलन या इनकी अनुक्रिया पर समुचित ध्यान दिया जाना चाहिए, जिनके मूल्यों को अलग किया जा सकता है या जिस पर कम चर्चाएँ हुई हैं तथा पर्यावरण तंत्रों के लिये ठीक भी नहीं है, जहाँ पर्यावरण प्रणाली सेवाओं को लेकर अनिश्चितताएँ हैं। एक दूसरे के मुकाबले लागतों का मूल्यांकन तथा लाभ को अलग करने वाले मूल्यों के आकलन की आवश्यकता है। (शाम्वेरा, हील, 2014)। निश्चित रूप से यह एक ऐसी चुनौती है, जिसके साथ अर्थशास्त्री वर्षों से लागत लाभ विश्लेषण का इस्तेमाल करते हुए जूझते रहे हैं लेकिन इसके बावजूद प्रभावों के अनुमानित विस्तार तथा संभावना के कारण जलवायु परिवर्तन चिंताएँ बढ़ रही हैं। प्रौद्योगिकीय प्रबंधकीय, आधिकारिक तथा संस्थागत लागतों से लेकर शोध एवं विकास में निवेश करने, जागरूकता तथा कुशलता निर्माण तक में अनुकूलन तथा शमन अनुक्रियाओं के लिये भी लागत व्यय हुआ है।

जब अनुकूलन तथा शमन के लिये योजनाएँ बनती हैं, तब संसाधन विपन्न अर्थव्यवस्थाएँ विकल्प ढूँढती हैं। अपनी आबादी के लिये एक गुणवत्तापूर्ण जीवन स्तरों के द्वारा तक पहुँचने के लिये उनके पास मौजूद बहुत सारे लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए कार्रवाई अवसर लागत का आकलन करता है। भारत जैसी एक विकासशील अर्थव्यवस्था में जलवायु परिवर्तन के प्रति जवाबदेही के लिये आर्थिक निर्णय लेने का संदर्भ वह है, जो बहु गैर जलवायु दबाव घटकों को चिन्हित करता है तथा अनुकूलन, शमन तथा निरंतर विकास के बीच अंत:क्रिया होती है। यह जलवायु कार्रवाई के सहलाभ तथा सहलागत के मूल्यों को चिन्हित करने में शोध करने वालों को सक्षम बनाता है तथा जो अदला-बदली तथा अनुकूलन, शमन एवं अक्षय विकास के बीच सहक्रिया को बढ़ाता है।

शमन तथा अनुकूलन दोनों लागतों के वैश्विक रूप से उपलब्ध अनुमानों में स्पष्ट रूप से अंतर पाया जाता है। कार्बन डायऑक्साइड (कार्बन की सामाजिक लागत) के उत्सर्जन का बढ़ता आर्थिक प्रभाव चंद डॉलरों तथा हजारों डॉलर प्रति टन कार्बन के बीच पड़ता है। ये आकलन निम्न छूट दरों के लिये व्यापक विस्तार के साथ अनुमानित क्षति-कार्य को छूट दर के साथ मजबूती से अलग-अलग करते हैं। इसी तरह, 2010-2050 के दौरान विकासशील देशों के लिये अनुकूलन लागत का अनुमान 4 से 109 अमेरिकी डॉलर प्रतिवर्ष अनुमानित है। वैश्विक स्तर पर, अनुकूलन में एक व्यापक घाटा है और जरूरी है इसके लिये निधि उपलब्ध हो। (आईपीसीसी सिंथेसिस रिपोर्ट)।

भारत का आईएनडीसी का प्रपत्र एक एडीबी अध्ययन को उदृत करते हुए बताता है कि 2050 तक जलवायु परिवर्तन से भारत में आर्थिक क्षति तथा नुकसान वार्षिक रूप से इसकी जीडीपी का 1.8 प्रतिशत के लगभग होगा। यह नीति आयोग के अनुमानों को भी उद्धृत करता है कि उदार निम्न कार्बन के विकास के लिये शमन गतिविधियों की लागत 2011 के मूल्यों पर 2030 तक लगभग 834 बिलियन अमेरिकी डॉलर होगा। आईएनडीसी के अनुसार प्रारंभिक अनुमान इंगित करते हैं कि कृषि, वनीकरण, मत्स्य पालन के आधारभूत संरचना, जल संसाधनों तथा परितंत्र में अनुकूलन के लिये 2015 से 2030 के बीच लगभग 206 बिलियन अमेरिकी डॉलर (2014-2015 के मूल्य पर) की आवश्यकता होगी तथा नाजुक स्थिति एवं आपदा प्रबंधन को सशक्त करने के लिये अतिरिक्त निवेश की आवश्यकता होगी। भारत में, जलवायु परिवर्तन तथा राष्ट्रीय मिशन पर राष्ट्रीय कार्रवाई योजना के फ्रेम वर्क के भीतर ही ज्यादातर अनुकूलन रणनीतियाँ बनाई जाती हैं।

लागत को पूरा करने के ख्याल से जलवायु निधि को लाभ पहुँचाने के लिये प्रोत्साहन नियमन तथा सटीक उपकरण उपलब्ध कराने में सार्वजनिक क्षेत्रों की भूमिका को हाल के वर्षों (आईपीसीसी एआर5 2014) में जरूरी बताया गया है। बुनियादी सुविधाओं, जनस्वास्थ्य देखरेख के प्रावधानों, जैव विविधताओं के संरक्षण तथा प्रौद्योगिकी स्थानांतरण को बढ़ावा देने, ज्ञान की साझेदारी एवं सामाजिक एवं आर्थिक विषमता दूर करने में निवेश उपलब्ध कराने के जरिए लड़ने की क्षमताओं के निर्माण के लिये जीवन की बुनियादी गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिहाज से भारतीय अर्थव्यवस्था में सरकार तथा सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका बहुत ही अच्छी नहीं है।

लेखिका आर्थिक विकास संस्थान, दिल्ली में पर्यावरण अर्थशास्त्र की अध्यक्ष व कार्यकारी प्रमुख हैं। वह ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय तथा अमेरिका के जॉन्स हॉपकिंस विश्वविद्यालय में अतिथि प्राध्यापक भी हैं। संप्रति-जलवायु परिवर्तन अनुकूलन नीतियों पर शोध कर रही हैं। इनमें ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन परिदृश्य को प्रमुखता दी जाती है। ईमेल : purnamita.dasgupta@gmail.com

संदर्भ
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