अस्तित्व के लिये संकट हैं लोप होते तालाब


तालाबों को संरक्षित रखना बेहद जरूरी है। अगर ये संरक्षण साफ-सफाई के साथ हो तो कहना ही क्या। मगर हम सब व्यक्तिगत स्वार्थों से इस कदर संचालित हैं कि फल्गु और निरंजना नदियों में कूड़ा डालकर उसके बहाव क्षेत्र को कम कर रहे हैं। लोग उस पर कब्जा करके अपनी वासभूमि का रकबा बढ़ा रहे हैं। तालाबों, नदियों का पानी हमारी पृथ्वी पर जीवन के लिये अहम महत्त्व का है। इसलिये हमें अपने पारम्परिक जलस्रोतों के बारे में एक बार पुनः तुरन्त विचार करने की आवश्यकता है। अगर हमने अब भी इसमें देर की तो जल संकट हमारे अस्तित्व के लिये संकट बन जाएगा। अभी कुछ ही दशकों पहले, मुश्किल से आधी सदी पहले, ताल-तलैया, कुआँ-बावड़ी ही हमारे गाँवों और बहुतेरे शहरों में भी, पानी-प्राप्ति के मुख्य स्रोत थे। अब इन जल-स्रोतों पर संकट है। लोग इन्हें भूल गए हैं। इनकी घोर उपेक्षा की गई है। इन्हें अनुपयोगी समझकर इनमें से ज्यादातर स्रोतों को मिट्टी से पाट दिया गया है। गाँव-देहात में भी और शहर में भी। इन जलस्रोतों में वर्षा का पानी इकट्ठा होता था।

बारिश की कुछ सीधी-सीधी बूँदें इनमें टपकती थीं, कुछ आस-पास का पानी इनमें आता था। यह पानी बरसात के बाद के दिनों में खेतों की सिंचाई के काम आता था। इसका एक हिस्सा रिस-रिसकर धरती में समा जाता था, जो भूतल के नीचे के जलस्तर को सदैव समान स्तर पर बनाए रखने में मदद करता था। गर्मी के दिनों में इसी पानी का उपयोग पीने और अन्य कामों के लिये कुआँ-बावड़ी के जरिए किया जाता था।

तालाबों जैसे सतह पर मौजूद जलस्रोतों के न होने से बारिश का सारा पानी नदी-नालों से होते हुए बहकर समुद्र में चला जाता है। दूसरी ओर धरती के अन्दर के जल के अन्धाधुन्ध दोहन के कारण भूतल के अन्दर का जलस्तर दिन-प्रतिदिन नीचे होता जा रहा है। इससे गाँव-देहातों में खेती के लिये पानी का संकट लगातार गहराता जा रहा है। इतना ही नहीं, कुआँ-बावड़ी को भूल चुके लोग, जो अब चापाकलों पर आश्रित हो गए हैं और गर्मियों में पीने के पानी के लिये भी तरस रहे हैं।

जिन गाँवों में तालाब-पोखर आज भी बचे हुए हैं, उनमें बरसात के मौसम में अनियमित बारिश के बावजूद फसलें ज्यादा सुरक्षित रहती हैं। हम समग्रता में सोचने के बजाय इकहरी सोच में डूबे रहते हैं। हमें जैसे ही नलकूप और चापाकल के जरिए धरती की सतह के नीचे से पानी निकालने का विकल्प मिला, हम ताल-तलैया, कुआँ-पोखर, सबको भूल गए। जब संकट गहरा रहा है, तो अब हमें उनकी याद आ रही है। हमने बहुत से जलस्रोतों को बर्बाद कर दिया है और दुबारा उनको प्राप्त करना लगभग असम्भव है।

फिर भी एक हद तक उनकी वापसी सम्भव है, खासकर देहाती क्षेत्रों में। बिहार, झारखण्ड और दिल्ली में भी राज्य सरकारों ने इनके संरक्षण की बात कहनी शुरू की है। इन सरकारों ने इस सन्दर्भ में अपने कर्मचारियों को निर्देश देना भी शुरू कर दिया है। पिछले वर्ष मैं कई बार पटना गया, तो पता चला कि पटना के आस-पास तीन बड़ी नदियों- गंगा, सोन और पुनपुन के होने के बावजूद इस नगर के लिये पीने का पानी इन नदियों से नहीं, भूजल से लिये जाता है। दूसरी ओर यहाँ भी भूतल का जलस्तर साल-दर-साल नीचे जा रहा है।

एक साथ दोहरी मार झेल रहा है पटना। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि जिस शहर के चारों ओर पानी ही पानी है, फिर भी पीने के पानी का संकट हो। उन्हीं दिनों मुझे कई बार राँची जाने का भी मौका मिला। हमने यहाँ जगह-जगह तालाब और कुएँ देखे या खेत और बाग-बगीचे देखे।

पता चला कि दो दशक पहले तक जल के मामले में आत्मनिर्भर यह शहर इन दिनों पानी की बूँद-बूँद के लिये तरस रहा है। झारखण्ड की राजधानी राँची बेपानी हो रही है। यहाँ भवन-निर्माण और सड़क-निर्माण काम में तेजी आई है, तो भूजल के दोहन में भी। राँची के एक सज्जन ने बताया कि एक समय था जब राँची में तालाबों की शृंखला हुआ करती थी। पहाड़ी इलाके के ये तालाब एक-दूसरे के पानी के भी स्रोत थे। ऊपर के तालाब से रिसता पानी कुछ धरती में जाता था और कुछ नीचे के तालाब में। अब इन तालाबों में पानी आने के मार्ग अवरुद्ध हो गए हैं और ये खुद दम तोड़ रहे हैं।

राँची का बड़ा तालाब, जिसे राँची झील के नाम से भी जाना जाता है, इन दिनों नगर के कचरे से युक्त पानी समेट रहा है। रही-सही कसर इस नगर के बाशिन्दे पूरा कर रहे हैं, इसमें कूड़ा डालकर और देव-देवियों की प्रतिमाएँ विसर्जित कर। अब तो नगर की पेयजल की जरूरतों को पूरा करने वाले डैम भी संकट में हैं।

डैम के चारों तरफ बन रही पक्की सड़कें इनमें प्राकृतिक तौर पर पानी पहुँचाने वाले मार्गों को बन्द कर रही हैं। जब डैम में पर्याप्त पानी ही नहीं पहुँचेगा, तो लोगों को स्वच्छ पानी कहाँ से मिलेगा? गया में एक आदमी से मैंने पूछा कि इस गन्दे तालाब से इस नगर को क्या फायदा? उसका उत्तर था कि ऊपर से देखने में तालाब कितना ही गन्दा क्यों न हो, भूजल के जलस्तर को बनाए रखने में इसकी बड़ी भूमिका है।

इन तालाबों को संरक्षित रखना बेहद जरूरी है। अगर ये संरक्षण साफ-सफाई के साथ हो तो कहना ही क्या। मगर हम सब व्यक्तिगत स्वार्थों से इस कदर संचालित हैं कि फल्गु और निरंजना नदियों में कूड़ा डालकर उसके बहाव क्षेत्र को कम कर रहे हैं। लोग उस पर कब्जा करके अपनी वासभूमि का रकबा बढ़ा रहे हैं। तालाबों, नदियों का पानी हमारी पृथ्वी पर जीवन के लिये अहम महत्त्व का है। इसलिये हमें अपने पारम्परिक जलस्रोतों के बारे में एक बार पुनः तुरन्त विचार करने की आवश्यकता है। अगर हमने अब भी इसमें देर की तो जल संकट हमारे अस्तित्व के लिये संकट बन जाएगा।

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