आस्था, आपदा और पर्यटन


हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड में पर्यटन-तीर्थाटन की अपार संभावनाएं हैं, लेकिन आज भी यहां आने वालों की बड़ा हिस्सा चार धाम यात्रा और कुम्भ क्षेत्र हरिद्वार तक ही सीमित है। जरूरत ठोस कार्ययोजना बनाकर काम करने की है।

आपदाउत्तराखंड का नाम सुनते ही कलकल बहती नदियां, झरने, हिमालय की हिमाच्छादित चोटियां, ताल, बुग्याल, समृद्ध जैव विविधता वाले जंगलों की तस्वीर एकदम से जेहन में आती है। गंगा-यमुना के उद्गम, करोड़ों हिन्दुओं का आस्था के प्रमुख केंद्र यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ एवं बदरीनाथ, कुंभ स्थल हरिद्वार एवं सैकड़ों पौराणिक मंदिरों के साथ ही मुस्लिमों से जुड़ा पीरान कलियर, सिखों की सबसे ऊंचाई पर स्थित गुरुद्वारा हेमकुंड साहेब आदि की मौजूदगी के चलते ही उत्तराखंड को देवभूमि का दर्जा प्राप्त है। स्वच्छ आवोहवा और अपेक्षाकृत ठंडा मौसम जैसी नेमते भी कुदरत ने उत्तराखंड को बख्शी हैं। ये तमाम स्थितियां उत्तराखंड में पर्यटन-तीर्थाटन की अपार संभावनाओं की ओर इशारा कर रही हैं।

अलग उत्तराखंड बनने के पहले भी इस दिशा में काॅफी प्रयास हुए और राज्य बनने के बाद भी चल रहा हैं। इसके बावजूद अभी हम संभावनाओं का पांच फीसदी भी हासिल नहीं कर पाए हैं। इसमें भी बड़ा हिस्सा चार धाम यात्रा और कुंभ क्षेत्र हरिद्वार का ही है। यदि इस दिशा में ठोस प्रयास हों, तो उत्तराखंड की तस्वीर बदली जा सकती है। इसके लिए पर्यटन को समझने और इसका वर्गीकरण कर ठोस कार्ययोजना तैयार करने की जरूरत है और सबसे ज्यादा पर्य़ावरण को सहेजने की। उत्पादन एवं सर्विस सेक्टर आजीवका के प्रमुख आधार हैं। मूलत: पर्यटन में सर्विस सेक्टर ही काम करता है, लेकिन देश-विदेश से आने वाले तीर्थयात्री एवं पर्य़टक यहां स्वंय चलकर आने वाले बाजार की तरह हैं, जिसमें हमें स्थानीय उत्पादों की बिक्री कर गांव स्तर तक उत्पादन को भी बढ़ावा दे सकते हैं। इसकी यहां काॅफी संभावनाएं भी हैं, लेकिन विपणन के अपेक्षित बाजार उपलब्ध न होने के कारण इसमें लगातार गिरावट आ रही है।

उत्तराखंड में पर्यटन को कई हिस्से में बांटा जा सकता है। इसमें चार धाम यात्रा, सूबे का अन्य प्रमुख प्राचीन मंदिर, पर्वतारोहण, जंगल सफारी, जल क्रीड़ा, वायु क्रीड़ा, हिम क्रीड़ा, स्वास्थ्य पर्यटन, ग्राम पर्यटन, योग एवं अध्यात्म आदि प्रमुख हैं।

चार धाम यात्रा पर अभी सबसे ज्यादा काम हुआ है। फिर भी अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आए हैं। साल भर में महज करीब बीस लाख यात्री चार धाम यात्रा पर जाते हैं। जबकि यात्रा पड़ावों और धामों में इससे कई गुना ज्यादा यात्रियों के ठहराव की व्यवस्था है। यात्रा सीजन की अवधि सीमित है और मानसून सीजन, जिसे अब आपदा सीजन माना जाता है, की वजह से यह महज दो माह में ही सिमट जाता है। ऐसे में साल के शेष महीनों में यात्रा कारोबार ठंडा रहता है। जाहिर है कि पूरे वर्ष को पर्यटन की अलग-अलग विधाओं में बांटने की जरूरत है। साथ ही यात्रा सीजन में स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए तीर्थधाम एवं यात्रा पड़ावों पर स्थानीय उत्पादों की बिक्री की व्यवस्था की जानी चाहिए। पहाड़ के जैविक उत्पाद, पारंपरिक व्यंजन, हस्तशिल्प, ऊनी वस्त्र आदि उत्पाद निश्चित ही देश-विदेश से आने वाले पर्यटकों को भाएंगे।

संभावनाएं कम नहीं


उत्तराखंड में पर्वतारोहण के क्षेत्र में काफी संभावनाएं हैं। इसके लिए आईएमएफ जैसी एक संस्था का गठन कर सिंगल विंडो सिस्टम की व्यवस्था होनी चाहिए। एक एवरेस्ट के बूते पर नेपाल की इकोनाॅमी चल सकती है, तो क्या दर्जनों हिमशिखरों की मौजूदगी उत्तराखंड की दशा नहीं बदल सकती? यहां हिमालय में उच्च हिमालयी ट्रैकिंग की भी काफी संभावनाएं हैं। इसके लिए उत्तराखंड में बड़ी संख्या में प्रशिक्षित युवा मौजूद हैं। सूबे में सैकड़ों ताल, बुग्याल, ट्रैक तथा समृद्ध जैव विविधता एवं दुर्लभ वन्य जीवों की मौजूदगी वाले वन यहां जंगल सफारी के लिए आदर्श स्थिति बना रहे हैं। गंगा, यमुना, टोंस सहित तमाम नदियों में जहां रिवर राफ्टिंग की संभावनाएं हैं, तो विशालकाय टिहरी बांध झील क्यकिंग और कैनोइंग जैसे वाटर स्पोर्टस के लिए मुफीद है। सदियों से हिमाच्छादित प्राकृतिक ढाल वाले बुग्याल यहां स्कीइंग के लिए खासे उपयुक्त हैं। इसके अलावा पैराग्लाइडिंग, पैरा जंपिंग आदि वायु क्रीड़ा की संभावनाएं भी यहां तलाशी जा सकती हैं।

स्वास्थ्य के लिए अच्छी मानी जाने वाली स्वच्छ आवोहवा के चलते उत्तराखंड में स्वास्थ्य पर्यटन की काफी संभावनाएं हैं। यहां आयुर्वेद और पंचकर्म के साथ ही योग के माध्यम से पर्यटकों को आकर्षित किया जा सकता है। पर्यटन स्थलों के रास्तों में पड़ने वाले रास्तों में पर्यटकों के ठहराव की व्यवस्था कर ग्रामीणों की आजीविका मजबूत की जा सकती है। इसमें सरकार की भूमिका सिर्फ सड़क, बिजली, पानी, दूरसंचार जैसी ढ़ांचागत सुविधाएं जुटाने, युवाओं को प्रशिक्षण एवं एक्सपोजर विजिट कराने तथा पर्यटन स्थलों के प्रसार तक ही सीमित होनी चाहिए। पर्यटकों की आवाजाही बढ़ने पर स्थानीय लोग स्वंय ही तमाम व्यवस्थाएं कर सकते हैं। इससे न सिर्फ उनकी आर्थिकी, बल्कि आत्मविश्वास भी मजबूत होगा और धीरे-धीरे सरकार पर निर्भरता भी खत्म होती जायेगी।

केदारनाथ आने से पहले चार धाम यात्रा के बारे में सिर्फ सुना था, इस पर टिकी उत्तराखंड की आर्थिकी के बारे में ज्यादा कुछ अंदाजा नहीं था। सेना में रहते हुए या फिर नेहरू पर्वतारोहण संस्थानों में प्राचार्य के तौर पर कार्य करते हुए पर्वतारोहण से जरूर गहरा नाता था। अगस्त 2012 की आपदा में तबाही के बाद खोज एवं बचाव के अपने तथा अपने सेना के जवानों और नेहरू इंस्टिट्यूट अॉफ माउंटेनियरिंग (निम) के प्रशिक्षुओं की योग्यता एवं अनुभव के आधार पर गंगोत्री क्षेत्र में फँसे तीर्थयीत्रियों एवं पर्यटकों को निकालने का काम किया। इस दौरान यात्रा पर टिकी आजीवका वाले, स्थानीय लोगों से मिलना हुआ और समझ में आया कि किय तरह चार धाम यात्रा ठप पड़ने से उनकी आजीविका प्रभावित हुई। जून 2013 के दौरान यात्रियों के फंसने तथा यात्रा कारोबार चौपट होने के और ज्यादा भयावह हालात देखने को मिले।

ऊंचाई वाले क्षेत्र और विषम परिस्थितियों में काम करने की क्षमता के चलते जब आपदा में तबाह केदारनाथ में काम करने का अवसर मिला, तो हमने आगे बढ़कर इस चुनौती को स्वीकार किया। यहां काम करते समय अनुभव हुआ कि बिना केदारनाथ की यात्रा शुरू हुए चार धाम यात्रा पटरी पर नहीं लौट पाएगी। साथ ही केदारनाथ में पहुँचने एवं ठहरने वाले यात्रियों की संख्या पर ही चार धाम यात्रा पर आने वाले तीर्थयात्रियों की तादाद निर्भर करेगी, क्योंकि देश के महानगरों में बैठे टूर आॅपरेटर चार धाम यात्रा को पैकेज के तौर पर बेचते हैं। यमुनोत्री एवं गंगोत्री की यात्रा के बाद तीर्थयात्री केदारनाथ धाम पहुँचते हैं। ऐसे में यदि एक दिन में हम केदारनाथ में पांच सौ व्यक्तियों के ही पहुँचने और ठहरने की व्यवस्था कर पाते, तो इससे अन्य धामों में आने वाले यात्रियों की संख्या भी सिमट जाती। ऐसे में महज दो चार महीने चलने वाले यात्रा सीजन में 50-60 हजार से भी कम यात्री पहुँचते, जो यात्रा कारोबार को पटरी पर लाने में नाकाफी साबित होता।

आजीविका और आस्था


पूरी चार धाम यात्रा का भविष्य केदारनाथ पर टिके रहने की वजह से जिम्मेदारी और ज्यादा बढ़ गई थी। सवाल सिर्फ केदारनाथ धाम के रास्ते को दुरुस्त करने का ही नहीं था,बल्कि चार धाम यात्रा पर टिकीं लाखों लोगों की आजीविका और करोड़ों लोगों की आस्था का भी था। समय कम था और काम ज्यादा था। ऐसे में गणित का सामान्य-सा सिद्धांत विचार में आया कि एक काम को दस लोग मिलकर सौ दिन में पूरा काम करते हैं, तो सौ आदमी मिलकर दस दिन में पूरा कर सकते हैं। इस तरह कार्य योजना बनाकर रामबाड़ा से केदारनाथ तक के रास्ते को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटा और अलग-अलग टीम को उसमें लगा दिया। विषम परिस्थितियों में मजदूरों का मनोबल कहीं टूट न जाए, इसके लिए उन्हें मूलभूत सुविधाएं देने के साथ ही राज्य की जनता और सराकर की उन पर टिकीं उम्मीदों की हवाला देकर प्रेरित भी किया। आपदा में अपने परिजन एवं आजीवका के साधन गंवा चुके लोगों को किसी न किसी तरह इस कार्य से जोड़ा गया। उनकी भावनाएं भी इससे जुड़ी थीं, इसलिए काम आसान हो गया।

यही कारण रहे कि जहां संसाधनों से लैस बड़े-बड़े सरकारी विभागों ने हांथ खड़े कर दिए, वही निम की गैर तकनीकी टीम ने केदारनाथ में महज ढाई दिन में बैली ब्रिज बांध दिया और चंद दिनों में ही लिनचोली में तीन हेलीकॉप्टर उतारने लायक हैलीपैड तैयार कर दिया। माइल स्टोन बने इस तरह के कुछेक कार्यों नें टीम का हौसला बढ़ाने का काम किया। इसके बाद तो जैसे नामुमकिन कुछ भी नहीं रह गया था। केदारनाथ के छह फुटी रास्ते पर जहां पैदल चलना भी दुष्कर माना जाता था, वहां निम की टीम नें ट्रैक्टर, एटीवी चलाकर और जेसीबी जैसी भारी-भरकम मशीन को कलपुर्जे खोलकर पहुँचा दिया। रास्ता तैयार कर केदारनाथ धाम की यात्रा सुचारू करने के बाद निम की टीम लौट सकती थी। तीर्थ पुरोहितों एंव यात्रा कारीबारियों के आवास एवं प्रतिष्ठानों का निर्माण, तीर्थयात्रियों के ठहराव के लिए ईको हट, पर्यावरण के अनुकूल शौचालय निर्माण, तीर्थयात्रियों के लिए भोजन आदि के व्यवस्था के कामों को अंजाम दिया जा रहा है।

हमें विश्वास है कि हम केदारनाथ धाम को एक मॉडल के रूप में विकसित करने में सफल होंगें। इससे न सिर्फ केदारनाथ बल्कि उत्तराखंड के चारों धामों तक तीर्थयात्रियों की ज्यादा पहुंच तथा कारोबार के ज्यादा अवसर भी तैयार होंगे।

लेखक ‘नेहरू इंस्टिट्यूट अॉफ माउंटेनियरिंग’ में प्रिंसिपल हैं।

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