बाढ़ और डूब में फर्क होता है

डूब के तीसरे चरण द्वारा खेत और रहवास को अपने में समेटने के बावजूद भीतरी गाँवों में महज एक या दो पुलिस अधिकारी तैनात थे। नबआ ने नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के इस व्यवहार और राहत कार्यों की अनुपस्थिति को लेकर सवाल उठाए हैं, क्योंकि प्राधिकरण प्रत्येक वर्ष मानसून के बाद राहत कार्यों पर भारी मात्रा में धन व्यय किए जाने का दावा करता है। नर्मदा घाटी में इस बार मानसून की प्रवृत्ति मेरे द्वारा देखी गई सन् 2002 जैसी थी। उस वर्ष भी जलस्तर बहुत जल्दी बढ़ना शुरू हो गया था। कई बरस पहले जब मैं हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ बात कर रहा था तो एक छात्र ने मुझसे बाढ़ और डूब के अंतर को स्पष्ट करने को कहा। तकनीकी अभियांत्रिकी नज़रिए से कहा जाए तो बाढ़ कुछ समय के लिए निचली भूमि पर छा जाती है, लेकिन एक बड़ा बांध मानसून के दौरान मौसमी बाढ़ के प्रवाह को रोक लेता है और इसको डूब में परिवर्तित कर देता है। जिसके फलस्वरूप हजारों एकड़ कृषि भूमि, गांव और शहर, कुछ घंटों या दिनों के लिए ही नहीं कई मामलों में हमेशा के लिए भी डूब में आ जाते हैं। कुछ दिन पूर्व मेरे मित्र सुदर्शन रोड्रिग्स ने मुझे बताया कि “भारत विध्वंस रिपोर्ट-2: विध्वंसों की पुनर्परिभाषा’’ जारी की जा रही है। थोड़ी ही देर बाद एक अन्य मित्र रेहमत जो कि पश्चिमी निमाड़ में नर्मदा किनारे रहते हैं ने ई-मेल से मुझे नर्मदा नदी की डूब की तीसरी पारी की फोटो भेजी। इसी दौरान इंडियन एक्सप्रेस के वड़ोदरा संस्करण में सरदार सरोवर नर्मदा निगम के अधिकारियों के हवाले से खबर छपी कि 23 अगस्त को बांध स्थल पर जलस्तर 128.68 मीटर तक पहुंच गया है और इसके 130 मीटर तक पहुंचने की संभावना है।

लेकिन 24 अगस्त को पानी 131.05 मीटर तक पहुंच चुका था। जबकि यह बांध 121.92 मीटर की ऊंचाई तक निर्मित हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि पानी के इससे ऊपर जाने पर 7 से 9 मीटर (24 से 30 फुट) ऊँची पानी की दीवार खड़ी हो गई, जिससे प्रति सेकेंड लाखों क्यूसेक पानी निचले स्थलों पर भरने लगा। ग़ौरतलब है ये सारा पानी निचले बांधों से छोड़ा गया था। सोचिए क्या ऐसा संभव नहीं था कि बांधों के लबालब हो जाने के पहले मध्य जुलाई से ही जब बारिश धीमी थी धीरे-धीरे पानी छोड़ा जाता। पिछले हफ्ते नर्मदा घाटी में जो देखा गया वह बाढ़ नहीं थी। हालांकि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री, जिन्होंने इस स्थिति का हवाई सर्वेक्षण किया हमें और मीडिया को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि ये बाढ़ ही थी। वास्तव में इस बाढ़ ने डूब या जलप्लावन के प्रभाव को कई गुना कर दिया।

डूब प्रभावितों की त्रासदियों को दरकिनार करते हुए गुजरात पर्यटन विकास निगम एवं सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड ने हजारों गुजराती पर्यटकों के सामने बांध स्थल को एक पर्यटन एवं पिकनिक पैकेज के रूप में प्रस्तुत किया। पर्यटकों का सैलाब बांध स्थल पर टूट पड़ा और बांध की ऊंचाई देखकर वह चमत्कृत भी था। लेकिन संभवतः बहुत कम लोगों ने यह प्रश्न किया होगा कि बांध की दीवार के दूसरी तरफ क्या हो रहा है। यदि वे जानना चाहते तो मध्य प्रदेश के चिखल्दा के लोगों से पूछ सकते थे।

चिखल्दा और बड़वानी-


बड़ौदा को जोड़ने वाले राजघाट पुल पर इस वर्ष के जलस्तर की सन् 1994 की बाढ़ से तुलना करते हुए रेहमत लिखते हैं “इस बार इसने सन् 1994 जब सबसे अधिक बाढ़ आई थी से भी 1.5 फीट ऊंचे स्तर को छू लिया है। इससे ज़बरदस्त नुकसान हुआ है और चिखल्दा के तकरीबन एक चौथाई घर डूब में आकर ढह गए हैं। पानी का स्तर मंडलेश्वर जो कि महेश्वर जलविद्युत परियोजना क्षेत्र में आता है, उतरना प्रारंभ हो गया है, हमें उम्मीद थी कि अगले चार घंटे में (शनिवार 24 अगस्त) यहां भी पानी उतर जाएगा। परंतु जलस्तर का कम होना अभी भी प्रारंभ नहीं हुआ है। ग़ौरतलब है पश्चिमी निमाड़ के गाँवों में आज भी सन् 1994 एवं 1970 के दशक की बाढ़ की दहशत महसूस की जा सकती है।नर्मदा बचाओ आंदोलन ने 25 अगस्त को जारी अपनी प्रेस विज्ञप्ति में डूब को मध्य प्रदेश एवं गुजरात सरकारों का आपराधिक षड्यंत्र बताया है। इसमें आरोप लगाया गया है कि राज्यों ने हाथ मिलाकर हजारों प्रभावित परिवारों की जलसमाधि बनाने का षड्यंत्र किया जिनका पुनर्वास हर हालत में जून 2005 तक अर्थात नर्मदा जल विवाद ट्रिब्युनल अवार्ड 1979 की धाराओं के हिसाब से बांध की ऊंचाई जो कि जुलाई 2006 में 121.92 मीटर पहुंचनी थी, किया जाना था, उनका पुनर्वास नहीं किया गया। नबआ की विज्ञप्ति में बताया गया है कि डूब के मौजूदा दौर में ऐसे गांव जिन्होंने नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण “डूब क्षेत्र से बाहर’’ बता चुका है, के सैकड़ों घर डूब गए।

डूब के तीसरे चरण द्वारा खेत और रहवास को अपने में समेटने के बावजूद भीतरी गाँवों में महज एक या दो पुलिस अधिकारी तैनात थे। नबआ ने नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के इस व्यवहार और राहत कार्यों की अनुपस्थिति को लेकर सवाल उठाए हैं, क्योंकि प्राधिकरण प्रत्येक वर्ष मानसून के बाद राहत कार्यों पर भारी मात्रा में धन व्यय किए जाने का दावा करता है। नर्मदा घाटी में इस बार मानसून की प्रवृत्ति मेरे द्वारा देखी गई सन् 2002 जैसी थी। उस वर्ष भी जलस्तर बहुत जल्दी बढ़ना शुरू हो गया था। मुझे अभी भी याद है कि मैं अपने दोस्त जो जो के साथ बड़वानी से चिखल्दा राजघाट पुल पर यह जाँचने गया था कि पुल के नीचे जो पानी का स्तर है क्या उससे जलसिंधी और डोमखेड़ी भी डूब में आ जाएंगे?

उस रात कुछ दोस्तों के साथ मैं हापेश्वर से एक नाव लेकर केवल यह देखने जलसिंधी पहुंचा था कि लुहारिया ने जो घर बनाया है क्या वह समूचा पानी में डूब गया। लुहारिया के घर को पी साईनाथ की पुस्तक “एवरीबड़ी लव्ज ए गुड ड्राउट’’ ने प्रसिद्ध कर दिया था। लुहारिया ने मानसून के पहले ऊंचाई पर अपना घर बना लिया था और वहां खड़ा देख रहा था कि किस तरह उसका खेत डूब में आ रहा है। पिछले एक दशक से ज्यादा से वह ऐसा ही कर रहा है और आंदोलन का लोकप्रिय नारा “कोई नहीं हटेगा’’ दोहराता रहता है।

बिगड़ती स्थिति


वर्ष 2002 की बाढ़ ने मुझे काफी कुछ सिखाया था। जुलाई में बांध के बैकवाटर में इज़ाफा हुआ तब नासिक की अभिव्यक्ति संस्था के मेरे फिल्मकार मित्र और मैं नाव से हापेश्वर शिव मंदिर के गर्भगृह के एकदम सामने खड़े थे। बाद में इसी महीने में मैं जब मुंबई के पत्रकार मित्र के साथ महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश के गाँवों में जाने का प्रयास कर रहा था, तो एकाएक उसी स्थान पर हम दलदल में फंस गए। लेकिन हम भाग्यशाली थे कि बच गए।

अगले साल अगस्त में मैं जब हापेश्वर पहुंचा तो मल्लाह ने मुझे दो मंज़िले हापेश्वर मंदिर कॉम्प्लेक्स की दूसरी मंज़िल पर उतारा। गुजरात मध्य प्रदेश सीमा पर नर्मदा किनारे डूबे पहले गांव हापेश्वर ने मुझे सतर्क कर दिया और मैं डूब के प्रभाव की व्यापकता को समझ पाया। मुझे जलसिंघी, डोमखेड़ी और नीम गांव के बारे में सोचकर सिरहन हो रही थी। दस वर्ष पश्चात रेहमत द्वारा आज ई-मेल से भेजे होशंगाबाद के हवाई फोटो एवं सरदार सरोवर बांध की डूब के फोटो देखकर मैं प्रधानमंत्री से यह पूछने को बाध्य हो गया हूं कि क्या हम आज भी बेहतर आपदा नियंत्रण की योजना बना पाए हैं? मैं जहां एक ओर आपदा प्रबंधन की तैयारियों और जोखिम कम करने के उपायों पर चर्चा कर रहा हूं, वहीं दूसरी ओर टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक समाचार में बताया है कि सरदार सरोवर बांध के सुरक्षा दिशा-निर्देश (सेफ्टी मेन्युअल) अभी तक तैयार ही नहीं हुए हैं। क्या ऐसा नहीं होना चाहिए कि जो तीन केंद्रीय मंत्री सन् 2006 की ग्रीष्म ऋतु में मध्य प्रदेश की नर्मदा घाटी में गए थे वे पुनः उन्हीं गाँवों में जाएं और हमें बताएं कि पुनर्वास के दावों का सच क्या है?

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