बाढ़ से मिल सकती है निजात


हर साल बाढ़ से तकरीबन 2.7 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हो जाता है। यह नुकसान रोका जा सकता है और वह भी महज 4000 करोड़ रुपए की कीमत पर। हमें यह पैसा राजस्थान को हरा-भरा बनाने में यानी यहाँ पेड़ लगाने में खर्च करना होगा। राजस्थान में अगर बड़े पैमाने पर पेड़ लगा दिये जाएँगे तो हिमालय की बर्फ धीरे पिघलेगी और बाढ़ का खतरा बहुत कम हो जाएगा जिससे बड़े पैमाने पर गरीबी को भी दूर करना सम्भव हो सकेगा। इसी से बदलाव आएगा। यदि इस दिशा में सोचा जाये तो हिमालय को पिघलने से और देश को हर वर्ष की भीषण बाढ़ों से बचाया जा सकता है। देश में हर साल बाढ़ आती है, चाहे बारिश कम हो या ज्यादा। इस बाढ़ से हर साल जो नुकसान होता है, वह हमारे सकल घरेलू उत्पाद के 14 फीसदी के बराबर होता है। जिसका मतलब यह है कि हर साल बाढ़ से तकरीबन 2.7 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हो जाता है। यह नुकसान रोका जा सकता है और वह भी महज 4000 करोड़ रुपए की कीमत पर। हमें यह पैसा राजस्थान को हरा-भरा बनाने में यानी यहाँ पेड़ लगाने में खर्च करना होगा। राजस्थान में अगर बड़े पैमाने पर पेड़ लगा दिये जाएँगे तो हिमालय की बर्फ धीरे पिघलेगी और बाढ़ का खतरा बहुत कम हो जाएगा, जिससे बड़े पैमाने पर गरीबी को भी दूर करना सम्भव हो सकेगा।

4000 करोड़ रुपए राजस्थान को हरा-भरा करने में खर्च करना कोई बड़ी बात नहीं है। मगर पता नहीं क्यों केन्द्र या राज्य सरकार को इस तरह का कभी कोई विचार क्यों नहीं आता? वैसे चाहें तो यह काम केन्द्र और राज्य सरकारों के बिना मदद के देश के मारवाड़ी उद्योगपति भी कर सकते हैं, जिनमें से ज्यादातर की मातृभूमि राजस्थान है या उनका राजस्थान से किसी तरह का रिश्ता है। ...और हां, यह सब करने के लिये उन्हें कोई कुर्बानी भी नहीं देनी, यह सब लोग ये काम उस पैसे से कर सकते हैं, जो पैसा इन्हें सरकार को टैक्स के रूप में देना होता है और जिसके लिये सरकार ने एक नियम बना दिया है कि उद्योगपति कुल देय टैक्स का 2 फीसदी अपनी विवेक से सामाजिक विकास एवं उत्थान में खर्च कर सकते हैं।

वास्तव में जब पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया था कि दिल्ली से देश के लिये जो एक रुपया भेजा जाता है, उसमें से 85 पैसे रास्ते में लूट लिये जाते हैं, आम जनता तक सिर्फ 15 पैसे ही पहुँचते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर एक पूर्व मारवाड़ी नेता मुरली देवड़ा ने मंत्री बनने पर उद्योगपतियों को यह छूट दी कि जो टैक्स वो सरकार को देते हैं, उसमें से 2 फीसदी वह सीधे-सीधे सामाजिक विकास में अपने विवेक के तहत खर्च कर सकते हैं। सरकार ने इस पर कोई शर्त नहीं लगाई है कि वह यह पैसा किस तरह के सामाजिक विकास पर खर्च कर सकते हैं।

लेकिन बाद के मंत्रियों ने इस मद को कुछ इस तरह से उलझा दिया कि उद्योगपतियों को यह अन्दाजा ही नहीं लग पाता कि वह किस मद में और कहाँ पैसे खर्च करें? यही वजह है कि इस तरह के नियम की मौजूदगी के बावजूद उद्योगपतियों की तरफ से सामाजिक विकास का कोई ठोस काम नहीं हो पा रहा जबकि उन्हें इसे उत्साह से करना चाहिए; क्योंकि यह उनका पैसा नहीं होता, यह उनके उद्योगों में शामिल तमाम अंशधारकों का पैसा होता है, बावजूद इसके जब यह खर्च किया जाता है तो उसका श्रेय उस उद्योग घराने को ही मिलता है, जिसके जरिए यह खर्च होता है।

इस नियम के बनाए जाने के बाद पहले साल में 10 बड़े उद्योग घरानों ने इस मद के लिये जो पैसा निकाला, वह कुछ इस प्रकार था- रिलायंस ने 761 करोड़, ओएनजीसी ने 495 करोड़, इनफोसिस ने 240 करोड़, टीसीएस ने 219 करोड़, आईटीसी ने 214 करोड़, एनटीपीसी ने 205 करोड़ एनएमडीसी ने 189 करोड़, टाटा स्टील ने 171 करोड़, आईसीआईसीआई बैंक ने 156 करोड़ और विप्रो ने 133 करोड़ रुपए। इस सूची में गुजराती, सरकारी, दक्षिण भारतीय, पारसी, मुस्लिम और विदेशी कम्पनियाँ शामिल हैं, लेकिन इस सूची से देखकर साफ पता चलता है कि शीर्ष 10 की सूची में कोई मारवाड़ी उद्योगपति नहीं है। जिन्हें देश के सामाजिक विकास में खर्च करने का सबसे ज्यादा श्रेय दिया जाता है।

ऐसा नहीं है कि मारवाड़ी उद्योगपति इस लायक नहीं है या वह अपनी आय का एक हिस्सा दान-धर्म में खर्च नहीं करते। बस, दिक्कत यह है कि उनके परमार्थ और परोपकार या सेवा की दिशा भटकी हुई है। दरअसल मारवाड़ी उद्योगपति आमतौर पर अपने गुरुओं के चंगुल में फँसे हुए हैं। जिस कारण सेवा या परोपकार के नाम पर कोई मारवाड़ी उद्योगपति हनुमानजी की विशालकाय मूर्ति बनवाने के चक्कर में लगा हुआ है तो कोई सामूहिक हनुमान चालीसा की मस्ती में जीवन का उत्सर्ग देख रहा है। कोई यज्ञ कर रहा है तो कोई धार्मिक कथाकारों की चरण वन्दना को ही सामाजिक दायित्व मान बैठा है।

कहने का मतलब यह कि ऐसे लोग धार्मिक होने की आड़ में धर्मांधता से जकड़े हैं तथा ब्राह्मणों के गुलाम हो गए हैं। दिक्कत यह है कि उनकी देखा-देखी अब तमाम आम लोग भी इसी रास्ते पर चल पड़े हैं, नतीजा यह है कि अरबों रुपया हर साल मन्दिरों और गुरुद्वारों में दान के रूप में चला जाता है और समाज वैसे का वैसा ही अविकसित बना रहता है। आखिर कब हमारे देश के लोगों को समझ में आएगा कि सामाजिक सुधार तभी सम्भव है, जब हम धर्मांधता से मुक्ति पाएँगे। सरकार को चाहिए कि सामाजिक दायित्व को धार्मिक भावना से विलग कर दे और ऐसा कड़ा कानून बनाए ताकि इस तरह की धर्मांधता में धन जाया न हो। वास्तव में सरकारी डंडे से ही धर्मांध सेठों पर अंकुश लगाया जा सकता है। वास्तव में अगर समाज का पैसा समाज के काम नहीं आता, तो यह घोर सामाजिक अपराध है।

दरअसल इस कानून का ऐसे लोग गलत फायदा उठा रहे हैं, अपने विवेक का इस्तेमाल करने के नाम पर बड़ी होशियारी से लोग इस पैसे से नया धंधा निकाल रहे हैं या फिर 2 फीसदी टैक्स जो कि समाज के उत्थान में खर्च करना था, उससे मन्दिर बनवाकर या कोई धार्मिक अनुष्ठान कराकर समाज में अपनी अहम की धाक जमा रहे हैं। कल्पना तथा भय के आधार पर सामूहिक शोषण का प्रयास धर्मांधता ही है।

मुम्बई में मारवाड़ियों के लड़कों या लड़कियों के लिये हॉस्टल की बड़ी सख्त जरूरत है, लेकिन मारवाड़ी सेठ नासिक में भव्य स्वर्ण मन्दिर वाली धर्मशाला बनवाने को अपनी प्राथमिकता में शुमार करते हैं जबकि अभी तक जो धर्मशालाएँ हैं, वो भी शिवाय कुम्भ के नहीं भरतीं। गाँधी जी ने बताया था कि सामाजिकता का महत्त्व धार्मिकता से ज्यादा है। उन्हें इसीलिये महात्मा घोषित किया गया था, जो अपने जीते जी ही नहीं मरने के बाद भी सभी शंकराचार्यों से बड़े रहे। लोगों को सामाजिक गुरुओं की जरूरत है न कि धार्मिक गुरुओं की। हमें इस सामाजिक सच्चाई को जितनी जल्दी हो सके, समझना होगा। इसी से बदलाव आएगा। यदि इस दिशा में सोचा जाये तो हिमालय को पिघलने से और देश को हर वर्ष की भीषण बाढ़ों से बचाया जा सकता है।

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