बाढ़ से तबाह चीन


‘वसुधैव कुटुंबकम्’ अर्थात विश्व बन्धुत्व की भारतीय अवधारणा प्राकृतिक सम्पदा के सीमित उपभोग के साथ वैष्विक सामुदायिक हितों से जुड़ी थी, लेकिन भूमण्डलीकरण बनाम आर्थिक उदारवाद की धारणा से उपजी ‘विश्व-ग्राम’ की कथित अवधारणा ने इंसान को सहुलियत की जिन्दगी देने से कहीं ज्यादा, प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ावा देने का काम किया है।

अमेरिकी पूँजी से निकली यह अवधारणा औद्योगिक-प्रौद्योगिक विस्तार के बहाने ऐसे हितों की नीतिगत पोषक बन गई है, जिसमें प्रकृति का व्यावसायिक दोहन वैयक्तिक व इन्द्रिय सुखों के क्षणिक भोग-विलास में अन्तर्निहित हो गया है। इसके दुष्परिणाम भारत और चीन जैसे देशों में मानसूनी प्राकृतिक आपदा के रूप में स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं।

भारत में जहाँ औसत बारिश से ही लगभग सभी प्रमुख महानगर बेहाल हैं, वहीं चीन में पिछले एक माह से जारी औसत से अधिक हुई भीषण बारिश, भूस्खलन, बवंडर और आँधी ने तबाही का ऐसा तांडव रचा है कि 9 प्रान्तों की दशा, दुर्दशा में तब्दील हो गई है। 45 हजार मकान धराशाई हो गए हैं। 1 करोड़ 80 लाख लोग विस्थापित हुए हैं। 15 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि पर लहलहा रही फसल चौपट हो गई है। 800 लोग मर चुके हैं और अनगिनत लापता हैं। कारें और मोटर कागज की नावों की तरह बहती नजर आ रही हैं। 3 अरब डॉलर से भी ज्यादा हुए इस नुकसान से चीन की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है।

मध्य, पूर्वी और दक्षिणी चीन इस समय कुदरती मार का भयावह संकट झेल रहा है। यहाँ मूसलाधार बारिश और भूस्खलन का सिलसिला जून में शुरू हुआ था, जो पूरे जुलाई माह में भी जारी रहा। अभी भी इसकी गति पर अंकुश नहीं लगा है।

जिग्यांशु, गुडंशु और हुबई प्रान्तों समेत अन्य 6 प्रान्तों में शहर और गाँव, मैदान और नदियाँ एक ऐसे दरिया में बदल गए हैं कि इनमें फासला करना मुश्किल हो रहा है। हर दिन बारिश की तस्वीर एक नया नजारा लेकर उभर रही है। घर टापू बन गए हैं। घरों से निकलना दूभर हो रहा है। पहाड़ ऐसे गिर रहे हैं, जैसे रेत से भरे डम्पर से रेत उड़ेली जा रही हो। हजारों सड़कों और पुलों का नामो-निशान खत्म हो गया है।

जिन बड़े बाँधों को हमने औद्योगिक विकास का जरिया माना हुआ है, चीन में ऐसे ही 3.5 किलोमीटर लम्बे तटबन्ध को बारुद लगाकर उड़ाना पड़ा। समय रहते इस बाँध को नहीं तोड़ा जाता, तो इसके जल दबाव से टूटने का खतरा बढ़ गया था। लिहाजा, लाखों लोगों के मारे जाने की आशंका पैदा हो गई थी। आसमान से बरस रही इस आफत की बारिश ने चीन को इस अन्दाज में पानी-पानी किया हुआ है कि औद्योगिक-प्रौद्योगिक दृष्टि से सम्पन्न और आर्थिक व सामरिक नजरिए से भी समृद्ध देश चीन इस आपदा में डूबा-डूबा लग रहा है।

तकनीकी विकास ने चीन में झंडे गाड़कर वैश्विक पहचान बनाई हुई है। दुनिया के बाजार उसी के 50 फीसदी से भी ज्यादा उत्पादों से भरे हुए हैं। ऐसे शक्तिशाली साम्यवादी चीन में सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन करते हुए लोग कह रहे हैं कि यहाँ के मौसम विभाग ने न तो सटीक जानकारी दी और न ही सुरक्षा के उपाय पर्याप्त रहे। इस कारण जहाँ 800 से भी ज्यादा लोगों को सैलाब ने लील लिया, वहीं हजारों लोग लापता हैं।


चीन में दुनिया भर की वस्तु व खाद्य सामग्री उत्पादक बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ वजूद में होने के बावजूद, न संकटग्रस्त लोगों के पास पीने को पानी है और न ही पेट भर भोजन। फिलहाल तो जल-भराव से ज्यादातर कम्पनियाँ अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। बिजली बन्द होने के कारण अधिकतर उत्पादन इकाइयाँ बन्द हैं। इन हालातों के सन्दर्भ में ऐसा भी लगने लगा है कि कालान्तर में एक निश्चित समय में अधिकतम बारिश होने का यही सिलसिला बना रहा तो कहीं लोग धीरे-धीरे बाढ़ की चपेट में आ रहे महानगरों से पलायन शुरू न कर दें? साफ है, मौसम की जानकारी देने वाले उपकरण मौसम की उपद्रवी हलचलों को पकड़ने में बौने साबित हुए हैं, वहीं आधुनिक विकास के संकट बड़ी मानव आबादी को झेलने पड़ रहे हैं। गोया, दुनिया में जो भयावह कुदरती आपदाएँ एक के बाद एक आ रही हैं, उनकी पृष्ठभूमि मानव निर्मित वह विकास है, जो प्रकृति की अवहेलना करते हुए उत्तरोत्तर आगे बढ़ रहा है।

चीन में इतनी भयंकर बारिश पिछले 50 साल में कभी नहीं हुई। 100 साल में जरूर यह दूसरी बार हुई है। पिछली सदी के तीसरे दशक में जब यह बारिश हुई थी, तब चीन का वर्तमान जैसा विकास हुआ है, वैसा नहीं हुआ था। अधिकतर चीन की आबादी भारत की तरह गाँवों में रहते थे और कृषि व पशु आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रचलन में थी। इसलिये न जनहानि हुई थी और न ही बड़ी आर्थिक हानि हुई।

किन्तु अब जो कुदरत ने संकट पैदा किया है, उस परिप्रेक्ष्य में चीन को सरंचनागत सुधारों को पटरी पर लाने में वक्त तो लगेगा ही, पुनर्निर्माण में बड़ी मात्रा में धन भी खर्च होगा। क्योंकि बाढ़ से हुई तबाही की चपेट में 700 से भी ज्यादा, छोटे-बड़े शहर हैं। गोया, चीन की अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लगने जा रहा है? दरअसल आधुनिक विकास की होड़ में जो भूलें भारत ने की हैं, चीन भी उनमें पीछे नहीं रहा।

इस कथित विकास प्रक्रिया में शहर की भौगोलिक सरंचना, पारिस्थितिकी और बढ़ती जनसंख्या का ध्यान नहीं रखा गया। सामाजिक न्याय और आर्थिक विषमता वाले चीन ने भी भारत की तरह महज एक छोटे वर्ग के हितों का ख्याल रखा। इस होड़ की दौड़ में जल-भराव जल निकासी के माध्यमों की चिन्ता नहीं की गई। नतीजन गगनचुम्बी विकास कुदरती आपदा के सामने बौना होता चला गया।

विकास की इसी विडम्बना का परिणाम है कि चीन में दुनिया भर की वस्तु व खाद्य सामग्री उत्पादक बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ वजूद में होने के बावजूद, न संकटग्रस्त लोगों के पास पीने को पानी है और न ही पेट भर भोजन। फिलहाल तो जल-भराव से ज्यादातर कम्पनियाँ अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। बिजली बन्द होने के कारण अधिकतर उत्पादन इकाइयाँ बन्द हैं।

इन हालातों के सन्दर्भ में ऐसा भी लगने लगा है कि कालान्तर में एक निश्चित समय में अधिकतम बारिश होने का यही सिलसिला बना रहा तो कहीं लोग धीरे-धीरे बाढ़ की चपेट में आ रहे महानगरों से पलायन शुरू न कर दें? ऐसी स्थितियों का निर्माण होता है तो औद्योगिकरण और शहरीकरण बड़ी मात्रा में प्रभावित होगा।

ये त्रासदियाँ प्रत्यक्ष रूप में प्राकृतिक आपदाएँ जरूर दिखाई देती हैं, लेकिन वास्तविक रूप में ये मानव उत्सर्जित हैं। इनकी संख्या पूरी दुनिया में दूरदृष्टि से काम नहीं लेने के कारण बढ़ रही हैं। लिहाजा न केवल औद्योगिक-प्रौद्योगिक विकास को नियंत्रित करने की जरूरत है, बल्कि औसत के आसपास होने वाली बारिश से ही मानव आपदा में बदल जाने वाले ऐसे निर्माणों को नियंत्रित करने की भी जरूरत है, जो आपदाओं को आमंत्रित कर रहे हैं।

दुनिया में एक छोर से दूसरे छोर तक विस्तार पाने वाली ये आपदाएँ अनायास नहीं है? इनकी पृष्ठभूमि में औद्योगिकीकरण की प्रमुख वजह है। इसी वजह से कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में लगातार वृद्धि हो रही है, जो तापमान में वृद्धि करके जलवायु परिवर्तन का सबब बन रही है।

ऊर्जा उत्पादन के कारण दुनिया में प्रतिवर्ष कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन 11.4 अरब टन के करीब हो रहा है। चीन के ऊर्जा संयंत्र भी प्रतिवर्ष 3.1 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित कर रहे हैं। चीन के वायुमण्डल में कार्बन के इसी अधिकतम उत्सर्जन की प्रक्रिया ने तापमान में बेतहाशा वृद्धि कर दी है।

चीन में बाढ़इस वृद्धि ने जलवायु में बदलाव के साथ वर्षा का चक्र गड़बड़ा दिया है। कमोबेश यही स्थिति भारत की है। वर्षा के इस परिवर्तित हो रहे चक्र से चीन और भारत को वर्तमान में आईं इन प्राकृतिक आपदाओं के परिप्रेक्ष्य में सबक लेने की जरूरत है। यह इसलिये भी जरूरी है, क्योंकि एक समय जो आस्ट्रेलिया गेहूँ का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक देश था, उस आस्ट्रेलिया ने अकाल का संकट झेलने के साथ ही, अपनी आबादी के लायक अनाज पैदा करने की आत्मनिर्भरता खो दी है।

आस्ट्रेलिया में इस भयावह त्रासदी का कारण जलवायु परिवर्तन और उपभोक्तावादी जीवनशैली को माना जा रहा है। बहरहाल, प्राकृतिक आपदाओं से घिरे आदमी को एशियाई देशों के सत्ताधारी वाकई उबारना चाहते हैं, तो प्रकृति का सन्तुलन बनाए रखने के लिये भूमण्डलीय आर्थिक उदारवाद की पश्चिमी आवधारणा को तिलांजलि देनी होगी। तभी प्राकृतिक आपदाओं पर नियंत्रण सम्भव होने की उम्मीद की जा सकेगी।

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