बाँध, बंधिया और चूड़ी

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सतना के बारे में कहा जाता है- यहाँ दो ख्यात स्थल हैं, मैहर और चित्रकूट। कोई एक बार आ जाए तो ‘तप’ के बावजूद- उसे फिर आने की अभिलाषा होती है।...... यहाँ के समाज के सम्बोधन में भी तो एक खास ‘लय’ होती है.....! फिर भला ये बूँदें- यहाँ से क्यों जाना चाहेंगी!..... सतना के बाँध, बंधिया और चूड़ी साहिबा.....!! ....ईश्वर करे, आपको किसी की नजर न लग जाए।

......जहाँ तक नजर जाती है- पानी ही पानी....! ....जैसे कोई ‘छोटा समन्दर’ हो! .....दरख्तों से छूटी हवा जैसे ही पानी की सतह को छूती है। ...पानी में एक सिहरन पैदा होती है ....और सतह पर उठ खड़ा होता है लहरों का सैलाब! एक के बाद एक मस्ती से झूमती, किलोल करती लहरें ‘पाल’ से टकरातीं और बिखर जाती हैं! यह सिलसिला अनवरत है- लगभग पिछले तीन सौ सालों से....!!

सतना जिले के झाली गाँव में सौ एकड़ से भी ज्यादा क्षेत्र में फैले इस तालाब की मेड़ पर बैठे सुन्दरलाल की बूढ़ी आँखें खोजने लगती हैं, लहरों में छुपे तीन सौ साल पुराने इतिहास को। फिर जैसे उनकी आँखों के सामने सब कुछ सजीव होने लगता है। लहरों के साथ आत्मसात हो सुन्दरलाल बहने लगते हैं अपनी ही रौ में!

....यह ‘बाँध’ बहुत पुराना है। ठीक-ठीक तो याद नहीं कि यह बाँध कब बना था, लेकिन यह तय है कि ये बात तीन-चार पीढ़ियों पुरानी है। यह बाँध सौ से ज्यादा एकड़ क्षेत्र में फैला है। इसे हमारे पूर्वजों ने बनवाया था, इसको बनवाने के पीछे यही सोच था कि चार महीने बाँध में जो पानी भरा रहता है, इससे जमीन में नमी बढ़ जाती है। इसके अलावा बरसात का पानी जो बहकर आता है, उसके साथ बहकर आने वाला ‘रमन’ (खाद) भी खेत में इकट्ठा हो जाता है। चार महीने बाद बाँध खाली करके इसमें गेहूँ, चना, मसूर, लाहा की फसल लेते हैं।

शिल्प की दृष्टि से देखें तो यह तालाब आज की किसी उन्नत तकनीक से बने बाँधों को मात देता नजर आता है। ऐसे तालाबों को स्थानीय भाषा में ‘बाँध’ कहा जाता है। बाँध से पानी की निकासी के लिए मेड़ के बीच में नीचे ढलान की दिशा में एक पक्की संरचना बनाकर ‘चूड़ी वाला’ गेट लगाया जाता है। बरसात में अधिक पानी की आवक की स्थिति में बाँध की संरचना को कोई खतरा नहीं पहुँचे, इसके लिए ओवर-फ्लो निकालने के लिए ‘नाट’ बनाई जाती है।

पूर्वी मध्यप्रदेश में बघेलखण्ड के सतना जिले में जल संरचना के लिये ऐसे बाँधों के निर्माण की परम्परा काफी पुरानी है। इस क्षेत्र में बड़े राजे-रजवाड़े और बड़े किसानों के यहाँ ऐसे सौ-पचास एकड़ के बाँधों का होना आम बात है। शिल्प की दृष्टि से यह सभी बाँध बनाने की प्रक्रिया एक ही है। खेत में ढलान वाली दिशा में 7-8 फीट ऊँची मिट्टी की मेड़ बनाकर पानी को रोक दिया जाता है। बाँध को तकनीकी दृष्टि से मजबूत बनाने के लिए ओवर-फ्लो को निकालने की व्यवस्था की जाती है। बरसात का पानी इन बाँधों में रोकने की इस तैयारी के साथ ही दशहरे पर बाँध को खाली करने के लिये अलग-अलग तरीके आजमाये जाते हैं। इनमें से कुछ तो तकनीकी दृष्टि से उन्नत है और कुछ देशी सस्ते तरीके भी प्रचलन में लाये जाते हैं। तकनीकी दृष्टि से इन संरचनाओं का अध्ययन करें तो इन सस्ते व देशी तरीकों में भी कोई खामी नजर नहीं आती है। बाँध को खाली करने के लिये कहीं-कहीं मेड़ के बीच पक्की संरचना बनाकर उसमें चूड़ी वाला लोहे का गेट लगाया जाता है, जिसे यहाँ की भाषा में ‘पक्का’ कहा जाता है।

चूड़ी वाले लोहे के दरवाजों की जगह कहीं-लकड़ी के पटिये लगाये जाते हैं, जिन्हें बाँध खाली करने के समय खींचकर ऊपर कर लिया जाता है और बाँध खाली हो जाता है। कुछ लोगों द्वारा लोहे और लकड़ी के गेट की जगह सीमेण्ट के पाइप लगा दिये जाते हैं और पाइप के बाँध के अंदर वाले मुँह पर एक मटकी उल्टी लगाकर उसे काली मिट्टी से अच्छी तरह छाब दिया जाता है। इसे स्थानीय भाषा में ‘नरिया’ कहा जाता है।

आम तौर पर बाँध खाली करने का काम दशहरे के बाद किया जाता है। इस वक्त बाँध खाली करने के लिये एक बाँस से इस मटकी को फोड़ दिया जाता है जिससे बाँध में रुका पानी पाइप के जरिये खाली होने लगता है।

दरअसल, सतना जिले में पानी को रोकने की यह परम्परागत तकनीक महज एक बाँध नहीं है, बल्कि इस बाँध से बँधी पूरी एक सामाजिक संरचना है। यहाँ के समाज का मनोभाव इसमें छुपा है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो यह बाँध महज पानी रोकने की कल्पना मात्र नहीं है, बल्कि यह तत्कालीन समाज की ‘सामाजिक सोच’ का एक दर्पण भी है। आज का समाज टूटा और बिखरा-बिखरा-सा है। समाज की परिभाषा बदल रही है। ‘सामूहिकता’ में सेंध लग चुकी है और निरन्तर विखंडन से सामाजिक सोच ‘व्यक्ति’ में तब्दील हो रही है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है ‘नलकूप।’ जिस पानी पर पूरे समाज का हक होना चाहिए, वो व्यक्ति की हदों में सिमट गया है। एक की हद में ठहरे पानी से दूसरे का भला अब किसी स्वप्न से कम नहीं है, लेकिन आज से दो सौ-तीन सौ साल पुराने समाज ने जो व्यवस्थाएँ निर्मित की थीं वो ‘व्यक्ति’ केन्द्रित न होकर ‘समाज’ केन्द्रित थीं।

सतना की इस बाँध परम्परा में उस समय के समाज की यह सोच स्पष्ट परिलक्षित होती है।दशहरे के समय जब बड़े किसानों द्वारा अपने बाँध का पानी छोड़ा जाता था तो वो उस बाँध के निचले हिस्से में पड़ने वाले सभी छोटे खेतों को गीला करता हुआ निकलता था। इससे इन छोटे किसानों को गेहूँ-चने की फसल के लिये तैयार किये अपने खेतों में ‘पलेवा’ करने की जरूरत नहीं पड़ती थी। बाँध से छूटे इस पानी से निचले खेतों में पलेवा आप से आप हो जाता था। पानी को लेकर कहीं कोई झगड़ा-झंझट नहीं। सब कुछ व्यवस्थित एक नियम में बंधा-बंधा सा। समाज द्वारा समाज के लिये रची गई एक स्वचलित परम्परा- वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धान्त पर आधारित परम्परा।

जहाँ आज भी बाँध परम्परागत रूप से जिन्दा है, वहाँ एक फसल का ही प्रचलन है। लकिन सोयाबीन जैसी ‘कैश क्राॅप’ ने कहीं-कहीं इस परम्परा को आघात पहुँचाया है। सुंदरलाल बताते हैं कि इस क्षेत्र में सोयाबीन बहुत कम मात्रा में होती है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि यहाँ की मिट्टी ‘सेहरा’ और दोमट’ है। काली मिट्टी नहीं होने से यहाँ सोयाबीन नहीं हो सकती है। इसके अलावा एक कारण और है कि यहाँ हमारे बाँध में ऊपर वाले नाले का पानी आता है, यदि हम बाँध में पानी नहीं भी रोकें तो भी हमारे खेत में पानी भरा रहेगा और अधिक पानी के कारण सोयाबीन की खेती नहीं हो पायेगी।

यह बात ऊपरी तौर पर भले ही साधारण लगे, लेकिन यह स्पष्ट है कि तत्कालीन समाज ने अपने अनुभव के आधार पर इन बाँधों के लिए ऐसे स्थान का चयन किया था, जहाँ पानी की आवक ज्यादा से ज्यादा हो।

सतना से चित्रकूट रोड पर 25-30 किलोमीटर के क्षेत्र में झाली, बरहाना, माहोर, धड़हट, कोठी, रायपुर, पवैया गाँवों में इस ‘बाँध’ परम्परा का अध्ययन करने से यह भी ज्ञात हुआ कि सभी ‘बाँधों’ को भरने की भी एक व्यवस्था है। सबसे ऊपर का बाँध जब भर जायेगा और उसके ‘नाट’ से पानी बहने लगेगा, तब नीचे का बाँध भरेगा.... उसके बाद उसके नीचे का और सबसे बाद में सबसे नीचे का।

सबको पता है- सबके चौबारे पहुँचेगी ‘गंगा’। कहीं कोई अधीरता नहीं..... कोई व्याकुलता नहीं...... कोई ईर्ष्या नहीं.....बस एक इंतजार है। आज वहाँ पहुँचा है....... तो कल यहाँ भी पहुँचेगा। जेठ की गहरी तपन के बाद आषाढ़ के काले मेघों को देखकर तालाब की मेड़ पर खड़े समाज को एक ही इंतजार है कि कब बूँदें बरसें और वो अपने बाँध में ठहरी इन बूँदों का आचमन कर ‘बूँद महारानी’ से इस वर्ष भी पिछले वर्षों की तरह उनके धान के कोठे भरे रहने की मन्नत मांग सके। काले बादलों को तकती आँखों में दिखाई पड़ती है- एक मौन प्रार्थना कि हमारे गाँव में फिर किलोल करेगा जीवन- इन छोटे-छोटे समन्दरों में।

यह तो हुई बात बड़े बाँधों की, लेकिन जिनके पास कम जमीन है वो भी अपनी छोटी-छोटी हदों में पानी रोकने का काम परम्परागत रूप से कर रहे हैं। अपने छोटे-छोटे खेतों में किसान मिट्टी की एक-डेढ़ फुट ऊँची मेड़ बनाकर बरसात के रूप में बरस रही कुदरत की नेमत ‘बूँद’ को इन अंजुरियों में झेल लेते हैं। इस संरचना को यहाँ बोलचाल की भाषा में ‘बंधिया’ कहा जाता है। सतना से 20 कि.मी. दूर चित्रकूट रोड पर स्थित झाली गाँव के के.पी.एस. परिहार बताते हैं कि सतना और आस-पास के जिले में बंधिया बनाने की परम्परा सैकड़ों साल पुरानी है।

बरसात के पानी को थामने के लिए ‘बंधिया’ संरचना का ईजाद असल में मिट्टी रोकने और पैदावार बढ़ाने के लिए किये जाने वाले प्रयासों की दिशा में एक परिपक्व सोच था। खेत के छोटे-छोटे हिस्से में डेढ़-दो फुट ऊँची मिट्टी की मेड़ बनाकर पानी को रोकने के लिए जो संरचना बनाई जाती है, उसे ही बंधिया कहते हैं। बंधिया बनाकर छोटा किसान दो फसल आसानी से ले सकता है। बरसात के दौरान इस बंधिया में मचौआ करके ‘धान’ की फसल ली जाती है और उसके बाद बंधिया की मेड़ को ढलाव वाली दिशा में डेढ़-दो फुट काटकर खेत का पानी निकाल दिया जाता है और फिर खाली खेत में गेहूँ, चना, मसूर आदि की फसल बोयी जाती है।

भागते समय ने भले ही सतना जिले की तस्वीर बदल दी हो, कितनी ही पुरानी परम्पराओं को धो-पोंछकर उनमें नये रंग भर दिये हों, लेकिन सैकड़ों बरस पुरानी बंधिया परम्परा आज भी यहाँ के समाज में जिन्दा है। सतना जिले की किसी भी तहसील में, किसी भी कस्बे में, किसी भी गाँव में बरसात के मौसम में पहुँच जायें तो आपको खेतों में बनी मिट्टी की मेड़ों में बंधा हुआ पानी लगभग हर खेत में दिखाई पड़ जायेगा......! .......सतना के बारे में कहा जाता है- यहाँ दो ख्यात स्थल हैं, मैहर और चित्रकूट। कोई एक बार आ जाए तो ‘तप’ के बावजूद- उसे फिर आने की अभिलाषा होती है।...... यहाँ के समाज के सम्बोधन में भी तो एक खास ‘लय’ होती है.....! फिर भला ये बूँदें- यहाँ से क्यों जाना चाहेंगी!..... सतना के बाँध, बंधिया और चूड़ी साहिबा.....!! ....ईश्वर करे, आपको किसी की नजर न लग जाए.......!!

 

मध्य  प्रदेश में जल संरक्षण की परम्परा

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

जहाज महल सार्थक

2

बूँदों का भूमिगत ‘ताजमहल’

3

पानी की जिंदा किंवदंती

4

महल में नदी

5

पाट का परचम

6

चौपड़ों की छावनी

7

माता टेकरी का प्रसाद

8

मोरी वाले तालाब

9

कुण्डियों का गढ़

10

पानी के छिपे खजाने

11

पानी के बड़ले

12

9 नदियाँ, 99 नाले और पाल 56

13

किले के डोयले

14

रामभजलो और कृत्रिम नदी

15

बूँदों की बौद्ध परम्परा

16

डग-डग डबरी

17

नालों की मनुहार

18

बावड़ियों का शहर

18

जल सुरंगों की नगरी

20

पानी की हवेलियाँ

21

बाँध, बँधिया और चूड़ी

22

बूँदों का अद्भुत आतिथ्य

23

मोघा से झरता जीवन

24

छह हजार जल खजाने

25

बावन किले, बावन बावड़ियाँ

26

गट्टा, ओटा और ‘डॉक्टर साहब’

 

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