बारिश से घायल अल्मोड़ा की कहानी

7 Dec 2010
0 mins read


राजनीति और मौसम के बारे में हमारी याददाश्त बेहद कमजोर होती है। बड़े से बड़ा घोटालेबाज नेता अगली बार फिर चुनाव जीत जाता है। वोट देते समय न जाने क्यों हम उसके पिछले कुकर्म याद नहीं रख पाते। हमारी याददाश्त का यही हाल तब होता है जब मौसम बदलता है। हर बार गर्मियों में हम कहते हैं- बाप रे, यार ऐसी गर्मी तो कभी नहीं देखी। सर्दियों में कहते हैं- भई इस बार तो गजब ठंड है…..लेकिन इस बार की जैसी बारिश मैंने सचमुच नहीं देखी 93 के बाद से।

सन् 93 में लगभग ऐसी ही बारिश हुई थी। लेकिन जहाँ तक याद पड़ता है जान-माल की इतनी क्षति तब भी नहीं हुई थी। इस बार की बरसात अल्मोड़ा से कुछ ज्यादा ही खफा नजर आई। जान-माल का जितना नुकसान इस बार हुआ वैसा पहले हुआ याद नहीं आता।

इस बार की बारिश यादगार रही कई मायनों में। इस बारिश ने वाकई डरा दिया। कई ऐसी जगहों पर भी जमीन दरक गयी और मकान टूट गये जहाँ उम्मीद नहीं थी लेकिन ज्यादा नुकसान वहीं हुआ जहाँ नये मकान बने हैं। जहाँ न नालियाँ हैं न पर्याप्त चौड़े रास्ते। जहाँ दुल्हनें पैदल आती हैं और अर्थियाँ तिरछी करके ले जायी जाती हैं।

मकान बनाना कलियुग का पुरुषार्थ है। हर एक की दो ख्वाहिशें हैं- मेरा एक लड़का हो जाये, अपना मकान हो जाये जैसा भी हो। जिसका अपना मकान नहीं वह दोयम दर्जे का नागरिक है। उसकी मार्केट वैल्यू कम है। सो हर आदमी फरहाद की औलाद है। जमीन के नाम पर एक टीला खरीदता है। उसे खोद कर एक मकान टेक देता है। नीचे पान की दुकान है, ऊपर गोरी का मकान है। परनाला पड़ोसी के आँगन में है। समय बिताने के लिये छोटा-मोटा मुकदमा कचहरी में चल रहा है।

शहर का सड़क संपर्क हर तरफ से कट गया। सड़क टूटते ही शहर में एक तरह की अफरातफरी सी मच गयी। सबसे पहले लोग झोला लेकर सब्जी की टुकानों में टूट पड़े, मानो सब्जी मुफ्त बँट रही हो। टमाटर 80-100 रुपये किलो बिक गया। इसी कारण सब्जी के फड़ लगाने वाले कुछ बिहारी पिट भी गये। ऐसे भले लोग भी थे जिन्होंने लाइन लगाकर सब्जी बेची। जो उपलब्ध था, उसमें से सब को थोड़ा-थोड़ा दिया। देखते ही देखते बाजार से आलू-प्याज गायब हो गया। मांसाहारियों ने कहा यार इतनी महंगी सब्जी से तो अच्छा चिकन-मटन क्यों न खा लिया जाये।

फिर पानी की दिक्कत शुरू हुई। एक-दो दिन तो लोग किसी तरह काम चलाते रहे। उसके बाद पानी न तो पीने को बचा न धोने को। फिर लोग जरकिन पकड़ कर नौले-धारों की ओर चल पड़े। पुराने दिन याद आ गये, जब अल्मोड़ा में पानी की बेहद दिक्कत थी। कहाँ-कहाँ से पानी लाते थे। मुझे एक पुराना किस्सा याद आ गया। मेरे एक दोस्त के घर में चार-पाँच दिनों से पानी नहीं आया था। एक सुबह उसे पता चला कि आज तो मुँह धोने को भी पानी नहीं। उसे बड़ा ताव आया। उसने सोचा आज तो जेई को दो थप्पड़ जड़ के आता हूँ। जो होगा देखा जायेगा। उसने जाकर जेई का दरवाजा खटखटाया। उसकी पत्नी बाहर निकली। दोस्त ने पूछा- जेई साब कहाँ है ? पत्नी बोली- भय्या क्या बतायें, तीन दिन से पानी नहीं आया। साहब सुबह से उसी का इंतजाम करने गये हैं। सुनकर उसे हँसी आ गयी। जल निगम के प्यासे जेई को भला क्या पीटना!

एक सुबह तड़के हो-हल्ला सुनकर नींद खुली। मुझे लगा कि शायद आसपास कोई बड़ा हादसा हो गया। किसी का मकान धँस गया, दो-चार लोग दबके मर गये। बाहर आकर देखा कि लोग सड़कों पर घूम रहे हैं। अंधेरे में टॉर्चें चमका रहे हैं, सोये हुए लोगों को जगा रहे हैं। कुल मिलाकर बाहर बड़ी रौनक थी, हंगामा था। कुछ समझ नहीं आया। पड़ोस में पूछने पर पता चला कि चार बजे भूकंप आने वाला था, लेकिन अब पाँच बजने वाले हैं। इसीलिये लोग घरों से बाहर हैं और सोये हुए लोगों को जगाने का नेक काम कर रहे हैं। न जाने किसने यह चंडूखाने की गप उड़ाई थी और हैरानी की बात कि लोगों ने उस पर यकीन भी कर लिया। दंगा करवाने वालों और एक लगाकर दस पाओ का धंधा करने वालों के लिये कितनी उपजाऊ जगह है यह देश। लोग किसी घटना की लाइव रिपोर्टिंग टीवी में देख रहे होते हैं, फिर भी उस बारे में अफवाह फैल जाती है। कुछ चीजें सिर्फ इसी देश में संभव हैं। भूकंप की भविष्यवाणी फिलहालइसी देश में मुमकिन है।

सड़कें टूटने से दो-तीन दिन तक अखबार नहीं आया। बिजली नहीं थी तो टीवी भी नहीं था। कहाँ क्या हो रहा है यह जानने का कोई साधन नहीं था। मोबाइलों की बैटरियाँ बेवफाई पर उतर आईं। इधर-उधर संपर्क करना मुश्किल हो गया। बाड़ी और देवली गाँव से खबर आई कि वहाँ बादल फटने से मलबे में दबकर कई लोग जिन्दा दफन हो गये। हर तरफ हाहाकार हर चीज की किल्लत और बारिश लगातार। किसी भी पल कुछ भी होने की आशंका। मुझे एक अलग ही अंदेशे ने आ घेरा। मुझे लगा कि दो-तीन दिन बाद दुकानों में दारू खत्म हो जायेगी तो फिर क्या होगा ? कहीं दंगे न भड़क जायें ! लेकिन नहीं साहब, बाजार से टमाटर के नाम पर टमाटो-प्यूरी भले ही गायब हो गयी, मगर दारू उचित मूल्य पर इफरात से मिलती रही। सरकार को चाहिये कि शराब व्यवसायियों को बुलाकर उनसे आपदा प्रबंधन के गुर सीखे।

एक दिन एक मित्र का फोन आया कि यार लोग अपने आस-पास के पेड़ों को काट रहे हैं। ऐसे-ऐसे पेड़ काट डाले हैं कि क्या बताऊँ। किसी से कहो। एक-दो परिचितों को फोन किया, जो कुछ कर या कह सकने की स्थिति में थे। न जाने कैसे यह अफवाह फैली की प्रशासन ने कहा है कि आपके आसपास अगर कोई ऐसा पेड़ हो जिससे आपको खतरा महसूस हो तो आप उसे बिना इजाजत काट सकते हैं। लोग पिल पड़े। आनन फानन पेड़ तख्ते-बल्लियों में तब्दील हो गये। सुना कि कई देवदार के पेड़ भी निपटा डाले। आपदा (का) प्रबंध (न) का यह भी एक कारगर तरीका है।

हफ्ते भर तक नहाना नहीं हो पाया। पुराने पानी को उबाल-उबाल कर पीता रहा। वह भी लगभग खत्म हो गया। मैंने शहर छोड़ने का फैसला कर लिया। मैले कपड़े बैग में ठूँसे और धौलादेवी जा पहुँचा। तीन-चार दिन वहीं पड़ा रहा। मुझे शहर पहले छोड़ देना चाहिये था। मैं भी अपने आप में एक छोटी-मोटी बला हूँ। मेरे शहर से बाहर जाते ही एकाध दिन में पानी नियमित आने लगा। बिजली पहले ही आ चुकी थी। पहाड़पानी के रस्ते शाक-सब्जी पहुँचने लगी।

सच में इस बार की सी बारिश, जिसने मुझ जैसे औघड़ और जुगाड़ू आदमी को शहर छोड़ने पर मजबूर कर दिया, इससे पहले नहीं देखी और दुआ करनी चाहिये कि न ही देखने को मिले। इसी में सब का भला है।
 

 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading