बावड़ियों का शहर

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इन्दौर का परम्परागत जल संरक्षण लोक रुचि का विषय रहा है। कभी यहाँ बीच शहर से दो सुन्दर नदियाँ बहती थीं। यह शहर चारों ओर से तालाबों से घिरा था। यहाँ बावड़ियों की संख्या इतनी ज्यादा थी कि इसे बावड़ियों का शहर कहा जाता था। यहाँ घर-घर में कुण्डियाँ भी थीं। ऐसे शहर में परम्परागत जल प्रबन्धन की एक झलक।

.मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी और देश में ‘मिनी बाॅम्बे’ के रूप में ख्यात शहर इंदौर की तुलना- यहाँ के बाशिंदे किसी समय खूबसूरत शहर पेरिस से किया करते थे।

वजह थी..... जिस तरह पेरिस के बीचों-बीच शहर से नदी बहती है, उसी तरह यहाँ भी शहर के बीच में ‘नदियाँ’ निकलती थीं...!

......शहर के आस-पास और बीच में भी तालाब आबाद रहते रहे हैं।

.....कल्पना कीजिए- इस शहर के बीच में स्वच्छ पानी से भरी नालियाँ हुआ करती थीं.... जो लालबाग, कागदीपुरा व राजवाड़ा तक आती थीं......! जिसे पानी चाहिए- वह घर के पास से बह रही नाली से ले लें.....!!

.....एक और ‘रफ्तार’.....! शहर में दस-पन्द्रह नहीं, लगभग सौ खूबसूरत बावड़ियाँ हुआ करती थीं। एक मंजिला तो कहीं दो-दो मंजिला। पूरे मोहल्ले को पानी पिलाती थीं- और तो और दूसरे इलाके में भी सप्लाई हो जाता था। यहाँ चलती चड़स से खेती भी की जाती थी। अनेक बावड़ियों पर आप अभी भी थाल, कुण्ड और केनाल देख सकते हैं।

.......यहाँ के लोग गर्व से कहते थे: ‘हमारे शहर में पानी की क्या कमी! यहाँ तो सड़कें भी पानी से नियमित धोई जाती हैं!’ कहते हैं, हर गर्वोक्ति का आधार मजबूत रहना चाहिए।

यहाँ वक्त बदला, समाज का पानी संचय के परम्परागत तरीकों से अनुराग भी व्यक्त हुआ! नदियाँ, नालियाँ बन गईं! जलस्रोत सूख गए। बावड़ियाँ उपेक्षित हुईं। तालाब की जगह मल्टी स्टेरियाँ बन गईं। पानी का मोल, इसके खत्म होने के बाद पता चला। हाहाकार मचने लगा....!

.....आज पानी के मामले में इंदौर की नई पहचान यहाँ करोड़ों रुपये खर्च करके 80 किलोमीटर दूर जलूद के पास से नर्मदा मैया के पानी को लिफ्ट करके- इंदौर लाया जाता है। ....अभी इसके अगले चरणों की तैयारियाँ चल रही हैं- फिर भी जलसंकट तो अनेक क्षेत्रों में कायम रहता है।

......यहाँ के परम्परागत जल प्रबंधन को सिलसिलेवार जानें!

इंदौर शहर विंध्याचल पर्वत की चट्टान पर स्थित है। इसका ढाल दक्षिण से उत्तर की ओर है। शहर के बीच में ही खान और सरस्वती नदी का संगम (जूनी इंदौर क्षेत्र में) भी हुआ है। सबसे पहले इंदौर के अपनी तरह के अनूठे परम्परागत जल प्रबंधन की व्यवस्था को देखें।

करीब सवा सौ साल पहले बिलावली तथा पीपल्यापाला तालाब बनाए गए। बिलावली तालाब को एक तलाई व नाले रूपी छोटी केनाल के माध्यम से पीपल्यापाला तालाब से जोड़ दिया गया। हालाँकि, पीपल्यापाला का अपना भी अलग से जलग्रहण क्षेत्र था। यहीं से ‘नहर भण्डारा’ की शुरुआत हुई।

पीपल्यापाला से दो नहरें निकाली गईं जिन्हें आज भी देखा जा सकता है। यहाँ लकड़ी के गेट लगे हुए थे। गाँव वाले इन्हें अभी भी ‘मोरी’ कहते हैं। यहाँ से पानी निकलकर चार कुण्डों में जाता था। यहीं से खुली नहर व नालियों के माध्यम से पानी तेजपुर गड़बड़ी से होते हुए लालबाग, बारामत्था, कागदीपुरा व राजबाड़ा तक आता था।

यह जल परिवहन की अत्यन्त प्रारंभिक अवस्था थी। कुएँ व कुछ एक स्थानों पर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में नहर देखी जा सकती है। बिलावली तालाब काफी बड़ा बना था। यहाँ बाढ़ के दौरान आया पानी रोका जाता था। यहाँ से पानी शहर में सप्लाई होता रहा है।

पीपल्यापाला के बाढ़ का पानी खातीवाला टैंक में रोका जाता था। यह टैंक अब समाप्त हो चुका है। यहाँ कॉलोनियाँ बस गई हैं। कई मल्टीस्टोरी हवा से बातें करतीं अपनी जमीन में किसी समय बसे तालाब को भूलती नजर आ रही हैं।

पीपल्याहाना में भी तालाब रहा है। यहाँ बिचैली क्षेत्र का पानी एकत्र होता था। इसके नीचे खजराना तालाब था। यहाँ से निकला नाला भमोरी तक जाता था। पीपल्यापाला तालाब निरन्तर सिकुड़ता जा रहा है। बिलावली व पीपल्यापाला का जोड़ने वाले तलाई क्षेत्र में भी बस्तियाँ बस गईं। पीपल्यापाला के अन्य जल ग्रहण क्षेत्र में बने मकानों को आराम से देखा जा सकता है।

इसी तरह शहर के पश्चिमी क्षेत्र सिरपुर में धार रोड से सटे दो तालाब हैं। छोटा व बड़ा सिरपुर तालाब। पुरा इलाका 539 एकड़ क्षेत्र का है। धार रोड पर 70 फीट की दूरी पर ही इन तालाबों की पाल है।

बांक गाँव में इससे भी आधी रह जाती है। यहाँ तालाब व इसके जल ग्रहण क्षेत्र की जमीन पर रामबल, रामनगर, हतिमी बाग, राम मंदिर, भारत काॅलोनी, गीता नगर, जगन्नाथपुरी, हरिहर नगर की बसाहट फैली हुई है। इसी तरह छोटे तालाब क्षेत्र में भी अतिक्रमण कर कई काॅलोनी बसा दी गई हैं। किसी जमाने में यहाँ से भी पानी प्रदाय के लिये केनालें रही हैं।

इंदौर से 14 मील पश्चिम में गम्भीर नदी पर बाँध बनाकर यशवंत सागर बनाया गया था। यह योजना 1939 तक पूरी कर ली गई थी। यह विशाल सागर है। यहाँ अतिरिक्त पानी को बाहर निकालने के लिए स्वचालित सायफन लगे हुए हैं।

यह पूरे भारत में अपनी तरह की अनूठी योजना रही थी। यहाँ पानी निकलने का वेग तीव्र होता है, जो ‘धुआँधार’ जैसी स्थिति पैदा करता है। वर्षाकाल में यह देखने दूर-दूर से लोग आते हैं। यहाँ से पानी को पम्प करके देवधरम टेकरी तक लाया जाता है। फिल्टर होने के पश्चात यह शहर में सप्लाई किया जाता है।

इंदौर के परम्परागत जल प्रबंधन में खान-सरस्वती नदियों की अहम भूमिका रही है। खान नदी उमरिया तथा सरस्वती नदी माचल गाँव वाले क्षेत्र से निकलती है। इन दोनों नदियों को पाला बाँधकर जगह-जगह रोका जाता रहा।

इंदौर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी- वरिष्ठ पत्रकार श्री नगेन्द्र आजाद तथा यहाँ होलकर राजवंश पर शोधरत ख्यात रंगकर्मी डाॅ. गणेश मतकर कहते हैं- किसी जमाने में खान नदी नवलखा क्षेत्र के घने जंगल से होकर छावनी वाले क्षेत्र से गुजरती थी।

कृष्णपुरा पुल तक इसका रमणीक दृश्य देखते ही बनता था। सरस्वती तथा खान नदी को जगह-जगह रोका जाता था। माणिकबाग, लालबाग, बारामत्था, छत्रीबाग, कड़ावघाट, जूनी इंदौर तथा साजन नगर, छावनी, बंगाली क्लब में अनेक स्थानों से होते हुए ये जूनी इंदौर क्षेत्र में संगम होती थी।

इस नदी में पाल के अलावा आस-पास अनेक सुंदर घाट भी बनाए गए थे। हाथीपाला का यह नाम इसलिए पड़ा, क्योंकि यहाँ हाथ की ऊँचाई के स्तर तक पानी-पाल बाँधने से रुक जाता था। इसके अलावा भी स्वच्छ पानी से भरे अनेक नाले रुकते थे।

इन नदियों की ताजा कहानी- दुःखद है। ये अब नाला या नाली बनकर रह गई हैं। तमाम प्रयासों के बावजूद- इंदौर के परम्परागत जल प्रबंधन की ‘खान’- खान नदी को बचाया नहीं जा सका है। इसके किनारे बने घाट व छत्रियाँ इसके वैभव की कहानी सुनाने को आतुर रहते हैं, लेकिन नदी का जल तो मानो इस सच को झुठलाने के सिवाय कुछ और जिद्दी करता नजर नहीं आता है।

दरअसल, खान नदी- भारत की उन नदियों की हांडी का दाना भर है, जो व्यवस्था और समाज की बुरी नजर, लापरवाही व जल पर्यावरण के प्रति अनदेखी की वजह से किसी हादसे के बाद खरोंच और नोंची हुई स्थिति में गुस्सैल तेवर के साथ समाज के सामने आती है......!

इस नदी को न केवल गंदा किया गया, बल्कि अतिक्रमण से भी परेशान किया गया। जल प्रवाह में भी बाधाएँ उस समय आती हैं- जब कम समय में अत्यधिक बरसात होती है। ‘मिनी बाॅम्बे’ की खान नदी की कहानी- मुम्बई की उस मीठी नदी के समान है, जो शहर के बीच में निकलती थी।

145 फीट चौड़ाई वाली यह नदी 10 से 15 फीट तक रह गई। इसे तो सरकारी दस्तावेजों में भी नाला कहा जाने लगा। मुम्बई में हाल ही के जल प्लावन में- मीठी नदी ने समाज को वही लौटाया है, जो समाज ने उसकी दुर्गति कर दिया था.....।

इन्दौर के विधायक और राज्य सरकार के अभियान पंच-ज (जन, जंगल, जमीन, जानवर और जल) के उपाध्यक्ष श्री लक्ष्मणसिंह गौड़ खान नदी को उसका खोया हुआ स्वरूप वापस लौटाने के लिए प्रयासरत हैं।

....अब हम इंदौर की बावड़ियों के दर्शन करते हैं, जो किसी जमाने में इस शहर की जीवन-रेखा मानी जाती थी। बकौल श्री नगेन्द्र आजाद- यह लगभग 100 बावड़ियों का शहर कहा जाता था। अनेक बावड़ियाँ अब जमीन में दफन हो गई हैं और उनके ऊपर भवन खड़े हैं। कई कचरापेटी बन कर रह र्गईं। कुछ- एक ऐसी बावड़ियाँ अभी मौजूद हैं, जिनमें पानी के दर्शन हो सकते हैं......!

शाही पैलेस लालबाग के बाहर की ओर चंपा बावड़ी बनी हुई है। यह महल निर्माण के पहले ही बना दी गई थी, जो कि यहाँ पर लगा शिलालेख निर्माण का सन 1836 दर्शा रहा है। यह बावड़ी दो मंजिला है। सम्भवतः दोनों बरामदों में वातानुकूलन का आनंद लिया जाता होगा।

इस बावड़ी की एक खास बात यह है कि इसके दो हिस्सों में पानी है और बीच में चौकोर टैरेस भी बना हुआ है। रास्ता एक ओर से है। फिलहाल इसमें पानी भरा है, लेकिन गंदगी व कचरा भी समाया हुआ है। इसके दोनों ओर दो-दो चड़स चलती रही होंगी।

लालबाग के भीतर भी एक बावड़ी है। यह एकदम चौकोर है और चम्पा बावड़ी से छोटी है। इसमें भी एक तरह से जाने का रास्ता है। इसमें आमने-सामने दो चड़स चलती थीं। इस तरह कुल 4 कुण्ड बने हुए हैं। यहीं से केनाल के माध्यम से पानी प्रवाहित होता रहा होगा।

मोती तबेला के पास खान नदी के किनारे एक बड़ा किला बना हुआ है। यहाँ होलकर रियासत के राजा हरिराव होलकर तथा उनके सम्बन्धियों की छत्री बनी हुई है। किले के भीतर एक अत्यन्त प्राचीन किन्तु जिन्दा बावड़ी मौजूद है। इसमें तीन ओर से जाने के रास्ते हैं, जबकि एक ओर चड़स चलती थी।

महिदपुर क्षेत्र में भी हमें इस तरह की अनेक जल संरचनाएँ देखने को मिली हैं। महिदपुर भी होलकर रियासत के अधीन रहकर उनकी छावनी हुआ करता था। लेकिन वहां इस तरह की संरचना को चौपड़ा कहते हैं, जबकि इसे यहाँ बावड़ी के नाम से ही जानते हैं।

इसी तरह सदर बाजार ईदगाह की बावड़ी से चड़स के माध्यम से क्षेत्र में खेती की जाती थी। यहाँ बावड़ी अब कचराघर बनकर रह गई है। कभी यहां लबालब पानी भरा रहता था।

इंदौर के बक्षीबाग क्षेत्र में भी एक रियासतकालीन बावड़ी कमाठीपुरा में रही है। बक्षीबाग में होलकर स्टेट के प्रधानमंत्री सर सिरेमल बापना रहा करते थे। यह लम्बी व विशाल बावड़ी थी। इंदौर के अनेक क्षेत्रों में यहाँ से पानी सप्लाई होता था। अब यह अतिक्रमण से घिरी है।

पानी कम है और वह भी गंदा। इंदौर के लाल अस्पताल की बावड़ी को तात्या की बावड़ी के नाम से जाना जाता है। यह जिन्दा है। यहाँ से अभी भी पानी सप्लाई किया जाता है। इसको नगर निगम ने जाली से कवर कर रखा है। पंचकुइया क्षेत्र वाली बावड़ी में अभी पानी रहता है, लेकिन उपयोग लायक नहीं है।

यहाँ भीतर चाँद साहब वली की दरगाह भी है। यहाँ से चड़स के माध्यम से आस-पास के खेतों में सिंचाई होती थी। श्री नगेन्द्र आजाद कहते हैं- “गोराकुण्ड की बावड़ी को वे इसलिए ज्यादा याद करते हैं, क्योंकि एम.जी. रोड से निकलने के दौरान वे नीचे उतरकर उसका पानी पीते थे। यह बावड़ी काफी गहरी थी। अब इसे बुरकर मंदिर व भवन बना दिया गया है।”

इंदौर की बावड़ियाँ कभी इस पूरे शहर तथा खास इलाके की पहचान हुआ करती थीं। जूनी इंदौर, रामबाग, नृसिंह बाजार चौक, काशीनाथ होलकर का बाड़ा, खजराना, मल्हाराश्रम, नारायण बाग आदि की बावड़ियाँ आज भी पुराने लोगों की यादों में बसी हैं। इसके अलावा अनेक घरों में कुण्डियाँ तथा कुएँ थे। जूनी इंदौर में टेकरी पर बसे इन्दौर के संस्थापकों के वंशज जमींदार परिवार का कुआँ आज भीषण गर्मी में भी जिन्दा रहता है।

इंदौर का परम्परागत जल प्रबंधन दो तरह की मिसाल प्रस्तुत करता है- कभी समृद्धता की तो वर्तमान में अभावों की। पुराने काल में लौटें तो जाहिर है कि एक सिलसिला मौजूद था- पहाड़ी, नालों व नदियों के पानी को तालाबों में रोका। वहाँ से नहरें निकालीं।

शहर के बीच नदियोें को भी रोका। इनके व सामान्य भूमिगत जल के रिसाव को बावड़ियों व कुओं में संग्रहित किया- सब कुछ लयबद्ध! लेकिन तालाबों में आव रोकी, नदियाँ-नालों में बदल दीं, बावड़ियों में कचरा व गंदगी भरी- हमने अपने जलस्रोतों के सन्दर्भ में खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारी।

......आज करोड़ों रुपए खर्च करके 80 कि.मी. दूर से नर्मदा का लाया पानी हम पी रहे हैं!

.....यह परम्परा भोजन कहाँ है! यह तो फास्ट फूड है!

.....इंदौर की नई पहचान- पानी की फास्ट फूड संस्कृति....!

......और इतिहास रहा है- पानी की परम्परागत संस्कृति का......!!

 

 

मध्य  प्रदेश में जल संरक्षण की परम्परा

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

जहाज महल सार्थक

2

बूँदों का भूमिगत ‘ताजमहल’

3

पानी की जिंदा किंवदंती

4

महल में नदी

5

पाट का परचम

6

चौपड़ों की छावनी

7

माता टेकरी का प्रसाद

8

मोरी वाले तालाब

9

कुण्डियों का गढ़

10

पानी के छिपे खजाने

11

पानी के बड़ले

12

9 नदियाँ, 99 नाले और पाल 56

13

किले के डोयले

14

रामभजलो और कृत्रिम नदी

15

बूँदों की बौद्ध परम्परा

16

डग-डग डबरी

17

नालों की मनुहार

18

बावड़ियों का शहर

18

जल सुरंगों की नगरी

20

पानी की हवेलियाँ

21

बाँध, बँधिया और चूड़ी

22

बूँदों का अद्भुत आतिथ्य

23

मोघा से झरता जीवन

24

छह हजार जल खजाने

25

बावन किले, बावन बावड़ियाँ

26

गट्टा, ओटा और ‘डॉक्टर साहब’

 

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