बद से बदतर होती मनरेगा

देश की बहुप्रतिक्षित योजना महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानि ‘मनरेगा’ बद से बदतर होती जा रही है। ग्राम प्रधान से लेकर अधिकारी तक सभी लूट-खसोट में लगे हैं। मनरेगा के तहत जिनको जॉबकार्ड की जरूरत है उनको न दे करके अपने सगे-संबंधियों को जॉबकार्ड बांटा जा रहा है तथा तालाब केवल कागजों पर ही खोदे जा रहे हैं। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 30 नए काम जोड़कर मनरेगा को मनरेगा-2 का नाम दिया है। मनरेगा में रोज नए-नए किंतु-परंतु जोड़कर मनरेगा में हो रही लूट को कम करने और मनरेगा को प्रभावशाली बनाने के लिए कोशिशें हो रही हैं। पर मनरेगा के हाल दिन-प्रतिदिन बदतर ही होते जा रहे हैं, बता रहे हैं आशीष मिश्र, पीयूष बबेले और वीरेंद्र मिश्र।

मनरेगा में कोई भी काम कराने के लिए पैसा अंततः जिस खाते में पहुंचता है वह खाता संयुक्त रूप से ग्राम प्रधान और पंचायत सचिव के नाम पर होता है। पैसों की बंदरबांट में कोई अड़चन न आए इसलिए ग्राम प्रधान की पहली कोशिश होती है कि उसके चहेतों और समर्थकों के जॉब कार्ड सबसे पहले बनें। इन लोगों से सामान्य तौर पर मनरेगा का काम नहीं कराया जाता पर मस्टर रोल में इनकी दिहाड़ी बिला नागा दर्ज होती है। रायबरेली में एक साहब रहते हैं, नाम है जितेंद्र कुमार शुक्ल। उम्र 43 वर्ष। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लोकसभा क्षेत्र के शुक्ल जी खुद को कांग्रेसी बताते हैं। उनके पास चार ईंट भट्ठे, एक पेट्रोल पंप और एक कोल्ड स्टोरेज होने के अलावा आयशर ट्रैक्टर की एजेंसी भी है। इनका एक और परिचय है। रायबरेली जिले के लालगंज ब्लॉक के जिगासो गांव में शुक्ल का नाम मनरेगा में मजदूरी करने वालों की लिस्ट में दर्ज है, यह बात अलग है कि वे रहते ज्यादातर रायबरेली में ही हैं। बड़ी-बड़ी गाड़ियों के मालिक, हथियारों की महफूज पनाह में रहने वाले शुक्ल (जॉब कार्ड नंबर यूपी-33-013-017-004/274) ने जिगासो गांव में बाकायदा महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) में काम भी किया है। यहां यह भी बताते चलें कि इन 'मजदूर' सज्जन के ड्राइवर ही गांव के प्रधान भी हैं। शुक्ल का दावा है कि मनरेगा में मिलने वाला मेहनताना वे गरीबों में बांट देते थे। शुक्ल जैसे लोग तब मनरेगा में भरपूर काम पा रहे हैं जब देश में 2011-12 में महज 3.08 फीसदी जॉब कार्ड धारक ही 100 दिन की मनरेगा मजदूरी हासिल कर पा रहे हैं और इसी वित्त वर्ष में देश में एक भी परिवार को मनरेगा का बेरोज़गारी भत्ता नहीं दिया गया।

अब लीजिए दूसरी मिसाल। इसी जिले के डलमऊ ब्लॉक के दीना का पुरवा गांव में रहते हैं दो बूढ़े। एक का नाम है महावीर और दूसरे का मंगल। दोनों की उम्र है 80 साल। वैसे तो इनकी सूरत देखकर ही पता चल जाता है कि गरीबी इनकी रग-रग में बह रही है और बेकारी की दीमक इनके शरीर को खोखला कर चुकी है।

फिर भी बलिहारी अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही बाबूशाही की कि इनका मनरेगा जॉब कार्ड पिछले 6 साल में भी नहीं बन सका और जब तक परिवार के मुखिया का जॉब कार्ड नहीं बनेगा तो बाकी परिवार का कार्ड बनना भी संभव नहीं है। मंगल की कच्ची टपरिया गिरने के कगार पर है और उसके दो बेटे आस-पास के इलाके में मजदूरी कर किसी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं।

हाल ही में 4 मई को जिस मनरेगा को केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने 30 नए काम जोड़कर मनरेगा-2 का नाम दिया है, उससे मंगल की आस कुछ इस तरह है, ''हर साल दरख्वास्त देते हैं लेकिन कार्रवाई नहीं होती। अब तो भूख से मौत ही इस जिंदगी से निजात दिलाएगी।'' वहीं, महावीर आज भी दो बीघा ज़मीन से किसी तरह अपना पेट पाल रहे हैं। यह हाल उस रायबरेली का है जिसने उत्तर प्रदेश के बाकी जिलों की तुलना में सबसे बेहतर (4 फीसदी) रोज़गार दिया है।

क्या यह अंधेर नगरी नहीं है। अगर है तो चौपट राजा और उसके कारिंदे भी यहीं कहीं मलाई खाते दिख जाएंगे। इससे पहले कि हम रायबरेली और पूरे देश में फैले इस चौपटराज की मिसालें आपके सामने पेश करें, आपको यह बता दें कि पैसा आता कहां से है और जाता कहां पर है।

मनरेगा में कोई भी काम कराने के लिए पैसा अंततः जिस खाते में पहुंचता है वह खाता संयुक्त रूप से ग्राम प्रधान और पंचायत सचिव के नाम पर होता है। काम के एवज में मजदूरी का पेमेंट कामगार के बैंक खाते में किया जाता है। प्रदेश के ललितपुर जिले में तो अफसरों की करतूत सतह पर भी आ गई है। यहां जिलाधिकारी ने 100 करोड़ के घोटाले में जिले के परियोजना निदेशक, कई प्रधान, सेक्रेटरी, बीडीओ और अन्य अफसरों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा दिया।

पैसों की बंदरबांट में कोई अड़चन न आए इसलिए ग्राम प्रधान की पहली कोशिश होती है कि उसके चहेतों और समर्थकों के जॉब कार्ड सबसे पहले बनें। इन लोगों से सामान्य तौर पर मनरेगा का काम नहीं कराया जाता पर मस्टर रोल में इनकी दिहाड़ी बिला नागा दर्ज होती है। रायबरेली के स्वतंत्रता सेनानी बच्चूलाल शुक्ल मनरेगा को भ्रष्टाचार का ऐसा विकेंद्रीकरण बताते हैं जो गांव के स्तर तक पहुंच गया है। शायद यही सब देखकर प्रणव मुखर्जी ने मनरेगा का बजट 40,000 करोड़ रु. से घटाकर 33,000 करोड़ रु. कर दिया है।

इतने बड़े पैमाने पर पनपे भ्रष्टाचार के लिए कहीं मनरेगा का मूल ढांचा ही तो जिम्मेदार नहीं है, इस सवाल पर केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्य मंत्री प्रदीप जैन 'आदित्य' कहते हैं, ''कुछ गड़बड़ियों के आधार पर पूरी योजना को खारिज कर देना ठीक नहीं है। हमने खुद ज़मीन पर जाकर गड़बड़ियां पकड़ी हैं।''

साथ ही वे यह कहना नहीं भूलते कि मनरेगा में काम उसी को दिया जाना है जो काम मांगता है। ऐसे में अगर कम लोग काम मांगने आ रहे हैं तो इसका मतलब है-उन्हें कहीं और रोज़गार मिल रहा है। इसके अलावा बेरोज़गारी भत्ते का भी इंतज़ाम है। पूर्व वित्त मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा इस बात से इत्तेफ़ाक नहीं रखते। सिन्हा का तर्क है, ''यह एक बहुत बुरी तरह डिज़ाइन की गई योजना है। सरकार ने इसे हड़बड़ी में बनाया और फिर पैसा जारी करते चले गए। अब हालात बेकाबू हो गए हैं और 100 दिन का रोज़गार कहीं दिखाई नहीं दे रहा।'' बेरोज़गारी भत्ते पर सिन्हा की दो टूक टिप्पणी है, ''जिनके पास खाने को पैसा नहीं है, वे सरकार के खिलाफ बेरोज़गारी भत्ते के लिए मुकदमा क्या लड़ेंगे।'' वैसे मनरेगा की आधिकारिक वेबसाइट के आंकड़े भी बताते हैं कि 2011-12 में 25,48,480 दिन का बेरोज़गारी भत्ता दिया जाना है, लेकिन अब तक एक भी दिन का भुगतान नहीं हुआ। अब देखिए वे नजीरें जो भ्रष्टाचार की मिसाल हैं।

कागज पर बन गए पोखर


रायबरेली के महाराजगंज ब्लॉक की ग्राम पंचायत घुरौना में 80 फुट लंबा और 70 फुट चौड़ा पकरिया का तालाब है। वर्ष 2009-10 में इसे आदर्श तालाब बनाने की योजना बनी और 9.10 लाख रुपये स्वीकृत हुए। इसमें से 5.28 लाख रुपए आदर्श तालाब बनाने में खर्च भी हो गए। असलियत यह है कि तालाब के नाम पर महज एक गड्ढा खुदा है। हालांकि इस तालाब का निर्माण करवाने वाले पूर्व प्रधान प्रमोद कुमार इस बारे में कुछ भी कहने को तैयार नहीं।

गौरा ब्लॉक की गौरा खसपरी ग्राम पंचायत के सेवरहा तालाब की कहानी और डलमऊ ब्लॉक के दीना का पुरवा गांव के कैलहा तालाब की कहानी भी ऐसी ही है। रायबरेली विकास भवन के एक वरिष्ठ अधिकारी स्वीकार करते हैं कि पूरे जिले में 300 से अधिक तालाबों पर मनरेगा के पैसा का दुरुपयोग हुआ है। इसमें बीते पांच वर्षों के दौरान 100 करोड़ रु. से अधिक का घोटाला सामने आ सकता है। मनरेगा में भ्रष्टाचार के खुले खेल पर योजना आयोग के सदस्य और मनरेगा के जानकार मिहिर शाह कहते हैं, ''इन आरोपों को नकारा नहीं जा सकता। कानून के जोर पर इसे रोकना कठिन है। लोगों में जागरूकता लाना पहली और सबसे जरूरी चीज है।''

इंजीनियर भी खा रहे मलाई


मनरेगा के पैसे की केवल प्रधान और पंचायत सचिव ही बंदरबाट नहीं कर रहे। जिले में इस योजना में तकनीकी सहायक के पद पर काम कर रहे करीब 250 जूनियर इंजीनियर भी योजना को चूना लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। इंजीनियर अपनी दुकानों पर ही बोर्ड बनवा रहे हैं और इन्हें महंगे दाम पर अपने ही विभाग को बेच रहे हैं।

ऐसे ही एक जूनियर इंजीनियर लक्ष्मी शंकर यादव हैं जो रायबरेली के डलमऊ ब्लॉक में तैनात हैं। शहर के मुख्य बाजार राणा नगर में इनकी 'लक्ष्मी इंजीनियरिंग वर्क्स' नाम से लोहे के सामान बनाने की दुकान है।

इंडिया टुडे की टीम जब उनकी दुकान पर पहुंची तो उसके बाहर बड़ी संख्या में मनरेगा के वे पुराने बोर्ड रखे मिले जिन्हें निर्माण स्थल पर लग जाना चाहिए था। उन पर आरोप है कि वे 1500 रु. के बोर्ड अपने ही विभाग को 3,000 रु. में बेच रहे हैं। यादव कहते हैं ''यदि ऐसा करना गलत है तो वह इसे बंद कर देंगे।''

बस्तर में बदहाली


अब जरा गौर करते हैं देश के सबसे पिछड़े इलाकों में शुमार छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले पर। यहां मनरेगा का धंधा ऐसा कि वित्तीय वर्ष 2011-12 में जिले में महज दो फीसदी परिवारों को ही सौ दिन का रोज़गार मिल सका। जिले में सबसे बुरा हाल दरभा ब्लॉक का है। ब्लॉक के घाटी में बसे 8,000 की आबादी वाले माड़िया जनजाति बहुल 22 पारा वाले पखनार गांव में न हलचल है और न ही बाशिंदों की आवाजाही। एक अजीब-सी उदासी पसरी है और सन्नाटा टूटता नहीं दिखता। दरअसल यहां मनरेगा का काम पूरी तरह से ठप है जो कि यहां के लोगों की आजीविका का खास ज़रिया था। अपने घर में गुमसुम-सी बैठी सहतो (25) बताती है कि तीन साल पहले उसने गांव के ही 50 लोगों के साथ सड़क निर्माण के लिए बीस दिनों तक गोदी खुदाई का काम किया था जिसका भुगतान आज तक नहीं हो पाया है। मेट दिरपाल बीते तीन साल से कुछ ही दिनों में पैसा दिलवाने की बात कहते हुए टालता आ रहा है।

इसके बाद से गांव के काफी लोगों ने मनरेगा का काम ही छोड़ दिया। इसी गांव के डोंगरीपारा का वामन (28) साल भर से ज्‍यादा समय से गांव नहीं लौटा है। उसकी पत्नी मोटली बताती है कि पति की कोई खबर नहीं लग पा रही है। उसके पिता गोंचू की तबियत खराब होने से खेती-बाड़ी भी चौपट हो रही है।

गांव के 60 अन्य युवक रोज़गार की तलाश में आंध्र प्रदेश के लक्ष्मीपुरम, भद्राचलम, विजयवाड़ा और हैदराबाद समेत अन्य शहरों में चले गए हैं। सरपंच सुकलूराम मरकाम (35) के मुताबिक मजदूरी के भुगतान में ही जान-बूझकर देरी नहीं की जा रही, बल्कि मूल्यांकन में भी मनमानी की जा रही है। मामड़ापाल गांव के लिबरू आदिवासी (55) का भविष्य भी खतरे में है। उन्हें एक एकड़ खेत से 10 लोगों का परिवार पालना है। परिवार को छह साल में मुश्किल से 30 दिन का रोज़गार मिला है।

बस्तर में जगह-जगह खुदाई की मशीनें मनरेगा मज़दूरों का काम करती देखी जा सकती हैं। यह हाल तब है जब सोनिया गांधी ने खुद इस साल 2 फरवरी को मनरेगा सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मौजूदगी में कहा था, ''मनरेगा में भ्रष्टाचार देश के साथ बहुत बड़ा अन्याय और अपराध है, क्योंकि यह योजना राष्ट्रपिता को समर्पित है।'' क्या यूपीए सरकार इसी तरह अपनी अध्यक्ष की सुनती है?

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading