बड़े संकट की ओर भारतीय कृषि

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भारत सहित पूरी दुनिया में पूँजीवाद का प्रभाव बढ़ रहा है। अपने देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है लेकिन किसान और किसानी बेहद खस्ता हालत में है। किसान या तो कर्ज और तंगहाली में जी रहा है या फिर आत्महत्या कर रहा है। आज कोई भी किसानी नहीं करना चाहता, आप अपने आसपास एक सर्वे करके देख लीजिए आपको खुद पता चल जाएगा कि कितने लोग किसानी कर रहे हैं या करना चाहते हैं। देश में खेती–किसानी के हालात काफी खराब होते जा रहे हैं। पिछले दिनों भारतीय कृषि से जुड़ी 2 चीजें महत्वपूर्ण हुईं एक करनाल में आयोजित बारहवीं कृषि विज्ञान कांग्रेस और दूसरी कृषि से जुड़ी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की महत्वपूर्ण रिपोर्ट। कृषि विज्ञान कांग्रेस देश की बड़ी आबादी से जुड़ा बहुत ही महत्वपूर्ण सम्मेलन था।

करनाल में बारहवीं कृषि विज्ञान कांग्रेस में खेत-किसान से जुड़ी चिन्ताओं पर चिन्तन हुआ। 3 से 6 फरवरी 2015 तक चले इस सम्मेलन में देश–विदेश के करीब लगभग 1500 डेलीगेट्स कृषि कांग्रेस का हिस्सा बनें और करीब 70 शोध पत्र प्रस्तुत हुए। जिन्होंने आने वाले समय में खाद्यान्न चुनौती और उससे निबटने के तौर-तरीकों को नया विमर्श दिया। लेकिन इन सबके के बीच मूल सवाल यह रहा कि मौजूदा परिवेश में कौन किसानी करना चाहेगा जिसका भविष्य कर्ज और तंगहाली के रूप में सामने आता हो।

कृषि विज्ञान कांग्रेस


इस बार कृषि विज्ञान कांग्रेस की थीम छोटे किसानों के लिये सतत् आजीविका संरक्षण रखी गई। इस सम्मेलन में विश्व बैंक के कृषि मामलों के वरिष्ठ निदेशक जर्जेन वोगले ने पानी व भूमि को लेकर दीर्घकालीन नीतियाँ बनाने पर बल दिया। जर्जेन वोगले के अनुसार बिजली में सब्सिडी से पानी की अल्पकालिक जरूरतों को पूरा करने के बजाय स्थायी समाधान पर ध्यान देना होगा।

भारत जैसे देश में जहाँ मानसून की अनिश्चितता आम है, दीर्घकालीन चिन्ताओं के हिसाब से नीतियाँ बनाने की जरूरत है। सम्मेलन में कच्चे तेल के मूल्यों का खाद्यान्न के दामों पर पड़ने वाले प्रभाव पर भी ध्यान दिया गया। साथ ही चिन्ता जताई गई कि जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभाव कृषि पर नजर आ सकते हैं। वैज्ञानिकों का आकलन है कि एक प्रतिशत तापमान की वृद्धि फसल के उत्पादन काफी गिरावट ला सकती है।

पिछले दिनों ही पर्यावरण और वायु प्रदूषण का भारतीय कृषि पर प्रभाव शीर्षक से प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में प्रकाशित एक शोध पत्र के नतीजों ने सरकार, कृषि विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों की चिन्ता बढ़ा दी है। शोध के अनुसार भारत के अनाज उत्पादन में वायु प्रदूषण का सीधा और नकारात्मक असर देखने को मिल रहा है। देश में धुएँ में बढ़ोत्तरी की वजह से अनाज के लक्षित उत्पादन में कमी देखी जा रही है।

करीब 30 सालों के आँकड़े का विश्लेषण करते हुए वैज्ञानिकों ने एक ऐसा सांख्यिकीय मॉडल विकसित किया जिससे यह अन्दाजा मिलता है कि घनी आबादी वाले राज्यों में वर्ष 2010 के मुकाबले वायु प्रदूषण की वजह से गेहूँ की पैदावार 50 फीसदी से कम रही। खाद्य उत्पादन में करीब 90 फीसदी की कमी धुएँ की वजह से देखी गई जो कोयला और दूसरे प्रदूषक तत्वों की वजह से हुआ। भूमण्डलीय तापमान वृद्धि और वर्षा के स्तर की भी 10 फीसदी बदलाव में अहम भूमिका है। कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक और शोध की लेखिका जेनिफर बर्नी के अनुसार ये आँकड़े चौंकाने वाले हैं हालांकि इसमें बदलाव सम्भव है।

एनएसएसओ की रिपोर्ट


भारत के संकटग्रस्त किसानों की स्थिति समय बीतने के साथ-साथ और भी बदहाल होती जा रही है। पिछले 10 वर्षों में भारतीय कृषि परिवारों का कर्ज लगभग चार गुना बढ़ गया है, जबकि खेती से होने वाली आमदनी सिर्फ तीन गुना ही बढ़ी है। कर्ज में डूबे कृषि परिवारों की संख्या में भी पिछले 10 वर्षों में वृद्धि हुई है, जबकि इसी समय में कृषि परिवारों की संख्या में सूक्ष्म वृद्धि हुई है।

यह बात नेशनल सैम्पल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की 19 दिसम्बर 2014 को जारी रिपोर्ट में कही गई है। पिछले दिनों नेशनल सैम्पल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की ‘सिचुऐशनल ऐसेस्मेंट सर्वे ऑफ एर्गीकल्चरल हाउसहोल्ड इन इंडिया’ नाम से जारी एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत के कुल 52 फीसदी कृषि आश्रित परिवार कर्ज में डूबे हुए हैं। देश में कृषि परिवारों का घरेलू औसत कर्ज रुपए प्रति 47,000 रुपए है। जहाँ एक परिवार की खेती से होने वाली के वार्षिक आय रुपए 36,972 है। यह रिपोर्ट हर 10 साल के अन्तराल के बाद जारी की जाती है।

एनएसएसओ द्वारा किया गया पिछला आकलन वर्ष 2002-03 में किया गया था।

कृषि क्षेत्र की बदहाली


कृषि क्षेत्र की बदहाली का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले सत्रह वर्षों में लगभग तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अधिकतर आत्महत्याओं का कारण कर्ज है, जिसे चुकाने में किसान असमर्थ हैं। जबकि 2007 से 2012 के बीच करीब 3.2 करोड़ किसान अपनी जमीन और घर-बार बेच कर शहरों में आ गए।

कोई हुनर न होने के कारण उनमें से ज्यादातर को निर्माण क्षेत्र में मजदूरी या दिहाड़ी करनी पड़ी। 2011 की जनगणना के अनुसार हर रोज ढाई हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं। कुछ अन्य अध्ययनों से पता चलता है कि हर दिन करीब पचास हजार लोग गाँवों से शहरों की ओर कूच कर जाते हैं। इनमें मुख्यतौर पर किसान शामिल हैं।

नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो एनसीआरबी के पिछले 5 वर्षों के आँकड़ों के मुताबिक 2009 में 17 हजार, 2010 में 15 हजार, 2011 में 14 हजार, 2012 में 13 हजार और 2013 में 11 हजार से अधिक किसानों ने अपनी खेती-बाड़ी की तमाम दुश्वारियों के चलते आत्महत्या की राह चुन ली। किसानों की आत्महत्या की त्रासदी सिलसिला यों तो पूरे देश में घटित हो रहा हैं, पर कुछ राज्यों में तो यह ज्यादा ही विकराल रूप में नजर आता है।

पाँच राज्यों- महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में किसानों की आत्महत्या की दर सबसे अधिक रही है। अकेले 2009 में ही 17,368 किसानों की आत्महत्या की घटनाएँ दर्ज हुईं। इनमें से 62 फीसदी मामले इन्हीं 5 राज्यों के रहे। इसके अलावा गुजरात और पंजाब में भी किसान मौत को गले लगाते रहे हैं, मगर महाराष्ट्र की हालत सबसे ज्यादा खराब है।

आज के हालात में किसानों को परम्परागत फसलों के अलावा नकदी फसलों पर भी ध्यान देना होगा जिससे कि विदेशी आय से उसका जीवनस्तर सुधरे। भारत जैसे देश में जहाँ आधी आबादी खेती पर निर्भर है वहाँ समान्तर रोजगार के नए विकल्पों की भी जरूरत महसूस की जा रही है। आने वाले दशकों में खाद्यान्न जरूरतों में वृद्धि के चलते वैकल्पिक खाद्य वस्तुओं, मसलन डेयरी उत्पादों, मत्स्य व पोल्ट्री उत्पादों के विकल्पों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। भारत सहित पूरी दुनिया में पूँजीवाद का प्रभाव बढ़ रहा है। अपने देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है लेकिन किसान और किसानी बेहद खस्ता हालत में है। किसान या तो कर्ज और तंगहाली में जी रहा है या फिर आत्महत्या कर रहा है। आज कोई भी किसानी नहीं करना चाहता, आप अपने आसपास एक सर्वे करके देख लीजिए आपको खुद पता चल जाएगा कि कितने लोग किसानी कर रहे हैं या करना चाहते हैं।

लेकिन इन सब के बीच एक सबसे बड़ा सवाल है कि जब किसान उगाएगा नहीं तो लोग खाएँगे क्या? क्योंकि एक बड़ी आबादी के खाद्यान्न की जरूरतें कैसे पूरी होगी? कुल मिलाकर देश एक बड़े संकट की तरह बढ़ रहा है जहाँ कोई किसानी नहीं करना चाहता लेकिन खाना सबको है। इस गम्भीर विषय पर समय रहते केन्द्र और राज्य सरकारों को संजीदा होना होगा और इस पर व्यवहारिक रणनीति बनानी होगी।

फ़िलहाल सरकार ने चालू वित्त वर्ष में देश में अनाज उत्पादन में 85 लाख टन कमी की आशंका जताई गई है। यह पिछले वर्ष के मुकाबले 3 फीसदी की कमी है। इस अनुमान से देश में विकास दर में कमी आने और किसानों के लिये और संकट की स्थिति आने की आशंका है। पिछले कुछ समय से देश की विकास दर को बढ़ाने में कृषि क्षेत्र का बड़ा हाथ रहा है क्योंकि औद्योगिक उत्पादन लगातार उतार-चढ़ाव ही झेलता रहा है।

किसानों के लिये संकट की बात यह है कि पूरी दुनिया में अनाज के भाव कम हुए हैं ऐसे में उत्पादन घटने के बावजूद भारत में फसल के दाम बढ़ने की उम्मीद नहीं है। अगर उत्पादन घटेगा तो किसानों को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ेगा और य‌ह स्थिति किसान आत्महत्या की दर बढ़ा सकती है।

कृषि मन्त्रालय ने वर्ष 2014-15 के लिये दूसरा अनुमान जारी करते हुए एक बयान में कहा कि अनियत बारिश के कारण चावल, मोटे अनाज और दलहनों के उत्पादन में गिरावट के कारण देश का अनाज उत्पादन तीन प्रतिशत घटकर 25.70 करोड़ टन रहने का अनुमान है।

इस वर्ष गेहूँ उत्पादन मामूली रूप से घटकर नौ करोड़ 57.6 लाख टन रह जाने का अनुमान है जो पिछले वर्ष की समान अवधि में नौ करोड़ 58.5 लाख टन था। चालू वर्ष में प्रमुख खरीफ फसल चावल का उत्पादन 36.1 लाख टन घटकर 10 करोड़ 30.4 लाख टन रह जाने का अनुमान है जो पिछले वर्ष रिकार्ड 10 करोड़ 66.5 लाख टन के स्तर पर था।

कृषि मंत्रालय ने कहा, यह गिरावट वर्ष 2014 में मानसून सत्र के दौरान अनियत बरसात की स्थिति के कारण चावल, मोटे अनाज और दलहनों के कम उत्पादन के कारण है। गौरतलब है कि इस वर्ष मानसून की बरसात में 12 प्रतिशत की कमी रह गई थी।

अनुमान के मुताबिक चालू वर्ष में मोटे अनाज का उत्पादन 34.6 लाख टन घटकर तीन करोड़ 98.3 लाख टन रहने की सम्भावना है जबकि दलहन का उत्पादन 13.5 लाख टन घटकर एक करोड़ 84.3 लाख टन रहने का अनुमान है। तिलहन उत्पादन वर्ष 2014-15 में 29.2 लाख टन घटकर दो करोड़ 98.3 लाख टन रहने का अनुमान है। साथ में केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) ने हाल में कृषि एवं सहायक क्षेत्रों की वृद्धि दर चालू वित्तवर्ष में 1.1 प्रतिशत रहने का अनुमान व्यक्त किया था जो पूर्व वर्ष के 3.7 प्रतिशत से कम होगा।

कृषि के लिये देश में बेहतर माहौल बनाने की जरुरत देश में मौजूदा कृषि और खाद्यान संकट से निपटने के लिये सबसे पहले खेती पर आबादी के बड़े हिस्से की निर्भरता को कम करना होगा। उन्हें कृषि से जुड़े दूसरे रोजगार मुहैया कराने होंगे। ताकि खेती को मुनाफे वाला पेशा बनाया जा सके।

देश में करीब 85 फीसदी खेती करने वाले छोटे किसान हो चुके हैं। भारत में 13.78 करोड़ कृषि भूमि धारकों में से लगभग 11.71 करोड़ छोटे-मझोले स्तर के किसान हैं। भारत के आर्थिक-औद्योगिक खाद्यान्न सम्बन्धी लक्ष्यों को पूरा करने में इस विशाल समुदाय का योगदान अहम है। हमारी कृषि का भविष्य छोटे किसानों के हाथों में ही है। इस समय 52 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है।

आजादी के समय कृषि का जीडीपी में योगदान 52 फीसदी तक था। यह अब घटकर करीब 14.5 फीसदी रह गया है।

आज के हालात में किसानों को परम्परागत फसलों के अलावा नकदी फसलों पर भी ध्यान देना होगा जिससे कि विदेशी आय से उसका जीवनस्तर सुधरे। भारत जैसे देश में जहाँ आधी आबादी खेती पर निर्भर है वहाँ समान्तर रोजगार के नए विकल्पों की भी जरूरत महसूस की जा रही है। आने वाले दशकों में खाद्यान्न जरूरतों में वृद्धि के चलते वैकल्पिक खाद्य वस्तुओं, मसलन डेयरी उत्पादों, मत्स्य व पोल्ट्री उत्पादों के विकल्पों पर भी ध्यान देने की जरूरत है।

किसानों को भूमि व पानी के अन्धाधुन्ध दोहन से बचना चाहिए। सरकार को अपनी सक्षम नीतियों द्वारा छोटे किसानों को वैश्विक स्पर्धा से मुकाबले लायक बनाया जाना चाहिए। दरअसल तमाम चुनौतियों से मुकाबले को समग्र कृषि नीति बनाए जाने की आवश्यकता देश में महसूस की जा रही है। उच्च दर से अन्न उत्पादन से ही गरीबी उन्मूलन के लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं। अभी और आगे आने वाले समय में खाद्यान्न कमी की चुनौती को गम्भीरता से लेने का समय आ गया है।

देश में खेती करने का पैटर्न भी अब बदलना होगा मसलन अब कई किसानों को साथ मिलकर ऐसी खेती करनी होगी, जिससे वे आमदनी एक साथ कर सकें और मुनाफा भी बाँट सकें। इससे वे बड़े स्तर पर खेती कर अच्छा मुनाफ़ा ले सकते हैं। इस मुद्दे पर भी गहन मंथन होगा। देश में कृषि अनुसन्धान को बड़े पैमाने पर करने की जरूरत है इस क्षेत्र में युवाओं को आकर्षित करना होगा जिससे वे खेती के नए-नए तरीके ईजाद कर सके।

कुल मिलाकर खेती–किसानी को भी एक व्यवसाय के तौर पर स्थापित करना होगा तभी लोग किसानी करने की तरफ आकृष्ट होंगे और देश में खाद्यान्न उत्पादन में भी आशातीत वृद्धि होगी। किसानों का जीवन स्तर ऊँचा उठाए बिना देश के सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता। क्योंकि देश की आधी आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है।

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