बदलते परिवेश में संरक्षण खेती की जरूरत

24 Aug 2014
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खेती से तात्पर्य संसाधन संरक्षण की ऐसी तकनीक से है, जिसमें अच्छी फसल की पैदावार का स्तर बने रहने के साथ-साथ संसाधनों की गुणवत्ता भी बनी रहे ताकि वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ भावी पीढ़ियों के लिए भी अपने से अच्छा वातावरण सुनिश्चित किया जा सके। प्रस्तुत लेख में संरक्षण खेती से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण तकनीकों जैसे शून्य जुताई की खेती, मेड़ों पर खेती, लेजर विधि द्वारा भूमि का समतलीकरण एवं फसल प्रणालियों में बदलाव का उल्लेख किया गया है। वर्तमान परिवेश को देखेत हुए संरक्षण खेती अत्यंत आवश्यक है क्योंकि इसके प्रयोग से बहुत सारे फायदे पाए गए हैं जिनमें फसलों की पैदावार बढ़ने के साथ-साथ संसाधनों जैसे मिट्टी, पानी, पोषक तत्व, फसल उत्पाद और वातावरण की गुणवत्ता भी बढ़ी है जोकि कृषि के लगातार अच्छे हालात के लिए बहुत जरूरी है।
पिछले कई दशकों से फसल उत्पादन बढ़ाने के लिए खेती में संसाधनों का अत्यधिक, असंतुलित और अनुचित प्रयोग किया गया। परिणामस्वरूप आज स्थिति यह है कि हमारे संसाधनों की गुणवत्ता और मात्रा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। परंपरागत खेती के कारण भूमि के उपजाऊपन एवं फसल उत्पादों की गुणवत्ता में कमी, मृदा में पोषक तत्वों की कमी, भूजल स्तर में निरंतर गिरावट, खेतों में खरपतवारों का बढ़ता प्रकोप, बिगड़ती मृदा समतलता, मृदा लवणीयता, खाद्य पदार्थों में विषैले कृषि रसायनों की उपस्थिति, बिगड़ता मृदा स्वास्थ्य, मौसम की विषमताएं तथा उत्पादकता में स्थिरता अथवा कमी जैसी समस्याएं सामने आ रही हैं। साथ ही संसाधनों के असंतुलित प्रयोग से वायु, जल और मृदा प्रदूषण में लगातार वृद्धि हो रही है। फलस्वरूप मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इसके अलावा खेती में बढ़ती उत्पादन लागत और किसानों की घटती आय चिंता का विषय बनी हुई है। बढ़ते शहरीकरण, औद्योगकीकरण और आधुनिकीकरण की वजह से कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल दिनों-दिन घटता जा रहा है। भविष्य में इसके बढ़ने की सम्भावना नगण्य है।

देश की बढ़ती आबादी की खाद्यान्न आपूर्ति के लिए संसाधनों का आवश्यकता से अधिक दोहन किया जा रहा है। यदि समय रहते हमने प्राकृतिक संसाधनों को प्रमुख रूप से मृदा एवं जल संरक्षण पर विशेष जोर नहीं दिया तो भविष्य में गम्भीर खाद्य समस्या का सामना करना पड़ सकता है (शुक्ला एवं द्विवेदी, 2009)। इस सम्बन्ध में मृदा उपजाऊपन एवं उत्पादकता बढ़ाने में संरक्षण खेती की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। संरक्षण खेती से तात्पर्य संसाधन संरक्षण की ऐसी तकनीक से है, जिसमें अच्छी फसल की पैदावार का स्तर बने रहने के साथ-साथ संसाधनों की गुणवत्ता भी बनी रहे ताकि वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ भावी पीढ़ियों के लिए भी अपने से अच्छा वातावरण सुनिश्चित किया जा सके। भविष्य में खाद्यान्नआपूर्ति, पर्यावरण संरक्षण, कृषि उत्पादों की गुणवत्ता, पौष्टिकता, उत्पादकता और संसाधन उपयोग दक्षता बढ़ाने हेतु सीमित भूमि में मृदा उर्वरता और जल प्रबंधन जैसे महत्वपूर्ण संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करना होगा। जिससे जलवायु परिवर्तन, भुखमरी और कुपोषण जैसी गम्भीर समस्याओं से मुक्ति मिल सके।

परंपरागत फसल उत्पादन के अंतर्गत समस्याएं


1. संसाधनों की मात्रा व गुणवत्ता में गिरावट
2. पैदावार एवं गुणवत्ता में गिरावट
3. बिगड़ता मृदा स्वास्थ्य
4. मृदा में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी
5. भूजल स्तर में निरंतर गिरावट
6. खेतों में खरपतवारों का बढ़ता प्रकोप
7. किसोनों की घटती आय
8. बिगड़ती मृदा समतलता
9. मृदा लवणीयता
11. खाद्य पदार्थों में विषैले कृषि रसायनों की उपस्थिति।

उपरोक्त समस्याओं के लिए जिम्मेदार कारक


1. रासायनिक उर्वरकों का अनुचित व असंतुलित प्रयोग
2. दोषपूर्ण सिंचाई प्रणाली
3. मृदा का अनुचित व अत्यधिक दोहन
4. खेती में कृषि रसायनों का बढ़ता प्रयोग
5. बिगड़ती मृदा समतलता
6. सतह व भूमिगत जल का बेहिचक अत्यधिक दोहन
7. जैविक खादों का कम प्रयोग
8. दलहनी फसलों की खेती को नजरअंदाज करना।

संरक्षण खेती से तात्पर्य


संरक्षण खेती से तात्पर्य संसाधन संरक्षण की ऐसी तकनीक से है जिसमें अच्छी फसल की पैदावार का स्तर बने रहने के साथ-साथ संसाधनों की गुणवत्ता भी बनी रहे ताकि वर्तमान पीढी की आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ भावी पीढ़ियों के लिए भी अपने से अच्छा वातावरण सुनिश्चित किया जा सके।

प्रस्तुत लेख में संरक्षण खेती से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण तकनीकों का उल्लेख किया गया है जिनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है:

शून्य जुताई की खेती


खाद्यान्न फसलों में धान और गेहूं का महत्वपूर्ण स्थान है। धान-गेहूं फसल प्रणाली भारत में बहुत प्रचलित है। यह फसल प्रणाली देश की खाद्यान्न सुरक्षा के लिए रीढ़ की हड्डी है। हमारे देश के उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्व में लगभग 12.3 मिलियन हेक्टेयर क्षत्रे धान-गेहूं फसल चक्र के अंतर्गत आता है। यह फसल प्रणाली उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश और उत्तरांचल में बहुतायत में अपनायी जाती है। इन प्रदेशों में कुल कृषि क्षेत्रों का अधिकांश भाग इस फसल चक्र के अंतर्गत आता है। आज किसानों को ऊर्जा संकट, विशेष आर्थिक क्षेत्रों कृषि मदों की बढ़ती कीमतों और ग्लोबल वार्मिंग जैसी गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। ये समस्याएं स्वतः ही विभिन्न समस्याओं को जन्म देती हैं। पिछले चार दशकों में खेती में बहुत-सी समस्याएं आई हैं। इन समस्याओं को कम करने के लिए भारत अब दूसरी हरितक्रान्ति की आरे अग्रसर है। जीरो टिलजे तकनीक का गेहूं की खेती में लागत कम करने और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान है। आधुनिक खेती में संरक्षित टिलेज पर जोर दिया जा रहा है।

इस तकनीक द्वारा खेतों की बिना जुताई किए एक विशेष प्रकार की सीडड्रिल द्वारा फसलों की बुवाई की जाती है। जहां बीज की बुवाई करनी हो, उसी जगह से मिट्टी को न्यूनतम खोदा जाता है। इसमें दो लाइनों के बीच की जगह बिना जुती ही रहती है। बुवाई के समय ही आवश्यक उर्वरकों की मात्रा बीज के नीचे डाल दी जाती है। इस तरह की बुवाई मुख्यतः रबी फसलों जैसे गेहूं, चना, सरसो और अलसी में ज्यादा कामयाब सिद्ध हुई है।

इन फसलों की बुवाई देरी की अवस्था में 7-10 दिन पहले यानी समयानुसार की जा सकती है। अतः इस तकनीक द्वारा बुवाई करने पर देरी से बोयी गई फसलों में होने वाले नुकसान को बचाया जा सकता है। आई.ए.आर.आई के अनुसंधान फार्म पर किए गए प्रयोगों में बिना जुताई से बोयी गई फसलों की पैदावार 5-10 प्रतिशत अधिक आंकी गई है। साथ ही बिना जुताई द्वारा बुआई करने में लागत कम आती है क्योंकि आम किसान बुवाई के पर्वू खेत की 3-4 बार जुताई करते हैं जिसके कारण होने वाला खर्चा बच जाता है। साथ ही ट्रैक्टर के रखरखाव पर भी कम लागत आती है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि रबी फसलों की बुवाई में 2500-3000 रुपए प्रति हेक्टेयर का खर्चा बचाया जा सकता है।

इस तकनीक से बुवाई करने पर पानी की मात्रा भी कम लगती है क्योंकि एक तो पलेवा यानी बुवाई-पूर्व सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। इसके अलावा बाद में भी 1-2 सें.मी. प्रति सिंचाई पानी कम लगता है। यह भी अवलोकन किया गया है कि बिना जुताई वाले खेतों में खरपतवारों का कम प्रकोप होते हैं। इसका कारण यह है कि इस तकनीक में मिट्टी की ज्यादा उलट-पुलट नहीं करते हैं। अतः जिन खरपतवारों के बीज मिट्टी की गहरी सतह में होते हैं उन्हें अंकुरण के लिए उपयुक्त वातावरण नहीं मिल पाता है। इसी प्रकार मिट्टी में उपस्थित कार्बनिक पदार्थ और उसके ऊपर निर्भर लाभकारी सूक्ष्म जीव-जंतुओं की क्रियाशीलता पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है जो कि परंपरागत बुआई के तरीके में खेतों की बार-बार जुताई करने पर उपजाऊ शक्ति नष्ट हो जाते हैं। इस तरह मृदा की उपजाऊ शक्ति को बनाए रखने में भी यह तकनीक सार्थक मानी गई है। इस तकनीक में जहां एक ओर खेत तैयार करने में लगे समय, धन और इंधन की बचत होती है तो वहीं दूसरी तरफ यह पर्यावरण हितैषी भी है। चूंकि इस तकनीक से कार्बन-डाई-आॅक्साइड का 135 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से उत्सर्जन कम किया जा सकता है। यह मानते हुए कि एक लीटर डीजल के जलने से 2.6 कि.ग्रा. कार्बन-डाई-आॅक्साइड का उत्सर्जन होता है जो ग्लोबल वार्मिंग का प्रमुख कारण है।

सारणी 1. धान-गेहीं फसल-चक्र में संरक्षण खेती की तकनीकों का प्रभाव

तकनीक

धान की पैदावार(टन/हे.)

गेहूं की पैदावार (टन/हे.)

गेहूं के तुल्यांक दोनों फसलों की पैदावार (टन/हे.)

शुद्ध लाभ (रु./हे. हजार में)

पानी की उत्पादकता (कि.ग्रा.धान/हे.मि.मी.)

सीधी बुवाई-शून्य जुताई+धान फसल अवशेष

5.15

4.80

13.97

97.5

6.12

सीधी बुवाई-शून्य जुताई+धान अवशेष-मूंग

5.45

4.95

16.50

111.2

6.35

रोपाई-शून्य जुताई द्वारा बुवाई

5.55

4.88

14.76

100.1

3.75

रोपाई-सामान्य बुवाई

5.58

5.07

15.00

102.1

3.65

 



भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में सरंक्षण खेती की तकनीक पर बड़े पैमाने पर प्रयोग किए गए हैं। यह प्रयोग मुख्यतः धान-गेहूं, मक्का-गेहूं, कपास-गेहूं, अरहर-गेहूं व सोयाबीन-गेहूं फसल चक्रों में किए गए हैं। इन प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि धान की सीधी बुआई वाली फसल की कटाई-उपरांत यदि गेहूं की बुआई शून्य जुताई तकनीक द्वारा की जाती है तथा गेहूं की कटाई के तुरंत बाद गर्मियों में मूंग की फसल ली जाती है तो सभी फसलों की पैदावार और शु़द्ध लाभ परंपरागत विधि से धान-गेहूं के फसल चक्र की अपेक्षा अधिक प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सीधी बुवाई द्वारा धान उगाने से 30-40 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत की जा सकती है। इस तकनीक का फसलों की पैदावार पर भी कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है।

बिना जुताई वाली खेती में कुछ सावधानियां और मुश्किलें भी हैं। एक तो बुवाई के समय मिट्टी में पर्याप्त नमी होनी चाहिए ताकि मिट्टी और बीज का संपर्क अच्छी तरह हो जाए। दूसरे बुआई के समय ज्यादा सावधानी रखने की जरूरत होती है कि कहीं सीड ड्रिल की पाइपें बंद न हो जाएं। यद्यपि सीड ड्रिल की पाइपें पारदर्शी होती हैं उनसे बीज गिरता हुआ स्पष्ट नजर आता है। इस तकनीक द्वारा बुआई करने पर लगभग 20-25 प्रतिशतज्यादा मात्रा में बीज और उर्वरक डालना आवश्यक माना गया है क्योंकि कभी-कभी किसी कारणवश प्रति इकाई क्षेत्र पौधों की कम संख्या व बढ़वार की वजह से पैदावार कम न हो। खरपतवारों के नियंत्रण में भी ज्यादा सावधानी की जरूरत होती है। इसके लिए बुआई से पहले पेराक्वाट अथवा ग्लाईफोसेट नामक खरपतवारनाशी का प्रयोग करना चाहिए जिससे पहले से उगे हुए सारे खरपतवार नष्ट हो जाएं। कुछ भारी जमीनों में पौधों कीजड़ों की वृद्धि कम हो सकती है। इसके लिए मिट्टी पर फसल अवशेषों या अन्य वनस्पति पदार्थों की परत डालने से पौधों की जड़ों और विकास पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।

जीरो टिल ड्रिल अथवा शून्य जुताई द्वारा बुवाई की प्रमुख विशेषताएं


1. जीरो टिल ड्रिल के प्रयोग से 75 से 85 प्रतिशत इंधन, ऊर्जा एवं समय की बचत होती है।
2. फेलेरिस माइनर अर्थात गुल्ली-डंडा खरपतवार का कम जमाव होता है।
3. देरी की अवस्था में बुवाई समय पर की जा सकती है।
4. इस मशीन द्वारा 1.5 हेक्टेयर प्रति घंटा बुवाई की जा सकती है।
5. 2500 से 3000 रुपये प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत तैयार की लागत में बचत होती है।

सावधानियां व सुझाव


जीरो टिल ड्रिल से बुवाई करते समय किसान भाई पारम्परिक विधि की अपेक्षा अधिक नमी पर बुवाई करें। पूर्ववर्ती फसलों के डंठल 20-30 सें. मी. से अधिक बड़े नहीं होने चाहिए। जहां तक हो सके बुवाई धान की दो लाइनों के मध्य में ही करें जिससे जमाव अच्छा होता है।

मेड़ों पर खेती


इस तकनीक में फसलों की बुआई मेड़ों पर करने के लिए एक यंत्र तैयार किया गया है। इस तकनीक में 70-75 से.मी. की दूरी पर मेड़ों बनाई जाती है जिसमें लगभग 35 सें मी. चौड़ी मेड़ और इतनी ही दूरी व गहराई पर नाली-सी बन जाती है। बुवाई मेड़ों पर और नाली में भी फसल के अनुसार की जा सकती है। गेहूं के लिए मेड़ों पर 3 लाइनें बो सकते हैं जबकि सोयाबीन, सरसों, चना, मूंग की दो लाइन काफी होती है। यह तकनीक खेतों की भली-भांति जुताई करने के बाद या फिर पिछली फसल के लिए बनाई मेड़ों पर बिना जुताई के भी अपनाई जा सकती है।

सारणी 2. कपास-गेहूं फसल चक्र में संरक्षण खेती की तकनीकों का प्रभाव

तकनीक

कपास की उपज (टन/हे.)

गेहूं की उपज (टन/हे.)

दोनों फसलों की गेहूं तुल्य उपज (टन/हे.)

शुद्ध लाभ (रु/हे.) (हजार में)

सिंचाई जल की उत्पादकता (कि.ग्रा./हे.)

सामान्य बुआई-समतल भूमि

2.44

4.85

10.29

92.8

9.0

शुन्य जुताई-मेड़ों पर

2.71

4.55

10.60

96.3

11.6

शुन्य जुताई-मेड़ों पर +फसल अवशेष

2.96

4.61

11.23

102.2

12.9

 



इस विधि से बुवाई करने के कई लाभ हैं। जैसे वर्षा ऋतु में खेतों में ज्यादा पानी खड़ा होने से मेड़ों पर उगे पौधे ज्यादा सुरक्षित होते हैं क्योंकि अनावश्यक पानी को नालियों में से होकर बाहर निकाला जा सकता है। फसलों की सिंचाई करने पर पानी की मात्रा 20-30 प्रतिशत तक कम लगती है। साथ ही प्रति यूनिट पानी की उत्पादकता भी बढ़ती है। इस तकनीक द्वारा फसल उत्पादन में यह भी देखा गया है कि बीज और खाद की मात्रा 15-20 प्रतिशत कम लगती है क्योंकि इनका प्रयोग सिर्फ मेड़ों पर ही किया जाता है। इस विधि में मेड़ों पर खरपतवार भी कम आते हैं। इसका कारण यह है कि मेड़ों पर फसल के पौधों की संख्या ज्यादा होती है जिससे खरपतवारों को पनपने का मौका नहीं मिलता है। यद्यपि नालियों में ज्यादा खरपतवार आते हैं क्योंकि फसल की आरंभिक अवस्थाओं में उनके उगने के लिए पर्याप्त जगह होती है। खरपतवारों की रोकथाम हाथ से चलाने वाले अथवा ट्रैक्टर-चालित यंत्रों द्वारा आसानी से की जा सकती है। इस प्रकार मेड़ों पर बुआई करने से संसाधनों का कम प्रयोग होने के साथ-साथ पैदावार भी 10-15 प्रतिशत ज्यादा या फिर समतल जमीन पर बुआई करने के बराबर ही मिलती है।

मेड़ों पर बुवाई करने के बारे में अधिक जानकारी


1. यह विधि दलहनी तथा तिलहनी फसलों की बुवाई हेतु काफी उपयोगी है।
2. इससे गेहूं, मटर, चना, अरहर, मक्का, सोयाबीन, मूंग व उड़द आदि की बुवाई कर सकते हैं।
3. इससे बुवाई करने पर खरपतवार कम पैदा होते हैं।
4. इस विधि से बुवाई करने पर परंपरागत विधि की तुलना में उर्वरक, बीज व पानी की बचत होती है।
5. फेलेरिस माइनर (गुल्ली-डंडा) खरपतवार का मेड़ के ऊपर कम जमाव होता है।
6. इस मशीन द्वारा औसतन एक घंटे में 0.2 हेक्टेयर क्षेत्र की बुवाई की जा सकती है।
7. यह विधि पानी की कमी वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है।

कपास-गेहूं फसल चक्र में शुन्य जुताई और मेड़ों पर बुआई बहुत सार्थक पायी गई है। यदि फसलों के अवशेषों को भी मिट्टी की सतह पर बिछा दिया जाए तो यह तकनीक और भी ज्यादा लाभकारी सिद्ध हुई है जिसका मृदा नमी, कार्बनिक कार्बन की मात्रा व तापमान पर तो अनुकूल प्रभाव पड़ता ही है। साथ ही खरपतवारों की रोकथाम में भी सहायता मिलती है। संरक्षण खेती की तकनीकियों द्वारा फसलों की उपज और शुद्ध लाभ में भी बढ़ोतरी आंकी गई। इसके अलावा सिंचाई जल की उत्पादक-दक्षता में भी सुधार पाया गया (सारणी 2)।

मेड़ों पर बुआई करने के लिए कुछ सावधानियों का ध्यान रखना बड़ा जरूरी है। इसके लिए खेत पूरी तरह से समतल होना चाहिए। अगर अच्छी जुताई के बाद मेड़ो पर बुआई करनी हो तो मिट्टी पूरी तरह से भुरभुरी होनी चाहिए। खेत ढेले वगैरा से पूर्णतया मुक्त होना चाहिए। यदि पिछली फसल के लिए बनाई गई मेड़ों पर बिना जुताई के बुवाई करनी हो तो खेत घास-फूंस व फसल अवशेषों से रहित होना चाहिए। मेड़ों पर बुआई करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मृदा में सही नमी होनी चाहिए अन्यथा नमी की कमी में बीजों का जमाव ठीक से नहीं हो पाता है। वाष्पीकरण होने से भी मेड़ों की सतह पर नमी कम रह जाती है। ऐसी स्थिति में गेहूं जैसी फसल में तो बुआई के 4-5 दिन बाद ही सिंचाई की जरूरत पड़ सकती है।

लेजर विधि द्वारा मिट्टी का समतलीकरण


संसाधन संरक्षण संबंधी तकनीकी जैसे कि बिना जुताई की खेती या मेड़ो पर बुआई के लिए सबसे जरूरी बात यह है कि खेत पूरी तरह से समतल होना चाहिए। अन्यथा बुआई ठीक से नहीं हो पाती है। बीज मिट्टी में सही गहराई पर नहीं पहुंचने से बीजों का अंकुरण एक समान रूप से नहीं हो पाता है। खाद व पानी भी सभी पौधों को समान रूप से उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। वास्तव में किसी संसाधन संरक्षण संबंधी तकनीक की सफलता खेत के समतल होने पर निर्भर करती है। लेजर विधि एक नई वैज्ञानिक तकनीक है जिसमें एक विशेष उपकरण द्वारा खेत की मिट्टी को पूरी तरह समतल किया जाता है। समतल भूमि पर फसल उगाने का सबसे बड़ा फायदा पानी की बचत व अधिक फसल उत्पादकता का है। सिंचाई का पानी खेत के हर हिस्से में एक समान मात्रा में और सारे खेत में कम समय में फैल जाता है। धान की फसल के लिए तो यह बहुत ही उपयोगी है जिसमें सिंचाई जल की मात्रा लगभग आधी हो जाती है। आजकल किसानों द्वारा इस तकनीक में बहुत ज्यादा रुचि दिखायी जा रही है। इस मशीन की लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। किसोनों के बीच यह मशीन ’कम्प्यूटर’ के नाम से प्रचलित है। ये मशीनें काफी मंहगी हैं। परंतु छोटे व सीमांत किसानों की जरूरतों को पूरा करने के लिए ये आसानी से किराए पर उपलब्ध हो जाती हैं।

कम पानी से एरोबिक धान उगाने की विधि


जल एक सीमित संसाधन है। देश में कृषि हेतु उपलब्ध कुल जल का लगभग 50 प्रतिशत भाग धान उगाने हेतु प्रयोग में लाया जाता है। धान उत्पादन की इस विधि में धान के बीज को खेत तैयार कर सीधे ही खेत में बो दिया जाता है। इससे पानी की असीम बचत होती है। चूंकि इस विधि के अंतर्गत खेतों में पानी नहीं भरते हैं इसलिए धान के खेतों में वायुवीय वातावरण बना रहता है। परिणामस्वरूप विनाइट्रीकरण की क्रिया द्वारा नाइट्रोजन के ह्यस को रोका जा सकता है। साथ ही इस विधि में धान के खेतों से ग्रीन हाऊस गैसों का निर्माण नग्न के बराबर होता है। जलमग्न धान की फसल में दिए गए नाइट्रोजन उर्वरकों का नुकसान मुख्य रूप से अमोनिया वाष्पीकरण, विनाइट्रीकरण व लीचिंग द्वारा होता है जो अन्ततः हमारे पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं। धान उगाने की एरोबिक विधि में उपयुक्त सभी समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है। इस विधि के उपयोग से पर्यावरण प्रदूषण में भी कमी लाई जा सकती है। दूसरी तरफ धान की फसल में नाइट्रोजन उपयोग दक्षता एवं उत्पादकता में भी वृद्धि की जा सकती है। अतः भारत के कम पानी वाले क्षेत्रों में इस तकनीक को उपयोगी बनाने की नितांत आवश्यकता है जिससे हमारे प्राकृतिक संसाधनों का जरूरत से ज्यादा दोहन न हो।

एस.आर.आई. तकनीक का प्रयोग


धान की खेती में सिस्टम आॅफ राइस इंटेंसीफिकेशन (एसआर.आई.) तकनीक को अपनाने से प्रति इकाई क्षेत्र से अधिक उत्पादन के साथ मृदा, समय, श्रम और अन्य साधनों का अधिक दक्षतापूर्ण उपयोग होना पाया गया है। इस विधि में पौधों की रोपाई के बाद मिट्टी को केवल नम रखा जाता है। खेत में पानी खड़ा हुआ नहीं रखते हैं। जल निकास की उचित व्यवस्था की जाती है जिससे पौधों की वृद्धि और विकास के समय मृदा नम बनी रहे। इस प्रकार धान के खेतों में मृदा वायुवीय दशाओं में रहती है, और मृदा में डीनाइट्रीफिकेशन की क्रिया द्वारा दिए गए नाइट्रोजन उर्वरकों का कम से कम ह्यस होता है। साथ ही धान के खेतों से नाइट्रस आक्साइड का उत्सर्जन भी नगण्य होते है। एस.आर.आई. विधि से धान की खेती करने पर लगभग 30-50 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत भी होती है। इस विधि का महत्वपूर्ण पहलू पर्यावरण सुधार है। प्राकृतिक संसाधनों का बेहतर प्रयोग और अन्य आदानों जैसे उर्वरक व कीटनाशकों का कम प्रयोग होने से यह विधि पर्यावरण हितैषी भी है। क्योंकि इस विधि से खेतों में पानी खड़ा नहीं होते जिससे उनमें मीथेन व नाइट्रस आक्साइड गैसों का निर्माण नहीं होते हैं तथा भूमि जैव-विविधता भी बढ़ती है। साथ ही दिए गए नाइट्रोजन उर्वरकों का लींचिंग द्वारा नाइट्रेट के रूप में कम से कम ह्यस होता है। अतः इस विधि को किसानों में लोक प्रिय बनाने के लिए अत्यधिक प्रचार-प्रसार की जरूरत है।

सारांश


आजकल पूरे विश्व में संरक्षण खेती पर बड़ा जोर दिया जा रहा है। पिछले कई दशकों से सघन खेती करने से, एक वर्ष में 2-3 फसलें और लगातार एक ही तरह की फसलें उगाने से रासायनिक उर्वरकों का अत्यधिक व अनुचित प्रयोग, जैविक खादों के प्रयोग की अनदेखी करने के कारण कृषि में ज्यादा उत्पादन लागत और कम फायदा हो रहा है। संसाधनों की मात्रा और गुणवत्ता में कमी होने से आज विश्व के कई देशों में संरक्षण खेती बड़े व्यापक स्तर पर अपनाई जा रही है। विश्व में लगभग 100 मिलियन हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर संरक्षण खेती की जा रही है। संरक्षण खेती करने वाले देशों में अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्राजील और अर्जेनटीना प्रमुख हैं। इस विधि का मुख्य उद्देश्य यह है कि खेत की मिट्टी को न्यूनतम हिलाया जाए, उसकी जुताई न के बराबर की जाए, भारी मशीनों का कम से कम प्रयोग किया जाए व मृदा सतह को हर समय फसल अवशेषों या दूसरे किसी वनस्पति आवरणों से ढककर रखा जाए। हरी खाद या जमीन को ढकने वाली अन्य फसलों को फसल चक्र में अपनाया जाए। ऐसा करने से बहुत सारे फायदे पाए गए हैं जिनमें फसलों की पैदावार बढ़ने के साथ-साथ संसाधनों जैसे मिट्टी, पानी, पोषक तत्व, फसल उत्पाद और वातावरण की गुणवत्ता भी बढ़ी है जोकि कृषि की लगातार अच्छी हालत के लिए बहुत जरूरी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भविष्य में इसी तरह की खेती को ही अपनाना होगा ताकि हमारी भावी पीढ़ियां अच्छे से अपना जीवन निर्वाह कर सकें।

(लेखिका स्वतंत्र प्रकार हैं। ई-मेल: madhu.sds@yahoo.com)

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