बढ़ता तापमान और भारत (Rising Temperature and India)


जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान के लिये टिकाऊ और किफायती ऊर्जा संसाधनों की जरूरत होगी, जिनमें नवीकरणीय संसाधन भी शामिल हैं। इसी प्रकार खेती बाड़ी के लिये ऐसे तरीकों की जरूरत होगी जिनके प्रयोग से खेती के संसाधनों का क्षय न हो।

ग्रीन हाउस प्रभाव, अर्थात वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन पृथ्वी की हरियाली के लिये- वनों, कृषि तथा सामान्यतः पूरे जीवन के लिये - एक भारी खतरा है। यह एक भारी विसंगति है। लेकिन वैज्ञानिकों को स्पष्ट ही इन दोनों के बीच अन्योन्याश्रय सम्बंध दिखाई देता है। अगर ठीक परिमाण में हों तो कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, सल्फर ऑक्साइड आदि ग्रीन हाउस गैसों की मौजूदगी जीवन और जलवायु की स्थिरता के लिये आवश्यक है, लेकिन उनके बहुत अधिक मात्रा में जमा हो जाने से पृथ्वी अधिक गरम हो जाती है और जलवायु में बदलाव आ जाता है। इन गैसों का वायुमंडल में अनुचित मात्रा में एकत्र हो जाना ही समस्या की जड़ है। इसलिए इस स्थिति की जिम्मेदारी उन देशों पर है जिनकी प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की दर बहुत ऊँची है। इस सम्बंध में भारत का जो दृष्टिकोण है उसका आधार यही बुनियादी मान्यता है।

वैज्ञानिक साक्ष्य


पर्यावरण तथा वन मंत्रालय ने इन उत्सर्जन की मात्रा और प्रभाव की जाँच-पड़ताल करने के लिये कदम उठाए हैं। यह बहुत जरूरी है, क्योंकि जो देश पृथ्वी के गरम होने के लिये जितना अधिक जिम्मेदार होगा, उसके निराकरण का बोझ उस पर उतना ही पड़ेगा और उसी के आधार पर कोषों और प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण का स्वरूप और सीमा तय होगी।

विकसित और विकासशील देशों की परिस्थितियों की भिन्नता को देखते हुए, इस क्षेत्र में विभिन्न शोध कार्यों के बीच समन्वयन स्थापित करने के लिये प्रसिद्ध वैज्ञानिकों की एक विशेषज्ञ सलाहकार समिति नियुक्त की गई है।

भारत में वन अनुसंधान तथा शिक्षण परिषद लकड़ी वगैरह जलाने के प्रभावों से सम्बंधित अनुसंधान का संचालन कर रही है, जबकि भारतीय मौसम विज्ञान विभाग और राष्ट्रीय सागर विज्ञान संस्थान क्रमशः वायुमंडलीय परिवर्तन तथा समुद्र जल स्तर की संभावित वृद्धि का अध्ययन कर रही है।

वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने धान के खेतों से मिथेन उत्सर्जन का अध्ययन किया है। इसके निष्कर्षों से विकासशील देशों में होने वाले मिथेन उत्सर्जन के स्तर के संबंध में विकसित देशों की मान्यता की पुष्टि नहीं हो पायी।

इसके अतिरिक्त यद्यपि पृथ्वी के गरम होने की गति में वृद्धि होने के संकेत मिले हैं, लेकिन जलवायुगत परिवर्तन से सम्बंधित तथ्यों की कमी की पूरी तरह पुष्टि नहीं हो पायी है। उदाहरण के लिये कुछ वर्षों के तापमानों के रिकॉर्ड में बराबर जिस प्रकार की प्रवृत्ति देखने को मिलती है उससे उस आधार सामग्री की पुष्टि नहीं होती जिसके बल पर कहा गया है कि 1960 के बाद से तापमान में 5 डिग्री का इजाफा हुआ है।

तापमानों के रिकार्ड के अनुसार, 1988, 1987, 1983, 1981, 1980 और 1986 क्रमानुसार सबसे गर्म वर्ष थे। लेकिन तापमान की वृद्धि सभी क्षेत्रों में नहीं देखी गई है। सामान्य संरक्षण नमूनों पर आधारित पूर्वानुमानों से संकेत मिलता है कि सर्दी के मौसम में गर्मी में सबसे ज्यादा इजाफा ऊपरी अक्षांशों वाले क्षेत्रों में होगा। यह इजाफा पृथ्वी की गरमी की औसत वृद्धि कम से कम दुगुना होगा। इसके अलावा आशा है कि निचले वायुमंडल के गर्म होने के साथ ही ऊपर का वायुमंडल ज्यादा ठंडा पड़ेगा। इसका नतीजा यह होगा कि निम्नतर ऊँचाईयों पर कम वर्षा होगी और मिट्टी में कम नमी रहेगी।

पूरी दुनिया के लिये चिन्ता का विषय


पूरी पृथ्वी को ध्यान में रखकर देखें तो हर देश की ठीक-ठीक जिम्मेदारी उतनी ही होनी चाहिए जितनी क्षति वह पहुँचाता है। उपलब्ध वैज्ञानिक साक्ष्यों से पता चलता है कि मानव क्रियाकलाप के फलस्वरूप ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में काफी वृद्धि हुई है। कोयला आदि जलाने से होने वाले क्लोरो-फ्लोरो कार्बन और कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन परिमाण का अनुमान तो काफी हद तक सही लगाया गया है, लेकिन अन्य ग्रीन हाउस गैसों के बारे में ऐसी कोई बात नहीं है।

अनुमान है कि औद्योगिक क्रांति के बाद से वायुमंडलीय कार्बनडाईऑक्साइड में लगभग 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। दूसरी ओर लगभग 18000 वर्ष पूर्व हिमनद काल से अंतर्हिमनद काल तक के संक्रमण के दौर में कार्बनडाईऑक्साइड के एकत्रीकरण में लगभग 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी। इस काल में पृथ्वी के तापमान में 4 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हुई थी।

1987 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने जलवायुगत परिवर्तनों के वैज्ञानिक अध्ययन के लिये जलवायु परिवर्तन पर विभिन्न सरकारों के प्रतिनिधियों की एक मंडली का गठन किया। इस मंडली के निष्कर्षों में से एक तो यह है कि एक खास प्राकृतिक ग्रीन हाउस प्रभाव के अस्तित्व के कारण पृथ्वी उससे 33 सी.ई. अधिक गरम रहती है जितनी कि वह इस प्रभाव के अभाव में रहती। दूसरा निष्कर्ष यह है कि मानव कार्यकलापों से वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों का एकत्रीकरण बहुत अधिक बढ़ जाता है, जिससे ग्रीन हाउस प्रभाव की भी वृद्धि होगी।

चालू नमूना परिणामों के आधार पर इस अध्ययन दल नें अनुमान लगाया है कि सन 2025 तक तापमान आज की अपेक्षा एक डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ जाएगा और लगती सदी के अंत तक 3 डिग्री। भूमि की सतह महासागर की अपेक्षा अधिक तेजी से गर्म होगी और सर्दी के मौसम में ऊपर उत्तरी अक्षांशों वाले क्षेत्र उससे अधिक गर्म होंगे जितनी कि औसतन पूरी पृथ्वी गरम होगी। लेकिन क्षेत्रीय जलवायु परिवर्तन की अवस्था पृथ्वी के औसत जलवायु परिवर्तन से भिन्न होगी।

अनुमान है कि सन 2030 तक समुद्र जल के स्तर में औसतन 20 सेंटीमीटर की वृद्धि होगी और अगली सदी के अंत तक 65 सेंटीमीटर की। फिर भी इन अनुमानों में बहुत सी अनिश्चितताएं हैं क्योंकि बहुत से कारकों को पूरी तौर पर समझा नहीं जा सकता है।

विध्वंसक प्रभाव


आबादी के जिन हिस्सों पर इन सब का सबसे अधिक असर पड़ेगा वे हैं-किसी तरह गुजर-बसर के लायक खेती-बाड़ी में लगे किसान, तटवर्ती क्षेत्रों के निवासी और टापुओं के बाशिंदे, शुष्क और अर्द्धशुष्क भूभागों में रहने वाले लोग और शहरों के साधनहीन जन। पृथ्वी के गरम होने से जल संसाधनों और ईंधन की लकड़ी की उपलब्धता में कमी आ सकती है, जबकि बहुत से विकासशील देशों में ऊर्जा के ये ही प्रमुख स्रोत हैं। इसी प्रकार वर्षा की स्थिति और तापमान में परिवर्तन आने से जलजात और कीटाणुजात रोगों, जैसे मलेरिया आदि की अवस्था में परिवर्तन आ सकता है और ये रोग ऊपरी अक्षांशों में फैल सकते हैं, जिससे आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा खतरे में पड़ सकता है। ऐसी कठिन परिस्थितियाँ उत्पन्न होने पर वैकल्पिक उपाय करने के संसाधन विकासशील देशों के पास कम हैं, इसीलिए इसका प्रभाव उनके लिये खास तौर से विध्वंसक हो सकता है।

15 महीनों की लम्बी वार्ताओं के बाद मई 1992 में जलवायु परिवर्तन सम्बंधी समझौते की एक रूपरेखा तैयार की गई है, और 4 जून 1992 की रियो डी जेनरो (ब्राजील) में आयोजित संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण तथा विकास सम्मेलन में उसे विभिन्न देशों के हस्ताक्षरों के लिये प्रस्तुत किया गया। मध्य अक्टूबर 1992 तक 158 देश इस समझौते पर हस्ताक्षर कर चुके थे।

समझौते का उद्देश्य वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों में एकत्रीकरण को स्थिर करके पृथ्वी की जलवायु प्रणाली में हस्तक्षेप के क्रम को रोकना है। समझौते में प्रस्ताव यह है कि इस दशक के अंत तक 1993 के स्तर तक ले आने के लक्ष्य को सभी देशों द्वारा स्वेच्छा से पूरा किया जाने वाला लक्ष्य बताया गया है। देशों से अपेक्षा है कि वे समय-समय पर उत्सर्जन के स्तर तथा जलवायु परिवर्तन की गति धीमी करने के बारे में सूचना देते रहें।

स्थायी उपाय


ऐसी परिस्थिति में और जलवायु परिवर्तन के बारे में बढ़ती हुई चिन्ता को देखते हुए आज बहुशंखीय वैज्ञानिक अध्ययनों को बढ़ावा देने की सख्त जरूरत है। समर्पित अनुसंधान केन्द्रों का पूरा ताना-बाना तैयार करना आवश्यक होगा। एक आधार सामग्री केन्द्र तथा सूचना प्रणाली की स्थापना इसकी एक महत्त्वपूर्ण शर्त है। इससे इस समस्या के वैज्ञानिक पहलुओं और मानवीय आयामों की विशालता और जटिलता के बारे में आम जागरूकता पैदा होगी।

जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान के लिये टिकाऊ और किफायती ऊर्जा संसाधनों की जरूरत होगी, जिनमें नवीकरणीय संसाधन भी शामिल हैं। इसी प्रकार खेती बाड़ी के लिये ऐसे तरीकों की जरूरत होगी जिनके प्रयोग से खेती के संसाधनों का क्षय न हो। विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव का मुकाबला करने के लिये वैज्ञानिक, तकनीकी तथा वित्तीय संसाधनों की भी आवश्यकता होगी। भारत का विचार है कि विकासशील देशों को पृथ्वी के गरम होने की प्रवृत्ति को रोकने के लिये तत्काल प्रभावकारी उपाय करने चाहिए। उन्हें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि विकासशील देशों को पर्यावरण की दृष्टि से निर्दोष प्रौद्योगिकियाँ निश्चित तौर पर हासिल होती रहें और साथ ही उन्हें स्वयं इन देशों द्वारा अपने अंदर इस क्षेत्र में आवश्यक क्षमता विकसित करने के प्रयत्नों को समर्थन देना चाहिए।

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