बिहार में बाढ़ : क्या है समाधान (Flood Scourge in Bihar: Is there any Solution)
Summary
सार-संक्षेप
अध्याय-1. बिहार और बाढ़
बाढ़, सुखाड़ और भुखमरी
अध्याय-2. कोशी नदी में बाढ़ की पृष्ठभूमि
कुसहा पर पूर्वी कोशी तटबंध की टूट
क्यों बरपा कहर?
अध्याय-3. क्या बाँध और तटबंध हैं उपाय?
कोशी बाढ़ नियंत्रण पर कुछ आधारभूत विवाद
बात आगे बढ़ाने से पहले सप्त कोशी बहुउद्देशीय परियोजना पर एक सरसरी नजर डाल लेना उचित होगा। इस परियोजना का मकसद बाढ़ नियंत्रण, सिंचाई, पनबिजली पैदा करना और नौवहन (navigation) बताए गए हैं। प्रस्तावित बांध त्रिवेणी और चतरा के बीच के पहाड़ी इलाके में मौजूद बराहक्षेत्र में बनना था। बांध की संभाव्यता (feasibility) रिपोर्ट 1953 में तैयार की गई थी। लेकिन तब ज्यादा लागत के अनुमान की वजह से बांध का निर्माण छोड़ दिया गया। तब इसकी जगह नेपाल के इलाके में बैराज बनाया गया और साथ ही नदी के दोनों किनारों पर तटबंध बनाए गए।
1953 में भयंकर बाढ़ आई थी। उसी से बने माहौल के बीच 1954 में कोशी परियोजना की रूपरेखा बनी। इस परियोजना के तहत ये निर्माण होने थेः 1- भीमनगर में एक बैराज, 2- बैराज के नीचे नदी के दोनों किनारों पर तटबंध, 3- पूर्वी और पश्चिमी दिशाओं में नहर, 4- पूर्वी नहर पर पनबिजली संयंत्र, और 5- बराहक्षेत्र में एक बड़ा बांध। शुरुआत में इस परियोजना का मकसद बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई की सुविधाएं देना बताया गया। परियोजना पर काम 1959 में शुरु हुआ और 1963 में बैराज के जरिए नदी की दिशा बदल दी गई। बराहक्षेत्र में प्रस्तावित बांध को छोड़कर परियोजना के तहत होने वाले बाकी सभी निर्माण या तो पूरे हो चुके हैं या उन पर काम चल रहा है। (राजीव सिन्हा, ईपीडब्लू, 15 नवम्बर 2008)
भारत सरकार ने 1981 में बराहक्षेत्र में बांध की सम्भावना पर फिर से हुए अध्ययन की रिपोर्ट जारी की, जिसमें सुझाव दिया गया कि बांध की ऊंचाई 269 मीटर रखी जाए। 1984 में एक जापानी कम्पनी की मदद से फिर से इस परियोजना की पड़ताल की गई, जबकि उसी साल नेपाल सरकार ने कोशी बेसिन मास्टर प्लान बनाया। 1997 नेपाल और भारत सरकार के विशेषज्ञों की एक बैठक के बाद सहमति बनी कि कोशी बांध के बारे में साझा अध्ययन किया जाए। इस सारी चर्चा का सार तत्व यह था कि कोशी पर बांध बनाना भी कोशी नदी की बाढ़ को नियंत्रित करने का कारगर तरीका है, तटबंध सिर्फ इसके फौरी उपाय हैं।
सरकारी चर्चाओं में जब कभी बिहार में बाढ़ रोकने पर चर्चा हुई तब अक्सर बड़े बांध ही उपाय बताए गए हैं। कहा गया कि मुख्य और उनकी सहायक नदियों के बहाव के पहाड़ी और ऊपरी हिस्सों में बांध बनाए जाने चाहिए। चूंकि बिहार में बहने वाली ज्यादातर नदियां नेपाल से आती हैं, इसलिये बांध नेपाल की जमीन पर ही बन सकते हैं और इसलिये अक्सर भारत सरकार की चर्चाओं में इस सम्बन्ध में नेपाल का सहयोग जरूरी बताया जाता है। यह अनुमान जताया गया है कि कोशी नदी पर बराहक्षेत्र में प्रस्तावित बांध से 42,475 क्यूबिक मीटर प्रति सेकंड तक बहाव वाली बाढ़ के असर को कम किया जा सकेगा। साथ ही बांध गाद को रोक लेगा, जिससे नीचे नदी का बहाव ज्यादा स्थिर हो सकेगा।
लेकिन यह परियोजना तभी हकीकत में बदल जाती है, जब नेपाल सरकार का सहयोग मिले। यानी नेपाल सरकार अपनी धरती पर बांध और उससे जुड़े सभी निर्माण पर राजी हो। जब तक नेपाल में राजतंत्र था, नेपाल की तरफ से भारतीय परियोजनाओं में ज्यादा रुकावट नहीं आती थी। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। अगस्त 2008 की बाढ़ के समय जिस तरह कोशी परियोजना का विरोध नेपाल मीडिया में हुआ, उसे देखते हुए यह नहीं लगता कि आगे नदी परियोजनाओं को कार्यरूप देना आसान है। नेपाल की जो भी सरकार इस दिशा में कदम उठाएगी, उसे भारत का पिट्ठू या भारत के आगे घुटने टेकने वाली सरकार बता दिया जाएगा।
वैसे सवाल सिर्फ नेपाल के पहलू का ही नहीं है। उससे बड़ा सवाल यह है कि जिस माध्यम से बाढ़ को नियंत्रित करने का सपना देखा गया है, क्या अब भी उसकी वकालत की जा सकती है। तटबंध के जरिए बिहार को कोशी के कोप से नहीं बचाया जा सका। सरकारें भले अब भी इसी माध्यम पर भरोसा करती हों, लेकिन यह साफ है कि ऐसा वो, बांध और तटबंधों से जुड़े जोखिम की अनदेखी करते हुए ही कर रही हैं। उन्होंने बड़े बांध से बनने वाले जलाशय में गाद जमा होने से जुड़े खतरों पर ध्यान नहीं दिया है।
भूकम्प की स्थिति में हो सकने वाले विनाश पर भी उन्होंने गौर नहीं किया है। बांधों से जुड़े पर्यावरणीय सवालों पर उन्होंने नहीं सोचा है। भारत में टिहरी और सरदार सरोवर बांध के सिलसिले में इन सभी मुद्दों और खतरों पर खूब चर्चा हुई है। इस बारे में आज पर्याप्त अध्ययन और जानकारी उपलब्ध है। सवाल यह है कि क्या कोशी या नेपाल से आने वाली किसी दूसरी नदी पर बांध या तटबंध बनाने की योजना बनाते वक्त इन अध्ययनों और जानकारियों की उपेक्षा वाजिब और भावी पीढ़ियों के हित में है?
कोशी परियोजना के तहत बैराज के नीचे नदी के दोनों किनारों पर बनाए गए तटबंधों का मकसद उत्तर बिहार और नेपाल में 2800 वर्ग किलोमीटर के इलाके को बाढ़ से बचाना बताया गया था। परियोजना को अपने बाकी उद्देश्यों में कितनी सफलता मिली, इस पर बहस हो सकती है, लेकिन यह तो साफ है कि बाढ़ से बचाव के मकसद में कामयाबी नहीं मिली। तटबंध बनने के बाद भी भयंकर बाढ़ें आती रहीं।
तटबंधों में दरार का पड़ना जारी रहा। इसके अलावा पानी निकलने के रास्तों में जाम हो जाने और खेतों में पानी जमा होने जैसे इसके दूसरे दुष्प्रभाव भी सामने आए। नदी का तल पहले से ऊंचा हो गया और नदी के पानी के साथ उपजाऊ मिट्टी के कम आने की वजह से खेतों में पैदावार भी घटी। कहने का तात्पर्य यह है कि तटबंधों से बाढ़ की समस्या का हल नहीं निकला, बल्कि इनकी वजह से कई दूसरी समस्याएं सामने आ गईं।
अगर कोशी परियोजना के पूरे इतिहास को ध्यान में रखें, खासकर तटबंधों में बार-बार हुई टूट को तो यह नहीं लगता कि 18 अगस्त 2008 को कुसहा तटबंध में पड़ी दरार कोई अनोखी घटना थी। तटबंध टूटने के बाद 80 से 85 फीसदी पानी नदी के सामान्य रास्ते से अलग पूर्वी दिशा में बह निकला। ज्यादा पानी आने से नदी की चौड़ाई बढ़ती गई।
एक हफ्ते बाद यह चौड़ाई 22 किलोमीटर थी और बाद के हफ्तों में यह 35 किलोमीटर तक हो गई। जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि कुसहा में तटबंध का टूटना उसके पहले नदी के दोनों तरफ तटबंधों में पड़ी दरारों से दो मायने में अलग था। पहला यह कि 200 साल के रूझान से उलट इस बार नदी पूरब की तरफ चल पड़ी और दूसरा यह कि इसने 120 किलोमीटर दिशा बदली, जो एक रिकॉर्ड है।
क्या इसकी वजह यह थी कि नदी के कुदरती प्रवाह में इंसान के दखल की इंतहा हो गई है? नदी का पूरब की तरफ जाना, और वह भी 120 किलोमीटर बदलाव के साथ - यह इस बात का संकेत हो सकता है कि नदी के पश्चिम की तरफ जाने की गुंजाइश खत्म हो चुकी होगी। ज्यादातर जानकार इस बात से सहमत है कि तटबंधों में कोशी को बांधने से स्थिति और बदतर हुई। इससे नदी के बहाव में बदलाव आया। बैराज के नीचे के कई इलाकों से पहले नदी के तल के ऊंचा होते जाने की खबरें मिलती रही थीं।
इससे निकली नहरों और पानी बहने के दूसरे रास्तों में गाद के जमा होने के निशान पहले ही दिख रहे थे। बैराज के ऊपर के इलाकों में भी ऐसा होने के निशान दिखते रहे हैं।
कोशी में बाढ़ पहले भी आती थी, लेकिन उपरोक्त तथ्यों की रोशनी में यह जरूर कहा जा सकता है कि 2008 में आई बाढ़ निंयत्रण के जो तरीके हम सोच और अपना रहे हैं, वो पुराने पड़ चुके हैं। अब वह समय आ गया है, जब इन तरीकों पर पुनर्विचार किया जाए और नए तरीके सोचे जाएं।
अगर उत्तर बिहार पर गौर करें तो वहां बाढ़ नियंत्रण के लिये तटबंधों पर सबसे ज्यादा भरोसा किया गया है। उत्तर बिहार में तटबंधों की लम्बाई 3,400 किलोमीटर से ज्यादा है। इनमें ज्यादातर तटबंध 1954 की भयंकर बाढ़ के बाद बनाए गए। इन तटबंधों की मौजूदगी के बावजूद उत्तर बिहार में बाढ़ आती रही है- कभी नदी में तटबंधों की ऊंचाई से ज्यादा पानी भर जाने की वजह से, तो कभी तटबंधों में दरार पड़ जाने की वजह से।
बागमती नदी बेसिन में बाढ़ नियंत्रण के उपाय 1942 में शुरू हुए। तब से 466 किलोमीटर से ज्यादा तटबंध बनाए गए हैं। शुरूआत में नदी के निचले इलाके (डाउनस्ट्रीम) में तटबंध कारगर रहे। लेकिन जब ऊपरी इलाके (अपरस्ट्रीम) में तटबंध बनाए गए, तो निचले इलाकों में बाढ़ आने की घटनाएं बढ़ गईं और तटबंधों में भी बार-बार दरार पड़ने लगी। इस रूप में कहा जा सकता है कि तटबंधों ने सिर्फ इस समस्या से प्रभावित होने की जगह बदल दी है। तटबंध नदी के कुदरती प्रवाह में हस्तक्षेप करते हैं। इनकी वजह से जो इलाके बाढ़ से बच भी जाते हैं, वहाँ पानी और गाद जमा होने जैसी दूसरी मुश्किलें पेश आने लगती हैं। असल में तटबंधों से बाढ़ रोकने की रणनीति पर अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सवाल उठाए जा रहे हैं। अमेरिका और चीन में भी तटबंध बाढ़ से राहत दिलाने में नाकाम रहे हैं। (जियोग्राफी एंड यू, जुलाई-अगस्त 2008)
पूर्वी-पश्चिमी कोशी तटबंधों के बीच रह रहे लोगों की त्रासदी
अध्याय-4. बाढ़ की समस्या और राजकाज की चुनौतियां
नेपाल का पहलू
अध्याय-5. समस्या का हल
तात्कालिक हल
दीर्घकालिक हल
बाढ़ पर बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजन और विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र की यह राय-बिहार में बाढ़ की समस्या के संदर्भ में बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक दिनेश कुमार मिश्र की यह टिप्पणी गौरतलब है- “बिहार की बाढ़ की समस्या के मूल में पानी की निकासी और बाढ़ के पानी के साथ आने वाली गाद है। तटबंध समस्या को बढ़ाते हैं, उसका समाधान नहीं करते। चर्चाओं के माध्यम से अगर यह बात लोक मान्य हो जाती है तो इसे एक न एक दिन राज्य मान्य होना ही पड़ेगा।” जाहिर है, इस राय से सहमत लोग चाहते हैं कि तटबंधों की अनुपयोगिता को राजनीति का मुद्दा बनाया जाए। दिनेश कुमार मिश्र के मुताबिक तकनीकी उपायों की अपनी सीमाएं हैं, इसलिये जरूरत स्थानीय लोगों से पारम्परिक ज्ञान अर्जित कर उसे आधुनिक विज्ञान से संवारने की है। शायद इसी से कोई टिकाऊ समाधान निकल सकता है। उत्तर बिहार के संदर्भ में हमारी राजनीतिक और भौगोलिक परिस्थिति ऐसी है कि हम न तो पानी और गाद को आने से रोक सकते हैं और ना ही नदी के बारे में कोई स्वतंत्र निर्णय ले सकते हैं। अगर आपको सिर्फ नदी का एक टुकड़ा ही उपलब्ध हो तो आधी इंजीनियरिंग वहीं खत्म हो जाती है। बची आधी इंजीनियरिंग की भी अपनी सीमाएं हैं। बाढ़ से निपटने के लिये हम क्या-क्या कर सकते हैं, यह दिवा स्वप्न देखने और दिखाने से पहले हमें यह तय करना होगा कि कौन-कौन सी चीजें ऐसी हैं जो हम नहीं कर सकते। इन चीजों पर एक नजर डालेंः 1- यह सारी बहस इसलिये चल रही है कि तटबंधों पर जो हमने विश्वास किया, वह गलत था। 2- बराहक्षेत्र बांध का निर्माण हमारे हाथ में नहीं है 3- कोशी नदी की उगाढ़ी संभव नहीं है, क्योंकि एक तो गाद/रेत की मात्रा वहां बहुत अधिक है और उसे कहाँ फेंका जाएगा, यह किसी को मालूम नहीं है। इस प्रस्ताव को इंजीनियर लोग भी सिरे से खारिज करते हैं। 4- गांवों को ऊंचा करने का काम 1950 और 1960 के दशक में मुख्यतः उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों में किया गया और भारी जन प्रतिरोध के बीच उसे अव्यावहारिक मान कर छोड़ दिया गया। 5- नदी को मुक्त छोड़ कर गांवों को घेरने की योजना भी भीषण समस्याओं से ग्रस्त हैः बिहार में ही निर्मली, महादेव मठ और बैरगनियां की समस्याएं किसी से छिपी नहीं है। 6- नदियों को आपस में जोड़ने की योजना कम से कम बिहार में पूरी तरह नेपाल पर आश्रित है और वहाँ भी लम्बा इंतजार करना होगा। जब तक नेपाल और इस योजना के लिये कर्ज या अनुदान देने वाली संस्थाएं इसके परिणामों को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं होगी, तब तक यह काम नहीं होगा। 7- इन सारे तकनीकी उपायों के बाद एक कानूनी रास्ता बचता है, जिसके मुताबिक बाढ़ वाले इलाकों में रिहाइश के नियम और निषेधों को कड़ाई से लागू किया जाए। इसे तकनीकी भाषा में फ्लड प्लेन जोनिंग कहते हैं। बिहार में दो तिहाई जमीन पर बाढ़ की आशंका बनी रहती है और वहाँ इस तरह के कानून का पालन संभव नहीं है, क्योंकि तब वहाँ ऐसा बहुत कम क्षेत्र बचेगा, जहाँ कोई बड़ा निर्माण कार्य किया जा सके। यह मान कर कि फ्लड प्लेन जोनिंग कानून मान लेने से बिहार में विकास के सारे काम बाधित हो जाएंगे, खुद बिहार सरकार ने इसे खारिज किया हुआ है। क्योंकि नदी की पूरी लम्बाई हमारे पास उपलब्ध नहीं है। उसका अच्छा-खासा हिस्सा नेपाल में पड़ता है और वहाँ कुछ करने के लिये नेपाल की रजामंदी चाहिए। वह मिल भी सकती है और नहीं भी मिल सकती है या बहुत देर से मिल सकती है। भलाई इसी में है कि हम वार्ताएं जरूर चलाएं, लेकिन उन्हीं के भरोसे बैठे ना रहें। इस तरह हम देखते हैं कि बाढ़ से निपटने वाली सारी योजनाओं के रास्ते या तो बंद हैं या वे किसी अंधी गली में जाकर खत्म हो जाते हैं। तब बचता है एकमात्र रास्ता कि स्थानीय स्तर पर ही बाढ़ से निपटा जाए। |
अध्याय-6. कैसे होगी जनता की राजनीति
संदर्भ सूची
1. KBCAT की रिपोर्ट (कुसहा में कटान मरम्मत पर सुझाव के लिये बिहार सरकार द्वारा बनाए गए KBCAT की रिपोर्ट)
2. Koshi Flood Report (बिहार सरकार द्वारा जारी रिपोर्ट, जिसमें नुकसान और राहत एवं बचाव कार्यों का ब्यौरा है)
3. प्रोफेसर जयंत बंदोपाध्याय का लेख, The Telegraph
4. फिक्की द्वारा बनाए गए टास्क फोर्स का Terms of Reference
5. कैम्प सर्वे डाटा - कोशी नव निर्माण मंच द्वारा सरकारी राहत शिविरों की सर्वेक्षण रिपोर्ट।
6. राजीव सिन्हा का लेख, Geography and You पत्रिका, सितम्बर-अक्टूबर 2008.
7. कोशी परियोजना के लिये भारत और नेपाल सरकार के बीच हुए समझौते का दस्तावेज।
8. नेपाली अखबारों में नेपाल के टीकाकारों की छपी टिप्पणियां
9. Two Months After-बाढ़ आने के दो महीने बाद लिखा गया दिनेश कुमार मिश्र का लेख।
10. Kosi Embankment Breach in Nepal - जल विशेषज्ञ अजय दीक्षित का लेख, EPW, 7 फरवरी 2009
11. Kosi: Rising Waters, Dynamic Channels and Human Disasters, राजीव सिन्हा का लेख, EPW, 15 नवम्बर 2008
12. कुसहा बांध फिर बेताल डाल पर, दिनेश कुमार मिश्र का लेख
13. Water Management in Ganges-Brahmputra: Emerging Challenges for 21st Century, वॉटर रिसोर्सेस डेवलपमेंट में जयंत बंदोपाध्याय का लेख।
14. Integrated Water System Management of North Bihar, डॉ. ए.बी. वर्मा का लेख
15. Flood Hazard, राजीव सिन्हा का लेख, Geography and You, जुलाई-अगस्त 2008
16. कोशी और बिहार में भुखमरी पर सैडेड के संवाद।
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