बिलाते वनवासी

2 Jul 2015
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अंडमान के आदिम कबीलों में से कई नष्ट हो गए, जो बचे हैं वे भी खत्म होने की कगार पर हैं। इसमें सरकारी नीतियों की भी बड़ी भूमिका रही है। उनकी जीन-शैली का अध्ययन किए बिना उन्हें मुख्यधारा में लाने के जो भी प्रयास हुए उनका प्रतिकूल असर ही दिखाई दिया। उनके खान-पान में बदलाव से अनेक बीमारियों ने उन्हें घेरना शुरू कर दिया, उनकी आबादी निरन्तर घटने लगी। अंडमान की अपनी विभिन्न यात्राओं के हवाले से वहाँ के आदिवासियों की दुर्दशा के बारे में बता रहे हैं हरिराम मीणा।

अब वहाँ के आदिवासियों की सुनें, जो कहते हैं कि ‘बाहरी लोग बुरे होते हैं। वे हमारी बेइज्जती करते हैं। हमारी दिली ख्वाइश है कि हम जंगल में ही रहें।’ न तो यह उचित है कि उन आदिवासियों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए और न यह ठीक है कि उनके इलाकों में बे-रोकटोक दखलअंदाजी की छूट दे दी जाए। उनके साथ छेड़खानी न करते हुए उनके मनोविज्ञान को समझ कर उनकी सहमति से धीरे-धीरे उन्हें आदिमता से बाहर भौतिक सुख-सुविधाओं की ओर उन्मुख किया जाए, तो उम्मीद की जा सकती है कि हालात बदलें। अगर ठेठ आदिम अवस्था में रहने वाले मनुष्य देखने हैं, तो अंडमान के द्वीपों की सैर कीजिए, जहाँ मुख्य रूप से ग्रेट अंडमानी, जारवा, ओंग या ओंगी और सेंटेनेली नामक आदिम कबीले रहते हैं। उनमें मेरी रुचि थी, इसलिए जितनी सूचना जुटा सका, उतनी जुटाई। यह सफर शुरू हुआ था हैदराबाद से।

पिछली बार जब मैं अंडमान गया तो उन आदिम कबीलों की दशा कमोबेश पहले जैसी थी, सुधरने के बजाय बिगड़ी ही। ‘जारवा’ शब्द का अर्थ ‘धरतीपुत्र’ या ‘शत्रुवत भावना रखने वाले लोग’ माना गया है। यों धरतीपुत्र सभी पृथ्वीवासी हैं, पर आधुनिक सभ्यता के इस युग में जो लोग अब भी धरती को बेहद प्यार करते हैं यानी कि उसकी छाती पर बुलडोजर नहीं चलाते, उसके पेट को फाड़ कर उसके रत्न और रस को नहीं निकालते, उसके जंगलों को नहीं उजाड़ते, उसकी नदियों का रास्ता नहीं रोकते, वन्य जीवों के अलग अभ्यारण्य नहीं बनाते और उसके आकाश की शांति भंग नहीं करते, असल में वही ‘धरतीपुत्र’ हैं।

जारवा लोगों की जनसंख्या ढाई से तीन सौ के बीच है। इनके साथ एक अन्य पूर्वज प्रजाति हुआ करती थी, जिसे ‘जांगिल’ कहा जाता था वह रुत द्वीप में रहती थी, 1931 में विलुप्त हो गई।

इसी क्रम में मुझे अच्छी तरह ध्यान है जब मैं 1999 में पोर्ट ब्लेयर के अस्पताल में जारवा युवक एनमे और उसकी पत्नी चायिला से मिला था। डॉक्टर ने बताया कि ‘यह जोड़ा दस बरस से अधिक नहीं जी सकेगा।’ सुन कर मैं चौंका। कारण पूछने पर डॉक्टर ने बताया कि दोनों के आमाशय और आंतें खराब हो रही हैं। इनकी आदिम जीवनशैली में बिना पकाया खाना खाया जाता रहा है। पके, शहरी खाने और दवाओं का नकारात्मक प्रभाव इन पर पड़ा है। वे ठीक हो सकते हैं, अगर ये अपने कबीले में पूर्ववत जीवन जीएँ।

मात्र चार साल गुजरे थे। 2003 में मैं सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में शरीक होने सूरीनाम जा रहा था। हवाई जहाज में मेरी बगल वाली सीट पर अंडमान के जन सम्पर्क अधिकारी बैठे हुए थे। औपचारिक परिचय के बाद मैंने पूछा- ‘एनमे और चायिला के क्या हाल हैं?’ उन्होंने मायूसी के साथ जवाब दिया- ‘वे अब इस दुनिया में नहीं हैं।’ सुन कर विमान की खिड़की के बाहर झाँकता मैं खो गया अंडमान के शोकग्रस्त आस-पास के काल्पनिक शून्य में!

इस दुखद घटना से मुझे याद आए सरदार बख्तावर सिंह, जो अंडमान पुलिस में सिपाही के पद पर भर्ती होकर उपाधीक्षक से सेवानिवृत्त हुए थे। उनके बिना अंडमान के आदिवासियों पर सत्तर के दशक में बना वृत्तचित्र ‘द मैन इन सर्च ऑफ मैन’ सम्भव नहीं थी। मैं उनसे अंडमान के पहले दौरे में मिला था। पोर्ट ब्लेयर के एकमात्र गुरुद्वारा में वे रहा करते थे। तब उन्होंने बताया था कि उसी दशक में सरकार और गैर-सरकारी संगठनों ने इन आदिवासियों को तथाकथित मुख्यधारा में लाने की मुहिम जोर-शोर से चलाई। उनके टापुओं में हेलीकॉप्टरों से सिले हुए वस्त्र, खाने के पैकेट, दवाइयाँ और अन्न-दाल-सब्जियों के बीज आदि गिराए गए। उनका इस्तेमाल करते ही सभी आदिवासी समुदायों की जनसंख्या में तेजी से गिरावट आने लगी। जीवन के उनके आदिम सूत्रों की कोई परवाह नहीं की गई। हद हो गई जब यह भी नहीं देखा गया कि जो मौसमी बीमारियाँ हमको होती हैं, उनसे वे लोग कभी ग्रस्त नहीं होते और वैसी बीमारियों के तोड़ की दवाइयाँ भी उन्हें भेंट कर दी गईं! फिर तथाकथित मुख्यधारावादियों को बख्तावर सिंह ने अक्ल दी कि ‘भाई बहुत हो गया। छोड़ो ये मूर्खताएँ। छोड़ दो उन्हें अपने हाल पर।’ यही किया गया। वापस उन आदिम कबीलों की आबादी में बढ़ोत्तरी होने लगी।

‘द मैन इन सर्च ऑफ मैन’ इसलिए बन सकी, क्योंकि बख्तावर सिंह सरदार थे। अन्य गैर-आदिवासियों से भिन्न दिखने वाले। गैर-आदिवासियों से वहाँ के आदिवासी घोर घृणा करते हैं। इसका एक बड़ा ऐतिहासिक कारण है। 1857 के गदर या क्रान्ति के बाद कालापानी के सजायाफ्ता लोगों और अन्य सम्भावित विद्रोहियों को रखने के उद्देश्य से पोर्ट ब्लेयर में अंग्रेजों द्वारा सेल्युलर जेल का निर्माण कराया जा रहा था। 1859 में इसका कड़ा विरोध वहाँ के आदिवासियों, खासकर ग्रेट अंडमानियों ने किया, जो हिंसक विद्रोह में परिवर्तित हो गया था। सत्रह मई को पोर्ट ब्लेयर स्थित अबेर्दीन की छावनी और बाजार पर आदिवासियों ने हमला बोल दिया। आदिम योद्धा आदिम हथियारों के साथ अंग्रेजों की आधुनिक हथियारों से लैस फौज से कहाँ तक लोहा लेते! आखिर ढाई से तीन हजार की संख्या में वे गोलियों से भुन दिए गए।

नवम्बर, 2011 की अंडमान यात्रा के वक्त जब हम पोर्ट ब्लेयर से बाराटाँग जा रहे थे, तब जारवा क्षेत्र से गुजरना हुआ। एक सूचनापट्ट देख कर मुझे दुख हुआ। लिखा था: ‘यहाँ से आरम्भ होता है जारवा अभ्यारण्य’ और क्षेत्रांत बिन्दु पर लिखा था: ‘यहाँ समाप्त होता है जारवा अभयारण्य।’ दोनों छोरों पर ट्रैवल एजेंसियों के दूतों द्वारा यह भी आवाज लगाई जाती है कि ‘आओ, हमारे वाहन में सैर करो, हम आपको जारवा दिखाएंगे- उनके मूल स्वरूप में।’ सब जानते हैं कि उनका ‘मूल स्वरूप’ से क्या मतलब है।

वापसी में अंधेरा हो रहा था। सबको जारवा देखने की लालसा थी। सो, सरकारी चेतावनियों के बावजूद उन्हें देखते ही कुछ न कुछ फेंकने के आशय से कई सैलानियों ने अपने हाथों में पैकेट या पॉलीथिन की थैलियाँ रखी हुई थीं। संयोग या दुर्योग से एक जगह सड़क के दोनों तरफ जारवा समुदाय की दो किशोरियाँ खड़ी दिखीं। किन्हीं सैलानियों ने कुछ फेंका। वे दोनों यंत्रवत एक साथ जमीन की ओर झुकीं। फेंके गए में से उन्होंने कुछ उठाया और एक साथ खड़ी हो गईं। पर्यटकों का काफिला पुलिस सुरक्षा में आया-जाया करता है, इसलिए किसी वाहन का वहाँ तनिक भी ठहरना प्रतिबंधित है। फिर भी काफिले ने कुछ झकझोला खाया। मेरे सहयात्री ने कहा ‘सर, देखिए, इन दोनों बच्चियों की छवि वन देवियों जैसी है न!’ वन देवियों के विषय में हमने केवल सुना है, देखा तो कभी नहीं। मैंने कहाः ‘हाँ’ समान कद, डीलडौल, अति सांवला, पर दमकता मुख, ललाट पर चमकीला रिबन किस्म का कुछ बाँधा हुआ था, अधोवस्त्र के रूप में जंघाओं तक कुछ लिपटा था और अन्य समस्त शरीर उघड़ा हुआ। सन 2012 में किसी सैलानी ने यू-ट्यूब पर एक वीडियो पोस्ट किया था, जिसमें ऐसी ही एक कन्या को जबरन नचाया गया था। उस घटना में पुलिसकर्मी की भूमिका रही। बहुत भर्त्सना हुई थी उस कृत्य की सोशल मीडिया में।

अंडमान के मौजूदा चारों आदिम समुदाय दक्षिण-पूर्वी एशिया की ‘नेग्रीटो’ प्रजाति से मेल खाते हैं। नृतत्त्व वैज्ञानिक मानव प्रजाति का का उद्भव अफ्रीका में एक से दो करोड़ वर्ष पूर्व जन्मे ‘होमोसेपियन’ युगल से बताते हैं। करीब साठ हजार साल पहले अफ्रीका महाद्वीप से सर्वप्रथम देशांतरित होने वाले आदिमानव समूह के वंशज यही अंडमान के आदिवासी हैं।

‘जांगिल’ तो लुप्त हो गए, जारवा की जनसंख्या 320, ग्रेट अंडमानी 54, ओंग 94 और सेंटेनेली 112 बताए जाते हैं। अठारहवीं शताब्दी के अंत में ग्रेट अंडमानी लोगों की तादाद करीब पाँच हजार थी। उल्लेखनीय है कि सेंटीनेलीज के साथ बाहरी लोगों का सम्पर्क अब भी नहीं के बराबर है, इसलिए उनके विषय में आधिकारिक जानकारी का अभाव है। उन्हें हवाई सर्वेक्षण या दूर से ही देखा गया है।

ओंग समुदाय के लोग खुद को ‘एन-इरेगल’ कहते हैं, जिसका अर्थ होता है, ‘सम्पूर्ण आदमी।’ सृष्टी के जो सरोकार होते हैं वहीं सम्पूर्ण आदमी के होते हैं। ये सरोकार अगर कहीं बचे हैं तो केवल आदिवासी समाज में। अगर आदिवासी बचा रहेगा तो यह पृथ्वी सुरक्षित रहेगी। धरती को अगर किसी से बड़ा खतरा है तो वह है आधुनिक मनुष्य से। सन 2004 में आए सुनामी से जुड़ा हुआ एक संस्मरण। सुनामी के बाद जो राहत कार्य सरकारी स्तर पर किए गए उनसे असंतुष्ट अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का एक शिष्ट मंडल राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से मिलने दिल्ली आया था। पूर्व संध्या पर दिल्ली में रहने वाले हमारे कुछ आदिवासी संगठनों ने उनके सम्मान में रात्रिभोज का आयोजन किया। मैं उस दिन दिल्ली में था और भोज में मुझे भी बुलाया गया। अंडमान-निकोबार के उन आदिवासियों ने जानकारी दी कि निकोबार क्षेत्र में जानमाल की भयंकर हानि हुई, क्योंकि वहाँ पहाड़ियों की ऊँचाई अंडमान की तुलना में कम है। जान बचाने के लिए लोग पहाड़ियों पर चढ़ कर भी सुरक्षित नहीं रह सके। वहाँ की बनिस्बत अंडमान क्षेत्र में बहुत कम नुकसान हुआ। बहुत सारी बातें करने के दौरान ही शिष्ट मंडल ने एक रोचक और अद्भुत किस्सा सुनाया।

पोर्ट ब्लेयर के अस्पताल में दो आदिवासी इलाज कराने गए थे। एक पहली मंजिल और दूसरा भूतल पर था। यह सुनामी आने के ठीक चौबीस घंटे पहले की घटना थी। भूतल वाले को पृथ्वी के भीतर कुछ हलचल होने का आभास हुआ। वह पक्की सड़क के बगल की कच्ची जमीन पर लेट गया। धरती की सतह पर कान लगा कर कुछ भाँपने लगा। एकदम चौंका। हड़बड़ी में अपने साथी के पास भाग कर गया। उसके कान में कुछ कहा। फिर दोनों किसी को बिना बताए पोर्ट ब्लेयर से सीधे अपने टापू में पहुँचे। तब तक वहाँ भगदड़ मची हुई थी। लोग पहाड़ियों पर आश्रय तलाश रहे थे। कुल मिला कर बात यह है कि उन आदिवासियों को प्रकृति और पृथ्वी के साथ संवाद करना आता है। वे प्रकृति की भाषा जानते हैं। इसीलिए वे प्रकृतिप्रेमी और धरतीपुत्र हैं। निकोबार के आदिवासी भी जानते होंगे पृथ्वी के तहखाने से संवाद करना और उन्होंने भी ऐसा किया होगा, लेकिन क्या करते, जब कोई सुरक्षित जगह ही नहीं, तो कहाँ आश्रय पाते!

प्रकृति-तत्वों और मानवेतर प्राणी जगत से आदिवासियों का गहरा सम्बन्ध रहा है। इसलिए इनके व्यवहार से वे भलीभाँति परिचित हैं। अनुभवजन्य परम्परागत ज्ञान में उनका कोई सानी नहीं।

अब अंडमान के आदिवासियों की जीवनदृष्टि का दृष्टांत, जो पारिस्थितिकीय सजगता को बताता है। अंडमान के टापुओं में जंगली सुअर काफी हैं। आदिवासी लोग उनका शिकार करते हैं। वहाँ हिरण कम हैं। वे हिरणों में अपने मृत बुजुर्गों की आत्मा का वास मानते हैं। वहाँ के जंगलों में तीतर और बटेर काफी हैं, उन्हें वहाँ के आदिवासी खाते हैं, मगर हरा कबूतर यानी कि हरियल पक्षी कम पाए जाते हैं, उनमें अपने होने वाले शिशुओं की आत्मा का वास मानते हैं। ‘सी फूड’ अकूत है, वे खाने के खूब उपयोग में लेते हैं। नीले रंग की स्टार फिश बहुत कम दिखती है। उसमें ये लोग अपनी आदि-दादी परी का रूप देखते हैं। जारवा स्त्री-पुरुष जानते हैं कि शहद इकट्ठा करते वक्त ‘ओएक्लिन’ नामक पौधे की पत्तियों को चबा कर मधुमक्खियों के छतों पर फैलाने से वे निकट नहीं आतीं। उन पर किए गए एक शोध के निष्कर्ष हैं कि जारवा लोग करीब एक सौ पचास वनस्पतियों और तीन सौ पचास वन्य प्राणियों के विषय में विस्तार से जानते हैं।

उस आदिम मानवता को तथाकथित मुख्यधारा में लाने की जो जिद 1970 के दशक में की गई उसका हश्र खतरनाक हुआ था। उन आदिम कबीलों की तादाद तेज गति से घटने लगी थी। फिर उन्हें उनके हाल पर छोड़ देने की नीति अपनाई गई, तब उनके अस्तित्व पर मंडराया खतरा कुछ कम हुआ। थोड़ा ही अरसा बीता कि ग्रेट अंडमान ट्रंक रोड का निर्माण और ‘जारवा सफारी’ को आरम्भ कर दिया गया। उन आदिवासियों का जीना हराम हो गया। फिर सरकार ने 2004 में नई ‘जारवा नीति’ बनाई, जिसके तहत तय कर दिया गया कि ‘जारवा लोग अपना भविष्य स्वयं तय करें। न्यूनतम हस्तक्षेप के साथ उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाए। मुख्यधारा में लाने का विचार पूरी तरह त्याग दिया जाए।’

जारवा लोग छुई-मुई की तरह हैं, सेंटेनेलीज किसी को निकट नहीं फटकने देते, ओंग त्रिशंकु बने हुए हैं और ग्रेट अंडमानी लड़ाकू, जिन्होंने 1859 में फिरंगियों को अपनी धरा पर पाँव रखने से रोकने के भरसक प्रयास किए, पर आखिरकार जनसंहार की त्रासदी झेलनी पड़ी।

उपनिवेशवादियों की घुसपैठ से पहले ग्रेट अंडमानी समुदाय की कुल दस शाखाएँ हुआ करती थीं, जिनमें प्रमुख थी जेरू, बी, बो, खोरा और पकिक्वर। सबकी तादाद अलग-अलग दो सौ से सात सौ के बीच थी। सब मिला कर ये लोग करीब पाँच हजार थे। सबकी अपनी पृथक भाषा थी और समृद्ध आदिम संस्कृति। ‘बो’ भाषा की एकमात्र जानकार बुजुर्ग महिला बोआ सीनियर 2010 में चल बसी। एक इंसान के साथ एक भाषा भी मर गई। उस इंसान और उसकी भाषा के साथ ग्रेट अंडमानी आदिवासी समुदाय के एक कबीले का अस्तित्व पृथ्वी से विलुप्त हो गया! इसी तरह अन्य भाषाओं और कबीलों का नाश हो गया। अब ये बचे-खुचे ग्रेट अंडमानी लोग हिन्दी मिश्रित खिचड़ी भाषा का प्रयोग करते हैं। उनकी भाषिक अस्मिता के नष्ट हो जाने के बाद अब इनके विलुप्तीकरण का खतरा मंडरा रहा है।

ओंग समुदाय के लोग खुद को ‘एन-इरेगल’ कहते हैं, जिसका अर्थ होता है, ‘सम्पूर्ण आदमी।’ सृष्टी के जो सरोकार होते हैं वहीं सम्पूर्ण आदमी के होते हैं। ये सरोकार अगर कहीं बचे हैं तो केवल आदिवासी समाज में। अगर आदिवासी बचा रहेगा तो यह पृथ्वी सुरक्षित रहेगी। धरती को अगर किसी से बड़ा खतरा है तो वह है आधुनिक मनुष्य से। पृथ्वी के रस और रत्नों को अगर किसी ने सुरक्षित रखा है तो वह मात्र आदिवासी समाज और वह भी कस्टोडियन याकि ट्रस्टी की हैसियत से। इन आदिवासियों में निजी सम्पत्ति की अवधारणा अब भी उस रूप में नहीं है, जिस रूप में ‘विकसित सभ्य-जन’ में।

1970 के दशक में इन्हें भी ‘मुख्यधारा’ में लाने के प्रयास सरकार ने किए। उनके इलाके में छिप-छिप कर ‘उपयोगी’ वस्तुएँ डाली गईं, जो उन आदिम समूहों के लिए हर बार घातक सिद्ध होती रहीं। अंत में सरकार ने यह ‘कल्याणकारी’ अभियान 1996 में त्याग दिया। अब ये सेंटीनेली लोग भी अपने हाल पर हैं। फिर भी सत्ता के ठेकेदारों ने अपनी जिद नहीं छोड़ी। सन 2010 में वहाँ के सांसद ने लोकसभा में सवाल उठाया कि इन आदिवासियों को ‘तेजी से कठोर कार्रवाई’ करते हुए ‘मुख्यधारा’ में लाना चाहिए। खासकर जारवा समुदाय के लिए कहा गया कि उनके बच्चों को शिक्षार्जन के उद्देश्य से उनके माँ-बाप से अलग कर रेजिडेंशियल स्कूलों में भर्ती करा देना चाहिए।

अब वहाँ के आदिवासियों की सुनें, जो कहते हैं कि ‘बाहरी लोग बुरे होते हैं। वे हमारी बेइज्जती करते हैं। हमारी दिली ख्वाइश है कि हम जंगल में ही रहें।’

न तो यह उचित है कि उन आदिवासियों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए और न यह ठीक है कि उनके इलाकों में बे-रोकटोक दखलअंदाजी की छूट दे दी जाए। उनके साथ छेड़खानी न करते हुए उनके मनोविज्ञान को समझ कर उनकी सहमति से धीरे-धीरे उन्हें आदिमता से बाहर भौतिक सुख-सुविधाओं की ओर उन्मुख किया जाए, तो उम्मीद की जा सकती है कि हालात बदलें।

ईमेल-hrmbms@yahoo.co.in

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