बंजर पड़ी जमीन में पानी से लौटी समृद्धि

2 Aug 2015
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क्या आप यकीन कर सकते हैं कि कुछ आदिवासियों ने पहाड़ी इलाके में बहने वाले नाले को पाइप के जरिये पानी को पहाड़ियों के ऊपर चढ़ाकर अपनी जिन्दगी के मायने ही बदल डाले हैं। हमेशा कर्ज में डूबे और फटेहाल रहने वाले इन किसानों की अब जिन्दगी ही बदल गई है। कभी जिनके पास साइकिल तक नहीं हुआ करती थी, वे अब मोटरसाइकिल पर फर्राटे भरते नजर आते हैं। उनके बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं और कुछ के मकान भी पक्के बन गए हैं।

यह अविश्वसनीय सी लगने वाली कहानी मध्यप्रदेश के देवास जिले से है। देवास जिले का भौगोलिक नक्शा देखें तो जिला मुख्यालय से करीब सवा सौ किमी दूर नीचे का क्षेत्र ऊँची–नीची पहाड़ियों और ऊसर जमीन के लिए पहचाना जाता है। यहाँ के आदिवासी किसान बरसात में केवल मक्का या सोयाबीन की ही खेती कर पाते हैं। इन ऊँची–नीची पहाड़ियों पर यहाँ–वहाँ बसे टोलों-मजरों और फलियों में आदिवासियों की बस्तियाँ। ये लोग दिन–रात हाड़तोड़ मेहनत–मजूरी करते हैं फिर भी कई बार इन्हें दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हो पाती है।

दरअसल इनकी प्रमुख आजीविका है खेती। लेकिन यहाँ खेती करना आसान नहीं, ऊँची-नीची पथरीली जमीन। समतल जमीन इतनी नहीं कि परिवार का खर्च चल सके। और सबसे बड़ी बात तो यह कि खेती के लिए पानी का दूर–दूर तक कोई साधन ही नहीं। कुछ पानी है भी तो पहाड़ियों से नीचे नदी–नालों में बहता हुआ। रबी की फसल कभी इनके लिए सपने जैसी ही बात थी। जैसे–तैसे कर्ज लेकर खरीफ की फसल तो कर लेते पर नवम्बर–दिसम्बर आते–आते फिर रोजी–रोटी का संकट और फिर शुरू होता रोजगार की तलाश में पलायन का दौर।

यहाँ करीब 12 साल पहले सरकार, आदिवासियों और क्षेत्र में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था समाज प्रगति सहयोग ने एक अनूठी उद्वहन योजना बनाई और इस पर अमल शुरू किया गया। खुद आदिवासी भी इसके लिए आगे आये। इससे आज इस इलाके के 50 से ज्यादा किसान 100 से ज्यादा बीघा खेत में गेहूँ–चने की फसल भी ले पा रहे हैं। उदयनगर कस्बे के पास सीतापुरी, डांगाडूगी और खुंटखाल के किसानों के लिए सबसे पहले बनाया गया उनका स्वयं सहायता समूह। इन गाँवों के ये सभी किसान योजना में शामिल होते समय गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करते थे, लिहाजा इन्हें सरकार की स्वर्ण जयंती स्वरोजगार योजना के तहत इसका लाभ दिलाया गया। इन किसानों ने यह भी तय किया है कि किसी किसान के पास कितनी भी जमीन क्यों न हो, उन्हें इस योजना से 2-2 बीघा में ही सिंचाई लायक पानी मिल सकेगा ताकि सभी को बराबर–बराबर पानी मिल सके और यह भी कि कोई किसान ज्यादा पानी की खपत वाली फसल नहीं ले सकेगा।

इस योजना में सीतापुरी गाँव के मुख्य नाले को बाँधने का काम कपार्ट सूखा मुक्ति कार्यक्रम के अंतर्गत 2.89 लाख की लागत से यहाँ स्टॉप डेम बनाया गया। करीब 32 मीटर लम्बे और ढाई मीटर ऊँचे इस बाँध से हर साल बारिश का करीब 11 हजार घनमीटर पानी रोका जा सकता है। इसी पानी के यहाँ से पौने दो किमी दूर और 115 फीट ऊँचा उठाकर सीतापुरी के 18 आदिवासी किसानों के खेत में पानी पहुँचाया जा रहा है। बिजली रहने की स्थिति में साढ़े सात हार्सपावर की दो मोटरों से पानी खिंचा जा सकता है और बिजली नहीं होने पर 10 हार्सपावर के डीजल इंजन से पानी को ऊपर चढ़ाया जाता है।

सीतापुरी के पूर्व सरपंच गजराजसिंह मंसोरे इसे अपने सरपंच कार्यकाल की एक बड़ी उपलब्धि मानते हैं। यह योजना उन्हीं के कार्यकाल में कागजों से उतारकर जमीन पर मूर्त रूप ले सकी। वे गर्व से बताते हैं कि गाँव के लोगों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन्हें इस तरह सौ फीट से ज्यादा और दो किमी दूर से पानी मिल सकेगा। आज सोचते हैं तो तब यह काम बहुत बड़ा और तकरीबन अविश्वसनीय जैसा लगता था पर गाँव के कुछ लोगों ने इसमें ख़ासा उत्साह दिखाया और अब बीते 12 सालों से सबको इसका फायदा मिल रहा है। किसान पूंजा के बेटे अब बहुत खुश हैं, उन्हें अब बाकी लोगों की तरह हर साल पलायन नहीं करना पड़ता। पूंजा के बुढ़ाते चेहरे पर भी पानी से आई समृद्धि की चमक साफ़ दिखाई देती है। वे बताते हैं कि सीतापुरी से पाइपलाइन बिछाकर शुरू में 18 किसानों को अलग–अलग पॉइंट बनाकर दिए गये हैं। इन्हीं पॉइंट के जरिये अलग–अलग किसानों के खेतों तक पानी पहुँचता है। इन्हीं के पड़ोसी किसान नानसिंह और नायका के चेहरे भी उनकी ख़ुशी बयान करते नजर आते हैं।

यहाँ से आगे बढ़ते हैं डांगाडूंगी के लिए। इस गाँव के पास से बहती है घोड़ा पछाड़ नदी। लोग बताते हैं कि यह पहाड़ी नदी है और इसमें तेजी से बाढ़ आती है लेकिन जल्दी ही सारा पानी बहकर पहाड़ी के नीचे की ओर चला जाता। नदी का पानी हमारे किसी काम नहीं आता था। इसमें बाढ़ का रौद्र रूप देखते ही बनता है। इसका वेग अधिक होने से ही इसका नाम घोड़ा पछाड़ पड़ा यानी बाढ़ के दौरान यदि किसी ने घोड़े पर सवार होकर इस पार से उस पार करने की कोशिश कि तब भी वह सफल नहीं हो पायेगा। तब से ही इसका नाम पड़ गया घोड़ा पछाड़ नदी। तो इस नदी पर बनाया गया स्टॉप डेम। रोके गए पानी को भी डेढ़ किमी दूर तक और करीब 50 फीट ऊँचा उठाकर 16 आदिवासी किसानों के 35 एकड़ खेतों तक पहुँचाया गया है। इस पर करीब सवा लाख रूपये खर्च हुए थे और अब तक किसान इससे करोड़ों रूपये की फसल बीते 12 सालों में कर चुके हैं।

. डांगाडूंगी गाँव के ही मगनभाई बताते हैं कि उनके समूह में 11 सदस्य हैं। ये सभी आदिवासी वर्ग के लघु और सीमान्त किसान हैं। उन्होंने बताया कि इस योजना में आधी राशि सरकार ने स्वर्ण जयंती स्वरोजगार योजना से उपलब्ध कराई है। वे और उनके सदस्य इस योजना पर पूरी निगरानी रखते हैं। उन्होंने ही हमें गाँव में कूकासिंह, मदन नाथ, गुलाब, सुखराम गल्लन और धनसिंह आदि से भी मिलवाया। यहाँ लोगों ने हमें बताया कि स्टॉप डेम पर 10 हार्सपावर के इंजन से पानी को खिंचा जाता है और फिर अलग–अलग पॉइंट से अलग–अलग किसानों के खेत में जरूरत के मुताबिक पानी छोड़ा जाता है। धनसिंह ने बताया कि अब हमें गेहूँ–चने की फसल लेने में कोई परेशानी नहीं आती। पहले तो हमारे बाप–दादा केवल मक्का या ज्वार ही बो पाते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है। हर साल दो फसल लेने से इलाके में हमारे गाँवों की इज्जत भी बढ़ी है। हम अपने बच्चों को पढ़ाने–लिखाने लगे हैं। कुछ आदिवासियों के बच्चे तो अब पूंजापुरा और उदयनगर पढने जाते हैं। अब हमारे यहाँ से हर साल कम ही लोग पलायन करते हैं। खेतों में पानी आने से हमारी किस्मत ही बदल गई। गुलाब बताते हैं कि शुरू में जब हमें इस बारे में समाज प्रगति सहयोग के कार्यकर्ताओं और कुछ अफसरों ने बताया तो हमें लगता था कि यह तो फिजूल की बात है। ऐसा भी भला कहीं होता है क्या। पानी को इतना ऊपर चढ़ा पाना मजाक है क्या पर अब हमें ही इसका फायदा मिल रहा है।

इससे भी कुछ दूरी पर एक और गाँव है नाम है खुंटखाल। गाँव के पास से एक नदी बह कर जाती है और इसी नदी पर फिर एक स्टाप डेम बनाकर करीब एक किमी का फासला तय करते हुए इस गाँव के खेतों तक पानी पहुँचाया जा रहा है। यहाँ पानी को करीब एक सौ फीट ऊपर चढ़ाया जाता है। यहाँ समाज प्रगति सहयोग ने टाटा ट्रस्ट से 1.40 लाख की लागत से बिजली पम्प की सौगात भी दी है।

अब यदि इन तीनों गाँवों की उद्वहन परियोजनाओं की 2003 में लागत देखी जाये तो इनकी कुल लागत तब आई थी 7.75 लाख। इसमें से आधा पैसा स्वर्ण जयंती स्वरोजगार योजना से और आधा स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया से ऋण के रूप में दिया गया था। ऋण का आधा हिस्सा भी समाज प्रगति सहयोग ने वहन किया। धीरे–धीरे इन किसानों ने बैंक के ऋण का अधिकांश हिस्सा भी अब बैंक को लौटा दिया है। यह ऋण इन्हें 10 वर्ष के लिए 12 प्रतिशत ब्याज दर पर दिया गया था। और इसकी किश्त भी वार्षिक है। किसान बताते हैं कि अब बहुत थोड़ा सा ही ऋण बच गया है, उसे भी कुछ ही दिनों में पूरा करके हम ऋण-मुक्त हो जायेंगे। योजना के सुचारू संचालन के लिए किसानों को खेती के उन्नत तरीके और पानी के किफायती इस्तेमाल के लिए भी समाज प्रगति सहयोग ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद से परामर्श कर नवाचार किये हैं।

हम शाम से पहले शहर की ओर लौट जाना चाहते हैं। जहाँ हमारे समाज से सामुदायिकता और सहकार तेजी से खत्म हो रहा है वहीं अशिक्षित और पिछड़े हुए समझे जाने वाले इस समाज में आ रहे बदलाव के लिए काम को सलाम करने की इच्छा होती है।

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