बॉन सम्मेलन : वही ढाक के तीन पात

23 Nov 2017
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जलवायु परिवर्तन पर बॉन में हुए अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में विकसित देशों, खासकर अमेरिका के अड़ियल रवैये की वजह से कोई सहमति नहीं बन पाई। विकसित देश जलवायु परिवर्तन के लिये विकासशील देशों को ज्यादा जिम्मेदार ठहराते हुए उनसे अधिक क्षतिपूर्ति की माँग करते आ रहे हैं। कितनी जायज है विकसित देशों की माँग?

पिछले दिनों फिजी की अध्यक्षता में जर्मनी के बॉन में जलवायु परिवर्तन पर बैठक हुई। दो साल पहले पेरिस में ऐसी ही बैठक में 197 देशों के बीच पेरिस समझौता हुआ था। इस समझौते के अनुसार सभी देश मिलकर प्रयास करेंगे कि सदी के अन्त तक वैश्विक तापमान में 2 डिग्री से ज्यादा की वृद्धि न हो। बेहतर प्रयास से इस वृद्धि को 1 डिग्री तक ही रोकने का प्रयास भी किया जायेगा। पेरिस समझौते पर राष्ट्रसंघ के 197 देशों में से 170 देशों ने मुहर लगा दी है। पिछले वर्ष मर्राकेश में और इस वर्ष बॉन में बैठक का उद्देश्य पेरिस समझौते को अमल में लाने के लिये कानून-कायदे बनाना था। पेरिस समझौता पिछले वर्ष मर्राकेश में ही प्रभाव में आ गया था। बॉन बैठक में विकासशील देशों के लिये सबसे बड़ा विषय यह था कि नियम बनाने में विश्व के विभिन्न देशों की प्रगति और उनकी क्षमता को देखते हुए उनके प्रयासों में समता कैसे स्थापित की जाए? हालाँकि विकसित देश जिनका उत्सर्जन विकासशील देशों से कई गुना ज्यादा है, इस बात पर अड़े रहे की पेरिस समझौते में देशों में कोई विभेद नहीं है और सबको समान और साझा प्रयास करना होगा।

अमेरिका ने इस वर्ष जून में ही पेरिस समझौते से बाहर निकलने की इच्छा जाहिर कर दी थी। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के अनुसार यह समझौता भारत और चीन जैसे देशों को उत्सर्जन कम करने को नहीं कहता और अमेरिका के उद्योगों और अर्थव्यवस्था पर अनावश्यक दबाव डालता है। यह बैठक अमेरिका के पेरिस समझौते से हटने के बाद पहली बैठक थी और दुनिया में इस बात को देखने का कौतूहल था कि अमेरिका के बिना जलवायु परिवर्तन की बातचीत और वैश्विक प्रयासों पर क्या असर रहेगा। अमेरिका ने राष्ट्रीय स्तर पर पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के द्वारा लाए गए उत्सर्जन कम करने वाले कई नियमों को खत्म कर दिया। इनमें क्लीन पावर एक्ट को खत्म करना और पर्यावरण संरक्षण एजेंसी की शक्तियाँ कम करना शामिल है। अमेरिका के कई राज्य अभी भी उत्सर्जन कम करने के अपने विश्वास पर अडिग हैं और इसके लिये प्रयासरत रहे हैं। ट्रम्प ने जलवायु परिवर्तन का बजट भी कम किया है जिसके फलस्वरूप इस बैठक में अमेरिका के प्रतिनिधिमंडल में बीस से कम लोग थे। पहले यह संख्या 70 से अधिक होती थी।

आशा के अनुरूप पूरे सम्मेलन में अमेरिका की भूमिका काफी नकारात्मक थी। अमेरिका व कुछ अन्य विकसित देशों की वजह से निर्णय प्रक्रिया काफी बाधित रही और बातचीत में प्रगति काफी धीमी। खासकर वर्ष 2020 (जब पेरिस समझौता लागू होगा) उससे पहले के प्रयासों, विकासशील देशों को आर्थिक संसाधन की उपलब्धता और पेरिस समझौते के नियम-कानूनों में देशों और उनके प्रयासों के बीच समता स्थापित करने पर अमेरिका का रुख काफी विपरीत रहा। अमेरिका ने सम्मेलन की शुरुआत में ही अपना रुख तब स्पष्ट कर दिया था जब उसके प्रतिनिधिमंडल के प्रमुख ने कहा कि इस बैठक में अमेरिका का लक्ष्य विकासशील देशों के प्रयासों में समता की माँग को खारिज करवाना है। लेकिन अमेरिका के भरसक प्रयासों के बाद भी जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष में वैश्विक एकता सराहनीय रही। ऐसे में भारत का कहना था कि विकसित देश समझौता लागू होने से पहले उत्सर्जन कम करने के वायदे पर अमल करें।

भारत के नेतृत्व में विकासशील देशों ने विकसित देशों को उनके दोहा-2012 और वार्सो-2013 में किए गए वादों की याद दिलाई और उन्हें पूरा करने की माँग की। विकसित देशों खासकर यूरोपियन यूनियन व अमेरिका के हस्ताक्षर न करने से दोहा संसोधन लागू नहीं हो पाया। पेरिस समझौता हो जाने के बाद विकसित देशों की दोहा संशोधन पर मुहर लगाने की मंशा और कमजोर हुई है और 2020 से पहले वह कोई प्रयास करने में गम्भीर नहीं दिखते। अमेरिका और यूरोपीय यूनियन की खिलाफत के चलते 2020 से पहले के प्रयास का मुद्दा सम्मेलन के एजेंडे पर नहीं आ पाया। अन्तरराष्ट्रीय बैठकों का एक ही चरित्र है। चीजें जब तक टाली जा सके टाल दो। वैज्ञानिक साक्ष्य बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के परिणाम गम्भीर और अप्रत्याशित हैं। प्रयास के लिये समय काफी कम है। खासकर अगर मंशा तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री पर रोकना है तो काफी सार्थक और गम्भीर प्रयास करने की आवश्यकता है। सम्मेलन शुरू होने से पूर्व प्रकाशित यूरोप की उत्सर्जन रिपोर्ट में बताया कि पेरिस समझौते के तहत किए गए वायदे उत्सर्जन कम करने की वैज्ञानिक आवश्यकता का सिर्फ एक तिहाई हैं।

पेरिस समझौता सही में अमल भी किया जाए तो इस सदी के अन्त तक 3 डिग्री की तापमान वृद्धि हो सकती है। औद्योगीकृत देशों को भी जीवाश्म ईंधन की खपत और उत्सर्जन कम करने की आवश्यकता होगी। प्रयासों में देरी से जलवायु परिवर्तन का प्रकोप और बढ़ेगा। सबसे ज्यादा मार गरीब देशों पर पड़ेगी। उनका विकास अवरुद्ध होगा और उत्सर्जन कम करने का खर्च भी बढ़ेगा। इन सारे तथ्यों को धता बताते हुए विकसित देशों का रवैया वही ढाक के तीन पात वाला रहा। विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन की मार से जूझ रहे लोगों के लिये शायद ऐसे सम्मेलन सुरक्षित भविष्य की आशा की टिमटिमाती लौ की तरह हैं।

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