बुंदेलखण्ड की जल चौपाल

water structure
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'लोक संस्कृति में जलविज्ञान और प्रकृति' की अध्ययन यात्रा की शुरुआत 'राष्ट्रीय वि
'लोक संस्कृति में जलविज्ञान और प्रकृति' की अध्ययन यात्रा की शुरुआत 'राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद' और 'माधव राव सप्रे स्मृति संचार संग्रहालय एवं शोध संस्थान' के आपसी सहयोग से हुई। इस यात्रा के मार्गदर्शक की भूमिका में जलविज्ञानी श्रीकृष्ण गोपाल व्यास थे।

लोक में जब पानी की बात होती है, पेड़-पहाड़, प्राणी-माटी, खेती-किसानी, सेहत वगैरह सब चर्चा में आते हैं। यह परस्पर निर्भरता का व्यवहार है।

सप्रे संग्रहालय और राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद के सामुहिक सहयोग से 'जल चौपाल' नाम की पुस्तक तैयार हुई है। 'बुंदेलखंड की जल चौपाल' उपर्युक्त पुस्तक का चौथा अध्याय है।


बुंदेलखण्ड अंचल की लोकसंस्कृति में जलविज्ञान और प्रकृति को समझने के लिए हमने सागर, टीकमगढ़ और मण्डला जिलों का चयन किया। सागर जिले की चौपाल, रहली तहसील के चोहरा ग्राम में आयोजित की। चोहरा ग्राम में हमारे संपर्क सूत्र एवं सहयोगी थे, ढाना के प्रखर पत्रकार दीपक तिवारी, चोहरा ग्राम के वसुंधरा लोककला मंडल के प्रमुख तथा प्रकृति, संस्कृति और पर्यावरण मर्मज्ञ उमेश वैद्य तथा सागर के लोकसंस्कृति मर्मज्ञ डा. ओमप्रकाश चौबे। चौपाल में डा. ओमप्रकाश चौबे ने स्थानीय संयोजक का दायित्व संभाला। बाद में भी उन्होंने चौपाल में छूटी पूरक जानकारियां भेजने का काम जारी रखा।

चोहरा ग्राम की चौपाल में अनुभवों के आदान-प्रदान तथा चर्चा के लिए धनगंवा, ढाना, पिपरिया, सागर, रहली, जूना, खमरिया-रहली, नन्ही देवरी, मेंढकी, बिलहरी, पथरिया घाट, सेमाढ़ाना, देवरी, मजगंवा, आफतगंज और सदर के साथी इकट्ठे हुए। इन साथियों ने सागर क्षेत्र (बुंदेलखण्ड) के परंपरागत समाज की जीवनशैली तथा संस्कारो, जंगल, जलवायु, वर्षा, अकाल, आबादी, आजीविका के साधनों, स्वास्थ्य, खेती, फसलों, कृषि पद्धतियों, मिट्टियों, सिंचाई एवं सिंचाई साधनों, कृषि उपकरणों और पुरानी जल संरचनाओं के बारे में सिलसिलेवार जानकारी दी।

दुर्गाप्रसाद यादव ने टीकमगढ़ जिले के ग्राम बोरी से रमेश श्रीवास्तव और उनकी पत्नी सुधा श्रीवास्तव ने ग्राम महाराजपुर से हमारे लिए महत्वपूर्ण प्राथमिक जानकारियां जुटाईं।

मण्डला जिले की चौपाल विकासखंड बिछिया की ग्राम पंचायत मानिकपुर के ग्राम मानिकपुर और मवई विकासखंड की ग्राम पंचायत सुनेहरा के ग्राम अमवार में आयोजित की। मानिकपुर और अमवार ग्राम में हमारे संपर्क सूत्र एवं सहयोगी थे चंद्रहास पटेल और सतरूपां। मानिकपुर की चौपाल में 18 और अमवार ग्राम की चौपाल में 15 साथी जुटे। दोनों चौपालों में आए सभी लोग मुख्यतः आदिवासी कृषक थे। चंद्रहास पटेल ने स्थानीय संयोजक का दायित्व संभाला। उन्होंने चौपालों में छूटी जानकारियों को भेजने का काम जारी रखा तथा जानकारियां से संबंधित हमारी सभी जिज्ञासाओं का समाधान किया। मण्डला, बुंदेलखंड अंचल के दक्षिण में स्थित आदिवासी बहुल जिला है। यहां की लोक-संस्कृति मिश्रित है तथा उस पर छत्तीसगढ़ अंचल का असर है।

बुंदेलखंड के विभिन्न क्षेत्रों (बोरी और महाराजपुर) से ऊपर उल्लिखित साथियों द्वारा भेजी जानकारियों, मण्डला जिले की मानिकपुर और अमवार और सागर जिले की चोहरा चौपाल का अनुभव, अनुभवों की समीक्षा और ज्ञान के सम्प्रेषण की विधियों का वर्णन, पूर्व में उल्लिखित निम्नलिखित उप-शीर्षकों के अंतर्गत किया जा रहा है।

1. दैनिक जीवन, धार्मिक एवं सामाजिक संस्कारों में विज्ञान
2. जलस्रोत-विज्ञान की झलक
3. स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य संबंधी संस्कारों का विज्ञान
4. मिट्टी, परंपरागत खेती, वर्षा तथा वर्षा का वनों से रिश्ता
5. लोक संस्कृति का प्रकृति से नाता और अंचल की वाचिक परंपरा में लोक-विज्ञान की उपस्थिति

1. दैनिक जीवन, धार्मिक एवं सामाजिक संस्कारों में विज्ञान


चोहरा की चौपाल में आए प्रभु मिश्रा, महेश चौबे, त्रिवेणी देवी और कन्छेदी पटेल का कहना था कि आज भी घर या सार्वजनिक स्थानों पर होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में प्राचीन परिपाटियों का पालन किया जाता है। टीकमगढ़ जिले के साथियों द्वारा भेजी गई जानकारियों एवं मण्डला जिले की चौपालों में संकलित अनुभवों का यही सार था। अगले पन्नों में दैनिक जीवन से जुड़े कुछ कर्मकाण्डों, क्रियाकलापों तथा प्रथाओं के पीछे के विज्ञान के बारे में चौपालों में मिली समझ का संभावित वैज्ञानिक पक्ष प्रस्तुत है।

1.1 दैनिक जीवन में पानी
चोहरा ग्राम की चौपाल में चोहरा के घनश्याम वैद्य, धनगुवां के नीरज गोस्वामी, सेमाढाना की त्रिवेणी देवी और नन्हीं देवरी से आए प्रकाश दुबे ने एक स्वर से कहा कि उनका समाज सोकर उठने से लेकर सोने तक अनेक गतिविधियों यथा मुंह धोने, शौच क्रिया, दांत साफ करने, स्नान करने, कपड़े धोने, भोजनोपरान्त कुल्ला करने तथा प्यास बुझाने इत्यादि में पीढि़यों से साफ पानी का उपयोग करता रहा है। नीरज गोस्वामी और कन्छेदी पटेल ने बताया कि अनेक परिवारों में लोग रात्रि में तांबे के बर्तन में पानी भर कर रखते हैं और सबेरे उठकर उसे पीते हैं। उनके अनुसार, बरसों से यह पानी को शुद्ध रखने तथा पेट साफ रखने का तरीका रहा है। मुन्नी तिवारी, शकुन्तला देवी, रज्जू बाई और गुलाब बाई पटेल का कहना था कि उनके परिवारों में बाहर से घर लौटने पर हाथ-पैर धोने की परंपरा है। भोजन के पहले तथा बाद में हाथ मुंह धोए जाते हैं। भोजन पात्रों को पानी से धोकर रखा तथा उपयोग में लाया जाता है। साफ-सुथरे बर्तन ही खाना बनाने के काम में लिए जाते हैं। इन विचारों के क्रम में हमको लगता है कि संभवतः पानी से जुड़े रीति-रिवाज तथा प्रथाएं, वास्तव में, निरोग जीवन के एिल प्रतिरोधक क्षमता के विकास का प्रयास है। यही प्राचीन जीवनशैली है। यही निरोग रहने का देशज तरीका है।

अनेक परिवारों में लोग रात्रि में तांबे के बर्तन में पानी भर कर रखते हैं और सबेरे उठकर उसे पीते हैं। बरसों से यह पानी को शुद्ध रखने तथा पेट साफ रखने का तरीका रहा है। स्वच्छ जल के उपयोग से निरोग रहने में मदद मिलती है। पानी को तांबे के बर्तन में रखने से उसमें कीटाणु उत्पन्न नहीं होते। अतः कहा जा सकता है कि तांबे के बर्तन में रखे पानी के उपयोग के पीछे सोचा-समझा और जांचा-परखा विज्ञान है। विदित है कि विज्ञान, कभी भी बोली या आंचलिकता से प्रभावित नहीं होता।मण्डला जिले की मानिकपुर और अमवार की चौपालों में मौजूद रतनराम कुशराम, गेंदलाल मराबी, फूलचंद मरकाम, दीनूराम, खेमलाल मरकाम, बेधसिंह मराबी इत्यादि का कहना था कि प्रातःकाल सो कर उठने से लेकर सेाने तक अलग-अलग कामों में पानी का उपयोग होता है। व्यक्तिगत कामों के अतिरिक्त बाड़ी सिंचाई, साग-सब्जी उत्पादन, निर्माण कार्य, पूजन विधि आदि में भी पानी का उपयोग होता है। तीरत सिंह, टेक चंद धुर्वे, हरि सिंह और रेवाराम धुर्वे का कहना था कि सभी संस्कारों के पीछे जीवन एवं प्रकृति के बीच एक संतुलन जुड़ा है। वे कहते हैं कि लोग अपना जीवन प्रकृति के अनुकूल बनाकर जीते थे। समाज में मान्यताओं/संस्कारों को जीवनशैली में सर्वोपरि स्थान मिला था। हर व्यक्ति उन संस्कारों को, समाज में रहकर, एक दूसरे से सीखते थे। समाज के जो लोग प्रथाओं का पालन नहीं करते थे, उनको समाज से बहिष्कृत किया जाता था। अधिकांश लोंगों का कहना है कि वर्तमान युग में ये मान्यताएं घटती जा रही हैं। जल समस्या का यह भी एक कारण है।

ऊपर दिए गए विचारों के क्रम में हमारा मानना है कि दैनिक जीवन के लगभग सभी संस्कार पूरी तरह वैज्ञानिक हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार, स्वच्छ जल के उपयोग से निरोग रहने में मदद मिलती है। पानी को तांबे के बर्तन में रखने से उसमें कीटाणु उत्पन्न नहीं होते। अतः कहा जा सकता है कि तांबे के बर्तन में रखे पानी के उपयोग के पीछे सोचा-समझा और जांचा-परखा विज्ञान है। हमारी टीम को पानी से जुड़े संस्कार, मध्यप्रदेश में सभी अंचलों में देखने और सुनने को मिले। यह समानता इंगित करती है कि उनके पीछे विज्ञान है। विदित है कि विज्ञान, कभी भी बोली या आंचलिकता से प्रभावित नहीं होता।

1.2. धार्मिक संस्कारों में विज्ञान
चोहरा चौपाल में मौजूद डा. ओमप्रकाश चौबे, धीरज गोस्वामी, प्रभु मिश्रा, महेश चौबे, मानसिंह और चंदा बेन, त्रिवेणी देवी, मुन्नी तिवारी एवं अन्य लोगों और हमारे सम्पर्क सूत्रों से प्राप्त जानकारियों से पता चलाता है कि संबंधित इलाकों में प्रचलित धार्मिक संस्कारों में जल के उपयोग की सूची बहुत लंबी है। सभी धार्मिक अनुष्ठानों तथा संस्कारों में सबसे पहले जमीन पानी छिड़ककर उसे शुद्ध कर, चौक पूरा जाता है। चौक पर साफ पानी से भरा कलश रखा जाता है। कलश के नीचे गेहूं रखा जाता है। सबसे पहले कलश का पूजन होता है। साफ पानी से देवी देवताओं को स्नान कराया जाता है। कलश के लिए मुख्यतः तांबे के बर्तन (लोटे) का उपयोग किया जाता है।

चोहरा चौपाल में मौजूद लोगों ने बताया कि सभी धार्मिक प्रक्रियाओं में पानी को दूब, कुश या पान के पत्ते की सहायता से छुआ जाता है। लगता है कि समाज ने यह व्यवस्था, अनुष्ठान के दौरान जल की शुद्धता और उसकी पवित्रता को सुनिश्चित करने के लिए ही बनाई होगी। संकल्प लेते समय जल पात्र में शुद्ध पानी रखा जाता है। अक्षय तृतीया एवं असाढ़ माह में पहली बार हल चलाते समय शुद्ध जल से भरे मिट्टी के कोरे घड़ों की पूजा का प्रचलन अभी जारी है। लगता है पानी की शुद्धता को जीवनशैली का अंग बनाने के लिए उसे आस्था तथा विश्वास के माध्यम से अनुष्ठानों और संस्कारों में ढाला गया है। लगता कि अनुष्ठानों के प्रयुक्त कर्मकण्ड शुद्ध जल और अशुद्ध जल का भेद समझाने का प्रयास हो। संभव है, परंपरागत समाज ने शुद्ध जल को प्रतिष्ठित करने के लिए ही संस्कार विकसित किए हैं। यह धार्मिक अनुष्ठानों एवं कर्मकाण्डों का संभावित वैज्ञानिक पक्ष है। यह पक्ष निरापद जीवनशैली से जुड़े वैज्ञानिक तथ्यों को सिद्धांतों एवं सूत्रों की आधुनिक शैली में सजाकर प्रतिष्ठित करने के स्थान पर उसे लोक संस्कारों तथा समाज के मन-मष्तिष्क में प्रतिष्ठित कर स्थायित्व प्रदान करता है। यह शैली, आधुनिक युग में जनजागृति पैदा करने वाले नुक्कड़-नाटकों, मीडिया विज्ञापनों, कार्यशालाओं, प्रायोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों, कठपुतली कार्यक्रमों, प्रयासों तथा अभियानों से किसी भी कसौटी से कम नहीं है।

मण्डला जिले की मानिकपुर और अमवार की चौपालों में मौजूद गणेश परते, रेवाराम धूर्वे, हरि सिंह, तीरत सिंह और छोटेलाल मरावी का कहना था कि उनके संस्कारों या लोकजीवन में जल का अत्यधिक महत्व है। यहां के लोग जल को देवता के रूप में स्वीकार करते हैं। उनका मानना है कि बिना जल के जीवन नहीं चल सकता। उनके अंचल में निम्न प्रमुख धार्मिक अनुष्ठानों एवं क्रियाओं में पानी का उपयोग होता है-

1. बड़े देव की पूजा- इसमें साजा के वृक्ष पर जल छिड़ककर उसकी पूजा की जाती है। मान्यता है कि पूजा के बाद बड़े देव उनकी रक्षा करेंगे।

2. खीला-मुठवा की पूजा- इसमें धान की बोनी के पहले गांव के लोग इकट्ठा होकर अपने-अपने घरों से धान के बीज लाकर उन पर जल छिड़ककर उसकी पूजा अर्चना करते हैं। धान के बीजों को पोटली में रखकर तथा पानी में भिगोकर उपचारित करते हैं। इससे अच्छे बीज की मात्रा और फसल के उत्पादन का अनुमान लगता है।

3. चंडी देवी की पूजा करना- चैत्र माह की नवरात्रि में देवी की उपासना की जाती है। गेहूं के जवारे बोकर नौ दिनों तक उन्हें पानी दिया जाता है। यह पूजा गांव की सुरक्षा के लिए की जाती है। लोग जवारे के बोने को बीज-परीक्षण भी मानते हैं।

लामू सिंह, मुरली यादव, गेंदलाल मराबी, कतकूलाल मराबी का कहना था कि सभी धार्मिक अनुष्ठानों में सबसे पहले स्वच्छ जल द्वारा जमीन को शुद्ध किया जाता है। शुद्ध जमीन पर चौक चंदन लगाकर, तिलक बंधन कर, देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की जाती है। उनके अंचल में बड़े देव की पूजा की जाती है। उनकी मान्यता है कि उनका बड़ादेव वृक्ष में निवास करता है। इस कारण वे वृक्षों की पूजा और उनको संरक्षित करना सही मानते हैं। वे खेत में बीज बोने के पहले बीज की पूजा करते हैं। संभवतः इस पूजा का कारण, उन्नत बीज की पहचान एवं अच्छी फसल की कामना करना है ताकि वर्ष भर भोजन की कमी न रहे। चंद्रहास पटेल कहते हैं कि स्थानीय समाज का खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज, साधना, उपासना इत्यादि प्रकृति के साथ जुड़ा है। वे अपने से बड़ों से जीवन के लिए महत्वपूर्ण संस्कार सीखते हैं। उनके अनुसार धार्मिक संस्कार अभी भी प्रासंगिक हैं।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में मौजूद बीरनलाल, जोरूलाल, प्रहलाद दीनूराम, गणेश परते, रेवाराम धुर्वे, हरि सिंह, तीरत सिंह और छोटेलाल मरावी का कहना था कि प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान एवं पूजा प्रक्रिया में पानी के उपयोग के पीछे यह तर्क है कि वह ईश्वर (प्रकृति) द्वारा दिया गया अनमोल उपहार है। उससे जीव-जगत का जीवन जुड़ा है। इसी कारण, उनके अंचल में जल को साक्षी मानकर संकल्प लिया जाता है, उसके पीछे उदेश्य है कि जल में पवित्रता है एवं जल जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। चंद्रहास पटेल कहते हैं कि मण्डला क्षेत्र में पानी तथा संकल्प की परिपाटी के पीछे तर्क है कि जल देवता है जो जीवन की निरंतरता के लिए आवश्यक है। जो व्यक्ति पानी का तिरस्कार करता है या नियमों का पालन नहीं करता, उनको जनजातियों के सामाजिक नियमों के तहत, समाज से बहिष्कृत किया जाता था। यह परंपरा अब धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। इन परंपराओं का अभी भी पालन किया जाता है-

प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान एवं पूजा प्रक्रिया में पानी के उपयोग के पीछे यह तर्क है कि वह ईश्वर (प्रकृति) द्वारा दिया गया अनमोल उपहार है। उससे जीव-जगत का जीवन जुड़ा है। इसी कारण, उनके अंचल में जल को साक्षी मानकर संकल्प लिया जाता है, उसके पीछे उदेश्य है कि जल में पवित्रता है एवं जल जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है।1. देवी देवताओं को जल का अर्घ्य देकर पूजा अर्चना करना।
2. बच्चे के जन्म के पश्चात उसकी जल से सफाई। चौका पूजा में जल का उपयोग।
3. मुण्डन संस्कार के पहले जल से सिर को भिगोना और फिर मुंडन अर्थात बाल काटना।
4. दाह-संस्कार के पहले मृत देह को स्नान कराना।
5. स्नान के पश्चात तुलसी के पौधे पर जल चढ़ाना और
6. सूर्य देवता को अर्घ्य देने को व्यक्ति अपने ऊपर ईश्वर की कृपा का सूचक मानता है।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में मौजूद छोटेलाल मरावी, भकमलाल का कहना था कि प्रत्येक काम के साथ कोई न कोई संस्कार जुड़ा है। उनके अंचल में अलग-अलग कार्यों में अलग-अलग तरीके से पानी का उपयोग करने हेतु लोकमान्यताओं के आधार पर अलग-अलग तरह के संस्कार जुड़े है। लोगों ने मान्यताओं को दैनिक एवं सामाजिक जीवन में स्वीकार किया है इसीलिए, वे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई हैं।

1.3. सामाजिक संस्कारों में विज्ञान
चोहरा चौपाल में नीरज गोस्वामी, डा. ओमप्रकाश चौबे, प्रकाश जारौलिया, मुन्नी तिवारी और प्रभु मिश्रा ने बताया कि व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक 16 संस्कार होते हैं। इन सभी संस्कारों में शुद्ध जल का उपयोग होता है। हर संस्कार के पहले स्नान आवश्यक है। सभी जातियों में नवजात शिशु को जनम के तत्काल बाद गुनगुने शुद्ध जल से नहलाया जाता है। टीकमगढ़ के महाराजपुर की सुधा श्रीवास्तव बताती हैं कि सद्यः प्रसूता एवं बच्चे को नीम के पानी से पांचवे दिन तथा दसवें दिन नहलाया जाता है। पुराने समय में सद्यः प्रसूता एवं बच्चे को अजवायन की धूनी दी जाती थी। अजवायन, चिरायता एवं जड़ी-बूटियां डालकर उबाला पानी पिलाया जाता है। गुड़, घी, हल्दी, बत्तीसा एवं मेवे मिला पेय (हरीरा) पिलाया जाता था। सुधा श्रीवास्तव के अनुसार दस्टोन (दस दिन) या सवा माह बाद कुआं पूजने की प्रथा है। यही बात चोहरा की चौपाल में आई महिलाओं ने कही। सागर क्षेत्र में कुआं पूजने का कारण समझने के लिए हमने महिलाओं के विचार सुने। महिलाओं का कहना था कि प्रसव से लेकर कुआं पूजन तक, महिला को अशुद्ध माना जाता है। कुआं पूजने के बाद वह घर के कामकाज की मुख्यधारा में सम्मिलित होने लगती है। महाराजपुर की दाई, ज्ञान बुआ के अनुसार मसवारा-नहान (स्नान) सवा माह के बाद होता है। हमारा सोचना था कि सारा उपक्रम, सद्यः प्रसूता और नवजात बच्चे के स्वास्थ्य से जुड़ा है और कुआं पूजन, स्वास्थ्य बहाली का सांकेतिक अनुष्ठान।

चोहरा क्षेत्र में मृतक का दाह संस्कार करने के पहले उसे स्नान कराने एवं नए/साफ कपड़े पहनाने की प्रथा है। शवयात्रा में भाग लेने वाला हर व्यक्ति, दाह संस्कार के बाद, श्मशान भूमि के निकट स्थित नदी/तालाब में स्नान करता है। घर पहुंचकर दोबारा स्नान करता है। यह परिपाटी शहरों में भी कतिपय बदलावों के साथ मौजूद है। हमें बताया गया कि आधुनिक युग के बदलावों के बावजूद मृत्यु से जुड़ी परंपराओं का पालन किया जाता है। दाह-संस्कार के उपरांत दसवें दिन दशगात्र या गंगा पूजन तथा मृत्यु भोज मुख्य पूजाएं है। हमें लगता है कि मृतक को दाह संस्कार के पहले स्नान कराने एवं नए कपड़े पहनाने की परिपाटी, कीटाणुओं से परिजनों को बचाने का उपक्रम है। इस उपक्रम को, परिपाटियों और कर्मकाण्डों के माध्यम से जीवनशैली में सम्प्रेषित किया गया है।

चोहरा की चौपाल में उमेश वैद्य, कृष्णमुरारी पचौरी, रामरतन ने बताया कि उनके क्षेत्र के अनेक लोग अमावस्या और पूर्णिमा को नर्मदा स्नान के लिए बरमान-घाट, जो लगभग 80 किलोमीटर दूर है, जाते हैं। कुछ लोग वहां से कांवर में पानी भर कर लाते हैं तथा उसे दमोह जिले में स्थित धार्मिक स्थल बांदकपुर (दूरी लगभग 70 किलोमीटर) में चढ़ाते है। जो लोग बरमान-घाट नहीं जा पाते वे आसपास की नदियों में स्नान करने जाते हैं। इस क्रम में हमें बताया गया कि चोहरा के आसपास सुनार नदी के तट पर बसे बटेश्वर मंदिर, रानगिर ग्राम में हरसिद्धि और सनोथा ग्राम में मेला लगता है। यह प्रथा बरसों से चली आ रही है। ग्रामीण अंचलों में उसका प्रभाव बना हुआ है। नर्मदा स्नान की प्रथा के बारे में उमेश पचौरी का अनुमान था कि यह प्रथा संभवतः नर्मदा नदी के प्रति सम्मान और आस्था के कारण विकसित हुई होगी। कुछ लोग उसे स्वच्छ जल और अथाह जलराशि, देशाटन, मेल-मिलाप एवं मनोरंजन से जोड़कर भी देखते हैं। चोहरा की चौपाल में मनीराम ने स्नान स्रोतों के प्रभाव के बारे में निम्न कहावत सुनाई-

नदी नहावन सब कुछ मिलता, तला नहावन अच्छा।
कुआ नहावन कुछ नहीं मिलता, घरै नहावन गद्धा।।

यह कहावत नदी स्नान की महत्ता और प्रभाव को प्रतिपादित करती है। हमारा मानना है कि आधुनिक युग में नदियों में बढ़ते प्रदूषण के कारण वह धीरे-धीरे महत्व खो रही है।

हल्दी-चंदन मिले भारतीय उबटनों से शरीर की त्वचा का रूखापन घटता है, कांति निखरती है और खून का प्रवाह ठीक होता है। चेहरे पर झुर्रियां कम पड़ती हैं।चोहरा की चौपाल में मौजूद अधिकांश महिलाओं का कहना था कि हल्दी-चंदन मिले भारतीय उबटनों से शरीर की त्वचा का रूखापन घटता है, कांति निखरती है और खून का प्रवाह ठीक होता है। चेहरे पर झुर्रियां कम पड़ती हैं। भारतीय उबटन सस्ता होता है। सबकी पहुंच में होता है। उसके दुष्प्रभाव नहीं होते। महाराजपुर की सुधा श्रीवास्तव और उनके गांव की 60 वर्षीय बुजुर्ग दाई (ज्ञान बुआ) पुराने उबटनों और प्रसूता की मालिश को सेहत बहाली के लिए बेहतर मानती हैं। वे कहती हैं कि नवजात बच्चे की मालिश से उसका शारीरिक विकास अच्छा तथा जल्दी होता है।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में मौजूद हम्मीलाल धुर्वे, मेकुलाल, राखीलाल तेकाम, झाडूलाल, भकमलाल, राम भरोसे, बोध सिंह धुर्वे का कहना था कि उनके सामाजिक संस्कारों के पीछे उदेश्य हैं।

हम्मीलाल, गणेश परते, राम भरोसे, बोध सिंह धुर्वे का कहना था कि आदिवासी अंचल में सामाजिक संस्कारों का पालन करना आवश्यक होता है। उनके अंचल में प्रचलित सामाजिक संस्कारों की सूची काफी लंबी है। कुछ उदाहरण निम्नानुसार हैं-

1. प्रसूता की सेहत की यथाशीध्र बहाली के लिए, लगभग एक माह तक कांके की छाल डालकर उबाला पानी पिलाना।
2. नवजात बच्चे के शरीर की साफ-सफाई।
3. विवाह एवं प्रसूता को संक्रमण से बचाने के लिए नीम के पानी से नहलाना।
4. विवाह मंडप की जगह की पूजा करना।
5. कलश की मिट्टी खोदते समय खनन स्थल की पूजा करना।
6. कलश में पानी भरकर दूल्हे का स्वागत करना।
7. वर-वधू द्वारा तालाब में पानी के अंदर चीखल-मांदी (जनजातीय खेल) खेलना।
8. दूल्हे के पैर पखारते समय बर्तन में पानी डालना।
9. दूल्हे और दुलहिन को हल्दी लगाना।
10. पार्थिव शरीर को पानी से नहलाना।
11. अस्थि विसर्जित करना।
12. दाह संस्कार के पूर्व एवं उपरांत में दाह-स्थल को गोबर से लीपना।

उपर्युक्त सभी संस्कारों में पानी का उपयोग किया जाता है। उनका उद्देश्य निरापद सेहत की सुनिश्चितता है। जल से लगभग सभी गंदी चीजों का शुद्धीकरण संभव है। अभी भी जल का सभी कर्मकाण्डों में महत्व है।

मण्डला जिले की चौपालों में बताया गया कि मृतक का दाह संस्कार करने के पहले उसे स्नान कराने की प्रथा है। दाह संस्कार के पूर्व, दाह-स्थल की पानी से शुद्धि की जाती है। उसके उपरांत, दाह संस्कार किया जाता है। दाह संस्कार के बाद सभी लोगों द्वारा तालाब/नदी में स्नान किया जाता है। शवदाह के तीसरे दिन, अस्थि संचय किया जाता है। अस्थि संचय के उपरांत, उस जगह की गोबर से लिपाई की जाती है। दाह संस्कार की जगह पर पौधा रोपण किया जाता है तथा दिन में एक बार पानी डाला जाता है। फूलचंद मरकाम और लखन लाल परतेती का कहना था कि उनके समाज में आज भी कर्मकाण्डों का महत्व बाकी है।

मण्डला जिले में जलस्रोतों एवं नदियों के किनारे मेले लगाने की प्रथा है। लोगों का मानना है कि मेले की प्रथा के पीछे नदियों का शुद्ध एवं पवित्र जल रहा होगा। बीरनलाल, रतिराम डोंगरे और दीनूलाल सैयाम कहते हैं कि उनके क्षेत्र की नदियों का पानी, जंगल की विभिन्न वनस्पतियों से मिलता हुआ आता है इसलिए उसमें कीटाणुओं को मारने की क्षमता होती है। उनका विश्वास है कि पुराने समय में, उनके यहां का पानी जड़ी-बूटियों वाला होता था इसलिए मेले की प्रथा का जन्म हुआ। आज भी जहां पर नदियों का बहाव अच्छा है, वहां मेले की प्रथा मौजूद है।

2. जलस्रोत- जलस्रोतों में विज्ञान की झलक


हमारी टीम ने चोहरा की चौपाल में आए लोगों से परंपरागत संरचनाओं, पानी की खोज की परंपरागत विधियों और उनके वैज्ञानिक पक्ष, जल स्रोतों से पानी खींचने की व्यवस्था एवं स्रोत निर्माण में प्रयुक्त औजारों, पानी को शुद्ध रखने के तौर-तरीकों और पेयजल सुरक्षा एवं संस्कारों पर उनके विचार जानने का प्रयास किया। मण्डला की चौपालों और सम्पर्क सूत्रों से प्राप्त विचारों का अध्ययन करने के बाद, प्रत्येक बिन्दु पर संकलित विचार, उसकी विवेचना और उनका संभावित वैज्ञानिक पक्ष दिया जा रहा है।

2.1 परंपरागत जल संरचनाएं
सागर जिले की रहली तहसील के ग्राम चोहरा की चौपाल में दीपक तिवारी, उमेश वैद्य ओमप्रकाश चौबे ने बताया कि उनके क्षेत्र की प्रमुख संरचना कुआं हैं। इस क्षेत्र में तालाब नहीं हैं। व्यापारिक मार्गों पर पत्थरों से बनी पक्की परंपरागत बावड़ियां हैं। उनसे लगे घने छायादार वृक्ष और पड़ाव हैं। भवानीशंकर जारौलिया और उमेश वैद्य कहते हैं कि पुराने समय में उनका गांव, पानी के मामले में सम्पन्न था। उनके गांव में तालाब या कुआं बनवाने की जरूरत नहीं थी। उनके गांव के पास से कैथ नदी बहती है। पुराने समय में उसमें पूरे साल साफ पानी बहता था। धीरे -धीरे पानी कम हुआ। पानी घटने के बाद लोग नदी की तली में झिरिया बनाकर साफ पानी प्राप्त करते थे। सिंचाई का चलन नहीं के बराबर था। पुराने समय में केवल, पान के बरेजे, सब्जी के लिए लगाई कछवाई या बागवानी करने वाले लोगों को अतिरिक्त पानी की आवश्यकता पड़ती थी। वे लोग ही कुआं बनवाते थे। दीपक तिवारी बताते हैं कि लगभग 600 साल पहले किसी लाखा बंजारे ने सागर नगर में विशाल तालाब बनवाया था। लाखा द्वारा बनवाया तालाब आज भी सागर नगर में बूंदों की विरासत के रूप में जिंदा है। दीपक तिवारी का कहना था कि साठ-सत्तर साल पहले तक सागर तालाब का पानी इतना साफ था कि लोग बेहिचक उसका उपयोग करते थे। प्रकाश जारौलिया, दीपक तिवारी और उमेश वैद्य का कहना था कि चोहरा के आसपास का इलाका गहरी काली मिट्टी का इलाका है। उनका मानना है कि गहरी काली मिट्टी में बने तालाबों में पानी की झिर अच्छी नहीं होती।

टीकमगढ़ जिले के बौरी ग्राम के दुर्गाप्रसाद यादव कहते हैं कि पुराने समय में उनके क्षेत्र में तालाब, बाउरियां (बावड़ियां) और चौपरे बनाए जाते थे। वे बताते हैं कि पुराने राजा महाराजाओं ने गांवों के पास छोटे और गांवों से दूर बड़े तालाबों का निर्माण कराया था। किसी किसी गांव में एक से अधिक तालाब थे। माधुरी श्रीधर द्वारा खोजे दस्तावेजी प्रमाण बताते हैं कि समूचे बुंदेलखंड में 600 से अधिक बड़े तालाब और 7000 से अधिक छोटे तालाब थे। ज्ञातव्य है कि सबसे अधिक तालाब केन नदी और बेतवा नदी के बीच के अभावग्रस्त इलाके में बनवाए गए थे। बसाहटों में कच्चे और पक्के कुएं, राजमार्गों तथा व्यापारिक मार्गों पर बटोहियों के लिए कूपों और बावड़ियों का निर्माण कराया था। प्रतापी राजा मदनवर्मन द्वारा बनवाई बावड़ियों को मदन-बेरे भी कहा जाता है।

दुर्गाप्रसाद यादव कहते हैं कि बुंदेलखंड अंचल में तालाबों का वर्गीकरण श्रुतियों के आधार पर किया जाता था। श्रुतियों के अनुसार कूप, वापी, पुष्करनी और तडाग पानी उपलब्ध कराने वाली संरचनाएं हैं। इन सभी जल संरचनाओं को खोदकर बनाया जाता था। कूप का व्यास 5 हाथ से 50 हाथ (एक हाथ बराबर लगभग 1.5 फुट) होता था। सीढ़ीदार कुएं को, जिसका व्यास 50 से 100 हाथ होता है, वापी (बेर) कहते थे। वापी में चारों ओर या तीन ओर या दो ओर या केवल एक ओर से सीढि़यां बनाई जाती थीं। सौ से 150 हाथ लंबाई के तालाब को पुष्करनी कहते थे। तडाग की लंबाई 200 से 800 हाथ होती है।

दुर्गाप्रसाद यादव ने बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल की एक कहानी सुनाई जिसमें कहा गया था कि उनके बेटे जगतराज को गड़े खजाने के बारे में एक बीजक मिला था। बीजक में दर्ज सूचना के आधार पर जगतराज ने खजाना खोद लिया। कुछ समय बाद जब इसकी जानकारी छत्रसाल को लगी तो उन्होंने अपेन बेटे को उस धन की मदद से चंदेल राजाओं द्वारा बनवाए सभी तालाबों की मरम्मत और नए तालाब बनवाने का आदेश दिया। कहा जाता है कि उस गुप्त धन से 22 विशाल तालाबों का निर्माण हुआ था। इस कहानी का उल्लेख अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में भी मिलता है।दुर्गाप्रसाद यादव कहते हैं कि चंदेलों द्वारा बनवाए अधिकांश तालाब नहर विहीन थे। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि वे कौन-सी बंधनकारी परिस्थितियां थीं जिनके कारण बुंदेला और चंदेला राजाओं को तालाबों के निर्माण की आवश्यकता पड़ी। दुर्गाप्रसाद यादव कहते हैं कि संभव है तालाबों के निर्माण का उदेश्य आमोद-प्रमोद या शिकार हो। हमारा मानना है कि बुंदेलखंड का परंपरागत समाज पशुपालक समाज था। उपलब्ध जलस्रोतों ने घूमन्तु की अस्थायी बसाहटों को स्थायी बसाहटों में बदला और तालाबों के निर्माण ने आजीविका और खेती के सम्बंधों को स्थायित्व प्रदान किया। संभव है, यही वे बंधनकारी परिस्थितियां थीं, जिन्होंने प्राचीन राजाओं और सम्पन्न लोगों को तालाब बनाने के लिए प्रेरित किया।

पिछले कुछ सालों में टीकमगढ़ जिले के प्राचीन तालाबों के कैचमेंट की हरियाली खत्म हुई है और उसकी भूमि का उपयोग बदला है। हरियाली खत्म होने के कारण धरती नंगी हुई है और भूमि उपयोग बदलने के कारण, 'दूबरे और दो असाढ़' की कहावत चरितार्थ हुई है। अर्थात एक ओर पानी की आवक घटी है तो दूसरी ओर गाद की मात्रा बढ़ी है। इसी कारण कई तालाब सूख रहे हैं और उसमें बहुत अधिक गाद जमा हो रही है।दुर्गाप्रसाद यादव कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में टीकमगढ़ जिले के प्राचीन तालाबों के कैचमेंट की हरियाली खत्म हुई है और उसकी भूमि का उपयोग बदला है। हरियाली खत्म होने के कारण धरती नंगी हुई है और भूमि उपयोग बदलने के कारण, 'दूबरे और दो असाढ़' की कहावत चरितार्थ हुई है। अर्थात एक ओर पानी की आवक घटी है तो दूसरी ओर गाद की मात्रा बढ़ी है। यादव कहते हैं कि इसी कारण कई तालाब सूख रहे हैं और उसमें बहुत अधिक गाद जमा हो रही है। इसके अलावा आधुनिक बसाहटों के अपशिष्टों के तालाबों में मिलने के कारण उनका पानी प्रदूषित हो रहा है। प्रदूषित तालाब मल-मूत्र, गंदगी और बीमारी के स्थायी स्रोत बन रहे हैं। तालाबों की जमीनों पर खेती होने लगी है। उन पर कॉलोनियां कट रही हैं। कुछ पुराने तालाब अस्तित्व और अस्मिता के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो कुछ इतिहास के पन्नों में खो गए हैं।

माधुरी श्रीधर द्वारा खोजे दस्तावेजी प्रमाण बताते हैं कि चंदेल राजाओं द्वारा बनावाए गए तालाब दो प्राकर के थे। पहले वर्ग के तालाबों का पानी पीने के लिए काम में लाया जाता था। उन तालाबों पर घाट बनाए जाते थे और लोग स्नान करते थे। दूसरे प्रकार के तालाबों के पानी का उपयोग सिंचाई और पशुओं के लिए किया जाता था। ज्ञातव्य है कि बुंदेलखंड के कुछ इलाकों में, जहां अधिक मात्रा में बरसाती पानी मिलता था, वहां चंदेल राजाओं ने तालाबों की श्रृंखलाएं (सांकल) बनवाई थीं। बरसाती पानी, ऊपर के तालाब को भरने के बाद नीचे के तालाबों को भरता था। सांकल तालाब छोटे होते थे इसलिए उनमें कचरा, मिट्टी और गंदगी के जमा होने का प्रश्न ही नहीं था।

बुंदेलखंडी गीतों एवं कहावतों की जानकार सुधा श्रीवास्तव बताती हैं कि पचास साल से भी पहले जब वे ब्याह कर महाराजपुर आईं थीं तब उनका गांव पानी के मामले में बहुत सम्पन्न था। कुओं तथा तालाबों में बारह महीने पानी रहता था। वे आगे कहती हैं कि ग्रामों, बस्तियों और नगरों के आसपास जंगल ओर डांगें हुआ करती थीं जिनमें बरसाती नदियां और नाले बहा करते थे। छोटी-छोटी टोरियों और पहाड़ों में कल-कल करते झरने निकलते थे। उनका पानी कांच के समान साफ होता था। वे अब लगभग लुप्तप्राय हो गए हैं। यह पिछले 50 सालों में हुआ है।

माधुरी श्रीधर का अध्ययन बताता है कि पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों के शोध पत्रों में कुओं, तालाबों और बावड़ियों के निर्माण का प्रयोजन, प्रयुक्त तकनीकें, पर्यावरणीय पक्ष और धरती से उनके सह-संबंधों का विवरण लगभग अनुपलब्ध है। खैर, कारण और कमियां कुछ भी हों पर एक बात साफ है कि बुंदेलखंड की भौगोलिक और पर्यावरणी परिस्थितियों से मेल खाती पुरातन तकनीकों पर बहुत कम अध्ययन हुआ है। इस कमी के कारण, आधुनिक नीति नियमकों का ध्यान बुंदेलखंढ की परंपरागत प्रणालियों के तकनीकी पक्ष और प्रासंगिकता की ओर आकर्षित नहीं हुआ है। प्रसंगवश उल्लेख है कि वर्तमान युग में जल संरचनाओं के निर्माण के लिए पहले की तुलना में कई गुना अधिक धन और अवसर उपलब्ध हैं। इस क्रम में हमारी टीम का मानना है कि परंपरागत जल संरचनाओं के तकनीकी पक्ष और प्रासंगिकता पर अनुसंधान करने की आवश्यकता है।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में मौजूद लोगों का कहना था कि उनके क्षेत्र में पानी झरनों, नदियों, तालाबों, नालों और कुओं से प्राप्त होता था। प्राचीन काल के अधिकांश प्राकृतिक जलस्रोत जंगल में स्थित थे, उनका पानी उपयोग के लायक होता था। उसका उपयोग पीने, खाना पकाने, नहाने, पालतू जानवरों को पानी पिलाने, सिंचाई एवं मछली उत्पादन के लिए किया जाता था। वर्तमान में जंगल कटने/घटने के कारण तालाब, झरने, नदी, नाले (छोटे) जल्दी सूख जाते हैं। पानी का भराव कम होने से वह दूषित भी हो जाता है। उनका अनुमान है कि पुराने समय में लोगों की आजीविका का आधार जंगल था, इसलिए संभव है कि उनकी बसाहटों का विकास परंपरागत जल संरचनाओं के निकट हुआ हो। उनके क्षेत्र के लोग प्राकृतिक तरीके से बेवर खेती करते थे, वे पानी के स्रोत के आसपास शिकारगाह बना कर या मचान डालकर जानवरों का शिकार कर अपनी आजीविका चलाते थे। उनका मानना था कि नदी, नालों और तालाबों में मिलने वाले पानी में फर्क होता है। नदी-नालों का पानी लगातार बहता रहता है और वह जंगल के पेड़-पौधों के आसपास से गुजरता है इसलिए आयुर्वेदिक गुणों से सम्पन्न और बीमारियों को नष्ट करने वाला होता है। तालाबों का पानी ठहरा हुआ होता है, इसलिए उसमें अशुद्धियां पनपने और जमा होने की अधिक संभावना होती है। पुराने तालाब, किसी हद तक बेहतर थे।

2.2 पानी की खोज
सागर जिले की चोहरा ग्राम और मण्डला जिले की मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए लोगों से पानी की खोज की परंपरागत विधियों के बारे में जानकारी ली। उस जानकारी को भूजल तथा सतही जल में वर्गीकृत कर प्रस्तुत किया जा रहा है।

2.2.1. भूजल की खोज की परंपरागत विधि
चोहरा की चौपाल में भूजल की खोज की परंपरागत विधियों के बारे में डा. ओमप्रकाश चौबे, दीपक तिवारी, भगवान दास कुशवाहा और कन्छेदी लाल पटेल इत्यादि ने जानकारी दी। उन्होंने बताया कि पुराने समय में कुओं तथा बावड़ियों का स्थल चयन आम, ऊमर, नीम गुरबेल और कोहा के वृक्षों की मौजूदगी के आधार पर किया जाता था। वेदवारा गांव के भगवान दास कहते हैं कि यदि ऊमर के वृक्ष के निकट कुआं बनाया जाता था तो उसमें पानी मिलने की अच्छी संभावना होती थी। वे आगे बताते हैं कि अकौआ, जामुन एवं आम के वृक्षों की मदद से भी भूजल की मौजूदगी का पता लगाया जा सकता है। उनका कहना था कि आज भी वे विधियां बेमानी नहीं हुई हैं। आज भी उनका उपयोग होता है।

भगवान दास कहते हैं कि यदि ऊमर के वृक्ष के निकट कुआं बनाया जाता था तो उसमें पानी मिलने की अच्छी संभावना होती थी।
माणिकलाल जैन खुद रूद्राक्ष की सहायता से पानी की भविष्यवाणी करते हैं। वे कहते हैं कि यदि धागे के सहारे लटकाए रूद्राक्ष के घूमने की दिशा घड़ी के कांटों की दिशा में हो तो पानी मिलेगा अन्यथा नहीं।
रहली के योगेन्द्र जैन, माणिकलाल जैन और कृष्णमुरारी पचौरी ने जानकारी दी कि उनके गांवों के कुछ लोगों रूद्राक्ष या बिही (अमरूद) की लकड़ी की सहायता से जमीन के नीचे के पानी (भूजल) की खोज करते हैं। माणिकलाल जैन खुद रूद्राक्ष की सहायता से पानी की भविष्यवाणी करते हैं। वे कहते हैं कि यदि धागे के सहारे लटकाए रूद्राक्ष के घूमने की दिशा घड़ी के कांटों की दिशा में हो तो पानी मिलेगा अन्यथा नहीं। श्री जैन, जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर के कृषि विज्ञान के स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त किसान हैं। कुछ लोग धरती की नमी या उसके तापमान के आधार पर भी पानी का अनुमान लगाते हैं। कृष्णमुरारी पचौरी ने बताया कि कुछ लोग खेत के विभिन्न हिस्सों में पानी से भरा जल पात्र (मिट्टी का करवा) रखकर दूसरे दिन रिसे पानी की मात्रा के आधार पर जमीन के नीचे के पानी का अनुमान लगाते हैं।

मण्डला जिले की मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए रामकिसन, बोधसिंह मरावी, दीनूराम और मुरली यादव इत्यादि लोगों ने बताया कि पहाड़ी क्षेत्र में ढलानों की जगह, जहां पर गर्मी के मौसम में भी नमी बनी रहती है, घास/चारा हरा रहता है एवं वातावरण में ठंडक बनी रहती है, वहां पानी मिलता है। गांव के लोग जमीन की भौगोलिक स्थिति के आधार पर पानी की उपलब्धता का अनुमान लगाते थे। लखनलाल परतेती, फूलचंद मरकाम और लालू सिंह का कहना था कि जहां की जमीन में ज्यादा गर्मी समझ में आती है वहां अक्सर पानी की कमी होती है। मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए बुजुर्ग किसानों का कहना था कि भूजल की खोज के परंपरागत तरीके के अंतर्गत लोग उन क्षेत्रों का पता लगाते थे जहां के जंगली पेड़-पौधों की हरियाली पूरे साल बरकारार और मिट्टी में नमी बनी रहती थी। उन क्षेत्रों को पहचान कर लोग खुदाई कर पानी प्राप्त करते थे। जहां तक इन विधियों के वैज्ञानिक पक्ष का प्रश्न है तो उनका मानना है कि जहां हरियाली होगी, वहीं पानी होगा। उनके अनुसार संभवतः यही उसका वैज्ञानिक पक्ष है। इस विधि का ग्रामीण क्षेत्रों में, अभी भी कहीं-कहीं उपयोग होता है।

2.2.2. बरसात की मात्रा की माप की खोज की परंपरागत विधि
चोहरा की चौपाल में मौजूद लोगों को बरसात की मात्रा की माप के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। वे चाणक्य द्वारा विकसित द्रोण विधि से अपरिचित थे। लगता है, बुंदेलखंड के समाज ने बरसात की माप पर ध्यान नहीं दिया। यह भी संभव है कि उन्हें कभी उसकी आवश्यकता ही अनुभव नहीं हुई। चौपाल में आए लोगों का कहना था कि यदि कोई परंपरागत विधि या तरीका रहा होगा तो उन्हें उसकी जानकारी नहीं है।

प्रकाश जारोलिया का कहना था कि बरसात में, गिरते पानी की मात्रा का अनुमान, परांत या चौड़े मुंह वाले बर्तन में पानी को एकत्रित कर किया जा सकता है। बरसात की मात्रा नापने की विधि के बारे में वेदवारा गांव के भगवान दास और अवधबिहारी पांडेय का कहना था कि उनके बुजुर्ग बरसात की मात्रा की पर्याप्तता का अनुमान गांव के पास स्थित झरनों के जिंदा होने से लगाते थे। दूसरा तरीका अनुभव आधारित कहावतों का था जिनमें तालाबों, नदियों और झरनों के व्यवहार के आधार पर बरसात की पर्याप्तता का अनुमान लगाया जाता था।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए किसानों का कहना था कि बरसात के दिनों में पानी बरसता है। वह पानी, पहाड़ी/जंगली क्षेत्रों में छोटे-छोटे नदी, नालों का उद्गम स्थान बनाता है। उद्गम से आगे चला पानी बड़े आकार में परिवर्तित होकर क्रमशः बड़े नदी-नाले बनाता है। उन सबके जिंदा होने के आधार पर पानी की पर्याप्तता का अनुामान लगाया जा सकता है।

2.3 पानी की खोज की परंपरागत विधियों का वैज्ञानिक पक्ष
सागर जिले की चोहरा चौपाल में लोगों ने उथली जड़ों वाले वृक्षों, धरती की नमी या उसके तापमान या मिट्टी के कोरे घड़ों के धरती में पानी के रिसने को भूजल की उपस्थिति का संकेतक माना है। हमारी टीम का मानना है कि यह आधार पूरी तरह वैज्ञानिक हैं। सभी लोग इस बात से अवगत हैं कि उथली जड़ों वाले पौधों का विकास उथले भूजलस्तर या नमी वाले इलाकों में ही संभव है। इसलिए उथली जड़ वाले पौधों को कम गहराई पर मिलने वाली वाटर टेबिल का संकेतक मानना सही है। विदित है कि उथले भूजलस्तर वाले इलाकों में सूक्ष्म कोशिकाओं के प्रभाव से भूमिगत जल सतह के करीब आ जाता है। इस पानी को धरती की नमी के रूप में पहचाना जा सकता है। इसी प्रकार, नमी वाली और सूखी धरती को उसके तापमान या वाष्पीकरण के अंतर से पहचाना जा सकता है। इसी प्रकार सूखे मौसम में, घास के अधिक समय तक हरे-भरे बने रहने या धरती के तापमान की कमी या ठंड की ऋतु में कोहरे के एकत्रित होने को उथले भूजलस्तर का संकेतक माना जा सकता है। संभव है कि मालवा के ज्ञान का प्रसार इस इलाके तक हुआ हो। इस तर्क के आधार पर कहा जा सकता है। संभवतः चोहरा के परंपरागत समाज ने वराहमिहिर द्वारा खोजे कतिपय संकेतकों को भूजल की भविष्यवाणी का आधार बनाया।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए बुजुर्ग किसानों ने जंगली पेड़-पौधों की हरियाली वाली जगह और नम मिट्टी वाले क्षेत्रों को भूजल का संकेतक माना है। इन संकेतकों की मदद से उथले जलस्तर वाले इलाकों को पहचाना जा सकता है। उल्लिखित संकेतक विज्ञान-सम्मत हैं।

वर्तमान युग में भूजल वैज्ञानिक चट्टानों के गुणधर्मो के आधार पर तथा भू-भौतिकीविद् चट्टानों की विद्युत प्रतिरोधकता के आधार पर जमीन के नीचे के पानी के मिलने की संभावना व्यक्त करते हैं। जाहिर है, दोनों ही विधियों (पुरातन और आधुनिक) में धरती की परतों के गुणों के बदलावों को ही भूजल की खोज का आधार बनाया जाता है। पुरानी तथा नई विधियों में खोज के तरीकों में भले ही बुनियादी फर्क है पर दोनों ही विधियों का फिलासफी एक है। हमारी टीम का मानना है कि चट्टानों के गुणधर्मों पर आधारित दोनों ही विधियां वैज्ञानिक हैं।

परंपरागत तालाबों और कुओं के निर्माण का वैज्ञानिक पक्ष

हमारी टीम ने बुंदेलखंड अंचल में बनने वाले कुओं, तालाबों और कुओं के निर्माण का वैज्ञानिक पक्ष समझने के लिए उपलब्ध साहित्य का अध्ययन किया। मध्य बुंदेलखंड अंचल में बने तालाबों का विवरण गांधी और किर्तने के आलेख में मिलता है। इस आलेख के अनुसार मध्य बुंदेलखंड इलाके में अनेक चंदेलकालीन तालाबों का निर्माण कम ऊंचाई वाली क्वार्टज-रीफ की पहाड़ियों के बीच में किया गया है। क्वार्टज-रीफ की पहाड़ियों और उनके बीच के मैदानों द्वारा उपलब्ध कराई भूवैज्ञानिक परिस्थितियां, तालाबों, कुओं और बावड़ियों के निर्माण के लिए बहुत अधिक अनुकूल है क्योंकि क्वार्टज-रीफ की पहाड़ियों के बीच बरसा सारा पानी, सतही जल संरचनाओं और भूजल भंडार के रूप में कैद हो जाता है। आलेख बताता है कि तालाबों की पाल के दोनों तरफ पत्थरों के ब्लाक लगाए गए हैं और पाल को सुरक्षित करने के लिए चूने के गारे से जुड़ाई की गई है। गांधी और किर्तने कहते है कि बड़े तालाबों की परिधि लगभग चार किलोमीटर तक होती थी। उनका आकार यथासंभव गोलाकार होता था।

काशीप्रसाद त्रिपाठी की किताब बुंदेलखंड के तालाबों एवं जलप्रबंधन का इतिहास में कहा गया है कि चंदेल काल में तालाबों के आगौर को चारागाह के रूप में सुरक्षित रखा जाता था। उसमें खेती वर्जित थी। इस वर्जना के कारण गाद जमाव का खतरा बहुत कम था। तालाब के आसपास के निचले क्षेत्र में खेती की जाती थी। तालाबों में स्नान घाट की सीढ़ियों पर संकेतक लगाए जाते थे। इन संकेतकों को हथनी, कुड़ी, चरई अथवा चौका के नाम से जाना जाता था। इन संकेतकों तक जलस्तर पहुंचते ही तालाब का अतिरिक्त पानी वेस्टवियर के रास्ते बहने लगता था। काशीप्रसाद त्रिपाठी कहते हैं कि किन्हीं तालाबों के बीच में अधिकतम जलस्तर दर्शाने के लिए पत्थर का खम्बा लगाया जाता था। इस खम्बे के शीर्ष तक जलस्तर के पहुंचते ही समाज को तालाब भरने की जानकारी हो जाती थी। तालाब भरते ही वेस्टवियर सक्रिय हो जाता था और अतिरिक्त पानी बहुत सी गाद बहा ले जाता था। कुछ गाद बरसात बाद, जल प्रवाह के साथ बाहर जाती थी।

हमारी टीम ने बुंदेलखंड अंचल की भूवैज्ञानिक परिस्थितियों को समझने के लिए बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी के भूविज्ञान विभाग के प्रोफेसर डा. एसपी सिंह चर्चा की। उनका कहना था कि बुंदेलखंड के परंपरागत तालाबों और कुओं के निर्माण का भूवैज्ञानिक पक्ष बुंदेलखंड को दक्षिण बुंदेलखंड और मध्य बुंदेलखंड में विभाजित कर आसानी से समझा जा सकता है। एसपी सिंह के अनुसार दक्षिण बुंदेलखंड अंचल अर्थात सागर और दमोह इत्यादि जिलों में मुख्यतः सेन्डस्टोन और या बेसाल्ट पाया जाता है। वहीं मध्य बुंदेलखंड (दतिया, छतरपुर, टीकमगढ़ झांसी और पन्ना जिलों) के अधिकांश भाग में ग्रेनाइट और समान भूजलीय गुणों वाली नीस चट्टानें पाई जाती हैं। इन चट्टानों को क्वार्टज-रीफ ने सैकड़ों जगह काटा है। यह बुंदेलखंड अंचल की भूवैज्ञानिक जमावट है। यही जमावट जल संरचनाओं के विकल्प चयन को निर्धारित और नियंत्रित करती है। पुराने समय में इसी आधार पर मध्य और दक्षिण बुंदेलखंड की जल संरचनाओं को निर्माण हुआ था।

एसपी सिंह के अनुसार दक्षिण बुंदेलखंड अंचल अर्थात सागर और दमोह जिलों की परिस्थितियां मध्य बुंदेलखंड अंचल की परिस्थितियों से पूरी तरह भिन्न है। मध्य बुंदलेखंड क्षेत्र की परिस्थितियां अपेक्षाकृत बेहतर हैं। इस अंतर के कारण एक ही सांस्कृतिक अंचल में स्थित होने के बावजूद वे जल उपलब्धता और संरचना के विकल्प के चयन की दृष्टि से बहुत अधिक भिन्न हैं। डा. सिंह ने हमें मध्य बुंदेलखंड क्षेत्र का भूवैज्ञानिक नक्शा तथा क्वार्टज-रीफ की पहाड़ियों के फोटोग्राफ भी उपलब्ध कराए। नीचे दिए नक्शे में मध्य बुंदेलखंड क्षेत्र में क्वार्टज-रीफ के वितरण को दर्शाया गया हो। इस नक्शे में क्वार्टज-रीफ छोटी-छोटी रेखाओं के रूप में दिखाई देती हैं। वे बताते हैं कि इसी अंतर के कारण मध्य बुंदेलखंड में कुएं तथा तालाबों का और दक्षिण बुंदेलखंड अंचल में मुख्यतः कुएं और बावड़ियों का निर्माण हुआ था।

मध्य बुंदेलखंड क्षेत्र में क्वार्टज-रीफ का वितरण दर्शाने वाले नक्शे को देखने से पता चलता है कि मध्य बुंदेलखंड क्षेत्र में ग्रेनाइट समूह की कठोर चट्टानों को क्वार्टज-रीफों ने उत्तर-पूर्व दक्षिण पश्चिम की दिशाओं में काटा है। वे सिंध, धसान, पंहुज, बेतवा जैसी नदियों के जलमार्गो को भी अनेक जगह काटती हैं। उनके द्वारा प्रभावित क्षेत्र बहुत विस्तृत है।

डा. सिंह के अनुसार इस क्षेत्र में काले रंग की डाइकें भी मिलती हैं। पर भूमिगत पानी को सहेजने में उनकी भूमिका अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण है। मध्य बुंदेलखंड क्षेत्र में क्वार्टज-रीफों की जल अवरोधक किंतु कम ऊंची अनेकों पहाड़ियां मौजूद हैं। क्वार्टज रीफों की पहाड़ियों और उनके आगे बने तालाबों की स्थिति देखकर लगता है जैसे इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही प्राचीन तालाबों का और नदी घाटियों के खुले इलाके में कुओं और बावड़ियों का निर्माण किया गया था।

उपर्युक्त विवरण के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मध्य बुंदेलखंड अंचल में तालाबों के निर्माण का फैसला वर्षा के चरित्र, आजीविका के लिए पानी को जरूरतों और जमीन के गुणों को ध्यान में रखकर लिया होगा। डा. सिंह द्वारा दी जानकारी बताती है कि तालाबों के निर्माण की फिलासफी बहुत सरल थी। इसके अनुसार जिस स्थान पर निस्तार तालाब के लिए वांछित परिस्थितियां उपलब्ध थीं वहां निस्तारी तालाब, जहां रिसाव या नमी की आवश्यकता पूरी करने लायक परिस्थितियां उपलब्ध थीं वहां रिसन तालाब बनवाए गए। जहां क्वार्टज-रीफ की पहाड़ियों मौजूद थीं, वहां प्राकृतिक जलाशय बनाए गए- कहीं छोटी नदियों पर तो कहीं-कहीं ढाल पर एकल या श्रृंखलाबद्ध बांध। लगता है, इसी कारण मध्य बुंदेलखंड में प्राकृतिक जलचक्र का संतुलन कायम रहा। बारहमासी तालाबों का निर्माण संभव हुआ। इसी कारण कुओं और बावड़ियों में भरपूर पानी मिला और नदी नाले बारहमासी बने। लगता है यही तालाब और कुओं के निर्माण का अन्तर्निहित विज्ञान था। आधुनिक युग में बनने वाली अधिकांश जल संरचनाओं के स्थल चयन में उल्लिखित वैज्ञानिकता का अभाव है।

डा. एसपी सिंह द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार दक्षिण बुंदेलखंड की भूगर्भीय स्थितियां भिन्न थीं। चोहरा की चौपाल में इस भिन्नता का प्रमाण सामने आया जिसमें प्रकाश जारौलिया और उमेश वैद्य ने बताया था कि उनके गांव के आसपास की गहरी काली मिट्टी में पानी की झिर कमजोर होने के कारण, तालाबों का निर्माण नहीं हुआ था। इस कारण उनके अंचल में केवल कुएं और बावड़ियां बनवाई गई थीं। प्रसंगवश उल्लेख है कि पुराने समय में नलकूप प्रचलन में नहीं थे, इसलिए बेसाल्ट की परतों के गुणों को ध्यान में रख केवल कुएं बनाए गए। हमें लगता है, यही कुओं और बावड़ियों के निर्माण का अन्तर्निहित विज्ञान था। मंडला इलाके में भी धरती के चरित्र ने कुओं के अतिरिक्त निस्तारी तालाबों का निर्माण संभव किया।

आधुनिक जल संरचनाएं


आधुनिक युग में मुख्यतः विभिन्न साइज के बांध, उद्वहन सिंचाई योजनाएं, स्टाप-डेम इत्यादि बनाए जाते हैं। बुंदेलखंड का इलाका गंगा कछार में आता है। इस क्षेत्र की प्रमुख नदियों में केन, बेतवा, सुनार, धसान इत्यादि हैं। इस क्षेत्र में मध्यप्रदेश के जल संसाधन विभाग द्वारा विभिन्न आकार के बांधों का निर्माण किया जा रहा है। इन सिंचाई योजनाओं से छतरपुर, दतिया, सागर, टीकमगढ़, दमोह जिलों को लाभ मिलेगा। इन सभी योजनाओं के निर्माण का सिद्धांत, कैचमेंट के पानी को कृत्रिम जलाशय में रोक कर, कमांड क्षेत्र में जल उपलब्ध कराना है। वृहद्, मध्यम तथा लघु सिंचाई योजनाओं को छोड़कर, ग्रामीण विकास विभाग, लोक स्वास्थ्य विभाग और कृषि कल्याण विभाग छोटी संरचनाओं (स्टाप-डेम, नलकूप, तालाब तथा कुओं) का निर्माण करते हैं। मौजूदा अवधारणा और प्राचीन अवधारणा में जमीन-आसमान का फर्क है।

2.4 जल निकास व्यवस्था एवं प्रयुक्त औजार


जल निकास व्यवस्था
चोहरा की चौपाल में प्रेम नारायण, हरगोविन्द अहिरवार, बृजबिहारी और मानीराम ने बताया कि पुराने समय में कुओं से रस्सी-बाल्टी की मदद से पानी निकाला जाता था। कुछ कुओं पर लकड़ी की नाट रखी जाती थी जिस पर खड़े होकर पानी निकाला जाता था। कुछ कुओं पर पानी खींचने के लिए लकड़ी की ढांचा (मनघटा) लगाया जाता था। मनघटा में रस्सी-बाल्टी द्वारा पानी निकालने के लिए घिर्री लगी होती थी। बावड़ियों में नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां थीं। जल प्राप्ति के लिए सामान्यतः मिट्टी के घड़ों का उपयोग किया जाता था। अधिक मात्रा में पानी निकालने के लिए कुओं पर रहट या मोट (चड़ंस) लगाई जाती थी। रहट में मिट्टी के घड़ों और चड़स में चमड़े का उपयोग किया जाता था। चोहरा की चौपाल में डा. चौबे और मृदंगवादक मनीराम ने 16 घड़ोंवाली रहट की संरचना और उसकी कार्यप्रणाली के बारे में निम्नलिखित बुंदेलखंड कहावत सुनाई।

आठ कटाकट, नौ पंचारी, सोरा बैल अठारह नारी।
आवो पांडे करो विचार, सोरा घर को एक द्वार।।

महाराजपुर ग्राम के सीताराम व्यास ने पुराने समय में टीकमगढ़ क्षेत्र में पानी निकालने में प्रयुक्त उपकरणों की जानकारी दी। वे बताते हैं कि पुराने जमाने में चमड़े की चरस और रहट का उपयोग किया जाता था। चमड़े की चरस को तरसा या चरसा भी कहते थे। वे बताते हैं कि छतरपुर इलाके में ढेंकुरी का अधिक उपयोग होता था। ढेंकुरी में एक लंबा खम्बा होता था। इस खम्बे के एक सिरे पर पानी निकालने वाला उपकरण तथा दूसरे सिरे पर भार संतुलन करने की व्यवस्था होती थी। यह देशज व्यवस्था थी जो सैकड़ों सालों तक प्रचलन में रही है। हमारी टीम का मानना है कि कुओं से पानी निकालने वाली ढैंकुरी व्यवस्था लीवर के सिद्धांत पर आधारित है। लीवर के सिद्धांत तथा घिर्री का उपयोग सिद्ध करता है कि जल निकास की स्थानीय व्यवस्था का आधार वैज्ञानिक था। यह पाश्चात्य विज्ञान के भारत आगमन के पहले से प्रचलन में थी।

मण्डला के मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए बुजुर्ग किसानों ने बताया कि पुराने समय में जलस्रोतों से पानी निकालने के लिए रहट एवं मोट का उपयोग किया जाता था। अर्थात संपूर्ण बुंदेलखंड अंचल में कुओं से पानी निकालने का तरीका एक समान था। वर्तमान में इन तरीकों का उपयोग लगभग नहीं होता।

जलस्रोत निर्माण में प्रयुक्त औजार
चोहरा चौपाल में मौजूद लोगों का कहना था कि कुआं खोदने या तालाब बनाने में सब्बल, गेंती, फावड़ा इत्यादि औजारों का उपयोग होता था। नन्द किशोर, रामरतन और धनीराम रैकवार का कहना था कि पत्थर तोड़ने में घन तथा हथौड़े का उपयोग किया जाता था। पत्थरों को तराशने या आकृति देने का काम छैनी तथा हथौड़े की मदद से किया जाता था। सीताराम व्यास का कहना था कि खुदाई के काम आने वाले सभी औजारों का निर्माण सामान्यतः गांव में ही होता था। बुंदेलखंड अंचल के अनेक स्थानों पर लोहा बनाने वाली मिट्टी मिलती है। उस मिट्टी को लकड़ी के कोयले की मदद से गला कर लोहा बनाया जाता था और पीट-पीट कर औजार की शक्ल दी जाती थी। औजार को मजबूती देने के लिए उन्हें पजाया जाता था। कुछ लोग उसे पानी चढ़ाना भी कहते थे। इस क्रिया में औजार को भट्टी में लाल होने तक गर्म कर ठंडे पानी में डाला जाता था। इस प्रक्रिया को दो-तीन बार दुहराया जाता था। इस प्रक्रिया के बाद औजार की कठोरता बढ़ जाती थी।

औजारों की धार बनाने के लिए उसकी वांछित सतह को गीले पत्थर पर घिसा जाता था। सीताराम व्यास का कहना था कि स्थानीय औजार बहुत उम्दा काम करते थे। उनकी डिजायन इतनी सटीक तथा वैज्ञानिक थी कि उसमें अभी तक कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं हुआ है। सभी औजारों का विकास स्थानीय स्तर पर हुआ था। सभी अंचलों में उनकी डिजायन लगभग एक जैसी है। कुआं या तालाब बनाने के लिए गेंती, कुदाली, फावड़ा, करनी, घन, हथौड़ी, छैनी, सब्बल आदि औजारों का उपयोग किया जाता है। मिट्टी फेंकने के लिए टोकनी उपयोग में लाई जाती थी।

2.5 पानी को शुद्ध रखने के तौर तरीके
चोहरा की चौपाल में मौजूद लोगों का कहना है कि उनके पुरखे पानी को देखकर, सूंघ कर या चख कर उसकी गुणवत्ता का अनुमान लगाते थे। वहीं महिलाएं, दाल पकने के आधार पर पानी की गुणवत्ता तय करती थीं। ढाना के दीपक तिवारी कहते हैं कि स्थान परिवर्तन और मौसम के बदलाव के साथ पानी के गुणों में अंतर आ जाता है। वे कहते हैं कि पहाड़ी झरनों में मिलने वाले पानी का गुण, गांव के तालाब के पानी से अलग होगा। कई बार, एक ही गांव के अलग-अलग हिस्सों में बने कुओं के पानी के गुणों में अंतर होता है। चोहरा ग्राम के रामचंद्र का कहना था कि बहुत समय पहले उनके गांव की नदी के दोनों तरफ चरोखर की जमीन थी। चरोखर की जमीन से छन कर साफ बरसाती पानी नदी को मिलता था। रामरतन बताते हैं कि पुराने समय में मोतीझरा के रोगी को आमदहार का पानी पीने की सलाह दी जाती थी। भगवान दास कहते हैं कि आमदहार के पानी को पीने से पाचनतंत्र ठीक हो जाता था। उसके पानी में पहाड़ों पर पैदा होने वाली जड़ी-बूटियों का रस मिला होता था। जंगल कट गए, अब उस पानी में पुरानी बात नहीं रही। उमेश पचौरी का कहना था कि पुराने समय में कुओं में साफ पानी मिलता था। कभी-कभी कुओं में जानवर गिरकर मर जाते थे। ऐसी स्थिति में कुएं को उगारा जाता था। कुआं उगारने का अर्थ है, कुएं का सारा पानी बाहर निकालना। पानी निकालने के बाद कुएं का पानी साफ और बदबू मुक्त हो जाता था।

तालाबों की पाल के आसपास और नदी के घाटों पर मंदिर बनाने की परंपरा थी। जलस्रोतों के पानी को शुद्ध रखने के लिए सामाजिक एवं धार्मिक नियम एवं व्यवस्थाएं थीं।टीकमगढ़ जिले के दुर्गाप्रसाद यादव और रमेश श्रीवास्तव का कहना था कि बारहमासी नदियों का पानी प्रदूषित नहीं होता। पुराने समय में तालाब का पानी भी साफ होता था। वे कहते हैं कि पुराने समय में आगौरों को सामान्यतः चारागाह के तौर पर काम में लाया जाता था। अवांछित गतिविधियों के अभाव के कारण आगौर सामान्यतः साफ-सुथरा बना रहता था। आगौर के साफ-सुथरे होने के कारण तालाबों का पानी गंदा नहीं हो पाता था। तालाबों की पाल के आसपास और नदी के घाटों पर मंदिर बनाने की परंपरा थी। जलस्रोतों के पानी को शुद्ध रखने के लिए सामाजिक एवं धार्मिक नियम एवं व्यवस्थाएं थीं। आश्चर्यजनक है कि मध्यप्रदेश के सभी अंचलों में तालाब के पानी को शुद्ध रखने के लिए लगभग एक जैसे सामाजिक नियम थे।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए जनजातीय समुदाय के लोगों ने बताया कि उनके क्षेत्र में कुओं, कुण्डों और तालाबों के पानी को शुद्ध रखने के लिए समय-समय पर उनकी सफाई की जाती थी। पानी निकालने के लिए साफ बर्तनों का उपयोग किया जाता था और उनके आसपास पीपल आदि वृक्षों को लगाया जाता था। प्राचीन काल में जलस्रोतों के आस-पास घास/पेड़-पौधे भी लगाए जाते थे। अब यह प्रथा प्रचलन में नहीं रही।

2.6 पेयजल सुरक्षा एवं संस्कार
अ. पेयजल सुरक्षा
चोहरा की चौपाल में अनेक लोगों ने बताया कि पालतू जानवरों के लिए पीने का पानी, साधारणतः सार में रखा जाता था। जानवरों के लिए दूसरी व्यवस्था नदी ले जाकर पानी पिलाने की थी। जंगल से चर कर लौटते समय या बाहर ले जाने के पहले उन्हें जलस्रोत पर ले जाकर पानी पिलाया जाता था। चौपाल में त्रिवेणी देवी, मुन्नी तिवारी, नर्मदी साहू ने बताया कि उपर्युक्त व्यवस्था लगभग हर घर में होती है। उनके अनुसार पेयजल की सुरक्षा के लिए वह व्यवस्था पर्याप्त थी। अपनाई व्यवस्था को देखकर लगता है कि पुराने समय में जल सुरक्षा का एक पक्ष पेयजल की शुद्धता को कायम रखना था तो दूसरा पक्ष शुद्धता संबंधी ज्ञान को संस्कारों में ढाल कर अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करना था।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में महिलाएं नहीं आई थीं। दोनों चौपालों में मौजूद लोगों ने बताया कि उनके घरों में पेयजल की व्यवस्था का जिम्मा महिलाओं का है। महिलाओं द्वारा घड़ों में पानी लाया जाता है। मिट्टी के घड़ों या बर्तनों को ढंक कर रखा जाता है। कुछ बर्तन जैसे - घड़ा, मटका, बटोही, गुंडी आदि बर्तनों को रसोई के पास रखा जाता है। पशु-पक्षियों के लिए घर के आंगन में मिट्टी के छोटे बर्तन में पानी रखकर लटका दिया जाता है।

मण्डला क्षेत्र में प्राकृतिक जलस्रोतों के पानी को भी संचित करने के पहले सूती कपड़े से छाना जाता था। यह व्यवस्था सामान्य तथा जनजातीय समाज द्वारा अपनाई जाती हैं पानी को रखने का स्थान ऊंचाई पर बनाया जाता है।

आ. पेयजल संस्कार
सागर जिले की चोहरा में उपस्थित त्रिवेणी देवी, मुन्नी तिवारी, चंदा बैन और शकुन्तला ने बताया कि हर घर में पीने का पानी की पृथक से व्यवस्था होती थी। उसे जूठा या गंदा होने से बचाने के लिए अलिखित नियम कायदे होते थे। जूठा या गंदा पानी काम में नहीं लिया जाता था। उसे या तो फेंक दिया जाता था। या जानवरों को पिलाने के काम में लिया जाता था। जूठे बर्तनों का उपयोग, साफ करने के बाद किया जाता था। चौपाल में उपस्थित महिलाओं का कहना था वे ही बहू-बेटियों को पेयजल से जुड़ी सतर्कताओं संबंधी संस्कार देती हैं। माधुरी श्रीधर का कहना है कि यह पेयजल संस्कारों का सम्प्रेषण है। इसका एक पात्र माता और सास हैं और दूसरा पात्र बेटी और बहू हैं। इस विधि में पुरानी पीढ़ी द्वारा नई पीढ़ी को संस्कार सम्प्रेषित किए जाते हैं।

मण्डला क्षेत्र में जनजातीय परिवार के सदस्यों को पानी की स्वच्छता, पवित्रता तथा समझदारी से उपयोग की सीख या संस्कार परिवार के मुखिया देते हैं। कुछ संस्कारों का संबंध धार्मिक अनुष्ठानों से है जिसमें फसल बोने के पहले जलदेवता को साक्षी मानकर अच्छी बारिश की कामना के लिए देवता की पूजा की जाती थी। उनके बाकी संस्कार समाज के अन्य लोगों जैसे ही हैं।

3. स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य सम्बंधी संस्कारों का विज्ञान


मनुष्यों को अधिकांश बीमारियां अशुद्ध पानी पीने के कारण होती हैं। पानी से होने वाली बीमारियों से बचने के लिए स्वास्थ्य चेतना और सावधानी आवश्यक है। इस सावधानी को पानी के उपयोग के तौर-तरीकों से समझा या परखा जा सकता है। अतः पानी के उपयोग के तौर-तरीकों को स्वास्थ्य चेतना के स्वयंसिद्ध संकेतकों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। हमें सभी अंचलों की चौपालों में स्वास्थ्य चेतना के प्रमाण मिले। दीपक तिवारी कहते हैं कि यह आश्चर्यजनक है कि सारी स्वास्थ्य चेतना और आधुनिक सावधानियों और समझाइश के बावजूद मौजूदा युग में जलजनित बीमारियों के प्रकरणों का प्रतिशत पहले की तुलना में बहुत अधिक हैं। कैंसर विशेषज्ञ डा. आशुतोष अग्निहोत्री का कहना है कि मौजूदा युग में जलजनित बीमारियों के पीछे पानी में घुले घातक एवं हानिकारक रसायन हैं। इन रसायनों ने सारा परिदृश्य बदल दिया है। उनको लगता है कि माकूल व्यवस्था और सुधारवादी कदम हर आदमी तक नहीं पहुंच पा रहे हैं।

चोहरा की चौपाल में आई महिलाओं का कहना था कि घिनोची की व्यवस्था उनकी सास, वे खुद या उनकी बहुएं संभालती हैं। नदी या कुएं से पानी भरने के पहले मटका/बाल्टी की सफाई की जाती है। घिनोंची के पुराने पानी को रोज बदला जाता है। पानी बदलने के पहले घड़ों/बर्तनों को अच्छी तरह साफ किया जाता है। साफ सूती कपड़े से छान कर पानी भरा जाता है। यह व्यवस्था स्वास्थ्य चेतना की परिचायक है।

चोहरा की चौपाल में उपस्थित लोगों का अभिमत था कि पुराने समय में उनके ग्राम की नदी का पानी प्रदूषणमुक्त था। उसमें केवल मिट्टी के कण या घास-फूस या वृक्षों के पत्ते होते थे। महिलाएं सभी अशुद्धियों से भलीभांति परिचित थीं। इसलिए वे हमेशा पानी को छान कर ही भरती थीं। हमारी टीम को लगता है कि स्थानीय समाज ने जलस्रोतों की अशुद्धियों को पहचान कर, जल शुद्धि की व्यवस्था का स्वीकार्य तानाबाना बनाया था तथा तत्कालीन जीवनशैली से मिलती-जुलती टिकाऊ, सस्ती एवं सहज व्यवस्था विकसित की थी। वह व्यवस्था बहुसंख्य समाज की आर्थिक स्थिति के अनुरूप तथा स्वास्थ्यप्रद थी। जो मध्यप्रदेश के सभी अंचलों में पाई जाती है। जो पानी से जुड़ी स्वास्थ्य संबंधी निरापद समझ तथा संस्कारों के पीछे के देशज विज्ञान को दर्शाती है।

चोहरा की चौपाल में उपस्थित महिलाओं को दूषित पानी में मिलने वाले रसायनों या कीटाणुओं की जानकारी नहीं थी। जानकारी के अभाव में वे दुष्परिणामों से अपरिचित थीं लेकिन पानी की साफ-सफाई पर पूरा ध्यान देती थीं। उनके गांव के जलस्रोतों में पाई जाने वाली रसायनिक अशुद्धियों के बारे में उनकी जानकारी करीब-करीब शून्य थी। चोहरा की चौपाल में आए अनेक लोगों ने बताया कि वे सबेरे उठकर सबसे पहले पानी पीते हैं। कुछ लोग तांबे के बर्तन में रखा पानी पीते हैं। कुछ लोग गुनगुना पानी पीते हैं। कब्ज की शिकायत वाले लोग हल्का गर्म पानी पीते हैं। बीमारों एवं उपवास तोड़ने वाले व्यक्तियों को खिचड़ी, दाल का पानी या फलों का रस दिया जाता है। यह विवरण, बुंदेलखंड में पानी से जुड़ी स्वास्थ्य संबंधी निरापद समझ तथा स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को सामने लाता है।

चोहरा की चौपाल में उपस्थित महिलाओं का कहना था कि आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के सुलभ होने के बावजूद उनके घरों में आज भी अनेक छोटी-छोटी बीमारियों के लिए जड़ी बूटियां काम में लाई जाती हैं। चौपाल में आई महिलाओं ने प्रसव से जुड़ी प्राचीन परिपाटियों का उल्लेख किया। उनके अनुसार सभी परिपाटियां, सद्यः प्रसूता की सेहत की बहाली के लिए बहुत उपयोगी हैं। वे उसे प्रसवोत्तर कुप्रभावों से बचाती हैं। सेहत बहाली के तरीकों और सावधानियों से हर महिला परिचित है। उसके संप्रेषण का तरीका घर-घर में पीढ़ी-दर-पीढ़ी फलता-फूलता रहा है। सरकारी तथा निजी अस्पतालों की उपलब्धता, सरकारी योजनाओं, जीवनशैली के बदलावों, संयुक्त परिवारों के बिखराव तथा बदलते सोच के कारण प्रसव की ऐलोपैथिक प्रणाली का प्रचलन बढ़ रहा है।

स्वास्थ्य से जुड़ी बुंदेलखंडी लोक-कहावतों का संसार बहुत विस्तृत है। उनकी बानगी निम्नलिखित कहावतों में पेश की गई है-

भोरहि माठा पियत है, जीरा नमक मिलाय।
बल और बुद्धि बढ़त है, सबै रोग जरि जाय।।

प्रातःकाल जीरा और नमक मिला छाछ पीने से बल और बुद्धि में वृद्धि होती है।

नित भोजन के अंत में, तोला भर गुड़ खाय।
अपच मिटे भोजन पचे, कब्जियत मिट जाय।।

भोजनोपरांत एक तोला गुड़ खाने से अपच मिटता है, भोजन जल्दी पचता है और कब्ज मिटता है।

पीते पात मदार के, घृत में देय लगाय।
गर्म गर्म रस डालिए, कर्ण दर्द मिट जाय।।

मदार (अकौआ) वृक्ष के पीले पत्तों को घी लगाकर गर्म करें। उसका अर्क निकालें और उसे गुनगुना कर कान में डालें तो कान का दर्द मिट जाता है।

छोटी पीपरी शहद में, रोज सुबह जो खाय।
कुछ दिन नियम कर सकल, दमा श्वास मिट जाय।।

यदि मनुष्य रोज सबेरे छोटी पीपरी का शहद के साथ सेवन करे तो उसे दमा और श्वास पैसे घातक रोगों से मुक्ति मिल जाती है।

निन्ने पानी जे पियं, हर्र भूंज के खाये।
दुदन ब्यारू जे करें, तिन घर बैद न जाय।।

जो मनुष्य प्रातःकाल खाली पेट पानी पीता है, हर्र भूंज कर रोज खाता है और रात को भोजन के साथ दूध का सेवन करता है, उसके घर वैद्य नहीं जाता अर्थात वे बीमार नहीं पड़ते।

प्रातकाल खटिया से उठिके, पियै तुरन्तै पानी।
ता घर बैद कभी ना आवे, बात घाघ के जानी।

जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर सबसे पहले पानी पीता है, उसके घर वैद्य नहीं जाता अर्थात वह व्यक्ति बीमार नहीं पड़ता।

यदि अभिलाषा हृदय की, कबहुं न होय जुकाम।

पानी पीवे नाक से, पहुंचावे आराम।।

कहावत कहती है कि जुकाम से बचाव/आराम का सबसे अच्छा उपाय नाक से पानी पीना है।

हमें हर अंचल में स्वास्थ्य से जुड़ी लगभग एक जैसी लोक-कहावतें सुनने को मिलीं। उनमें बोली के अतिरिक्त अन्य कोई फर्क नहीं है।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में बताया गया कि मण्डला के प्रत्येक गांव में इलाज के लिए वैद्य होते थे। वे रोगों की पहचान कर इलाज करते थे। उनका ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता है। वे मरने के पहले आपने बेटे को इलाज और जड़ी-बूटियों की जानकारी दे देते थे। ज्ञान के सम्प्रेषण का यही परंपरागत तरीका था।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में लोगों ने बताया कि जनजातीय लोग धूप में निकलने के पहले जेब में प्याज रखना और खांसी आने पर जड़ी-बूटी खाना आवश्यक मानते हैं। जनजातीय लोगों का मानना था कि वे प्राकृतिक करणों से बीमार होते हैं इसलिए वे प्राकृतिक जड़ी-बूटियों के सेवन से ही ठीक होंगे। उनका मानना है कि आधुनिक युग में भी इलाज की परंपरागत शैली को अपनाया जा सकता है। उनके अनुसार परंपरागत शैली में बीमारी को जड़ से खत्म करने की क्षमता होती है।

4. मिट्टी, परंपरागत खेती, वर्षा एवं उसकी विवेचना जनजातीय अनुमान



4.1 मिट्टियां
चोहरा की चौपाल में किसानों ने बताया कि उनके पूर्वज अपने गांव में मिलने वाली सभी प्रकार की मिट्टियों को भलीभांति पहचानते थे। वे जानते थे कि किस मिट्टी में कौन सी फसल लेना या नहीं लेना चाहिए। पीढि़यों के लंबे अनुभव के आधार पर किसानों को यह भी पता था कि खेत की उर्वरा शक्ति को बहाल करने के लिए क्या करना चाहिए। वे मिश्रित खेती और अदल-बदल कर बीज बोने के लाभों से भी परिचित थे। चोहरा की चौपाल में आए माणिकलाल जैन और कृष्णमुरारी पचौरी का कहना था कि आधुनिक मिट्टी-विज्ञान ने मिट्टी के वर्गीकरण और उसके विभिन्न घटकों के बारे में जानकारी का दायरा बढ़ाया है पर वह दायरा सम्पन्न किसानों तथा वैज्ञानिकों तक सीमित है। छोटे और गरीब किसानों को उसके बारे में बहुत कम जानकारी है। साधनों के अभाव में वे उस जानकारी के आधार पर खेती नहीं कर पाते हैं। माणिकलाल जैन और कृष्णमुरारी पचौरी मूलतः कृषि वैज्ञानिक हैं।

चोहरा की चौपाल में हरिराम, भगवानदास पटेल, उमेश कुर्मी और धनीराम रैकवार इत्यादि ने खेतों के परंपरागत वर्गीकरण की जानकारी दी। उनके अनुसार, बिना कंकड़ वाली काली मिट्टी का नाम काबर है। किसानों के अनुसार काबर मिट्टी की उत्पादकता सबसे अच्छी होती है। मुंड मिट्टी का रंग काला होता है पर उसकी उत्पादकता, काबर मिट्टी की तुलना में थोड़ी कम होती है। पीरोठा मिट्टी का रंग पीला होता है। वह पतरूआ मिट्टी की तुलना में थोड़ी बेहतर होती है। पतरूआ मिट्टी में खरीफ फसलें यथा असली एवं ज्वार और पीरोठी मिट्टी में ज्वार की फसल ली जाती थी। चौपाल में ब्रजबिहारी, भगवान दास और योगेन्द्र जैन ने बताया कि वे अपने अनुभव के आधार पर जानते हैं कि कौन-सा खेत गेहूं के लिए और कौन सा खेत दूसरी फसलों के लिए उपयुक्त होगा।

टीकमगढ़ के दुर्गाप्रसाद यादव और रमेश श्रीवास्तव बताते हैं कि उनके क्षेत्र के किसान अपने-अपने गांवों में मिलने वाली मिट्टियों को उनके गुणों और क्षमता के अनुसार पहचानते थे। उनके क्षेत्र में मोटा, काबर, हडकाबर, मार, दोमट, छपरा, बलुई, परुआ, दुपरुआ और राखड़ मिट्टी मिलती हैं।

हमारी टीम का मानना है कि मिट्टियों का देशज वर्गीकरण सैकड़ों साल पुराना है जो एक ही गांव के पृथक-पृथक मिट्टियों वाले खेतों को बेहतर उत्पादन के आधार पर वर्गीकृत करता है। इस वर्गीकरण के कारण किसान को पता होता था कि उसका खेत कौन सी फसल के लिए उपयुक्त है। इस जानकारी के लिए वह किसी पर निर्भर नहीं था। उसे आवश्यक जानकारी अपने बुजुर्गों से मिल जाती थी।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में लोगों ने बताया कि जनजातीय लोगों को अपने गांव की मिट्टियों के गुणों, उत्पादकता तथा किसी खास फसल की बेहतर उत्पादकता से जुड़ी समझ थी। यह ज्ञान उन्हें पीढ़ियों द्वारा तथा स्वयं के अनुभव से प्राप्त हुआ था।

4.2 परंपरागत खेती
चोहरा की चौपाल में उमेश वैद्य ने बताया कि पुराने समय में चोहरा के आसपास के गांवों की परंपरागत फसलों में ज्वार, बाजरा, मूंगफली, कपास, मक्का, उड़द, तिल्ली, अलसी, तुअर, मूंग, सवां, कुटकी, देशी गेहूं, चना, बटरी, मसूर मुख्य थीं। बीजों के मामले में किसान आत्मनिर्भर थे। उमेश वैद्य बताते हैं कि किसानों के पास अलग-अलग जीवनकाल वाले बीज होते थे जिन्हें वे मौसम और खेत की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बोते थे। प्रकाश जारौलिया का कहना था कि पुराने परंपरागत बीज सभी दृष्टियों से बेहतर थे। उनके अनुसार नए बीजों पर आधारित फसलों में बहुत बीमारियां लगती हैं। उमेश वैद्य का कहना था कि पुरानी खेती की तुलना में आधुनिक खेती का आर्थिक पक्ष अधिक मजबूत है। किसानों की समझ को जान कर कई बार लगता है कि पुराना कृषि विज्ञान गांवों में जन्मता था, गांवों में पनपता था और सटीक जानकारियों के लिए किसी व्यवस्था का मोहताज नहीं था।

चोहरा की चौपाल में उपस्थित किसानों का कहना था कि सोयाबीन के आने के पहले उनके क्षेत्र में समतल भूमि पर खेती की हवेली पद्धति प्रचलन में थी। उमेश वैद्य और कृष्णमुरारी पचौरी बताते हैं कि हवेली पद्धति में गहरी काली मिट्टी वाले खेतों में ऊंची-ऊंची मेंढ़ बना कर बरसात का पानी भरा जाता था। बरसात के बाद धीरे-धीरे पानी निकाला जाता था। बतर आने पर खेत में गेहूं या चना बोया जाता था। इस पद्धति द्वारा केवल एक ही फसल ली जाती थी। उस फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती थी।

दीपक तिवारी, उमेश वैद्य, कृष्णमुरारी पचौरी तथा प्रकाश जारौलिया का कहना था कि उनके क्षेत्र में कुओं, नदियों और नलकूपों के सूखने में तेजी आने के कारण सिंचाई पर बुरा असर पड़ रहा है। किसानों की आय घट रही है। वे कहते हैं कि एक ओर तो जोत घट रही है तो दूसरी ओर सूखी खेती की ओर लौटने के कारण, उनकी गरीबी लौट रही है। जीवनयापन के लिए मजदूरी और पलायन का संकट बढ़ रहा है।दीपक तिवारी, उमेश वैद्य, कृष्णमुरारी पचौरी तथा प्रकाश जारौलिया का कहना था कि उनके क्षेत्र में कुओं, नदियों और नलकूपों के सूखने में तेजी आने के कारण सिंचाई पर बुरा असर पड़ रहा है। किसानों की आय घट रही है। वे कहते हैं कि एक ओर तो जोत घट रही है तो दूसरी ओर सूखी खेती की ओर लौटने के कारण, उनकी गरीबी लौट रही है। जीवनयापन के लिए मजदूरी और पलायन का संकट बढ़ रहा है। वे कहते हैं कि पानी बढ़ाने के लिए अनेक प्रयास हुए हैं और किए भी जा रहे हैं पर परिणाम के नाम पर वही ढाक के तीन पात की कहानी नजर आ रही है। टीकमगढ़ जिले के महाराजपुरा ग्राम के 75 वर्षीय किसान रमेश श्रीवास्तव और बोरी ग्राम के दुर्गाप्रसाद यादव बताते हैं कि पुराने समय में किसान ऊंचाई पर स्थित खेतों में बरसात के प्रारंभ में ही मिट्टी के गुणों के आधार पर कोदों, कुटकी जैसी फसलों की बुआई कर देते थे। इन फसलों वाले खेतों को मेंढ़ की आवश्यकता नहीं होती, इसलिए इन खेतों का अतिरिक्त बरसाती पानी, ढाल पर तथा उसके नीचे स्थित खेतों में बने छोटे-छोटे बांधों में जमा हो जाता था। इस पानी के साथ कुछ मात्रा में मिट्टी भी आती थी जो खोतों में जमा होकर उत्पादकता में वृद्धि करती थी। रमेश श्रीवास्तव कहते हैं कि निचले हिस्सों में स्थित खेतों में बरसाती पानी जमा करने के लिए लगभग तीन फुट ऊंची बंधियां (मेढ़) बनाई जाती थी। अतिरिक्त पानी को निकालने के लिए निचले हिस्से में मुखड़ा छोड़ा जाता था। मुखड़े का मुंह पत्थर से बंद रखा जाता था। ऐसे मिट्टी वाले खेतों में पानी जमा कर धान की फसल ली जाती थीं कुछ किसान बरसात बाद, उन खेतों में गेहूं की फसल लेते थे। रमेश श्रीवास्तव कहते हैं कि उनके इलाके में एक फसल लेने का रिवाज था। धान लगाने वाले किसान, रबी की फसल नहीं लेते थे। इसी तरह, रबी की फसल लेने वाला किसान, खरीफ फसल नहीं लेता था। यह व्यवस्था टीकमगढ़, दतिया एवं छतरपुर जिलों में अपनाई जाती थी। सोयाबीन आने के बाद परंपरागत कृषि प्रणाली गड़बड़ा गई है।

चेाहरा की चौपाल में मौजूद लोगों का कहना था कि वर्षा के वितरण और खेती के बीच अंतर-संबंध होता है। वे कहते हैं कि यदि उक्त संबंध संतुलित और फसल की आवश्यकतानुसार है तो इष्टतम उत्पादकता सुनिश्चित है। उनका कहना है कि परंपरागत खेती में मानसून की अनिश्चितता से निपटने की बेहतर क्षमता थी।

मण्डला जिले की मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए श्रुतिराम, कुशराम, गणेश परते इत्यादि लोगों का कहना था कि प्राचीन काल में उनके क्षेत्र के ज्यादातर लोग, कम से कम जोखिम वाली बीवर खेती करते थे। इस खेती में एक ही खेत में एक साथ विभिन्न किस्मों के बीज बोये जाते थे। मौसम की बेरुखी के बावजूद किसान की रोजी-रोटी चल जाती थी। बाढ़ और सूखे के साल में भी किसी न किसी फसल/फसलों का उत्पादन हो जाता था। वे कहते हैं कि प्राचीन काल में खेती से बिल्कुल भी प्रदूषण नहीं होता था। लोग बैल/पड़ा (पालतू कृषि जानवर) के माध्यम से जमीन की जुताई एवं गहाई करते थे। फसल को किसान स्वयं अपने हाथों से काटता था। इससे जमीन और वातावरण में प्रदूषण नहीं होता था।

मण्डला जिले की परंपरागत खेती के बारे में मानिकपुर और अमवार की चौपालों में डीलन सिंह मराबी, लामू सिंह ने बताया कि जनजातीय लोगों द्वारा जुलाई/अगस्त में धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, और तिली को तथा कोदों, कुटकी, राई और रमतिला को सितंबर-अक्टूबर माह में बोया जाता था। वे बताते हैं कि परंपरागत फसलों के अच्छे उत्पादन के लिए कीटनाशक के तौर पर गौमूत्र का उपयोग किया जाता था। बीजों को सुरक्षित रखने के लिए कोठी का उपयोग किया जाता था। बीज संरक्षण के लिए कुछ बीजों पर मिट्टी का लेप करके एवं कुछ बीजों को नीम की सूखी पत्ती में मिलाकर रखा जाता था। बुआई के पहले बीज परीक्षण किया जाता था। बीजों के अंकुरण को परखने के लिए उन्हें गीले कपड़े की पोटली में बांधकर उनका अंकुरण देखा जाता था।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में लोगों ने एक स्वर से कहा कि परंपरागत बीज अधिक सुरक्षित हैं। उनका विकास स्थानीय जलवायु और मिट्टी की अनुकूलता के अनुसार हुआ है। उनके संरक्षण की अवधि भी अधिक है। उनका कहना था कि पुराने स्थानीय बीज अधिक विश्वसनीय थे। उनको जल्दी बीमारी नहीं लगती। उनका अभिमत था कि हाईब्रिड बीज टिकाऊ नहीं हैं। उनमें बहुत अधिक मात्रा में खाद, पानी और दवाई लगती है। लोगों का कहना था कि आर्थिक दृष्टि से प्राचीन कृषि पद्धति अधिक सुरक्षित थी।

4.3 मिट्टी और परंपरागत खेती का संबंध
चोहरा की चौपाल में डॉ ओम प्रकाश चौबे तथा अन्य साथियों ने बताया कि उनके क्षेत्र की मिट्टी बहुत उपजाऊ है। उसमें नमी सहेजने का गुण है। उनके क्षेत्र के किसान एक या दो बारिश के बाद, आद्रा नक्षत्र में, खरीफ की बुआई करते थे। उनका विश्वास था कि मोटे अनाजों की फसलें, बिना कठिनाई के उत्पादन देती हैं। उन पर मौसम और जमीन की उर्वरा शक्ति का कुप्रभाव, काफी हद तक कम पड़ता था। कार्तिक माह में खेत तैयार कर स्वाति नक्षत्र में देसी गेहूं तथा हस्त नक्षत्र में चना बोया जाता था। बुजुर्गों का कहना था कि जमीन की ऊर्वराशक्ति बनाए रखने के लिए फसलों को बदल-बदलकर बोने का रिवाज था। डॉ ओमप्रकाश चौबे, उमेश वैद्य, अवध बिहारी पांडेय और प्रेम नारायण का मानना है कि परंपरागत खेती पूरी तरह बरसात के मिजाज, मिट्टी की किस्म और बीजों के अन्तरसंबंध पर निर्भर थी। लोगों का कहना था कि पुराने समय में किसान अपने खेत में वह फसल बोता था जो उसका खेत चाहता था। किसानों का मानना है कि लाभप्रद खेती के लिए वर्षा के माकूल वितरण के साथ-साथ धरती पर कम से कम आधा मीटर अच्छी मिट्टी की परत होना चाहिए। कृष्णमुरारी पचौरी कहते हैं कि पुरानी खेती में स्थानीय संसाधन ही खेती की आवश्यकताएं पूरी करते थे और गांव में धन गांव में रहता था। अब हालात बदल गए हैं।

मण्डला जिले की चौपालों में आए किसानों का कहना था कि खेत की स्थिति तथा उसमें मिलने वाली मिट्टी के गुणों के अनुसार ही फसल लगाई जाती है। खेत की स्थिति और मिट्टी के गुणों की उपेक्षा कर की गई बोनी से कई बार बीज भी नहीं निकलता।

संकलित विचारों के आधार पर हमारी टीम का मानना है कि अनपढ़ किसान से अच्छा कृषि वैाज्ञनिक कोई दूसरा नहीं हैं। आधुनिक मृदा विज्ञान के प्रवेश के पहले से ही उसे खेती और मिट्टी का टिकाऊ रिश्ता ज्ञात था। वे जो खेती करते थे उसमें उत्पादन मिलने की काफी सुनिश्चितता थी। अर्थात बुंदेलखंड अंचल के किसान जो खेती करते थे उसका आधार पूरी तरह तार्किक और वैज्ञानिक था।

बुंदेलखंड की परंपरागत खेती का इतिहास

बुंदेलखंड में परंपरागत खेती के विकास का इतिहास लगभग 5000 साल पुराना है। इस क्षेत्र में पशुपालन के बाद खेती ही आजीविका का सबसे पुराना आधार रहा है। इस अंचल का भू-भाग कहीं पहाड़ी है तो कहीं मैदानी तो कहीं ढालू। कहीं काली मिट्टी पाई जाती है तो कहीं दूसरी किस्म की मिट्टी। मिट्टी की परत की मोटाई और मिट्टी के गुणों में बहुत भिन्नता है। हमें लगता है कि बुंदेलखंड की परंपरागत खेती, प्राचीन राजकीय सहयोग और किसानों के बरसों के अनुभव का प्रतिफल है। संभव है, किसानों की आर्थिक स्थिति और उपलब्ध तत्कालीन साधनों ने प्रयासों की लक्ष्मण रेखा तय की हो, पर सैकड़ों सालों तक खेती करने के कारण, जो परंपरागत समझ बनी थी, वह किसी भी दृष्टि से कम नही रही होगी। कहा जा सकता है कि प्राचीन कृषि पद्धति 'करके देखो, परिणामों को समझो और फिर कम घाटे वाली निरापद खेती अपनाओं' के सिद्धांत पर आधारित होगी। इसी समझ के आधार पर उसने जैसी खेत की परिस्थितियां, वैसी फसल का सिद्धांत अपनाया होगा। संभव है, इसके बाद बुंदेलखंड के किसानों के लिए मौसम की अनिश्चितता, खेतों की भौगोलिक स्थितियां, उथली मिट्टी, भूमि का कटाव, फसल चयन, उत्पादकता की भिन्नता इत्यादि लाइलाज समस्याएं नहीं रही होंगी।

बुंदेलखंड के किसानों द्वारा खेतों में बंधियां बनाना, एक फसल लेना और खेत की स्थिति के अनुरूप फसल का चुनाव करना कुछ ऐसी गूढ़ तथा गंभीर बातें हैं तो परंपरागत खेती के उजले पक्ष और किसानों की व्याहारिक समझ को स्पष्ट करती हैं। कहा जा सकता है कि उन्होंने स्थानीय भूगोल और मिट्टी को समझकर नमी के संरक्षण का नायाब तरीका अपनाया। हवेली व्यवस्था, उसी सोच का परिणाम थी। उन्होंने गोबर के खाद का उपयोग कर जमीन की क्वालिटी और नमी संरक्षण की अवधि सुधारी।

काशीप्रसाद त्रिपाठी कहते हैं कि पुराने समय में बुंदेलखंड का इलाका व्यवसाय की दृष्टि से अविकसित और खेती आधारित इलाका था। इस इलाके में राजाओं को टैक्सों से बहुत कम आय होती थी। इसके बावजूद, चंदेल राजाओं ने तालाब निर्माण पर काफी धन व्यय किया और टिकाऊ तालाब बनवाए। चंदेल राजाओं की आय का मुख्य साधन कृषि राजस्व ही था। त्रिपाठी कहते हैं कि तालाबों का निर्माण हुआ तो खेती का रकबा बढ़ा। लोग रोजगार में लगे। व्यापारी व्यवसाय में, किसान खेती में और मजदूर, बेलदार एवं दक्ष कारीगर तालाब निर्माण और उनकी मरम्मत के कामों में लग गए। जब पूरे समाज के हाथ में काम आया तो समाज में सम्पन्नता आई। संभवतः यही पुरानी कृषि अर्थव्यवस्था थी। इस क्रम में कहा जा सकता है कि पुरानी कृषि पद्धति, स्थानीय संसाधनों का उपयोग कर प्राकृतिक संसाधनों को समृद्ध करती थी। उत्पादन अपनी तथा स्थानीय समाज की आवश्यकता की पूर्ति के लिए किया जाता था। कृषि पद्धति के असर से बीज हानिकारक, खेत अनुत्पादक, मिट्टी घटिया एवं सतही या भूजल प्रदूषित नहीं होता था। गांव का हर खेत, देशज कृषि अनुसंधान केन्द्र था।

आधुनिक खेती, प्राकृतिक संसाधन और यक्ष प्रश्न
चोहरा की चौपाल में मौजूद अधिकांश किसानों का कहना था कि अब परंपरागत खेती के स्थान पर आधुनिक खेती होने लगी है। यह खेती अधिक पानी चाहती है तथा इसमें उन्नत बीज, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों एवं खरपतवार नाशकों का बहुत अधिक उपयोग होता है। इसकी लागत भी बहुत अधिक है। चौपाल में व्यक्त भावना के अनुसार, आधुनिक खेती अपनाने के कारण जमीन के नीचे के पानी, मिट्टी और खेती से सह-संबंध में असंतुलन पैदा हो गया है। कुछ लोग कहते हैं कि उन्नत बीजों के आ जाने के कारण बुआई का गणित, अल्पावधि के प्रयोगशाला आधारित प्रयोगों पर आश्रित है, इसलिए उसका दीर्घावधि पक्ष कमजोर है। खेती में बाहरी कृत्रिम तत्वों की अनिवार्यता के कारण वर्तमान खेती का प्रकृति से संबंध कम हो रहा है। मिट्टी की सेहत खराब हो रही है।

खेती में बाहरी कृत्रिम तत्वों की अनिवार्यता के कारण वर्तमान खेती का प्रकृति से संबंध कम हो रहा है। मिट्टी की सेहत खराब हो रही हैहमारी टीम ने मध्य बुंदेलखंड में प्राकृतिक संसाधनों का परिदृश्य और खेती के नजरिए में हो रहे बदलाव को समझने का प्रयास किया। लगता है कि बुंदेलखंड में पहला वनसम्पदा के क्षरण का है। ज्ञातव्य है कि सन 1950 में बुंदेलखंड में लगभग 40 प्रतिशत जंगल थे जो अब 26 प्रतिशत से भी कम रह गए हैं। इस कारण जंगलों का प्राकृतिक योगदान साल-दर-साल कम हो रहा है। इसका सीधा असर खेती और आजीविका पर पड़ रहा है।

मध्य बुंदेलखंड में दूसरा बदलाव बरसात को लेकर है। पिछले कुछ सालों से बरसात के चरित्र में असामान्य बदलाव देखा जा रहा है। इस बदलाव के कारण सूखे की अवधि और बाढ़ की बारंबारता बढ़ रही है। ज्ञातत्य है कि गर्मी में मध्यप्रदेश का सर्वाधिक तापमान छतरपुर, नौगांव और खजुराहो में रेकार्ड किया जाता है। मौसम के असामान्य व्यवहार के कारण बुंदेलखंड में वर्षा दिवस घट रहे हैं, कम समय में अधिक पानी बरस रहा है और उसकी फसल हितैषी भूमिका घट रही है। किसी-किसी साल ठंड के मौसम में पाला पड़ रहा है।

मध्य बुंदेलखंड में तीसरा बदलाव खेती के पुराने नजरिए में है। यह बदलाव सन् 1960 के दशक के बाद हरित क्रांति के रूप में सामने आया। परिणामस्वरूप उन्नत खेती की आधुनिक अवधारणा लागू हुई और अधिक पानी चाहने वाले उन्नत बीज, रासायनिक खाद, कीटनाशक, ट्रैक्टर-बिजली से चलने वाले सेन्ट्रीफ्यूगल और सबमर्सिबल पम्प प्रचलन में आए। सरकार ने उन्नत खेती से जुड़े लगभग हर इनपुट को सब्सिडी और कर्ज के माध्यम से प्रोत्साहित किया। सरकार और वित्तीय संस्थाओं के संयुक्त प्रयासों से किसान की सोच में बदलाव आया और कर्ज आधारित खेती को प्रोत्साहन मिला।

खेती के नजरिए के तीसरे बदलाव के बारे में हमारा मानना है कि आधुनिक खेती, बाह्य इनपुट आधारित खेती है। वह एक जटिल डायनिमिक सिस्टम की तरह है जिससे तभी लाभ मिलता है जब पूरा सिस्टम, बिना व्यवधान के, अपेक्षानुसार काम करे। उसकी दूसरी आवश्यकता है जो पार्ट खराब हो उसे तत्काल हटा दो और नया पार्ट लगाओ। कुशल कामगार लगाओ। अर्थात आधुनिक खेती तभी सफल है जब पूरे वक्त आदर्श परिस्थितियां उपलब्ध हों। उल्लेख है कि आधुनिक खेती अपनाने के कारण, कतिपय प्रकरणों में, छोटी जोत वाले किसानों को प्रति हैक्टर अधिक उत्पादन मिला है पर यह स्थिति हर साल नहीं रही। कुछ लोगों को लगता है कि छोटे किसानों के लिए परंपरागत खेती का देशज माडल ही निरापद है। हमारी टीम को लगता है कि आधुनिक खेती और गहराता मौजूदा जलसंकट, पुराने नजरिए में आए बदलावों के कारण हैं। इस बदलाव का तुलनात्मक अध्ययन किया जाना चाहिए।

चोहरा चौपाल में मिली जानकारियों और बुंदेलखंड के छीजते प्राकृतिक संसाधनों के कारण बिगड़ती स्थिति ने हमारी टीम के सामने कुछ यक्ष-प्रश्न खड़े किए। वे प्रश्न बुंदेलखंड पैकेज के अंतर्गत उठाए गए कदमों की सफलता की संभावना पर भी समान रूप से लागू हैं। वे प्रश्न, मध्यप्रदेश के अन्य अंचलों से भी संबंध रखते है।

पहला प्रश्न- ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की संभाव्यता की पृष्ठभूमि में छीजते प्राकृतिक संसाधन वाले बुंदेलखंड में कौन-सी कृषि पद्धति (परंपरागत या आधुनिक) प्रासंगिक है?

दूसरा प्रश्न- आधुनिक खेती में परंपरागत कृषि पद्धति की तुलना में दुष्प्रभाव अधिक हैं। क्या आधुनिक खेती के दुष्प्रभाव का पूरा-पूरा या आंशिक हल खोजा जाना संभव है? बुंदेलखंड में घटती जोत और छीजते प्राकृतिक संसाधनों के क्रम में क्या वह हल किसानों की आर्थिक क्षमता के अंतर्गत होगा? क्या आधुनिक खेती के संसाधनों पर बढ़ते दबाव और मिट्टी की सेहत पर बढ़ते दुष्प्रभाव और स्वास्थ्य सेवाओं पर बढ़ते संभावित व्यय के क्रम में, क्या पारंपरिक खेती को अपनाना बुद्धिमानी हो सकता है?

तीसरा प्रश्न- बुंदेलखंड के कृषि-क्षेत्र में बेरोजगार होते ग्रामीणों के शहरों की तरफ हो रहे पलायन का निदान किस पद्धति में खोजा जा सकता है? क्या उस माडल से आधुनिक कृषि वैज्ञानिक सहमत हैं? क्या उसे किसानों की स्वीकार्यता के बाद अपनाया जा सकता है?

हमारी टीम का मानना है कि उपर्युक्त बिंदुओं पर अध्ययन प्रासंगिक हो सकता है।

मण्डला की चौपालों में आए लोगों का कहना था अच्छी बरसात वह होती है जिससे खेती अच्छी हो। पानी धीरे-धीरे गिरे ताकि धरती उसे ठीक से सोख सके। वह पानी फसल को मिल सके। नदी, तालाबों एवं कुओं में इतना पानी आ जाए कि साल भर पानी की कमी नहीं रहे तथा फसल भी ठीक से पक जाए।

4.4 वर्षा एवं उसकी विवेचना
चोहरा की चौपाल में आए लगभग सभी लोग अनुभवी किसान थे। हमारी टीम ने उनसे स्थानीय वर्षा, उसकी विवेचना, खेती से वर्षा के रिश्ते इत्यादि पर चर्चा की। मण्डला की चौपालों के अनुभवों को संकलित कर चंद्रहास पटेल ने भेजा। प्राप्त अनुभवों को निम्नानुसार प्रस्तुत किया जा रहा है।

4.4.1 वर्षा
चोहरा चौपाल में आए किसानों का मुख्य रूप से कहना था कि पुराने समय में उनके क्षेत्र में वर्षा की मात्रा की माप नहीं ली जाती थी। उनका कहना था कि पुराने समय में वर्षा की मात्रा के स्थान पर यह देखा जाता था कि उसका वितरण खरीफ फसलों की आवश्यकता के अनुसार है अथवा नहीं। क्या उसके आधार पर रबी की फसल लेना संभव होगा? लोगों का अनुमान था कि संभवतः पुराने समय में उनके क्षेत्र में पर्याप्त पानी बरसता था जो परंपरागत फसलों, निस्तार आवश्यकताओं तथा नदियों के बारहमासी बने रहने के लिए कम नहीं था। मण्डला जिले की मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए श्रुतिराम, गणेश परते इत्यादि का कहना था कि उनके क्षेत्र में लगभग 4 माह बरसात हाती है। उनके इलाके में पर्याप्त पानी बरसता है। उनकी नजर में पर्याप्त वर्षा का अर्थ है फसल की आवश्यकतानुसार पानी गिरना। फसल को हानि पहुंचाने वाली बरसात को वे अच्छा नहीं मानते। उनका कहना था कि पुराने समय में होने वाली वर्षा, परंपरागत फसलों, नदी-नालों, तालाबों एवं कुओं में साल भर पानी की उपलब्धता के लिए संभवतः पर्याप्त थी। वे आगे कहते हैं कि इन दिनों होने वाली वर्षा, हाइब्रिड बीजों वाली खेती, नदी-नालों, तालाबों एवं कुओं को पूरे साल भर रखने के लिए अपर्याप्त लगती है।

4.4.2 वर्षा का अनुमान
चौहरा चौपाल में आए किसानों ने बताया कि उनके पूर्वज वर्षा का पूर्वानूमान, नक्षत्रों तथा आकाश में दिखने वाले लक्षणों के आधार पर लगाते थे। वे नक्षत्रों के आधार पर खेती का सम्पूर्ण कार्यक्रम तय करते थे। उन्होंने बताया कि एक साल में 27 नक्षत्र होते हैं। उनके क्षेत्र में होने वाली वर्षा का संबंध केवल 12 नक्षत्रों से है। मण्डला की चौपालों में उपस्थित किसानों ने बताया कि उनके क्षेत्र के लोग नक्षत्र आधारित वर्षा के अनुमानों पर ज्यादा भरोसा करते हैं। उन्हें प्राकृतिक वर्षा चक्र का पारंपरिक ज्ञान है। वे उस ज्ञान के आधार पर सदियों से खेती करते चले आ रहे है। उसी ज्ञान और बरसात के आधार पर फसल की बुआई का निर्णय लिया जाता है।

एक साल में 27 नक्षत्र होते हैं। उनके क्षेत्र में होने वाली वर्षा का संबंध केवल 12 नक्षत्रों से है।4.4.3 वर्षा की विवेचना
चोहरा चौपाल में हमारी टीम ने लोगों से आधुनिक तरीके (वर्षा की मात्रा) से वर्षा की विवेचना करने का अनुरोध किया। किसानों का कहना है कि परंपरागत खेती का स्थानीय वर्षा चक्र से से गहरा नाता था। बरसात की विवेचना केवल खेती की जरूरतों को सामने रखकर ही की जा सकती है। वे, अन्य पहलुओं या आवश्यकताओं के आधार पर वर्षा की विवेचना को बहुत आवश्यक नहीं मानते। किसानों की बातों से हमें लगा कि उनकी दृष्टि में वर्षा की सकल मात्रा का बहुत अधिक महत्व नहीं है। उनका कहना है कि बरसात का अर्थ है सही समय पर पानी का बरसना ताकि फसल का अंकुरण, उसका विकास और पैदावार ठीक हो। उनकी नजर में बरसात की अवधि, विभिन्न अंतरालों पर उसकी मात्रा तथा खेती के लिए उसकी उपयोगिता ही महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक है। यह विवेचना किसानों की देशज विवेचना है।

लेखक ने बरसात संबंधी अनुमानों पर भारतीय मौसम विभाग के पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक नूतन दास से चर्चा की। उन्होंने बताया कि भारतीय मौसम विभाग की जानकारी के आधार पर कृषि विभाग, फसलों के उत्पादन कार्य के बारे में भविष्यवाणी करता है। मौसम विभाग द्वारा बाढ़ और तूफान की भी चेतावनी दी जाती है। चेतावनी के लिए पूरे देश में आवश्यक तंत्र स्थापित हैं। यह सही है कि वर्षा की भविष्यवाणियां किसी वर्ग/विशेष की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अर्थात खरीफ की फसलों की आवश्यकता, जलाशयों के भरने तथा पेयजल स्रोतों की क्षमता-बहाली या भूजल रिचार्ज के नजरिए से नहीं की जाती। वे कहते हैं कि अलग-अलग हितग्राहियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के मापदण्ड अलग-अलग हैं। इसलिए तदनुसार विवेचना करने या सटीक भविष्यवाणियां करने में कठिनाइयां होंगी। यह अभी भी अनिश्चितता भरा क्षेत्र है।

4.4.4 जनजातीय समुदाय का वर्षा संबंधी अनुमान
मण्डला जिले में मुख्यतः बैगा एवं गोंड जनजातियों के लोग निवास करते हैं। वे लोग परंपरागत तरीके से बरसात का अनुमान लगाते हैं। वे मिट्टी के चार घड़ों में पानी भरकर उन्हें मिट्टी के चार ढेलों के ऊपर रखते हैं। दूसरे दिन मिट्टी के ढेलों का अवलोकन किया जाता है। यदि चारों ढेले रिसे पानी से अच्छी तरह भीग जाते हैं तो उसे अच्छी बरसात का संकेत माना जाता है। चारों ढेलों के ठीक से नहीं भीगने को खण्डित बरसात का संकेत माना जाता है। चंद्रहास पटेल कहते हैं कि मण्डला क्षेत्र के जनजातियों के लोग बादलों या प्रकृति नियंत्रित अन्य लक्षणों को देखकर भी पानी बरसने का अनुमान लगाते हैं। वे तदनुसार अपने असमतल या ऊंचे-नीचे खेतों में कोदों-कुटकी, मक्का, राई, रमतिला, धान आदि की फसल बोते हैं। जनजातीय समुदाय के वर्षा अनुमान हमारे देशज ज्ञान की धरोहर हैं, इसलिए उसका अध्ययन होना चाहिए।

4.5 वर्षा से वनों का रिश्ता
चोहरा की चौपाल में उपस्थित लोगों का कहना था कि वे जंगल और वर्षा को एक दूसरे का पूरक मानते है। उनका विश्वास है कि जंगल को नष्ट कर बरसात को पूरी तरह विश्वसनीय बनाना संभव नहीं है। जंगल की सलामती के लिए मिट्टी की आवश्यकता से भी परिचित हैं। चौपाल में उपस्थित लोग कहते हैं कि वृक्षों की सुरक्षा अनिवार्य है। यदि वृक्षों की कटाई अनियंत्रित हो, जंगल से पानी और मिट्टी का नाता टूट जाए तो कुछ सालों के बाद जंगल समाप्त हो जाता है। जमीन बंजर हो जाती है। धीरे-धीरे घास का पैदा होना भी कठिन होने लगता है। समूचा वन क्षेत्र बंजर हो रेगिस्तान बनने लगता है। समूचे बुंदेलखंड में प्राकृतिक संसाधनों के छीजने के कारण समस्याएं पनप रही हैं। मण्डला जिले की चौपालों में आए अधिकांश लोग मानते हैं कि उनके क्षेत्र की वर्षा का सीधा संबंध वनों/जंगलों से है। उनको लगता है कि घने जंगलों से बादल आकर्षित होते हैं। बादलों के आकर्षित होने से अच्छी बरसात होती है। जंगल काटने/घटने के कारण उनके क्षेत्र की बरसात का व्यवहार गड़बड़ा रहा है। बरसात का चरित्र बदलने के कारण, किसी साल कम तो किसी साल अधिक बरसात होती है। कई बार बाढ़ की स्थिति बनती है। बरसात के व्यवहार का सीधा असर खेती पर पड़ता है।

5 लोकसंस्कृति में जलविज्ञान और प्रकृति से जुड़ी कहावतें


5.1 लोक संस्कृति में जलविज्ञान
बुंदेलखंड की चौपालों और सम्पर्क सूत्रों के माध्यम से प्राप्त विचारों और उनके विवेचनाओं से लगता है कि बुंदेलखंड के समाज ने प्रकृति तथा स्थानीय जलवायु से तालमेल बिठाना, आजीविका, जलप्रबंध एवं जल प्रणालियों का सामाजिक मान्यता प्राप्त टिकाऊ और भरोसेमंद तंत्र विकसित किया था। यह तंत्र, लोकजीवन का अविभाज्य अंग और आजीविका का सुदृढ़ आधार था। वर्णित जलप्रबंध एवं जल प्रणालियों का तानाबाना इंगित करता है कि प्राचीन काल में पानी से जुड़ी सभी गतिविधियां, स्थानीय इको-सिस्टम का अभिन्न हिस्सा थीं। इसी कारण, बुंदेलखंड में स्थानीय इको-सिस्टम पर आधारित जलविज्ञान, लोक-संस्कारों तथा लोक संस्कृति द्वारा पोषित जन-जन का विज्ञान था।

मण्डला जिले की चौपालों में आए अधिकांश लोगों का कहना था कि उनकी जनजातीय लोक संस्कृति में जल को देवता के रूप में मानते हैं क्योंकि जल से ही खेती होती है, पानी पीने को मिलता है, धरती पर हरियाली होती है और अनाज पकता है। पेड़-पौधों में फल-फूल लगते है। जहां पर मीठा पानी नहीं हैं वहां पर महामारी फैल जाती है और जीव-जंतु मर जाते हैं।

5.2 प्रकृति से जुड़ी कहावतें
बुंदेलखंड में प्रकृति से जुड़ी सैकड़ों कहावतें हैं। इन कहावतों का क्रमिक विकास सैकड़ों साल पहले उस काल खंड में प्रारंभ हुआ होगा, जब सुसंस्कृत होते समाज ने पशुपालन और खेती को आजीविका का साधन बनाया था। इन कहावतों के पीछे पालतू पशुओं की उपयोगिता की समझ, मौसम विज्ञान, फसल विज्ञान, ज्येातिष, वनस्पति विज्ञान, भूजलविज्ञान एवं जलाशय विज्ञान इत्यादि का अत्यन्त सशक्त पक्ष मौजूद है। बुंदेलखंड की अधिकांश कहावतों में घाघ और भड्डरी का उल्लेख होता है। कहावतों के माध्यम से, घाघ और भड्डरी ने, खेती की प्रत्येक गतिविधि का रोडमैप दिया है। ये कहावतें, बुंदेलखंड सहित मध्यप्रदेश के हर गांव में कही और सुनी जाती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में, समाज का बहुत बड़ा तबका उन पर विश्वास करता है। खेती का बहुत-सा काम अभी भी उनके अनुसार होता है। माना जाता है कि बारानी खेती और वर्षा की भविष्यवाणी की चर्चा घाघ और भड्डरी की देशज कहावतों के बिना अधूरी है।

घाघ और भड्डरी की कहावतें, खेती के सम्पूर्ण परिदृश्य का विवरण देती हैं पर उनके पीछे के अन्तर्निहित सिद्धांतों का ब्यौरा अनुपलब्ध है। भारतीय विश्वविद्यालयों में भी घाघ और भड्डरी की अवलोकन आधरित कहावतों पर बहुत कम अनुसंधान हुआ है। इस कमी के कारण घाघ और भड्डरी परंपरागत ज्ञान को समझने और आधुनिक विज्ञान से उसका तार्किक रिश्ता जोड़ने में कठिनाई का अनुभव होता है। कहावतों से किसानों की अभिरूचि के कारण हमें लगता है कि आधुनिक विज्ञान और घाघ भड्डरी की कहावतों के पीछे के लोक विज्ञान के बीच संबंध स्थापित करने की आवश्यकता है। ज्ञात हो, घाघ और भड्डरी, पति पत्नी थे और घाघ ने बहुत-सी कहावतें भड्डरी को संबोधित कर कही हैं। हमारी टीम ने बुंदेलखंड अंचल के लोगों द्वारा सुनाई बहुत-सी कहावतों का संकलन किया और मध्यप्रदेश की जनपदीय कहावतें (2010) तथा रामलग्न पाण्डेय (1999) द्वारा लिखित घाघ भड्डरी की कहावतों का अध्ययन किया। बुंदेलखंडी कहावतों को तीन वर्गों में बांटकर उनमें छुपी वैज्ञानिकता को पेश किया है। कहावतों के प्रस्तावित प्रमुख वर्ग निम्नानुसार हैं-

1. नक्षत्रों से संबंधित कहावतें और उनका वैज्ञानिक पक्ष
2. महीनों से संबंधित कहावतें और उनका वैज्ञानिक पक्ष

3. अनुभव जन्य कहावतें और उनका वैज्ञानिक पक्ष

1. नक्षत्रों से संबंधित कहावतें
रोहिणी नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
रोहिन बरसै, मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय।
कहै घाघ सुन भड्डरी, स्वान भात नहीं खाय।।

यदि रोहिणी नक्षत्र में बरसात हो जाए, मृगशिरा नक्षत्र में खूब गर्मी पड़े और आद्रा नक्षत्र के कुछ दिन निकल जाए तो बहुत अच्छी बरसात होगी। इतना धान पैदा होगा कि कुत्ते भी भात नहीं खाएंगे। इस कहावत में कहा गया है कि भले ही रोहिणी नक्षत्र में बरसात हो जाए पर यदि मृगशिरा नक्षत्र में खूब गर्मी पड़े और आद्रा नक्षत्र के कुछ दिन बिना बरसात के निकल जाएं तो बाद में खेती को लाभ पहुंचाने वाली बहुत अच्छी बरसात होगी। यही इस कहावत का अवलोकन आधारित वैज्ञानिक पक्ष है।

पुष्य और पुनर्वसु नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
पुक्ख पुनर्वसु भरै न ताल। फिर बरसेगा लौट असाढ़।।

अर्थात पुष्य और पुनर्वसु नक्षत्र की बरसात से यदि स्थानीय तालाब नहीं भर जाए तो वे अगले साल ही भर पाएंगे। इस कहावत का संकेत है कि बुंदेलखंड अंचल में बरसात की प्रारभिक अवधि में तीव्रता अधिक तथा बाद की अवधि में बरसात की तीव्रता कम होती थी। इस कहावत में बरसात के चरित्र का वर्णन किया गया है, जो सही है।

जल विज्ञानी बताते हैं कि बरसात की तीव्रता के कारण रन-आफ अधिक होता है और जलाशयों के भरने की अच्छी संभावना होती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि यदि प्रारंभिक तेज बरसात के बावजूद स्थानीय तालाब नहीं भरे तो वे बाद की धीमी बरसात से नहीं भर पाएंगे। अर्थात वे अब अगले साल तक खाली रहेंगे। यह कहावत, बुंदेलखंड अंचल की पुष्य और पुनर्वसु नक्षत्र की वर्षा के व्यवहार को जाहिर करती है।

जो पुरवा पुरवाई पावै। झूरी नदिया नाव चलावे।।

पूर्वा नक्षत्र में यदि पुरवाई हवा चले तो इतनी बरसात होती है कि सूखी नदियों में भी नाव चलाने की नौबत आने लगती है। इस कहावत से संकेत मिलता है कि बुंदेलखंड अंचल में पूर्वा नक्षत्र से खूब तेज बरसात होती है।

चित्रा नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
जब बरसा चित्रा में होय। सारी खेती जाये सोय।।

चित्रा नक्षत्र की बरसात से खेती को बहुत नुकसान होता है और सारी खेती नष्ट हो जाती है। यह कहावत चित्रा नक्षत्र की वर्षा के प्रभाव को दर्शाती है।

चित्रा गेहूं आद्रा धान। न उनके गेरुई न इनके घाम।।

चित्रा नक्षत्र में गेहूं बोने से उसे गेरुआ नहीं लगता और आद्रा नक्षत्र में धान बोने से उसकी फसल अच्छी होती है। यह कहावत चित्रा नक्षत्र में गेहूं और आद्रा नक्षत्र में धान बोने के प्रभाव को दर्शाती है।

मघा नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
मघा न बरसै भरै न खेत। माई न परसै भरे न पेट।।

मघा नक्षत्र की बरसात से खेत उसी तरह संतृप्त होता है जिस तरह मां के हाथ से खाना खाने से पुत्र को तृप्ति होती है। यह कहावत मघा नक्षत्र की वर्षा के खेती पर संभावित प्रभाव अर्थात मिट्टी के संतृप्त होने को दर्शाती है।

चटका मघा पटकि गा ऊसर। दूध भात में परिगा मूसर।।

यदि मघा नक्षत्र में बरसात नहीं होने के कारण ऊसर भूमि सूख गई तो धान की सारी खेती बरबाद हो जाती है। उल्लेखनीय है कि ऊसर भूमि पर केवल धान और घास पैदा होता है। कहावत का संदेश है कि अवर्षा के कारण ऊसर भूमि पर घास नहीं होगी तो दूध नहीं होगा। धान नहीं होगा तो भात नहीं होगा। घाघ की इस कहावते में मूसर शब्द का प्रयोग घास और धान की संभावित हानि को दर्शाता है।

चित्रा, अश्लेषा और मघा नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
जो बरखा चित्र में होय। सगरी खेती जाये खोय।।

चित्रा नक्षत्र में बरसात होने से सारी खेती बरबाद हो जाती है।

जो कहुं मघा बरसै जल। सब नाजों में होगा फल।।

मघा नक्षत्र में बरसात होने से खेती संवर जाती है। परिणामस्वरूप बहुत अच्छी फसल होती है।

चिरैया में चीर कार,
असरेखा में टार-टार।
मघा में कांदो सार।।

अर्थात चिरैया (पुष्य) नक्षत्र में अगहनी धान का खेत थोड़ा बहुत जोत कर रोप दिया जाए तो ठीक रहता है। अश्लेषा नक्षत्र में ढेलों को हटाकर भी धान लगा दिया जाए तो काम चल जाता है परंतु मघा नक्षत्र में तो खाद डालकर बुआई करने से धान का अच्छा उत्पादन मिलता है। ये सभी कहावतें पुष्य और अश्लेषा नक्षत्रों की खेती की आवश्यकताओं और मघा नक्षत्र में खाद के उपयोग के प्रभाव को दर्शाती हैं। यही उनका वैज्ञानिक पक्ष है।

आद्रा नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावतें
आद्रा मांही जो बोबई साठी। दुख को मार निकारे लाठी।।

आद्रा नक्षत्र में साठ दिन में पकने वाली परंपरागत धान को बोने से उसकी फसल अच्छी होती है। यह कहावत आद्रा नक्षत्र की वर्षा के साठ धान (साठ दिन में पकने वाली धान) पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव को दर्शाती है।

आद्रा और हस्ति नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
आद्रा सूखी तीन गये, सन साठी और तूल।
हस्ति न बरसे सब गये अगित पिछली भूल।।

आद्रा नक्षत्र की अवर्षा से सन, साठी धान और कपास की परंपरागत खेती नुकसान होती है। इस कहावत का पहला हिस्सा आद्रा नक्षत्र की अवर्षा के प्रभाव को दर्शाती है। कहावत के दूसरे हिस्से मंे कहा है कि हस्ति नक्षत्र की अवर्षा से सभी परंपरागत फसलें नष्ट हो जाती हैं। यह कहावत आद्रा और हस्ति नक्षत्र की अवर्षा के परंपरागत फसलों पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को दर्शाती है।

हथिया पूंछ डोलावै, घर बैठे गेहूं आवे।।

अर्थात हस्त नक्षत्र में हुई थोड़ी-सी बरसात भी गेंहूं के लिए बहुत लाभदायक होती है। यह कहावत हस्ति नक्षत्र की वर्षा के गेहूं की फसल पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव को दर्शाती है। इस नक्षत्र के दौरान हुई बरसात से खेतों को नमी मिल जाती है। यही नमी गेहूं की बारानी खेती को सफल बनाने में सहयोग करती है।

स्वाति और विशाखा नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
जो कउं बरसे स्वात विसांत।
चले ना राटा बजै न तांत।।

स्वाति नक्षत्र और विशाखा नक्षत्र के अंत में बरसात होने से उस साल रहट नहीं चलती और कपास की फसल नहीं होती। यह कहावत स्वाति नक्षत्र और विशाखा नक्षत्र के आखिरी दिनों की हुई वर्षा के कुप्रभाव को दर्शाती है। यही उसका वैज्ञानिक पक्ष है।

स्वाति नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
एक पानी जो बरसै स्वाति।
कुरमिन पहिरै सोने के पाती।।

इस कहावत में कहा गया है कि स्वाति नक्षत्र (23 अक्टूबर से 05 नवम्बर) में एक बार भी बरसात हो जाए तो इतनी अच्छी फसल होगी कि कुर्मी-किसान (खेती में पारंगत जाति) की स्त्री सोने के गहने पहनेगी। यह कहावत स्वाति नक्षत्र की वर्षा के सकारात्मक प्रभाव को दर्शाती है।

2. महीनों से संबंधित कहावतें
चोहरा चौपाल में महीनों से संबंधित अनेक कहावतें सुनाई गईं। बुंदेलखंड अंचल से संबंधित कुछ कहावतों का वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक पक्ष निम्नानुसार हैं-

चैत्र माह से संबंधित कहावतें
चैते बरषा आई। औ सावन सूखा जाई।।

इस कहावत में कहा गया है कि यदि चौत्र माह में यदि पानी बरसता है तो श्रावण माह में बरसात नहीं होगी। अर्थात श्रावण माह सूखा जाएगा।

एक बूंद जो चेत में परे।
सहस बूंद सावन की हरे।।

यदि चैत्र में पानी बरसता है तो श्रावण माह में एक हजार बूंदों की कमी हो जाती है। अर्थात श्रावण माह की वर्षा घट जाती है।

ऊपर वर्णित दोनों कहावतों का संबंध बुंदेलखंड की वर्षा के वितरण तथा चरित्र से है। मानसूनी हवाओं के तंत्र के विकास के लिए इस अंचल का गर्म होना आवश्यक है।

चैत मास दसवीं खडी, जो कहुं कोरा जाय।
चौमासे भर बादरा, भली भांति बरसाये।।

चैत्र माह की दसवीं को आकाश बादल रहित हो तो कहा जाता है कि वर्षा ऋतु में चारों माह बरसात होगी।

चौत चमकै बीजरी, बरसै सुधि बैसाख।
जेठे सूरज जो तपै, निश्चय बरसा भाख।।

यदि चैत्र माह में बिजली चमके, बैसाख माह में बरसात हो और ज्येष्ठ माह में खूब गर्मी पड़े तो वर्षा ऋतु में निश्चय ही अच्छी बरसात होगी।

जेठ माह से संबंधित कहावतें
चौदस पूनों जेठ की, बरसा बरसे जोय।
चौमासे बरसे नहीं, नदियन नीर न होय।।

यदि जेठ माह की चतुर्दशी एवं पूर्णिमा को बरसात होती है तो वर्षा ऋतु के चार माह पानी नहीं बरसता।

जेठ चले पुरवाई। सावन सूखा जाइ।।

यदि जेठ माह में पुरवाई हवा चलती है तो सावन माह में बरसात नहीं होगी। हमारी टीम का मानना है कि इस कहावत का संबंध जेठ माह में बहने वाली हवा की दिशा तथा वर्षा ऋतु के श्रावण माह में होने वाली बरसात की मात्रा से है। जेठ माह में पुरवाई हवा चलने का असर अंचल में बनने वाले कम दबाव के क्षेत्र पर पड़ता है।

जेठ वदी दसवीं दिन, जो शनि वासर होय।
पानी न होय धरनि पर, बिरला जीवै कोय।।

इस कहावत में कहा है कि यदि जेठ माह के कृष्ण पक्ष की दसवीं तिथि को शनिवार पड़ जाए तो कहा जाता है कि बरसात नहीं होगी और बहुत कम लोग जीवित बचेंगे। यह कहावत अकाल का संकेत देती है।

असाढ़ माह से संबंधित कहावत
असाढ़ आठैं अंधियारी, जो निकले चंदा जलधारी।
चंदा निकले बादर फोड़श् साढ़े तीन महिना वर्षा योग।।

यदि असाढ़ माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को बादलों के बीच से चंद्रमा निकले तो साढ़े तीन माह बरसात होगी।

सावन माह से संबंधित कहावत
सावन शुक्ला सप्तमी जो गरजै अधिरात।
बरसे तो सूखा पड़े, नही समौ सुकाल।।

यदि श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को अर्द्धरात्रि में बादलों की गर्जना के साथ-साथ बरसात भी हो तो माना जाता है कि समय अच्छा नहीं है और सूखा पड़ेगा।

सावन सुकला सप्तमी, गगन स्वच्द जो होय।
कहैं घाघ सुन भड्डरी, पुहुमी खेती होय।।

यदि श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन आकाश बादल रहित हो तो माना जाता है कि खेती की स्थिति अच्छी नहीं है।

सावन बदि एकादशी, जो तिथि रोहिणी होय।
खेती समया उपजै, चिंता करें न कोय।।

यदि श्रावण माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को जितने दण्ड रोहिणी नक्षत्र होगा, उतनी ही बरसात होगी।

सावन मास बहै पुरवाई।
बरधा बेचि बेसाहों गाई।।

यदि श्रावण माह में पुरवाई हवा चलती है तो बरसात की संभावना कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में खरीफ की फसल नहीं होगी, इसलिए किसान को बैल बेचकर गाय खरीद लेना चाहिए। इस कहावत का संकेत है कि खरीफ की फसल के खराब होने के कारण किसान को अपनी गुजर-बसर करने के लिए गाय खरीद लेना चाहिए।

भादों माह से संबंधित कहावत
भादों की छट चांदनी, जो अनुराधा होय।
ऊबड़ खाबड़ बोय दे, अन्न घनेरा होय।।

यदि भादों माह की शुक्ल पक्ष की छठवीं तिथि को अनुराधा नक्षत्र हो तो सभी खेतों में बुआई कर दो। बहुत अच्छी फसल होगी।

भादों मासै ऊजरी, लखौं मूल रविवार।
तो यों भाखे भड्डरी, साख भली निरधार।।

यदि भादों माह की शुक्ल पक्ष में रविवार को मूल नक्षत्र हो तो कवि भड्डरी का कहना है कि बहुत अच्छी फसल होगी।

कार्तिक माह से संबंधित कहावत
पंचमी कातिक शुक्ल की, जो बुधवारी होय।
बीस बिसै वृष्टि पड़े, वर्ष मनोहर होय।।

यदि कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष में बुधवार को पंचमी तिथि पड़े तो उस वर्ष अच्छी बरसात होगी। पूरा साल आनंद से बीतेगा।

अगहन माह से संबंधित कहावत
अगहन बदी आठे घटा, बिज्जू समेती जोय।

तो सावन बरसे भलौ, साख सवाई होय।।

यदि अगहन माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी का बादल घिर आएं और बिजली चमके तो मानना चाहिए कि सावन माह में अच्छी बरसात होगी।

मार्गबदी आठे घन दरसे।
तो महिना भर सावन बरसे।।

यदि अगहन माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को बादल दिखाई दें तो मानना चाहिए कि सावन में पूरे माह अच्छी बरसात होगी।

अगहन में सरबा भर।
फिर करबा भर।।

यदि अगहन माह में रबी की फसल को बरसात का थोड़ा भी पानी प्राप्त हो जाए तो उसका फल, अन्य माहों की तुलना में अच्छा होता है। इस कहावत का संबंध अगहन माह की बरसात का रबी की फसल पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव से है।

अगहन बरसे हून, पूस बरसे दून।
माघ बरसे सवाई, फागुन बरसे मूर गंवाई।।

यदि अगहन माह में बरसात होती है तो फसल अच्छी, पूस माह में बरसात होती है तो फसल दो गुनी, माघ माह में बरसात होती है तो फसल सवा गुनी और फाल्गुन माह में बरसात होती है मूल धन अर्थात बीज भी नहीं मिलता। यह कहावत, विभिन्न माहों में होने वाली बरसात के रबी फसल पर पड़ने वाले प्रभाव को दर्शाती है।

माघ माह से संबंधित कहावतें
माघ मास में हिम पडै, बिजली चमके जोय।
जगत सुखी निश्चय रहे, वृष्टि घनेरी होय।।

यदि माघ माह में ओला वृष्टि हो और आकाश में बिजली चमके तो निश्चित ही बरसात होगी। बरसात होने के कारण लोग खुश होंगे।

माघ में बादर लाल घिरें।
सांची मानों पाथर परैं।।

यदि माघ माह में आकाश में लाल रंग के बादल दिखाई दें तो निश्चय ही ओलावृष्टि होगी।

माघ पूस बहै पुरवाई।
तब सरसों को माहू खाई।।

यदि माघ और पूस माह में पश्चिमी हवा बहती है तो सरसों की फसल को माहू (फसल को खाने वाला कीड़ा) खा जाता है।

पूस माह से संबंधित कहावत
पानी बरसे आधे पूस। आधा गेहूं आधा भूस।।

यदि पौष माह के 15 दिन बीतने के बाद बरसात होती है तो आधा गेहूं और आधा भूसा प्राप्त होता है अर्थात गेहूं की फसल अच्छी होगी। यह कहावत बुंदेलखंड अंचल में पौष माह के 15 दिन बाद हुई बरसात के प्रभाव को दर्शाती है।

फागुन माह से संबंधित कहावत
फागुन मास चले पुरवाई तब गेहूं को गिरुवा धाई।
नीचे आद ऊपर बदरई, पानी बरसे पुनि-पुनि आई।।

यदि फागुन माह में पुरवाई हवा चलती है तो गेहूं को गेरुआ रोग लग जाता है। यदि नीचे आद्रता हो और आकाश में बादल हों तो बारंबार बरसात होती है। यह कहावत बुंदेलखंड अंचल में फागुन माह के मौसम के चरित्र की परिचायक है तथा गेहूं की फसल पर पुरवाई हवा के प्रभाव को दर्शाती है। कहावत का दूसरा भाग बादलों और आद्रता के सह-संबंध को प्रदर्शित करता है।

3. अनुभव जन्य कहावतें और उनका वैज्ञानिक पक्ष
चौहरा की चौपाल में एकत्रित लोगों खासकर प्रकाश जारौलिया का कहना था कि उनके अंचल के बुजुर्गों को सैकड़ों अनुभव जन्य कहावतें याद थीं। प्रकाश जारौलिया कहते हैं कि ये कहावतें लोगों को सही-गलत का भेद कराती हैं। इन कहावतों का जन्म कब हुआ यह तो उन्हें नहीं मालूम पर वे इतना जानते हैं कि ये कहावतें कई पीढि़यों से प्रचलन में हैं। उनका संबंध जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से है। उल्लेख है कि मध्यप्रदेश के सभी अंचलों में सैकड़ों अनुभवजन्य कहावतें कही और सुनी जाती हैं पर उनमें बोली के अतिरिक्त कोई बुनियादी अंतर नहीं है।

पशुविज्ञान पर आधारित अनुभव जन्य कहावतें
बुंदेलखंड में प्रचलित कहावतों में दुधारू पशुओं की दूध देने की क्षमता और हल में जोतने वाले बैलों के स्वभाव, खेती से जुड़े गुणों और शारीरिक गठन के आधार पर उनकी उपयोगिता का विवरण दिया गया है। उक्त वर्ग की कुछ कहावतें जो डा. ओम प्रकाश चौबे ने संकलित कीं, निम्नानुसार हैं-

पतरी पिंडरी मोट रान पूंछ होय भुंई के परमान।
जाके होवे ऐसी गाय, होय दुधारू सबको भाय।
मोटी खाल दुधारू जान, पतरी खाल दूध की हानि।।

जिस गाय की पिंडली पतली, रान मोटी तथा पूंछ धरती को स्पर्श करती हो, वह अधिक दूध देने वाली होती है। जिस गाय की चमड़ी मोटी होती है वह दूध देने वाली और जिसकी त्वचा पतली होती है, वह कम दूध देने वाली होती हैं।

भूरी भैंस दो कण्ठा। काली के दूध समान हो मठा।।

भूरी भैंस के गले में यदि दो कण्ठा हों, उसका मठा (छाछ) भी भैंस के दूध के समान होता है।

मियनी बैल बड़ा बलवान। तनकि देर में करिहै ठाढ़े कान।।

मियनी बैल बहुत ताकतवर होता है। वह कुछ ही क्षण में कान खड़े कर लेता हे अर्थात बहुत चौकन्ना होता है।

नीला कन्धा बैगन खुरा। कभी न निकले बरघा बुरा।।

जिस बैल के कंधे का रंग नीला और खुरों का रंग बैंगनी हो, वह बैल कभी भी बुरा नहीं निकलता।

बैल मिलै कजरा। दाम दिऔ अगरा।।

यदि कजरा बैल मिलता है तो उसे अधिक दाम देकर भी खरीदना अच्छा होता है।

बैल मिलै लौह बेरिया। भई कुडैरी थैलिया।।

यदि लाल रंग का बैल मिले तो तुरंत खरीद लेना चाहिए।

लंबी पूंछ छोटे कान। ऐसे बरद मेहनती जान।।

लंबी पूंछ और छोटे कान वाला बैल मेहनती होता है।

छोटा मुंह ऐंठा कान। यही बरद की है पहचान।।

छोटे मुंह और उठे हुए कानों वाले बैल अच्छे होते हैं।

बड़सिंगा लनि लीजो मोल। कुएं में डारौ रुपया खोल।।

बड़े सिंग वाला बैल नहीं खरीदना चाहिए। उसकी खरीद पर किया गया खर्च बेकार होता है।

बड़ी मुतारें लंबे कान। हर देखे से तजे पिरान।।

जिस बैल की पेशाब की इन्द्रियां बड़ी और झूलती हुई होती हैं उसे नहीं खरीदना चाहिए। वह बैल मेहनती नहीं होता।

तीन पांव रंग एक हों, एक पांव रंग एक।
घर आये संपत्ति घटे, पिया मरे परदेश।।

जिस घोड़े के तीन पैर एक रंग के और चौथा पैर अन्य रंग का हो तो वह घोड़ा अशुभ होता है। उसके कारण धन और जन की हानि होती है।

हमने पशुओं से संबंधित कहावतों के बारे में भारतीय स्टेट बैंक आफ इंडिया के पूर्व मुख्य तकनीकी अधिकारी डा. एसजी कुलकर्णी से चर्चा की। डा. कुलकर्णी मूलतः पशु चिकित्सक हैं। पशुओं के गुणों को बताने वाली कहावतों के बारे में डा. कुलकर्णी का स्पष्ट मत था कि इन कहावतों के पीछे लंबे समय का अवलोकन है। यह अवलोकन एक ही प्रजाति के पशुओं को उनके गुणों के आधार पर, वर्गीकृत करता है तथा उनकी उयुक्तता या अनुपयुक्तता को दर्शाता है। डा. कुलकर्णी के अनुसार देशज कहावतों में वर्णित प्राचीन भारत में विकसित पशुविज्ञान के दृष्टिबोध को दर्शाता है। वे कहते हैं कि यह विशेषज्ञता पाश्चात्य पशुविज्ञान में नहीं दिखती।

आकाश में दिखने वाले संकेतों पर आधारित अनुभव जन्य कहावतें
दिन को बादर रात को तारे। चलो कंत जहं जीवें बारे।।

यदि बरसात के मौसम में दिन में बादल और रात्रि में तारे नजर आएं तो किसी की स्त्री अपने पति से कहती है कि अकाल के लक्षण दिख रहे हें इसलिए हम ऐसी जगह चलें जहां बच्चों के जीवित रहने की व्यवस्था हो सके। यह कहावत बरसात के मौसम में आकाश में दिखने वाले लक्षणों के आधार पर अकाल की संभावना को इंगित करती है।

लाल पियर जब होय अकास।
तब नहीं बरखा की आस।।

यदि आकाश का रंग लाल पीला होने लगे तो बरसात की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। यह कहावत बरसात के मौसम में आकाश में दिखने वाले रंगों के आधार पर बरसात की समाप्ति को इंगित करती है।

तीतर बरनी बादरी, विधवा काजर रेख।
वह बरसै वह घर करै, कहैं भड्डरी देख।।

तीतर बरनी बादरी, रहै गगन पर छाय।
कहैं घाघ सुन भड्डरी, बिन बरसे ना जाय।।

यदि तीतर (पक्षी) के रंग के बादल आसमान में छाए हों तो घाघ कवि अपनी स्त्री से कहता है कि हे भड्डरी, ये बादल बिना पानी गिराए नहीं जाएंगे। यह कहावत, वायुमंडल में तीतर के रंग के बादलों के वर्षा संबंधी व्यवहार पर आधारित है जिसे समाज ने कहावत के रूप में पेश किया है।

सुक्कर केरी बादरी, रही शनीचर छाय।
तो यों भाखे भड्डरी, बिन बरसे नहीं जाय।।

यदि शुक्रवार को आकाश में छाए बादल, शनिवार तक छाए रहें तो भड्डरी का कहना है कि वे बादल बिना पानी गिराए नहीं जाएंगे। यह कहावत, वायुमंडल में शुक्रवार से शनिवार तक छाए बादलों के वर्षा-संबंधी व्यवहार पर आधारित है, जिसे समाज ने, अवलोकन आधारित कहावत के रूप में पेश किया है।

भारतवर्ष की मौसम संबंधी कहावतों के बारे में पहला अध्ययन भारतीय मौसम विभाग द्वारा किया गया था। यह अध्ययन इंडियन जर्नल आफ मीटियोरालाजी एन्ड जियोफिजिक्स (खंड 4, जनवरी 1953, क्रमांक 1) में छपा था। उपर्युक्त जर्नल में छपे संपादकीय से ज्ञात होता है कि सन् 1948 में भारतीय कहावतों का अध्ययन करने के लिए वीवी. सोहनी की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई थी। इस कमेटी ने तमिल, पंजाबी, गुजराती, कन्नड़, बांग्ला, मलायालम, तुलुगू, हिन्दी ओडिशी, मराठी और असमिया भाषाओं में कही जाने वाली 5200 से अधिक कहावतों का संकलन किया था। इन कहावतों में बृहत्संहिता में उपलब्ध 204 श्लोक सहित कुल 567 कहावतों का संबंध मौसम से था। कमेटी ने 567 कहावतों को 37 वर्गो में बांट कर उनका सांख्यिकी अध्ययन किया। आजादी के बाद यह संभवतः पहला अध्ययन था। इस अध्ययन में जो कहावत जिस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रचलन में थी, उसका चयन किया गया। तदुपरांत निकटतम मौसम केन्द्रों से लंबी अवधि के मौसम संबंधी आंकड़े जुटाए गए और सांख्यिकी की बेतरतीब सर्वे विधि से अध्ययन किया। कमेटी की रिपोर्ट एस. बसु द्वारा उल्लिखित जर्नल में वर्ष 1953 में प्रकाशित हुई थी। एस. बसु का अभिमत था कि-

While it may be of academic interest to verify each one of the vast store of folk-lore, the preliminary examination reported by the committee did not lend encouragement to further efforts to prove or disprove every one of the large number of items collected.

एस. बसु ने अवलोकन या अनुभव आधारित कहावतों को सांख्यिकी विधि से किए अध्ययन में खारिज किया। कृषि वैज्ञानिक भी कहावतों पर बहुत विश्वास नहीं करते।

चौपालों में लोगों का कहना था कि भारतीय पद्धति में अनुभव आधारित समझ को सम्प्रेषित करने के लिए सूचना, शिक्षा तथा संचार जैसी आधुनिक पद्धतियों की आवश्यकता नहीं थी। अनुभव के सम्प्रेषण के लिए कहावतें, गीत, मुहावरे, वर्जनाएं इत्यादि गढ़ी जाती हैं जो अपनी बात अनेक तरीकों से सम्प्रेषित करती हैं। मौसम या अनुभव या नक्षत्र आधारित कहावतों का सम्प्रेषण आज भी प्रभावी है।

यह बिडम्बना ही कही जाएगी कि मौसम की भविष्यवाणियों की आधुनिक पद्धति में भारतीय विधियों के प्रति अनदेखी या उपेक्षा का भाव देखा जाता है।

जीवों और वनस्पतियों के व्यवहार पर अनुभव आधारित कहावतें
बोली गोह फुली बन कांस।
अब नाहीं बरखा की आस।।

जब गोह के बोलने की आवाज सुनाई देने लगे और जंगल में कांस फूल जाएं तो समझ जाओ कि वर्षा ऋतु खत्म होने वाली है। इस कहावत के अनुसार गोह का चिल्लाना और कांस के फूलने का समय वर्षा ऋतु की समाप्ति से मेल खाता है।

उलटे गिरगिट ऊंचे चढ़े।
बरसा होई भूंइ जल चढ़े।।

जब गिरगिट उल्टा होकर ऊपर की ओर चढ़े तो समझो बरसात होगी और धरती पर पानी की मात्रा बढ़ेगी।

कलसे पानी गरम है, चि़ड़िया न्हावे धूरि।
अंडा लै चींटी चढ़ै, तो बरखा भरपूर।।

यदि कलश (धातु के बर्तन) में रखा पानी गुनगुना लगे, चिड़िया (गौरैया पक्षी) धूल में स्नान करने लगे तथा चीटियां अपने अंडे लेकर ऊंचे स्थान की ओर जाने लगें तो मानना चाहिए कि अच्छी बरसात होने वाली है। यह कहावत, वायुमंडल में पानी की भाप की वृद्धि की परिचायक है। भाप की वृद्धि के कारण उमस बढ़ती है। ये लक्षण वर्षा की संभावना को इंगित करते हैं। इसके पीछे समाज का अनुभव है जिसे कहावत के रूप में पेश किया है।

आकार कोदो, नीम जवा।
गाडर गेहूं, बेर चना।।

जिस साल मदार (अकौआ) खूब फूले-फले तो उस साल कोदों अच्छी, जिस साल नीम खूब फूले-फले तो जौं की फसल अच्छी, जिस साल गादर घास अधिक पैदा हो उस साल गेहूं और जिस साल बेर की फसल अच्छी हो उस साल चने की अच्छी पैदावार होगी। यह समाज का अनुभव है जिसे कहावत के रूप में पेश किया गया है।

बुआई और निंदाई से संबंधित अनुभव आधारित कहावतें
बोओ गेहूं काट कपास। ना हो ढेला ना हो घास।।

कपास की फसल काट कर गेहूं की बोनी करना चाहिए। ध्यान रहे कि खेत में खरपतवार और घास नहीं होना चाहिए।

कातिक बोवै अगहन भरे। ताको हाकिम फिर का करै।।

यदि कार्तिक माह में गेहूं बो दिया और अगहन माह में उसकी सिंचाई कर दी तो लगान चुकाने में कठिनाई नहीं होगी। भरपूर फसल होगी।

अदरा में जो बोवै साठी। दुःखै मार निकारै लाठी।।

जो किसान आद्रा नक्षत्र में साठी धान बोता है वह अच्छी फसल पाता है और उसके दुख दूर हो जाते हैं। अर्थात साठ दिन वाली धान की बोआई के लिए सही नक्षत्र आद्रा नक्षत्र है। आद्रा नक्षत्र में बोनी करने से साठी धान की खूब पैदावार होती है।

जो कपास को नाहीं गोड़ी।
उसके हाथ न आवै कौड़ी।।

जो किसान कपास की फसल की गुड़ाई नहीं करेगा उसके हाथ में पैसा नहीं आएगा। अर्थात कपास की अच्छी पैदावार लेने के लिए गुड़ाई आवश्यक है।

गहिर न जोतै बोवै किसान।
सो घर कोठिला भरै धान।

जो किसान उथली जुताई कर धान बोता है उसका अन्न-भंडार अच्छी तरह भर जाता है। अर्थात धान का उत्पादन खूब होता है।

उत्तर चमकै बीजुरी, पूरब बहती बाउ।
घाघ कहें सुन भड्डरी, बरधा भीतर लाउ।।

यदि उत्तर दिशा में बिजली चमकती है और पूर्व की हवा बहती है, तो घाघ कवि कहते हैं कि हे भड्डरी, बैलों को घर के अंदर ला। जल्दी ही बरसात होगी।

रात दिना घम छांही।
घाघ कहैं तब वर्षा नाहीं।।

यदि दिन तथा रात्रि उमें कभी बादल दिखें और कभी नहीं दिखें तो घाघ कवि कहते हैं कि अब बरसात का मौसम गया।

यदि दिन में गरमी रात को ओस।
कहैं घाघ बरसा सौ कोस।।

इस कहावत के अनुसार यदि दिन में गर्मी और रात्रि में ओस गिरे तो घाघ कवि कहते हैं कि बरसात बीत गई। हमारा मानना है कि इस कहावत के पीछे बरसात के बाद के दिनों की गर्मी और ओस पड़ने से जुड़ा अनुभव है जिसे समाज ने कहावत के रूप में पेश किया है।

चंद्रहास पटेल ने जो कहावतें भेजी हैं; निम्नानुसार हैं-

शुक्रवार की बदली रही शनिचर छाय।
ये तो निश्चित मानलो बिन बरसे नहीं जाये।।

यदि बरसात के दिनों में शुक्रवार को आकाश में बादल घिरते हैं तो अवश्य बरसात होगी। वे बिना पानी बरसाए बिदा नहीं होंगे। यह कहावत सभी अंचलों में कही और सुनी जाती है।

गौरैया नहाये धूर। पानी आये जरूर।।

यदि बरसात के दिनों में गोरैया (चिड़िया) धूल में लोटने लगती है तब अवश्य ही पानी गिरता है। यह कहावत सभी अंचलों में कही और सुनी जाती है।

चंद्रहास पटेल कहते हैं कि जब धान और कोदों की फसलों को पानी की आवश्यकता होती है और पानी नहीं बरसता, तो लोग बरसात को बुलाने के लिए मेंढक से गुहार (मेढ़क रानी पानी दे, धान कोदो पाकन दे) लगाते हैं। वे कांस को फूलता देखकर बरसात की विदाई और निम्बोली (नीम का पका फल) के गिरने को अच्छी बरसात का संकेत मानते हैं। उल्लिखित सभी संकेत अनुभव आधारित हैं। चंद्रहास पटेल का मानना है कि भारतीय विज्ञान की अभिव्यक्ति, लोक-व्यवहार में प्रदर्शित होती है। यह विशेषता पाश्चात्य विज्ञान में नहीं है। पाश्चात्य विज्ञान की अभिव्यक्ति विषय की किताबों, आलेखों और शोध पत्रों तक सीमित है।

 

जल चौपाल, सप्रे संग्रहालय, संस्करण 2013

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

आओ बनायें पानीदार समाज

2

मध्य प्रदेश का सांस्कृतिक परिचय

3

निमाड़ की चौपाल

4

बघेलखंड की जल चौपाल

5

बुन्देलखण्ड की जल चौपाल

6

मालवा की जल चौपाल

7

जल चौपाल के संकेत

 
ज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद' और 'माधव राव सप्रे स्मृति संचार संग्रहालय एवं शोध संस्थान' के आपसी सहयोग से हुई। इस यात्रा के मार्गदर्शक की भूमिका में जलविज्ञानी श्रीकृष्ण गोपाल व्यास थे।

लोक में जब पानी की बात होती है, पेड़-पहाड़, प्राणी-माटी, खेती-किसानी, सेहत वगैरह सब चर्चा में आते हैं। यह परस्पर निर्भरता का व्यवहार है।

सप्रे संग्रहालय और राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद के सामुहिक सहयोग से 'जल चौपाल' नाम की पुस्तक तैयार हुई है। 'बुंदेलखंड की जल चौपाल' उपर्युक्त पुस्तक का चौथा अध्याय है।

बुंदेलखण्ड अंचल की लोकसंस्कृति में जलविज्ञान और प्रकृति को समझने के लिए हमने सागर, टीकमगढ़ और मण्डला जिलों का चयन किया। सागर जिले की चौपाल, रहली तहसील के चोहरा ग्राम में आयोजित की। चोहरा ग्राम में हमारे संपर्क सूत्र एवं सहयोगी थे, ढाना के प्रखर पत्रकार दीपक तिवारी, चोहरा ग्राम के वसुंधरा लोककला मंडल के प्रमुख तथा प्रकृति, संस्कृति और पर्यावरण मर्मज्ञ उमेश वैद्य तथा सागर के लोकसंस्कृति मर्मज्ञ डा. ओमप्रकाश चौबे। चौपाल में डा. ओमप्रकाश चौबे ने स्थानीय संयोजक का दायित्व संभाला। बाद में भी उन्होंने चौपाल में छूटी पूरक जानकारियां भेजने का काम जारी रखा।

चोहरा ग्राम की चौपाल में अनुभवों के आदान-प्रदान तथा चर्चा के लिए धनगंवा, ढाना, पिपरिया, सागर, रहली, जूना, खमरिया-रहली, नन्ही देवरी, मेंढकी, बिलहरी, पथरिया घाट, सेमाढ़ाना, देवरी, मजगंवा, आफतगंज और सदर के साथी इकट्ठे हुए। इन साथियों ने सागर क्षेत्र (बुंदेलखण्ड) के परंपरागत समाज की जीवनशैली तथा संस्कारो, जंगल, जलवायु, वर्षा, अकाल, आबादी, आजीविका के साधनों, स्वास्थ्य, खेती, फसलों, कृषि पद्धतियों, मिट्टियों, सिंचाई एवं सिंचाई साधनों, कृषि उपकरणों और पुरानी जल संरचनाओं के बारे में सिलसिलेवार जानकारी दी।

दुर्गाप्रसाद यादव ने टीकमगढ़ जिले के ग्राम बोरी से रमेश श्रीवास्तव और उनकी पत्नी सुधा श्रीवास्तव ने ग्राम महाराजपुर से हमारे लिए महत्वपूर्ण प्राथमिक जानकारियां जुटाईं।

मण्डला जिले की चौपाल विकासखंड बिछिया की ग्राम पंचायत मानिकपुर के ग्राम मानिकपुर और मवई विकासखंड की ग्राम पंचायत सुनेहरा के ग्राम अमवार में आयोजित की। मानिकपुर और अमवार ग्राम में हमारे संपर्क सूत्र एवं सहयोगी थे चंद्रहास पटेल और सतरूपां। मानिकपुर की चौपाल में 18 और अमवार ग्राम की चौपाल में 15 साथी जुटे। दोनों चौपालों में आए सभी लोग मुख्यतः आदिवासी कृषक थे। चंद्रहास पटेल ने स्थानीय संयोजक का दायित्व संभाला। उन्होंने चौपालों में छूटी जानकारियों को भेजने का काम जारी रखा तथा जानकारियां से संबंधित हमारी सभी जिज्ञासाओं का समाधान किया। मण्डला, बुंदेलखंड अंचल के दक्षिण में स्थित आदिवासी बहुल जिला है। यहां की लोक-संस्कृति मिश्रित है तथा उस पर छत्तीसगढ़ अंचल का असर है।

बुंदेलखंड के विभिन्न क्षेत्रों (बोरी और महाराजपुर) से ऊपर उल्लिखित साथियों द्वारा भेजी जानकारियों, मण्डला जिले की मानिकपुर और अमवार और सागर जिले की चोहरा चौपाल का अनुभव, अनुभवों की समीक्षा और ज्ञान के सम्प्रेषण की विधियों का वर्णन, पूर्व में उल्लिखित निम्नलिखित उप-शीर्षकों के अंतर्गत किया जा रहा है।

1. दैनिक जीवन, धार्मिक एवं सामाजिक संस्कारों में विज्ञान
2. जलस्रोत-विज्ञान की झलक
3. स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य संबंधी संस्कारों का विज्ञान
4. मिट्टी, परंपरागत खेती, वर्षा तथा वर्षा का वनों से रिश्ता
5. लोक संस्कृति का प्रकृति से नाता और अंचल की वाचिक परंपरा में लोक-विज्ञान की उपस्थिति

1. दैनिक जीवन, धार्मिक एवं सामाजिक संस्कारों में विज्ञान


चोहरा की चौपाल में आए प्रभु मिश्रा, महेश चौबे, त्रिवेणी देवी और कन्छेदी पटेल का कहना था कि आज भी घर या सार्वजनिक स्थानों पर होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में प्राचीन परिपाटियों का पालन किया जाता है। टीकमगढ़ जिले के साथियों द्वारा भेजी गई जानकारियों एवं मण्डला जिले की चौपालों में संकलित अनुभवों का यही सार था। अगले पन्नों में दैनिक जीवन से जुड़े कुछ कर्मकाण्डों, क्रियाकलापों तथा प्रथाओं के पीछे के विज्ञान के बारे में चौपालों में मिली समझ का संभावित वैज्ञानिक पक्ष प्रस्तुत है।

1.1 दैनिक जीवन में पानी
चोहरा ग्राम की चौपाल में चोहरा के घनश्याम वैद्य, धनगुवां के नीरज गोस्वामी, सेमाढाना की त्रिवेणी देवी और नन्हीं देवरी से आए प्रकाश दुबे ने एक स्वर से कहा कि उनका समाज सोकर उठने से लेकर सोने तक अनेक गतिविधियों यथा मुंह धोने, शौच क्रिया, दांत साफ करने, स्नान करने, कपड़े धोने, भोजनोपरान्त कुल्ला करने तथा प्यास बुझाने इत्यादि में पीढि़यों से साफ पानी का उपयोग करता रहा है। नीरज गोस्वामी और कन्छेदी पटेल ने बताया कि अनेक परिवारों में लोग रात्रि में तांबे के बर्तन में पानी भर कर रखते हैं और सबेरे उठकर उसे पीते हैं। उनके अनुसार, बरसों से यह पानी को शुद्ध रखने तथा पेट साफ रखने का तरीका रहा है। मुन्नी तिवारी, शकुन्तला देवी, रज्जू बाई और गुलाब बाई पटेल का कहना था कि उनके परिवारों में बाहर से घर लौटने पर हाथ-पैर धोने की परंपरा है। भोजन के पहले तथा बाद में हाथ मुंह धोए जाते हैं। भोजन पात्रों को पानी से धोकर रखा तथा उपयोग में लाया जाता है। साफ-सुथरे बर्तन ही खाना बनाने के काम में लिए जाते हैं। इन विचारों के क्रम में हमको लगता है कि संभवतः पानी से जुड़े रीति-रिवाज तथा प्रथाएं, वास्तव में, निरोग जीवन के एिल प्रतिरोधक क्षमता के विकास का प्रयास है। यही प्राचीन जीवनशैली है। यही निरोग रहने का देशज तरीका है।

अनेक परिवारों में लोग रात्रि में तांबे के बर्तन में पानी भर कर रखते हैं और सबेरे उठकर उसे पीते हैं। बरसों से यह पानी को शुद्ध रखने तथा पेट साफ रखने का तरीका रहा है। स्वच्छ जल के उपयोग से निरोग रहने में मदद मिलती है। पानी को तांबे के बर्तन में रखने से उसमें कीटाणु उत्पन्न नहीं होते। अतः कहा जा सकता है कि तांबे के बर्तन में रखे पानी के उपयोग के पीछे सोचा-समझा और जांचा-परखा विज्ञान है। विदित है कि विज्ञान, कभी भी बोली या आंचलिकता से प्रभावित नहीं होता।मण्डला जिले की मानिकपुर और अमवार की चौपालों में मौजूद रतनराम कुशराम, गेंदलाल मराबी, फूलचंद मरकाम, दीनूराम, खेमलाल मरकाम, बेधसिंह मराबी इत्यादि का कहना था कि प्रातःकाल सो कर उठने से लेकर सेाने तक अलग-अलग कामों में पानी का उपयोग होता है। व्यक्तिगत कामों के अतिरिक्त बाड़ी सिंचाई, साग-सब्जी उत्पादन, निर्माण कार्य, पूजन विधि आदि में भी पानी का उपयोग होता है। तीरत सिंह, टेक चंद धुर्वे, हरि सिंह और रेवाराम धुर्वे का कहना था कि सभी संस्कारों के पीछे जीवन एवं प्रकृति के बीच एक संतुलन जुड़ा है। वे कहते हैं कि लोग अपना जीवन प्रकृति के अनुकूल बनाकर जीते थे। समाज में मान्यताओं/संस्कारों को जीवनशैली में सर्वोपरि स्थान मिला था। हर व्यक्ति उन संस्कारों को, समाज में रहकर, एक दूसरे से सीखते थे। समाज के जो लोग प्रथाओं का पालन नहीं करते थे, उनको समाज से बहिष्कृत किया जाता था। अधिकांश लोंगों का कहना है कि वर्तमान युग में ये मान्यताएं घटती जा रही हैं। जल समस्या का यह भी एक कारण है।

ऊपर दिए गए विचारों के क्रम में हमारा मानना है कि दैनिक जीवन के लगभग सभी संस्कार पूरी तरह वैज्ञानिक हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार, स्वच्छ जल के उपयोग से निरोग रहने में मदद मिलती है। पानी को तांबे के बर्तन में रखने से उसमें कीटाणु उत्पन्न नहीं होते। अतः कहा जा सकता है कि तांबे के बर्तन में रखे पानी के उपयोग के पीछे सोचा-समझा और जांचा-परखा विज्ञान है। हमारी टीम को पानी से जुड़े संस्कार, मध्यप्रदेश में सभी अंचलों में देखने और सुनने को मिले। यह समानता इंगित करती है कि उनके पीछे विज्ञान है। विदित है कि विज्ञान, कभी भी बोली या आंचलिकता से प्रभावित नहीं होता।

1.2. धार्मिक संस्कारों में विज्ञान
चोहरा चौपाल में मौजूद डा. ओमप्रकाश चौबे, धीरज गोस्वामी, प्रभु मिश्रा, महेश चौबे, मानसिंह और चंदा बेन, त्रिवेणी देवी, मुन्नी तिवारी एवं अन्य लोगों और हमारे सम्पर्क सूत्रों से प्राप्त जानकारियों से पता चलाता है कि संबंधित इलाकों में प्रचलित धार्मिक संस्कारों में जल के उपयोग की सूची बहुत लंबी है। सभी धार्मिक अनुष्ठानों तथा संस्कारों में सबसे पहले जमीन पानी छिड़ककर उसे शुद्ध कर, चौक पूरा जाता है। चौक पर साफ पानी से भरा कलश रखा जाता है। कलश के नीचे गेहूं रखा जाता है। सबसे पहले कलश का पूजन होता है। साफ पानी से देवी देवताओं को स्नान कराया जाता है। कलश के लिए मुख्यतः तांबे के बर्तन (लोटे) का उपयोग किया जाता है।

चोहरा चौपाल में मौजूद लोगों ने बताया कि सभी धार्मिक प्रक्रियाओं में पानी को दूब, कुश या पान के पत्ते की सहायता से छुआ जाता है। लगता है कि समाज ने यह व्यवस्था, अनुष्ठान के दौरान जल की शुद्धता और उसकी पवित्रता को सुनिश्चित करने के लिए ही बनाई होगी। संकल्प लेते समय जल पात्र में शुद्ध पानी रखा जाता है। अक्षय तृतीया एवं असाढ़ माह में पहली बार हल चलाते समय शुद्ध जल से भरे मिट्टी के कोरे घड़ों की पूजा का प्रचलन अभी जारी है। लगता है पानी की शुद्धता को जीवनशैली का अंग बनाने के लिए उसे आस्था तथा विश्वास के माध्यम से अनुष्ठानों और संस्कारों में ढाला गया है। लगता कि अनुष्ठानों के प्रयुक्त कर्मकण्ड शुद्ध जल और अशुद्ध जल का भेद समझाने का प्रयास हो। संभव है, परंपरागत समाज ने शुद्ध जल को प्रतिष्ठित करने के लिए ही संस्कार विकसित किए हैं। यह धार्मिक अनुष्ठानों एवं कर्मकाण्डों का संभावित वैज्ञानिक पक्ष है। यह पक्ष निरापद जीवनशैली से जुड़े वैज्ञानिक तथ्यों को सिद्धांतों एवं सूत्रों की आधुनिक शैली में सजाकर प्रतिष्ठित करने के स्थान पर उसे लोक संस्कारों तथा समाज के मन-मष्तिष्क में प्रतिष्ठित कर स्थायित्व प्रदान करता है। यह शैली, आधुनिक युग में जनजागृति पैदा करने वाले नुक्कड़-नाटकों, मीडिया विज्ञापनों, कार्यशालाओं, प्रायोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों, कठपुतली कार्यक्रमों, प्रयासों तथा अभियानों से किसी भी कसौटी से कम नहीं है।

मण्डला जिले की मानिकपुर और अमवार की चौपालों में मौजूद गणेश परते, रेवाराम धूर्वे, हरि सिंह, तीरत सिंह और छोटेलाल मरावी का कहना था कि उनके संस्कारों या लोकजीवन में जल का अत्यधिक महत्व है। यहां के लोग जल को देवता के रूप में स्वीकार करते हैं। उनका मानना है कि बिना जल के जीवन नहीं चल सकता। उनके अंचल में निम्न प्रमुख धार्मिक अनुष्ठानों एवं क्रियाओं में पानी का उपयोग होता है-

1. बड़े देव की पूजा- इसमें साजा के वृक्ष पर जल छिड़ककर उसकी पूजा की जाती है। मान्यता है कि पूजा के बाद बड़े देव उनकी रक्षा करेंगे।

2. खीला-मुठवा की पूजा- इसमें धान की बोनी के पहले गांव के लोग इकट्ठा होकर अपने-अपने घरों से धान के बीज लाकर उन पर जल छिड़ककर उसकी पूजा अर्चना करते हैं। धान के बीजों को पोटली में रखकर तथा पानी में भिगोकर उपचारित करते हैं। इससे अच्छे बीज की मात्रा और फसल के उत्पादन का अनुमान लगता है।

3. चंडी देवी की पूजा करना- चैत्र माह की नवरात्रि में देवी की उपासना की जाती है। गेहूं के जवारे बोकर नौ दिनों तक उन्हें पानी दिया जाता है। यह पूजा गांव की सुरक्षा के लिए की जाती है। लोग जवारे के बोने को बीज-परीक्षण भी मानते हैं।

लामू सिंह, मुरली यादव, गेंदलाल मराबी, कतकूलाल मराबी का कहना था कि सभी धार्मिक अनुष्ठानों में सबसे पहले स्वच्छ जल द्वारा जमीन को शुद्ध किया जाता है। शुद्ध जमीन पर चौक चंदन लगाकर, तिलक बंधन कर, देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की जाती है। उनके अंचल में बड़े देव की पूजा की जाती है। उनकी मान्यता है कि उनका बड़ादेव वृक्ष में निवास करता है। इस कारण वे वृक्षों की पूजा और उनको संरक्षित करना सही मानते हैं। वे खेत में बीज बोने के पहले बीज की पूजा करते हैं। संभवतः इस पूजा का कारण, उन्नत बीज की पहचान एवं अच्छी फसल की कामना करना है ताकि वर्ष भर भोजन की कमी न रहे। चंद्रहास पटेल कहते हैं कि स्थानीय समाज का खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज, साधना, उपासना इत्यादि प्रकृति के साथ जुड़ा है। वे अपने से बड़ों से जीवन के लिए महत्वपूर्ण संस्कार सीखते हैं। उनके अनुसार धार्मिक संस्कार अभी भी प्रासंगिक हैं।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में मौजूद बीरनलाल, जोरूलाल, प्रहलाद दीनूराम, गणेश परते, रेवाराम धुर्वे, हरि सिंह, तीरत सिंह और छोटेलाल मरावी का कहना था कि प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान एवं पूजा प्रक्रिया में पानी के उपयोग के पीछे यह तर्क है कि वह ईश्वर (प्रकृति) द्वारा दिया गया अनमोल उपहार है। उससे जीव-जगत का जीवन जुड़ा है। इसी कारण, उनके अंचल में जल को साक्षी मानकर संकल्प लिया जाता है, उसके पीछे उदेश्य है कि जल में पवित्रता है एवं जल जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। चंद्रहास पटेल कहते हैं कि मण्डला क्षेत्र में पानी तथा संकल्प की परिपाटी के पीछे तर्क है कि जल देवता है जो जीवन की निरंतरता के लिए आवश्यक है। जो व्यक्ति पानी का तिरस्कार करता है या नियमों का पालन नहीं करता, उनको जनजातियों के सामाजिक नियमों के तहत, समाज से बहिष्कृत किया जाता था। यह परंपरा अब धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। इन परंपराओं का अभी भी पालन किया जाता है-

प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान एवं पूजा प्रक्रिया में पानी के उपयोग के पीछे यह तर्क है कि वह ईश्वर (प्रकृति) द्वारा दिया गया अनमोल उपहार है। उससे जीव-जगत का जीवन जुड़ा है। इसी कारण, उनके अंचल में जल को साक्षी मानकर संकल्प लिया जाता है, उसके पीछे उदेश्य है कि जल में पवित्रता है एवं जल जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है।1. देवी देवताओं को जल का अर्घ्य देकर पूजा अर्चना करना।
2. बच्चे के जन्म के पश्चात उसकी जल से सफाई। चौका पूजा में जल का उपयोग।
3. मुण्डन संस्कार के पहले जल से सिर को भिगोना और फिर मुंडन अर्थात बाल काटना।
4. दाह-संस्कार के पहले मृत देह को स्नान कराना।
5. स्नान के पश्चात तुलसी के पौधे पर जल चढ़ाना और
6. सूर्य देवता को अर्घ्य देने को व्यक्ति अपने ऊपर ईश्वर की कृपा का सूचक मानता है।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में मौजूद छोटेलाल मरावी, भकमलाल का कहना था कि प्रत्येक काम के साथ कोई न कोई संस्कार जुड़ा है। उनके अंचल में अलग-अलग कार्यों में अलग-अलग तरीके से पानी का उपयोग करने हेतु लोकमान्यताओं के आधार पर अलग-अलग तरह के संस्कार जुड़े है। लोगों ने मान्यताओं को दैनिक एवं सामाजिक जीवन में स्वीकार किया है इसीलिए, वे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई हैं।

1.3. सामाजिक संस्कारों में विज्ञान
चोहरा चौपाल में नीरज गोस्वामी, डा. ओमप्रकाश चौबे, प्रकाश जारौलिया, मुन्नी तिवारी और प्रभु मिश्रा ने बताया कि व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक 16 संस्कार होते हैं। इन सभी संस्कारों में शुद्ध जल का उपयोग होता है। हर संस्कार के पहले स्नान आवश्यक है। सभी जातियों में नवजात शिशु को जनम के तत्काल बाद गुनगुने शुद्ध जल से नहलाया जाता है। टीकमगढ़ के महाराजपुर की सुधा श्रीवास्तव बताती हैं कि सद्यः प्रसूता एवं बच्चे को नीम के पानी से पांचवे दिन तथा दसवें दिन नहलाया जाता है। पुराने समय में सद्यः प्रसूता एवं बच्चे को अजवायन की धूनी दी जाती थी। अजवायन, चिरायता एवं जड़ी-बूटियां डालकर उबाला पानी पिलाया जाता है। गुड़, घी, हल्दी, बत्तीसा एवं मेवे मिला पेय (हरीरा) पिलाया जाता था। सुधा श्रीवास्तव के अनुसार दस्टोन (दस दिन) या सवा माह बाद कुआं पूजने की प्रथा है। यही बात चोहरा की चौपाल में आई महिलाओं ने कही। सागर क्षेत्र में कुआं पूजने का कारण समझने के लिए हमने महिलाओं के विचार सुने। महिलाओं का कहना था कि प्रसव से लेकर कुआं पूजन तक, महिला को अशुद्ध माना जाता है। कुआं पूजने के बाद वह घर के कामकाज की मुख्यधारा में सम्मिलित होने लगती है। महाराजपुर की दाई, ज्ञान बुआ के अनुसार मसवारा-नहान (स्नान) सवा माह के बाद होता है। हमारा सोचना था कि सारा उपक्रम, सद्यः प्रसूता और नवजात बच्चे के स्वास्थ्य से जुड़ा है और कुआं पूजन, स्वास्थ्य बहाली का सांकेतिक अनुष्ठान।

चोहरा क्षेत्र में मृतक का दाह संस्कार करने के पहले उसे स्नान कराने एवं नए/साफ कपड़े पहनाने की प्रथा है। शवयात्रा में भाग लेने वाला हर व्यक्ति, दाह संस्कार के बाद, श्मशान भूमि के निकट स्थित नदी/तालाब में स्नान करता है। घर पहुंचकर दोबारा स्नान करता है। यह परिपाटी शहरों में भी कतिपय बदलावों के साथ मौजूद है। हमें बताया गया कि आधुनिक युग के बदलावों के बावजूद मृत्यु से जुड़ी परंपराओं का पालन किया जाता है। दाह-संस्कार के उपरांत दसवें दिन दशगात्र या गंगा पूजन तथा मृत्यु भोज मुख्य पूजाएं है। हमें लगता है कि मृतक को दाह संस्कार के पहले स्नान कराने एवं नए कपड़े पहनाने की परिपाटी, कीटाणुओं से परिजनों को बचाने का उपक्रम है। इस उपक्रम को, परिपाटियों और कर्मकाण्डों के माध्यम से जीवनशैली में सम्प्रेषित किया गया है।

चोहरा की चौपाल में उमेश वैद्य, कृष्णमुरारी पचौरी, रामरतन ने बताया कि उनके क्षेत्र के अनेक लोग अमावस्या और पूर्णिमा को नर्मदा स्नान के लिए बरमान-घाट, जो लगभग 80 किलोमीटर दूर है, जाते हैं। कुछ लोग वहां से कांवर में पानी भर कर लाते हैं तथा उसे दमोह जिले में स्थित धार्मिक स्थल बांदकपुर (दूरी लगभग 70 किलोमीटर) में चढ़ाते है। जो लोग बरमान-घाट नहीं जा पाते वे आसपास की नदियों में स्नान करने जाते हैं। इस क्रम में हमें बताया गया कि चोहरा के आसपास सुनार नदी के तट पर बसे बटेश्वर मंदिर, रानगिर ग्राम में हरसिद्धि और सनोथा ग्राम में मेला लगता है। यह प्रथा बरसों से चली आ रही है। ग्रामीण अंचलों में उसका प्रभाव बना हुआ है। नर्मदा स्नान की प्रथा के बारे में उमेश पचौरी का अनुमान था कि यह प्रथा संभवतः नर्मदा नदी के प्रति सम्मान और आस्था के कारण विकसित हुई होगी। कुछ लोग उसे स्वच्छ जल और अथाह जलराशि, देशाटन, मेल-मिलाप एवं मनोरंजन से जोड़कर भी देखते हैं। चोहरा की चौपाल में मनीराम ने स्नान स्रोतों के प्रभाव के बारे में निम्न कहावत सुनाई-

नदी नहावन सब कुछ मिलता, तला नहावन अच्छा।
कुआ नहावन कुछ नहीं मिलता, घरै नहावन गद्धा।।

यह कहावत नदी स्नान की महत्ता और प्रभाव को प्रतिपादित करती है। हमारा मानना है कि आधुनिक युग में नदियों में बढ़ते प्रदूषण के कारण वह धीरे-धीरे महत्व खो रही है।

हल्दी-चंदन मिले भारतीय उबटनों से शरीर की त्वचा का रूखापन घटता है, कांति निखरती है और खून का प्रवाह ठीक होता है। चेहरे पर झुर्रियां कम पड़ती हैं।चोहरा की चौपाल में मौजूद अधिकांश महिलाओं का कहना था कि हल्दी-चंदन मिले भारतीय उबटनों से शरीर की त्वचा का रूखापन घटता है, कांति निखरती है और खून का प्रवाह ठीक होता है। चेहरे पर झुर्रियां कम पड़ती हैं। भारतीय उबटन सस्ता होता है। सबकी पहुंच में होता है। उसके दुष्प्रभाव नहीं होते। महाराजपुर की सुधा श्रीवास्तव और उनके गांव की 60 वर्षीय बुजुर्ग दाई (ज्ञान बुआ) पुराने उबटनों और प्रसूता की मालिश को सेहत बहाली के लिए बेहतर मानती हैं। वे कहती हैं कि नवजात बच्चे की मालिश से उसका शारीरिक विकास अच्छा तथा जल्दी होता है।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में मौजूद हम्मीलाल धुर्वे, मेकुलाल, राखीलाल तेकाम, झाडूलाल, भकमलाल, राम भरोसे, बोध सिंह धुर्वे का कहना था कि उनके सामाजिक संस्कारों के पीछे उदेश्य हैं।

हम्मीलाल, गणेश परते, राम भरोसे, बोध सिंह धुर्वे का कहना था कि आदिवासी अंचल में सामाजिक संस्कारों का पालन करना आवश्यक होता है। उनके अंचल में प्रचलित सामाजिक संस्कारों की सूची काफी लंबी है। कुछ उदाहरण निम्नानुसार हैं-

1. प्रसूता की सेहत की यथाशीध्र बहाली के लिए, लगभग एक माह तक कांके की छाल डालकर उबाला पानी पिलाना।
2. नवजात बच्चे के शरीर की साफ-सफाई।
3. विवाह एवं प्रसूता को संक्रमण से बचाने के लिए नीम के पानी से नहलाना।
4. विवाह मंडप की जगह की पूजा करना।
5. कलश की मिट्टी खोदते समय खनन स्थल की पूजा करना।
6. कलश में पानी भरकर दूल्हे का स्वागत करना।
7. वर-वधू द्वारा तालाब में पानी के अंदर चीखल-मांदी (जनजातीय खेल) खेलना।
8. दूल्हे के पैर पखारते समय बर्तन में पानी डालना।
9. दूल्हे और दुलहिन को हल्दी लगाना।
10. पार्थिव शरीर को पानी से नहलाना।
11. अस्थि विसर्जित करना।
12. दाह संस्कार के पूर्व एवं उपरांत में दाह-स्थल को गोबर से लीपना।

उपर्युक्त सभी संस्कारों में पानी का उपयोग किया जाता है। उनका उद्देश्य निरापद सेहत की सुनिश्चितता है। जल से लगभग सभी गंदी चीजों का शुद्धीकरण संभव है। अभी भी जल का सभी कर्मकाण्डों में महत्व है।

मण्डला जिले की चौपालों में बताया गया कि मृतक का दाह संस्कार करने के पहले उसे स्नान कराने की प्रथा है। दाह संस्कार के पूर्व, दाह-स्थल की पानी से शुद्धि की जाती है। उसके उपरांत, दाह संस्कार किया जाता है। दाह संस्कार के बाद सभी लोगों द्वारा तालाब/नदी में स्नान किया जाता है। शवदाह के तीसरे दिन, अस्थि संचय किया जाता है। अस्थि संचय के उपरांत, उस जगह की गोबर से लिपाई की जाती है। दाह संस्कार की जगह पर पौधा रोपण किया जाता है तथा दिन में एक बार पानी डाला जाता है। फूलचंद मरकाम और लखन लाल परतेती का कहना था कि उनके समाज में आज भी कर्मकाण्डों का महत्व बाकी है।

मण्डला जिले में जलस्रोतों एवं नदियों के किनारे मेले लगाने की प्रथा है। लोगों का मानना है कि मेले की प्रथा के पीछे नदियों का शुद्ध एवं पवित्र जल रहा होगा। बीरनलाल, रतिराम डोंगरे और दीनूलाल सैयाम कहते हैं कि उनके क्षेत्र की नदियों का पानी, जंगल की विभिन्न वनस्पतियों से मिलता हुआ आता है इसलिए उसमें कीटाणुओं को मारने की क्षमता होती है। उनका विश्वास है कि पुराने समय में, उनके यहां का पानी जड़ी-बूटियों वाला होता था इसलिए मेले की प्रथा का जन्म हुआ। आज भी जहां पर नदियों का बहाव अच्छा है, वहां मेले की प्रथा मौजूद है।

2. जलस्रोत- जलस्रोतों में विज्ञान की झलक


हमारी टीम ने चोहरा की चौपाल में आए लोगों से परंपरागत संरचनाओं, पानी की खोज की परंपरागत विधियों और उनके वैज्ञानिक पक्ष, जल स्रोतों से पानी खींचने की व्यवस्था एवं स्रोत निर्माण में प्रयुक्त औजारों, पानी को शुद्ध रखने के तौर-तरीकों और पेयजल सुरक्षा एवं संस्कारों पर उनके विचार जानने का प्रयास किया। मण्डला की चौपालों और सम्पर्क सूत्रों से प्राप्त विचारों का अध्ययन करने के बाद, प्रत्येक बिन्दु पर संकलित विचार, उसकी विवेचना और उनका संभावित वैज्ञानिक पक्ष दिया जा रहा है।

2.1 परंपरागत जल संरचनाएं
सागर जिले की रहली तहसील के ग्राम चोहरा की चौपाल में दीपक तिवारी, उमेश वैद्य ओमप्रकाश चौबे ने बताया कि उनके क्षेत्र की प्रमुख संरचना कुआं हैं। इस क्षेत्र में तालाब नहीं हैं। व्यापारिक मार्गों पर पत्थरों से बनी पक्की परंपरागत बावड़ियां हैं। उनसे लगे घने छायादार वृक्ष और पड़ाव हैं। भवानीशंकर जारौलिया और उमेश वैद्य कहते हैं कि पुराने समय में उनका गांव, पानी के मामले में सम्पन्न था। उनके गांव में तालाब या कुआं बनवाने की जरूरत नहीं थी। उनके गांव के पास से कैथ नदी बहती है। पुराने समय में उसमें पूरे साल साफ पानी बहता था। धीरे -धीरे पानी कम हुआ। पानी घटने के बाद लोग नदी की तली में झिरिया बनाकर साफ पानी प्राप्त करते थे। सिंचाई का चलन नहीं के बराबर था। पुराने समय में केवल, पान के बरेजे, सब्जी के लिए लगाई कछवाई या बागवानी करने वाले लोगों को अतिरिक्त पानी की आवश्यकता पड़ती थी। वे लोग ही कुआं बनवाते थे। दीपक तिवारी बताते हैं कि लगभग 600 साल पहले किसी लाखा बंजारे ने सागर नगर में विशाल तालाब बनवाया था। लाखा द्वारा बनवाया तालाब आज भी सागर नगर में बूंदों की विरासत के रूप में जिंदा है। दीपक तिवारी का कहना था कि साठ-सत्तर साल पहले तक सागर तालाब का पानी इतना साफ था कि लोग बेहिचक उसका उपयोग करते थे। प्रकाश जारौलिया, दीपक तिवारी और उमेश वैद्य का कहना था कि चोहरा के आसपास का इलाका गहरी काली मिट्टी का इलाका है। उनका मानना है कि गहरी काली मिट्टी में बने तालाबों में पानी की झिर अच्छी नहीं होती।

टीकमगढ़ जिले के बौरी ग्राम के दुर्गाप्रसाद यादव कहते हैं कि पुराने समय में उनके क्षेत्र में तालाब, बाउरियां (बावड़ियां) और चौपरे बनाए जाते थे। वे बताते हैं कि पुराने राजा महाराजाओं ने गांवों के पास छोटे और गांवों से दूर बड़े तालाबों का निर्माण कराया था। किसी किसी गांव में एक से अधिक तालाब थे। माधुरी श्रीधर द्वारा खोजे दस्तावेजी प्रमाण बताते हैं कि समूचे बुंदेलखंड में 600 से अधिक बड़े तालाब और 7000 से अधिक छोटे तालाब थे। ज्ञातव्य है कि सबसे अधिक तालाब केन नदी और बेतवा नदी के बीच के अभावग्रस्त इलाके में बनवाए गए थे। बसाहटों में कच्चे और पक्के कुएं, राजमार्गों तथा व्यापारिक मार्गों पर बटोहियों के लिए कूपों और बावड़ियों का निर्माण कराया था। प्रतापी राजा मदनवर्मन द्वारा बनवाई बावड़ियों को मदन-बेरे भी कहा जाता है।

दुर्गाप्रसाद यादव कहते हैं कि बुंदेलखंड अंचल में तालाबों का वर्गीकरण श्रुतियों के आधार पर किया जाता था। श्रुतियों के अनुसार कूप, वापी, पुष्करनी और तडाग पानी उपलब्ध कराने वाली संरचनाएं हैं। इन सभी जल संरचनाओं को खोदकर बनाया जाता था। कूप का व्यास 5 हाथ से 50 हाथ (एक हाथ बराबर लगभग 1.5 फुट) होता था। सीढ़ीदार कुएं को, जिसका व्यास 50 से 100 हाथ होता है, वापी (बेर) कहते थे। वापी में चारों ओर या तीन ओर या दो ओर या केवल एक ओर से सीढि़यां बनाई जाती थीं। सौ से 150 हाथ लंबाई के तालाब को पुष्करनी कहते थे। तडाग की लंबाई 200 से 800 हाथ होती है।

दुर्गाप्रसाद यादव ने बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल की एक कहानी सुनाई जिसमें कहा गया था कि उनके बेटे जगतराज को गड़े खजाने के बारे में एक बीजक मिला था। बीजक में दर्ज सूचना के आधार पर जगतराज ने खजाना खोद लिया। कुछ समय बाद जब इसकी जानकारी छत्रसाल को लगी तो उन्होंने अपेन बेटे को उस धन की मदद से चंदेल राजाओं द्वारा बनवाए सभी तालाबों की मरम्मत और नए तालाब बनवाने का आदेश दिया। कहा जाता है कि उस गुप्त धन से 22 विशाल तालाबों का निर्माण हुआ था। इस कहानी का उल्लेख अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में भी मिलता है।दुर्गाप्रसाद यादव कहते हैं कि चंदेलों द्वारा बनवाए अधिकांश तालाब नहर विहीन थे। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि वे कौन-सी बंधनकारी परिस्थितियां थीं जिनके कारण बुंदेला और चंदेला राजाओं को तालाबों के निर्माण की आवश्यकता पड़ी। दुर्गाप्रसाद यादव कहते हैं कि संभव है तालाबों के निर्माण का उदेश्य आमोद-प्रमोद या शिकार हो। हमारा मानना है कि बुंदेलखंड का परंपरागत समाज पशुपालक समाज था। उपलब्ध जलस्रोतों ने घूमन्तु की अस्थायी बसाहटों को स्थायी बसाहटों में बदला और तालाबों के निर्माण ने आजीविका और खेती के सम्बंधों को स्थायित्व प्रदान किया। संभव है, यही वे बंधनकारी परिस्थितियां थीं, जिन्होंने प्राचीन राजाओं और सम्पन्न लोगों को तालाब बनाने के लिए प्रेरित किया।

पिछले कुछ सालों में टीकमगढ़ जिले के प्राचीन तालाबों के कैचमेंट की हरियाली खत्म हुई है और उसकी भूमि का उपयोग बदला है। हरियाली खत्म होने के कारण धरती नंगी हुई है और भूमि उपयोग बदलने के कारण, 'दूबरे और दो असाढ़' की कहावत चरितार्थ हुई है। अर्थात एक ओर पानी की आवक घटी है तो दूसरी ओर गाद की मात्रा बढ़ी है। इसी कारण कई तालाब सूख रहे हैं और उसमें बहुत अधिक गाद जमा हो रही है।दुर्गाप्रसाद यादव कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में टीकमगढ़ जिले के प्राचीन तालाबों के कैचमेंट की हरियाली खत्म हुई है और उसकी भूमि का उपयोग बदला है। हरियाली खत्म होने के कारण धरती नंगी हुई है और भूमि उपयोग बदलने के कारण, 'दूबरे और दो असाढ़' की कहावत चरितार्थ हुई है। अर्थात एक ओर पानी की आवक घटी है तो दूसरी ओर गाद की मात्रा बढ़ी है। यादव कहते हैं कि इसी कारण कई तालाब सूख रहे हैं और उसमें बहुत अधिक गाद जमा हो रही है। इसके अलावा आधुनिक बसाहटों के अपशिष्टों के तालाबों में मिलने के कारण उनका पानी प्रदूषित हो रहा है। प्रदूषित तालाब मल-मूत्र, गंदगी और बीमारी के स्थायी स्रोत बन रहे हैं। तालाबों की जमीनों पर खेती होने लगी है। उन पर कॉलोनियां कट रही हैं। कुछ पुराने तालाब अस्तित्व और अस्मिता के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो कुछ इतिहास के पन्नों में खो गए हैं।

माधुरी श्रीधर द्वारा खोजे दस्तावेजी प्रमाण बताते हैं कि चंदेल राजाओं द्वारा बनावाए गए तालाब दो प्राकर के थे। पहले वर्ग के तालाबों का पानी पीने के लिए काम में लाया जाता था। उन तालाबों पर घाट बनाए जाते थे और लोग स्नान करते थे। दूसरे प्रकार के तालाबों के पानी का उपयोग सिंचाई और पशुओं के लिए किया जाता था। ज्ञातव्य है कि बुंदेलखंड के कुछ इलाकों में, जहां अधिक मात्रा में बरसाती पानी मिलता था, वहां चंदेल राजाओं ने तालाबों की श्रृंखलाएं (सांकल) बनवाई थीं। बरसाती पानी, ऊपर के तालाब को भरने के बाद नीचे के तालाबों को भरता था। सांकल तालाब छोटे होते थे इसलिए उनमें कचरा, मिट्टी और गंदगी के जमा होने का प्रश्न ही नहीं था।

बुंदेलखंडी गीतों एवं कहावतों की जानकार सुधा श्रीवास्तव बताती हैं कि पचास साल से भी पहले जब वे ब्याह कर महाराजपुर आईं थीं तब उनका गांव पानी के मामले में बहुत सम्पन्न था। कुओं तथा तालाबों में बारह महीने पानी रहता था। वे आगे कहती हैं कि ग्रामों, बस्तियों और नगरों के आसपास जंगल ओर डांगें हुआ करती थीं जिनमें बरसाती नदियां और नाले बहा करते थे। छोटी-छोटी टोरियों और पहाड़ों में कल-कल करते झरने निकलते थे। उनका पानी कांच के समान साफ होता था। वे अब लगभग लुप्तप्राय हो गए हैं। यह पिछले 50 सालों में हुआ है।

माधुरी श्रीधर का अध्ययन बताता है कि पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों के शोध पत्रों में कुओं, तालाबों और बावड़ियों के निर्माण का प्रयोजन, प्रयुक्त तकनीकें, पर्यावरणीय पक्ष और धरती से उनके सह-संबंधों का विवरण लगभग अनुपलब्ध है। खैर, कारण और कमियां कुछ भी हों पर एक बात साफ है कि बुंदेलखंड की भौगोलिक और पर्यावरणी परिस्थितियों से मेल खाती पुरातन तकनीकों पर बहुत कम अध्ययन हुआ है। इस कमी के कारण, आधुनिक नीति नियमकों का ध्यान बुंदेलखंढ की परंपरागत प्रणालियों के तकनीकी पक्ष और प्रासंगिकता की ओर आकर्षित नहीं हुआ है। प्रसंगवश उल्लेख है कि वर्तमान युग में जल संरचनाओं के निर्माण के लिए पहले की तुलना में कई गुना अधिक धन और अवसर उपलब्ध हैं। इस क्रम में हमारी टीम का मानना है कि परंपरागत जल संरचनाओं के तकनीकी पक्ष और प्रासंगिकता पर अनुसंधान करने की आवश्यकता है।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में मौजूद लोगों का कहना था कि उनके क्षेत्र में पानी झरनों, नदियों, तालाबों, नालों और कुओं से प्राप्त होता था। प्राचीन काल के अधिकांश प्राकृतिक जलस्रोत जंगल में स्थित थे, उनका पानी उपयोग के लायक होता था। उसका उपयोग पीने, खाना पकाने, नहाने, पालतू जानवरों को पानी पिलाने, सिंचाई एवं मछली उत्पादन के लिए किया जाता था। वर्तमान में जंगल कटने/घटने के कारण तालाब, झरने, नदी, नाले (छोटे) जल्दी सूख जाते हैं। पानी का भराव कम होने से वह दूषित भी हो जाता है। उनका अनुमान है कि पुराने समय में लोगों की आजीविका का आधार जंगल था, इसलिए संभव है कि उनकी बसाहटों का विकास परंपरागत जल संरचनाओं के निकट हुआ हो। उनके क्षेत्र के लोग प्राकृतिक तरीके से बेवर खेती करते थे, वे पानी के स्रोत के आसपास शिकारगाह बना कर या मचान डालकर जानवरों का शिकार कर अपनी आजीविका चलाते थे। उनका मानना था कि नदी, नालों और तालाबों में मिलने वाले पानी में फर्क होता है। नदी-नालों का पानी लगातार बहता रहता है और वह जंगल के पेड़-पौधों के आसपास से गुजरता है इसलिए आयुर्वेदिक गुणों से सम्पन्न और बीमारियों को नष्ट करने वाला होता है। तालाबों का पानी ठहरा हुआ होता है, इसलिए उसमें अशुद्धियां पनपने और जमा होने की अधिक संभावना होती है। पुराने तालाब, किसी हद तक बेहतर थे।

2.2 पानी की खोज
सागर जिले की चोहरा ग्राम और मण्डला जिले की मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए लोगों से पानी की खोज की परंपरागत विधियों के बारे में जानकारी ली। उस जानकारी को भूजल तथा सतही जल में वर्गीकृत कर प्रस्तुत किया जा रहा है।

2.2.1. भूजल की खोज की परंपरागत विधि
चोहरा की चौपाल में भूजल की खोज की परंपरागत विधियों के बारे में डा. ओमप्रकाश चौबे, दीपक तिवारी, भगवान दास कुशवाहा और कन्छेदी लाल पटेल इत्यादि ने जानकारी दी। उन्होंने बताया कि पुराने समय में कुओं तथा बावड़ियों का स्थल चयन आम, ऊमर, नीम गुरबेल और कोहा के वृक्षों की मौजूदगी के आधार पर किया जाता था। वेदवारा गांव के भगवान दास कहते हैं कि यदि ऊमर के वृक्ष के निकट कुआं बनाया जाता था तो उसमें पानी मिलने की अच्छी संभावना होती थी। वे आगे बताते हैं कि अकौआ, जामुन एवं आम के वृक्षों की मदद से भी भूजल की मौजूदगी का पता लगाया जा सकता है। उनका कहना था कि आज भी वे विधियां बेमानी नहीं हुई हैं। आज भी उनका उपयोग होता है।

भगवान दास कहते हैं कि यदि ऊमर के वृक्ष के निकट कुआं बनाया जाता था तो उसमें पानी मिलने की अच्छी संभावना होती थी।
माणिकलाल जैन खुद रूद्राक्ष की सहायता से पानी की भविष्यवाणी करते हैं। वे कहते हैं कि यदि धागे के सहारे लटकाए रूद्राक्ष के घूमने की दिशा घड़ी के कांटों की दिशा में हो तो पानी मिलेगा अन्यथा नहीं।रहली के योगेन्द्र जैन, माणिकलाल जैन और कृष्णमुरारी पचौरी ने जानकारी दी कि उनके गांवों के कुछ लोगों रूद्राक्ष या बिही (अमरूद) की लकड़ी की सहायता से जमीन के नीचे के पानी (भूजल) की खोज करते हैं। माणिकलाल जैन खुद रूद्राक्ष की सहायता से पानी की भविष्यवाणी करते हैं। वे कहते हैं कि यदि धागे के सहारे लटकाए रूद्राक्ष के घूमने की दिशा घड़ी के कांटों की दिशा में हो तो पानी मिलेगा अन्यथा नहीं। श्री जैन, जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर के कृषि विज्ञान के स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त किसान हैं। कुछ लोग धरती की नमी या उसके तापमान के आधार पर भी पानी का अनुमान लगाते हैं। कृष्णमुरारी पचौरी ने बताया कि कुछ लोग खेत के विभिन्न हिस्सों में पानी से भरा जल पात्र (मिट्टी का करवा) रखकर दूसरे दिन रिसे पानी की मात्रा के आधार पर जमीन के नीचे के पानी का अनुमान लगाते हैं।

मण्डला जिले की मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए रामकिसन, बोधसिंह मरावी, दीनूराम और मुरली यादव इत्यादि लोगों ने बताया कि पहाड़ी क्षेत्र में ढलानों की जगह, जहां पर गर्मी के मौसम में भी नमी बनी रहती है, घास/चारा हरा रहता है एवं वातावरण में ठंडक बनी रहती है, वहां पानी मिलता है। गांव के लोग जमीन की भौगोलिक स्थिति के आधार पर पानी की उपलब्धता का अनुमान लगाते थे। लखनलाल परतेती, फूलचंद मरकाम और लालू सिंह का कहना था कि जहां की जमीन में ज्यादा गर्मी समझ में आती है वहां अक्सर पानी की कमी होती है। मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए बुजुर्ग किसानों का कहना था कि भूजल की खोज के परंपरागत तरीके के अंतर्गत लोग उन क्षेत्रों का पता लगाते थे जहां के जंगली पेड़-पौधों की हरियाली पूरे साल बरकारार और मिट्टी में नमी बनी रहती थी। उन क्षेत्रों को पहचान कर लोग खुदाई कर पानी प्राप्त करते थे। जहां तक इन विधियों के वैज्ञानिक पक्ष का प्रश्न है तो उनका मानना है कि जहां हरियाली होगी, वहीं पानी होगा। उनके अनुसार संभवतः यही उसका वैज्ञानिक पक्ष है। इस विधि का ग्रामीण क्षेत्रों में, अभी भी कहीं-कहीं उपयोग होता है।

2.2.2. बरसात की मात्रा की माप की खोज की परंपरागत विधि
चोहरा की चौपाल में मौजूद लोगों को बरसात की मात्रा की माप के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। वे चाणक्य द्वारा विकसित द्रोण विधि से अपरिचित थे। लगता है, बुंदेलखंड के समाज ने बरसात की माप पर ध्यान नहीं दिया। यह भी संभव है कि उन्हें कभी उसकी आवश्यकता ही अनुभव नहीं हुई। चौपाल में आए लोगों का कहना था कि यदि कोई परंपरागत विधि या तरीका रहा होगा तो उन्हें उसकी जानकारी नहीं है।

प्रकाश जारोलिया का कहना था कि बरसात में, गिरते पानी की मात्रा का अनुमान, परांत या चौड़े मुंह वाले बर्तन में पानी को एकत्रित कर किया जा सकता है। बरसात की मात्रा नापने की विधि के बारे में वेदवारा गांव के भगवान दास और अवधबिहारी पांडेय का कहना था कि उनके बुजुर्ग बरसात की मात्रा की पर्याप्तता का अनुमान गांव के पास स्थित झरनों के जिंदा होने से लगाते थे। दूसरा तरीका अनुभव आधारित कहावतों का था जिनमें तालाबों, नदियों और झरनों के व्यवहार के आधार पर बरसात की पर्याप्तता का अनुमान लगाया जाता था।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए किसानों का कहना था कि बरसात के दिनों में पानी बरसता है। वह पानी, पहाड़ी/जंगली क्षेत्रों में छोटे-छोटे नदी, नालों का उद्गम स्थान बनाता है। उद्गम से आगे चला पानी बड़े आकार में परिवर्तित होकर क्रमशः बड़े नदी-नाले बनाता है। उन सबके जिंदा होने के आधार पर पानी की पर्याप्तता का अनुामान लगाया जा सकता है।

2.3 पानी की खोज की परंपरागत विधियों का वैज्ञानिक पक्ष
सागर जिले की चोहरा चौपाल में लोगों ने उथली जड़ों वाले वृक्षों, धरती की नमी या उसके तापमान या मिट्टी के कोरे घड़ों के धरती में पानी के रिसने को भूजल की उपस्थिति का संकेतक माना है। हमारी टीम का मानना है कि यह आधार पूरी तरह वैज्ञानिक हैं। सभी लोग इस बात से अवगत हैं कि उथली जड़ों वाले पौधों का विकास उथले भूजलस्तर या नमी वाले इलाकों में ही संभव है। इसलिए उथली जड़ वाले पौधों को कम गहराई पर मिलने वाली वाटर टेबिल का संकेतक मानना सही है। विदित है कि उथले भूजलस्तर वाले इलाकों में सूक्ष्म कोशिकाओं के प्रभाव से भूमिगत जल सतह के करीब आ जाता है। इस पानी को धरती की नमी के रूप में पहचाना जा सकता है। इसी प्रकार, नमी वाली और सूखी धरती को उसके तापमान या वाष्पीकरण के अंतर से पहचाना जा सकता है। इसी प्रकार सूखे मौसम में, घास के अधिक समय तक हरे-भरे बने रहने या धरती के तापमान की कमी या ठंड की ऋतु में कोहरे के एकत्रित होने को उथले भूजलस्तर का संकेतक माना जा सकता है। संभव है कि मालवा के ज्ञान का प्रसार इस इलाके तक हुआ हो। इस तर्क के आधार पर कहा जा सकता है। संभवतः चोहरा के परंपरागत समाज ने वराहमिहिर द्वारा खोजे कतिपय संकेतकों को भूजल की भविष्यवाणी का आधार बनाया।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए बुजुर्ग किसानों ने जंगली पेड़-पौधों की हरियाली वाली जगह और नम मिट्टी वाले क्षेत्रों को भूजल का संकेतक माना है। इन संकेतकों की मदद से उथले जलस्तर वाले इलाकों को पहचाना जा सकता है। उल्लिखित संकेतक विज्ञान-सम्मत हैं।

वर्तमान युग में भूजल वैज्ञानिक चट्टानों के गुणधर्मो के आधार पर तथा भू-भौतिकीविद् चट्टानों की विद्युत प्रतिरोधकता के आधार पर जमीन के नीचे के पानी के मिलने की संभावना व्यक्त करते हैं। जाहिर है, दोनों ही विधियों (पुरातन और आधुनिक) में धरती की परतों के गुणों के बदलावों को ही भूजल की खोज का आधार बनाया जाता है। पुरानी तथा नई विधियों में खोज के तरीकों में भले ही बुनियादी फर्क है पर दोनों ही विधियों का फिलासफी एक है। हमारी टीम का मानना है कि चट्टानों के गुणधर्मों पर आधारित दोनों ही विधियां वैज्ञानिक हैं।

परंपरागत तालाबों और कुओं के निर्माण का वैज्ञानिक पक्ष

हमारी टीम ने बुंदेलखंड अंचल में बनने वाले कुओं, तालाबों और कुओं के निर्माण का वैज्ञानिक पक्ष समझने के लिए उपलब्ध साहित्य का अध्ययन किया। मध्य बुंदेलखंड अंचल में बने तालाबों का विवरण गांधी और किर्तने के आलेख में मिलता है। इस आलेख के अनुसार मध्य बुंदेलखंड इलाके में अनेक चंदेलकालीन तालाबों का निर्माण कम ऊंचाई वाली क्वार्टज-रीफ की पहाड़ियों के बीच में किया गया है। क्वार्टज-रीफ की पहाड़ियों और उनके बीच के मैदानों द्वारा उपलब्ध कराई भूवैज्ञानिक परिस्थितियां, तालाबों, कुओं और बावड़ियों के निर्माण के लिए बहुत अधिक अनुकूल है क्योंकि क्वार्टज-रीफ की पहाड़ियों के बीच बरसा सारा पानी, सतही जल संरचनाओं और भूजल भंडार के रूप में कैद हो जाता है। आलेख बताता है कि तालाबों की पाल के दोनों तरफ पत्थरों के ब्लाक लगाए गए हैं और पाल को सुरक्षित करने के लिए चूने के गारे से जुड़ाई की गई है। गांधी और किर्तने कहते है कि बड़े तालाबों की परिधि लगभग चार किलोमीटर तक होती थी। उनका आकार यथासंभव गोलाकार होता था।

काशीप्रसाद त्रिपाठी की किताब बुंदेलखंड के तालाबों एवं जलप्रबंधन का इतिहास में कहा गया है कि चंदेल काल में तालाबों के आगौर को चारागाह के रूप में सुरक्षित रखा जाता था। उसमें खेती वर्जित थी। इस वर्जना के कारण गाद जमाव का खतरा बहुत कम था। तालाब के आसपास के निचले क्षेत्र में खेती की जाती थी। तालाबों में स्नान घाट की सीढ़ियों पर संकेतक लगाए जाते थे। इन संकेतकों को हथनी, कुड़ी, चरई अथवा चौका के नाम से जाना जाता था। इन संकेतकों तक जलस्तर पहुंचते ही तालाब का अतिरिक्त पानी वेस्टवियर के रास्ते बहने लगता था। काशीप्रसाद त्रिपाठी कहते हैं कि किन्हीं तालाबों के बीच में अधिकतम जलस्तर दर्शाने के लिए पत्थर का खम्बा लगाया जाता था। इस खम्बे के शीर्ष तक जलस्तर के पहुंचते ही समाज को तालाब भरने की जानकारी हो जाती थी। तालाब भरते ही वेस्टवियर सक्रिय हो जाता था और अतिरिक्त पानी बहुत सी गाद बहा ले जाता था। कुछ गाद बरसात बाद, जल प्रवाह के साथ बाहर जाती थी।

हमारी टीम ने बुंदेलखंड अंचल की भूवैज्ञानिक परिस्थितियों को समझने के लिए बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी के भूविज्ञान विभाग के प्रोफेसर डा. एसपी सिंह चर्चा की। उनका कहना था कि बुंदेलखंड के परंपरागत तालाबों और कुओं के निर्माण का भूवैज्ञानिक पक्ष बुंदेलखंड को दक्षिण बुंदेलखंड और मध्य बुंदेलखंड में विभाजित कर आसानी से समझा जा सकता है। एसपी सिंह के अनुसार दक्षिण बुंदेलखंड अंचल अर्थात सागर और दमोह इत्यादि जिलों में मुख्यतः सेन्डस्टोन और या बेसाल्ट पाया जाता है। वहीं मध्य बुंदेलखंड (दतिया, छतरपुर, टीकमगढ़ झांसी और पन्ना जिलों) के अधिकांश भाग में ग्रेनाइट और समान भूजलीय गुणों वाली नीस चट्टानें पाई जाती हैं। इन चट्टानों को क्वार्टज-रीफ ने सैकड़ों जगह काटा है। यह बुंदेलखंड अंचल की भूवैज्ञानिक जमावट है। यही जमावट जल संरचनाओं के विकल्प चयन को निर्धारित और नियंत्रित करती है। पुराने समय में इसी आधार पर मध्य और दक्षिण बुंदेलखंड की जल संरचनाओं को निर्माण हुआ था।

एसपी सिंह के अनुसार दक्षिण बुंदेलखंड अंचल अर्थात सागर और दमोह जिलों की परिस्थितियां मध्य बुंदेलखंड अंचल की परिस्थितियों से पूरी तरह भिन्न है। मध्य बुंदलेखंड क्षेत्र की परिस्थितियां अपेक्षाकृत बेहतर हैं। इस अंतर के कारण एक ही सांस्कृतिक अंचल में स्थित होने के बावजूद वे जल उपलब्धता और संरचना के विकल्प के चयन की दृष्टि से बहुत अधिक भिन्न हैं। डा. सिंह ने हमें मध्य बुंदेलखंड क्षेत्र का भूवैज्ञानिक नक्शा तथा क्वार्टज-रीफ की पहाड़ियों के फोटोग्राफ भी उपलब्ध कराए। नीचे दिए नक्शे में मध्य बुंदेलखंड क्षेत्र में क्वार्टज-रीफ के वितरण को दर्शाया गया हो। इस नक्शे में क्वार्टज-रीफ छोटी-छोटी रेखाओं के रूप में दिखाई देती हैं। वे बताते हैं कि इसी अंतर के कारण मध्य बुंदेलखंड में कुएं तथा तालाबों का और दक्षिण बुंदेलखंड अंचल में मुख्यतः कुएं और बावड़ियों का निर्माण हुआ था।

मध्य बुंदेलखंड क्षेत्र में क्वार्टज-रीफ का वितरण दर्शाने वाले नक्शे को देखने से पता चलता है कि मध्य बुंदेलखंड क्षेत्र में ग्रेनाइट समूह की कठोर चट्टानों को क्वार्टज-रीफों ने उत्तर-पूर्व दक्षिण पश्चिम की दिशाओं में काटा है। वे सिंध, धसान, पंहुज, बेतवा जैसी नदियों के जलमार्गो को भी अनेक जगह काटती हैं। उनके द्वारा प्रभावित क्षेत्र बहुत विस्तृत है।

डा. सिंह के अनुसार इस क्षेत्र में काले रंग की डाइकें भी मिलती हैं। पर भूमिगत पानी को सहेजने में उनकी भूमिका अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण है। मध्य बुंदेलखंड क्षेत्र में क्वार्टज-रीफों की जल अवरोधक किंतु कम ऊंची अनेकों पहाड़ियां मौजूद हैं। क्वार्टज रीफों की पहाड़ियों और उनके आगे बने तालाबों की स्थिति देखकर लगता है जैसे इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही प्राचीन तालाबों का और नदी घाटियों के खुले इलाके में कुओं और बावड़ियों का निर्माण किया गया था।

उपर्युक्त विवरण के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मध्य बुंदेलखंड अंचल में तालाबों के निर्माण का फैसला वर्षा के चरित्र, आजीविका के लिए पानी को जरूरतों और जमीन के गुणों को ध्यान में रखकर लिया होगा। डा. सिंह द्वारा दी जानकारी बताती है कि तालाबों के निर्माण की फिलासफी बहुत सरल थी। इसके अनुसार जिस स्थान पर निस्तार तालाब के लिए वांछित परिस्थितियां उपलब्ध थीं वहां निस्तारी तालाब, जहां रिसाव या नमी की आवश्यकता पूरी करने लायक परिस्थितियां उपलब्ध थीं वहां रिसन तालाब बनवाए गए। जहां क्वार्टज-रीफ की पहाड़ियों मौजूद थीं, वहां प्राकृतिक जलाशय बनाए गए- कहीं छोटी नदियों पर तो कहीं-कहीं ढाल पर एकल या श्रृंखलाबद्ध बांध। लगता है, इसी कारण मध्य बुंदेलखंड में प्राकृतिक जलचक्र का संतुलन कायम रहा। बारहमासी तालाबों का निर्माण संभव हुआ। इसी कारण कुओं और बावड़ियों में भरपूर पानी मिला और नदी नाले बारहमासी बने। लगता है यही तालाब और कुओं के निर्माण का अन्तर्निहित विज्ञान था। आधुनिक युग में बनने वाली अधिकांश जल संरचनाओं के स्थल चयन में उल्लिखित वैज्ञानिकता का अभाव है।

डा. एसपी सिंह द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार दक्षिण बुंदेलखंड की भूगर्भीय स्थितियां भिन्न थीं। चोहरा की चौपाल में इस भिन्नता का प्रमाण सामने आया जिसमें प्रकाश जारौलिया और उमेश वैद्य ने बताया था कि उनके गांव के आसपास की गहरी काली मिट्टी में पानी की झिर कमजोर होने के कारण, तालाबों का निर्माण नहीं हुआ था। इस कारण उनके अंचल में केवल कुएं और बावड़ियां बनवाई गई थीं। प्रसंगवश उल्लेख है कि पुराने समय में नलकूप प्रचलन में नहीं थे, इसलिए बेसाल्ट की परतों के गुणों को ध्यान में रख केवल कुएं बनाए गए। हमें लगता है, यही कुओं और बावड़ियों के निर्माण का अन्तर्निहित विज्ञान था। मंडला इलाके में भी धरती के चरित्र ने कुओं के अतिरिक्त निस्तारी तालाबों का निर्माण संभव किया।

आधुनिक जल संरचनाएं


आधुनिक युग में मुख्यतः विभिन्न साइज के बांध, उद्वहन सिंचाई योजनाएं, स्टाप-डेम इत्यादि बनाए जाते हैं। बुंदेलखंड का इलाका गंगा कछार में आता है। इस क्षेत्र की प्रमुख नदियों में केन, बेतवा, सुनार, धसान इत्यादि हैं। इस क्षेत्र में मध्यप्रदेश के जल संसाधन विभाग द्वारा विभिन्न आकार के बांधों का निर्माण किया जा रहा है। इन सिंचाई योजनाओं से छतरपुर, दतिया, सागर, टीकमगढ़, दमोह जिलों को लाभ मिलेगा। इन सभी योजनाओं के निर्माण का सिद्धांत, कैचमेंट के पानी को कृत्रिम जलाशय में रोक कर, कमांड क्षेत्र में जल उपलब्ध कराना है। वृहद्, मध्यम तथा लघु सिंचाई योजनाओं को छोड़कर, ग्रामीण विकास विभाग, लोक स्वास्थ्य विभाग और कृषि कल्याण विभाग छोटी संरचनाओं (स्टाप-डेम, नलकूप, तालाब तथा कुओं) का निर्माण करते हैं। मौजूदा अवधारणा और प्राचीन अवधारणा में जमीन-आसमान का फर्क है।

2.4 जल निकास व्यवस्था एवं प्रयुक्त औजार


जल निकास व्यवस्था
चोहरा की चौपाल में प्रेम नारायण, हरगोविन्द अहिरवार, बृजबिहारी और मानीराम ने बताया कि पुराने समय में कुओं से रस्सी-बाल्टी की मदद से पानी निकाला जाता था। कुछ कुओं पर लकड़ी की नाट रखी जाती थी जिस पर खड़े होकर पानी निकाला जाता था। कुछ कुओं पर पानी खींचने के लिए लकड़ी की ढांचा (मनघटा) लगाया जाता था। मनघटा में रस्सी-बाल्टी द्वारा पानी निकालने के लिए घिर्री लगी होती थी। बावड़ियों में नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां थीं। जल प्राप्ति के लिए सामान्यतः मिट्टी के घड़ों का उपयोग किया जाता था। अधिक मात्रा में पानी निकालने के लिए कुओं पर रहट या मोट (चड़ंस) लगाई जाती थी। रहट में मिट्टी के घड़ों और चड़स में चमड़े का उपयोग किया जाता था। चोहरा की चौपाल में डा. चौबे और मृदंगवादक मनीराम ने 16 घड़ोंवाली रहट की संरचना और उसकी कार्यप्रणाली के बारे में निम्नलिखित बुंदेलखंड कहावत सुनाई।

आठ कटाकट, नौ पंचारी, सोरा बैल अठारह नारी।
आवो पांडे करो विचार, सोरा घर को एक द्वार।।

महाराजपुर ग्राम के सीताराम व्यास ने पुराने समय में टीकमगढ़ क्षेत्र में पानी निकालने में प्रयुक्त उपकरणों की जानकारी दी। वे बताते हैं कि पुराने जमाने में चमड़े की चरस और रहट का उपयोग किया जाता था। चमड़े की चरस को तरसा या चरसा भी कहते थे। वे बताते हैं कि छतरपुर इलाके में ढेंकुरी का अधिक उपयोग होता था। ढेंकुरी में एक लंबा खम्बा होता था। इस खम्बे के एक सिरे पर पानी निकालने वाला उपकरण तथा दूसरे सिरे पर भार संतुलन करने की व्यवस्था होती थी। यह देशज व्यवस्था थी जो सैकड़ों सालों तक प्रचलन में रही है। हमारी टीम का मानना है कि कुओं से पानी निकालने वाली ढैंकुरी व्यवस्था लीवर के सिद्धांत पर आधारित है। लीवर के सिद्धांत तथा घिर्री का उपयोग सिद्ध करता है कि जल निकास की स्थानीय व्यवस्था का आधार वैज्ञानिक था। यह पाश्चात्य विज्ञान के भारत आगमन के पहले से प्रचलन में थी।

मण्डला के मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए बुजुर्ग किसानों ने बताया कि पुराने समय में जलस्रोतों से पानी निकालने के लिए रहट एवं मोट का उपयोग किया जाता था। अर्थात संपूर्ण बुंदेलखंड अंचल में कुओं से पानी निकालने का तरीका एक समान था। वर्तमान में इन तरीकों का उपयोग लगभग नहीं होता।

जलस्रोत निर्माण में प्रयुक्त औजार
चोहरा चौपाल में मौजूद लोगों का कहना था कि कुआं खोदने या तालाब बनाने में सब्बल, गेंती, फावड़ा इत्यादि औजारों का उपयोग होता था। नन्द किशोर, रामरतन और धनीराम रैकवार का कहना था कि पत्थर तोड़ने में घन तथा हथौड़े का उपयोग किया जाता था। पत्थरों को तराशने या आकृति देने का काम छैनी तथा हथौड़े की मदद से किया जाता था। सीताराम व्यास का कहना था कि खुदाई के काम आने वाले सभी औजारों का निर्माण सामान्यतः गांव में ही होता था। बुंदेलखंड अंचल के अनेक स्थानों पर लोहा बनाने वाली मिट्टी मिलती है। उस मिट्टी को लकड़ी के कोयले की मदद से गला कर लोहा बनाया जाता था और पीट-पीट कर औजार की शक्ल दी जाती थी। औजार को मजबूती देने के लिए उन्हें पजाया जाता था। कुछ लोग उसे पानी चढ़ाना भी कहते थे। इस क्रिया में औजार को भट्टी में लाल होने तक गर्म कर ठंडे पानी में डाला जाता था। इस प्रक्रिया को दो-तीन बार दुहराया जाता था। इस प्रक्रिया के बाद औजार की कठोरता बढ़ जाती थी।

औजारों की धार बनाने के लिए उसकी वांछित सतह को गीले पत्थर पर घिसा जाता था। सीताराम व्यास का कहना था कि स्थानीय औजार बहुत उम्दा काम करते थे। उनकी डिजायन इतनी सटीक तथा वैज्ञानिक थी कि उसमें अभी तक कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं हुआ है। सभी औजारों का विकास स्थानीय स्तर पर हुआ था। सभी अंचलों में उनकी डिजायन लगभग एक जैसी है। कुआं या तालाब बनाने के लिए गेंती, कुदाली, फावड़ा, करनी, घन, हथौड़ी, छैनी, सब्बल आदि औजारों का उपयोग किया जाता है। मिट्टी फेंकने के लिए टोकनी उपयोग में लाई जाती थी।

2.5 पानी को शुद्ध रखने के तौर तरीके
चोहरा की चौपाल में मौजूद लोगों का कहना है कि उनके पुरखे पानी को देखकर, सूंघ कर या चख कर उसकी गुणवत्ता का अनुमान लगाते थे। वहीं महिलाएं, दाल पकने के आधार पर पानी की गुणवत्ता तय करती थीं। ढाना के दीपक तिवारी कहते हैं कि स्थान परिवर्तन और मौसम के बदलाव के साथ पानी के गुणों में अंतर आ जाता है। वे कहते हैं कि पहाड़ी झरनों में मिलने वाले पानी का गुण, गांव के तालाब के पानी से अलग होगा। कई बार, एक ही गांव के अलग-अलग हिस्सों में बने कुओं के पानी के गुणों में अंतर होता है। चोहरा ग्राम के रामचंद्र का कहना था कि बहुत समय पहले उनके गांव की नदी के दोनों तरफ चरोखर की जमीन थी। चरोखर की जमीन से छन कर साफ बरसाती पानी नदी को मिलता था। रामरतन बताते हैं कि पुराने समय में मोतीझरा के रोगी को आमदहार का पानी पीने की सलाह दी जाती थी। भगवान दास कहते हैं कि आमदहार के पानी को पीने से पाचनतंत्र ठीक हो जाता था। उसके पानी में पहाड़ों पर पैदा होने वाली जड़ी-बूटियों का रस मिला होता था। जंगल कट गए, अब उस पानी में पुरानी बात नहीं रही। उमेश पचौरी का कहना था कि पुराने समय में कुओं में साफ पानी मिलता था। कभी-कभी कुओं में जानवर गिरकर मर जाते थे। ऐसी स्थिति में कुएं को उगारा जाता था। कुआं उगारने का अर्थ है, कुएं का सारा पानी बाहर निकालना। पानी निकालने के बाद कुएं का पानी साफ और बदबू मुक्त हो जाता था।

तालाबों की पाल के आसपास और नदी के घाटों पर मंदिर बनाने की परंपरा थी। जलस्रोतों के पानी को शुद्ध रखने के लिए सामाजिक एवं धार्मिक नियम एवं व्यवस्थाएं थीं।टीकमगढ़ जिले के दुर्गाप्रसाद यादव और रमेश श्रीवास्तव का कहना था कि बारहमासी नदियों का पानी प्रदूषित नहीं होता। पुराने समय में तालाब का पानी भी साफ होता था। वे कहते हैं कि पुराने समय में आगौरों को सामान्यतः चारागाह के तौर पर काम में लाया जाता था। अवांछित गतिविधियों के अभाव के कारण आगौर सामान्यतः साफ-सुथरा बना रहता था। आगौर के साफ-सुथरे होने के कारण तालाबों का पानी गंदा नहीं हो पाता था। तालाबों की पाल के आसपास और नदी के घाटों पर मंदिर बनाने की परंपरा थी। जलस्रोतों के पानी को शुद्ध रखने के लिए सामाजिक एवं धार्मिक नियम एवं व्यवस्थाएं थीं। आश्चर्यजनक है कि मध्यप्रदेश के सभी अंचलों में तालाब के पानी को शुद्ध रखने के लिए लगभग एक जैसे सामाजिक नियम थे।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए जनजातीय समुदाय के लोगों ने बताया कि उनके क्षेत्र में कुओं, कुण्डों और तालाबों के पानी को शुद्ध रखने के लिए समय-समय पर उनकी सफाई की जाती थी। पानी निकालने के लिए साफ बर्तनों का उपयोग किया जाता था और उनके आसपास पीपल आदि वृक्षों को लगाया जाता था। प्राचीन काल में जलस्रोतों के आस-पास घास/पेड़-पौधे भी लगाए जाते थे। अब यह प्रथा प्रचलन में नहीं रही।

2.6 पेयजल सुरक्षा एवं संस्कार
अ. पेयजल सुरक्षा
चोहरा की चौपाल में अनेक लोगों ने बताया कि पालतू जानवरों के लिए पीने का पानी, साधारणतः सार में रखा जाता था। जानवरों के लिए दूसरी व्यवस्था नदी ले जाकर पानी पिलाने की थी। जंगल से चर कर लौटते समय या बाहर ले जाने के पहले उन्हें जलस्रोत पर ले जाकर पानी पिलाया जाता था। चौपाल में त्रिवेणी देवी, मुन्नी तिवारी, नर्मदी साहू ने बताया कि उपर्युक्त व्यवस्था लगभग हर घर में होती है। उनके अनुसार पेयजल की सुरक्षा के लिए वह व्यवस्था पर्याप्त थी। अपनाई व्यवस्था को देखकर लगता है कि पुराने समय में जल सुरक्षा का एक पक्ष पेयजल की शुद्धता को कायम रखना था तो दूसरा पक्ष शुद्धता संबंधी ज्ञान को संस्कारों में ढाल कर अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करना था।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में महिलाएं नहीं आई थीं। दोनों चौपालों में मौजूद लोगों ने बताया कि उनके घरों में पेयजल की व्यवस्था का जिम्मा महिलाओं का है। महिलाओं द्वारा घड़ों में पानी लाया जाता है। मिट्टी के घड़ों या बर्तनों को ढंक कर रखा जाता है। कुछ बर्तन जैसे - घड़ा, मटका, बटोही, गुंडी आदि बर्तनों को रसोई के पास रखा जाता है। पशु-पक्षियों के लिए घर के आंगन में मिट्टी के छोटे बर्तन में पानी रखकर लटका दिया जाता है।

मण्डला क्षेत्र में प्राकृतिक जलस्रोतों के पानी को भी संचित करने के पहले सूती कपड़े से छाना जाता था। यह व्यवस्था सामान्य तथा जनजातीय समाज द्वारा अपनाई जाती हैं पानी को रखने का स्थान ऊंचाई पर बनाया जाता है।

आ. पेयजल संस्कार
सागर जिले की चोहरा में उपस्थित त्रिवेणी देवी, मुन्नी तिवारी, चंदा बैन और शकुन्तला ने बताया कि हर घर में पीने का पानी की पृथक से व्यवस्था होती थी। उसे जूठा या गंदा होने से बचाने के लिए अलिखित नियम कायदे होते थे। जूठा या गंदा पानी काम में नहीं लिया जाता था। उसे या तो फेंक दिया जाता था। या जानवरों को पिलाने के काम में लिया जाता था। जूठे बर्तनों का उपयोग, साफ करने के बाद किया जाता था। चौपाल में उपस्थित महिलाओं का कहना था वे ही बहू-बेटियों को पेयजल से जुड़ी सतर्कताओं संबंधी संस्कार देती हैं। माधुरी श्रीधर का कहना है कि यह पेयजल संस्कारों का सम्प्रेषण है। इसका एक पात्र माता और सास हैं और दूसरा पात्र बेटी और बहू हैं। इस विधि में पुरानी पीढ़ी द्वारा नई पीढ़ी को संस्कार सम्प्रेषित किए जाते हैं।

मण्डला क्षेत्र में जनजातीय परिवार के सदस्यों को पानी की स्वच्छता, पवित्रता तथा समझदारी से उपयोग की सीख या संस्कार परिवार के मुखिया देते हैं। कुछ संस्कारों का संबंध धार्मिक अनुष्ठानों से है जिसमें फसल बोने के पहले जलदेवता को साक्षी मानकर अच्छी बारिश की कामना के लिए देवता की पूजा की जाती थी। उनके बाकी संस्कार समाज के अन्य लोगों जैसे ही हैं।

3. स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य सम्बंधी संस्कारों का विज्ञान


मनुष्यों को अधिकांश बीमारियां अशुद्ध पानी पीने के कारण होती हैं। पानी से होने वाली बीमारियों से बचने के लिए स्वास्थ्य चेतना और सावधानी आवश्यक है। इस सावधानी को पानी के उपयोग के तौर-तरीकों से समझा या परखा जा सकता है। अतः पानी के उपयोग के तौर-तरीकों को स्वास्थ्य चेतना के स्वयंसिद्ध संकेतकों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। हमें सभी अंचलों की चौपालों में स्वास्थ्य चेतना के प्रमाण मिले। दीपक तिवारी कहते हैं कि यह आश्चर्यजनक है कि सारी स्वास्थ्य चेतना और आधुनिक सावधानियों और समझाइश के बावजूद मौजूदा युग में जलजनित बीमारियों के प्रकरणों का प्रतिशत पहले की तुलना में बहुत अधिक हैं। कैंसर विशेषज्ञ डा. आशुतोष अग्निहोत्री का कहना है कि मौजूदा युग में जलजनित बीमारियों के पीछे पानी में घुले घातक एवं हानिकारक रसायन हैं। इन रसायनों ने सारा परिदृश्य बदल दिया है। उनको लगता है कि माकूल व्यवस्था और सुधारवादी कदम हर आदमी तक नहीं पहुंच पा रहे हैं।

चोहरा की चौपाल में आई महिलाओं का कहना था कि घिनोची की व्यवस्था उनकी सास, वे खुद या उनकी बहुएं संभालती हैं। नदी या कुएं से पानी भरने के पहले मटका/बाल्टी की सफाई की जाती है। घिनोंची के पुराने पानी को रोज बदला जाता है। पानी बदलने के पहले घड़ों/बर्तनों को अच्छी तरह साफ किया जाता है। साफ सूती कपड़े से छान कर पानी भरा जाता है। यह व्यवस्था स्वास्थ्य चेतना की परिचायक है।

चोहरा की चौपाल में उपस्थित लोगों का अभिमत था कि पुराने समय में उनके ग्राम की नदी का पानी प्रदूषणमुक्त था। उसमें केवल मिट्टी के कण या घास-फूस या वृक्षों के पत्ते होते थे। महिलाएं सभी अशुद्धियों से भलीभांति परिचित थीं। इसलिए वे हमेशा पानी को छान कर ही भरती थीं। हमारी टीम को लगता है कि स्थानीय समाज ने जलस्रोतों की अशुद्धियों को पहचान कर, जल शुद्धि की व्यवस्था का स्वीकार्य तानाबाना बनाया था तथा तत्कालीन जीवनशैली से मिलती-जुलती टिकाऊ, सस्ती एवं सहज व्यवस्था विकसित की थी। वह व्यवस्था बहुसंख्य समाज की आर्थिक स्थिति के अनुरूप तथा स्वास्थ्यप्रद थी। जो मध्यप्रदेश के सभी अंचलों में पाई जाती है। जो पानी से जुड़ी स्वास्थ्य संबंधी निरापद समझ तथा संस्कारों के पीछे के देशज विज्ञान को दर्शाती है।

चोहरा की चौपाल में उपस्थित महिलाओं को दूषित पानी में मिलने वाले रसायनों या कीटाणुओं की जानकारी नहीं थी। जानकारी के अभाव में वे दुष्परिणामों से अपरिचित थीं लेकिन पानी की साफ-सफाई पर पूरा ध्यान देती थीं। उनके गांव के जलस्रोतों में पाई जाने वाली रसायनिक अशुद्धियों के बारे में उनकी जानकारी करीब-करीब शून्य थी। चोहरा की चौपाल में आए अनेक लोगों ने बताया कि वे सबेरे उठकर सबसे पहले पानी पीते हैं। कुछ लोग तांबे के बर्तन में रखा पानी पीते हैं। कुछ लोग गुनगुना पानी पीते हैं। कब्ज की शिकायत वाले लोग हल्का गर्म पानी पीते हैं। बीमारों एवं उपवास तोड़ने वाले व्यक्तियों को खिचड़ी, दाल का पानी या फलों का रस दिया जाता है। यह विवरण, बुंदेलखंड में पानी से जुड़ी स्वास्थ्य संबंधी निरापद समझ तथा स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को सामने लाता है।

चोहरा की चौपाल में उपस्थित महिलाओं का कहना था कि आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के सुलभ होने के बावजूद उनके घरों में आज भी अनेक छोटी-छोटी बीमारियों के लिए जड़ी बूटियां काम में लाई जाती हैं। चौपाल में आई महिलाओं ने प्रसव से जुड़ी प्राचीन परिपाटियों का उल्लेख किया। उनके अनुसार सभी परिपाटियां, सद्यः प्रसूता की सेहत की बहाली के लिए बहुत उपयोगी हैं। वे उसे प्रसवोत्तर कुप्रभावों से बचाती हैं। सेहत बहाली के तरीकों और सावधानियों से हर महिला परिचित है। उसके संप्रेषण का तरीका घर-घर में पीढ़ी-दर-पीढ़ी फलता-फूलता रहा है। सरकारी तथा निजी अस्पतालों की उपलब्धता, सरकारी योजनाओं, जीवनशैली के बदलावों, संयुक्त परिवारों के बिखराव तथा बदलते सोच के कारण प्रसव की ऐलोपैथिक प्रणाली का प्रचलन बढ़ रहा है।

स्वास्थ्य से जुड़ी बुंदेलखंडी लोक-कहावतों का संसार बहुत विस्तृत है। उनकी बानगी निम्नलिखित कहावतों में पेश की गई है-

भोरहि माठा पियत है, जीरा नमक मिलाय।
बल और बुद्धि बढ़त है, सबै रोग जरि जाय।।


प्रातःकाल जीरा और नमक मिला छाछ पीने से बल और बुद्धि में वृद्धि होती है।

नित भोजन के अंत में, तोला भर गुड़ खाय।
अपच मिटे भोजन पचे, कब्जियत मिट जाय।।


भोजनोपरांत एक तोला गुड़ खाने से अपच मिटता है, भोजन जल्दी पचता है और कब्ज मिटता है।

पीते पात मदार के, घृत में देय लगाय।
गर्म गर्म रस डालिए, कर्ण दर्द मिट जाय।।


मदार (अकौआ) वृक्ष के पीले पत्तों को घी लगाकर गर्म करें। उसका अर्क निकालें और उसे गुनगुना कर कान में डालें तो कान का दर्द मिट जाता है।

छोटी पीपरी शहद में, रोज सुबह जो खाय।
कुछ दिन नियम कर सकल, दमा श्वास मिट जाय।।


यदि मनुष्य रोज सबेरे छोटी पीपरी का शहद के साथ सेवन करे तो उसे दमा और श्वास पैसे घातक रोगों से मुक्ति मिल जाती है।

निन्ने पानी जे पियं, हर्र भूंज के खाये।
दुदन ब्यारू जे करें, तिन घर बैद न जाय।।


जो मनुष्य प्रातःकाल खाली पेट पानी पीता है, हर्र भूंज कर रोज खाता है और रात को भोजन के साथ दूध का सेवन करता है, उसके घर वैद्य नहीं जाता अर्थात वे बीमार नहीं पड़ते।

प्रातकाल खटिया से उठिके, पियै तुरन्तै पानी।
ता घर बैद कभी ना आवे, बात घाघ के जानी।


जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर सबसे पहले पानी पीता है, उसके घर वैद्य नहीं जाता अर्थात वह व्यक्ति बीमार नहीं पड़ता।

यदि अभिलाषा हृदय की, कबहुं न होय जुकाम।

पानी पीवे नाक से, पहुंचावे आराम।।

कहावत कहती है कि जुकाम से बचाव/आराम का सबसे अच्छा उपाय नाक से पानी पीना है।

हमें हर अंचल में स्वास्थ्य से जुड़ी लगभग एक जैसी लोक-कहावतें सुनने को मिलीं। उनमें बोली के अतिरिक्त अन्य कोई फर्क नहीं है।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में बताया गया कि मण्डला के प्रत्येक गांव में इलाज के लिए वैद्य होते थे। वे रोगों की पहचान कर इलाज करते थे। उनका ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता है। वे मरने के पहले आपने बेटे को इलाज और जड़ी-बूटियों की जानकारी दे देते थे। ज्ञान के सम्प्रेषण का यही परंपरागत तरीका था।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में लोगों ने बताया कि जनजातीय लोग धूप में निकलने के पहले जेब में प्याज रखना और खांसी आने पर जड़ी-बूटी खाना आवश्यक मानते हैं। जनजातीय लोगों का मानना था कि वे प्राकृतिक करणों से बीमार होते हैं इसलिए वे प्राकृतिक जड़ी-बूटियों के सेवन से ही ठीक होंगे। उनका मानना है कि आधुनिक युग में भी इलाज की परंपरागत शैली को अपनाया जा सकता है। उनके अनुसार परंपरागत शैली में बीमारी को जड़ से खत्म करने की क्षमता होती है।

4. मिट्टी, परंपरागत खेती, वर्षा एवं उसकी विवेचना जनजातीय अनुमान

 


4.1 मिट्टियां
चोहरा की चौपाल में किसानों ने बताया कि उनके पूर्वज अपने गांव में मिलने वाली सभी प्रकार की मिट्टियों को भलीभांति पहचानते थे। वे जानते थे कि किस मिट्टी में कौन सी फसल लेना या नहीं लेना चाहिए। पीढि़यों के लंबे अनुभव के आधार पर किसानों को यह भी पता था कि खेत की उर्वरा शक्ति को बहाल करने के लिए क्या करना चाहिए। वे मिश्रित खेती और अदल-बदल कर बीज बोने के लाभों से भी परिचित थे। चोहरा की चौपाल में आए माणिकलाल जैन और कृष्णमुरारी पचौरी का कहना था कि आधुनिक मिट्टी-विज्ञान ने मिट्टी के वर्गीकरण और उसके विभिन्न घटकों के बारे में जानकारी का दायरा बढ़ाया है पर वह दायरा सम्पन्न किसानों तथा वैज्ञानिकों तक सीमित है। छोटे और गरीब किसानों को उसके बारे में बहुत कम जानकारी है। साधनों के अभाव में वे उस जानकारी के आधार पर खेती नहीं कर पाते हैं। माणिकलाल जैन और कृष्णमुरारी पचौरी मूलतः कृषि वैज्ञानिक हैं।

चोहरा की चौपाल में हरिराम, भगवानदास पटेल, उमेश कुर्मी और धनीराम रैकवार इत्यादि ने खेतों के परंपरागत वर्गीकरण की जानकारी दी। उनके अनुसार, बिना कंकड़ वाली काली मिट्टी का नाम काबर है। किसानों के अनुसार काबर मिट्टी की उत्पादकता सबसे अच्छी होती है। मुंड मिट्टी का रंग काला होता है पर उसकी उत्पादकता, काबर मिट्टी की तुलना में थोड़ी कम होती है। पीरोठा मिट्टी का रंग पीला होता है। वह पतरूआ मिट्टी की तुलना में थोड़ी बेहतर होती है। पतरूआ मिट्टी में खरीफ फसलें यथा असली एवं ज्वार और पीरोठी मिट्टी में ज्वार की फसल ली जाती थी। चौपाल में ब्रजबिहारी, भगवान दास और योगेन्द्र जैन ने बताया कि वे अपने अनुभव के आधार पर जानते हैं कि कौन-सा खेत गेहूं के लिए और कौन सा खेत दूसरी फसलों के लिए उपयुक्त होगा।

टीकमगढ़ के दुर्गाप्रसाद यादव और रमेश श्रीवास्तव बताते हैं कि उनके क्षेत्र के किसान अपने-अपने गांवों में मिलने वाली मिट्टियों को उनके गुणों और क्षमता के अनुसार पहचानते थे। उनके क्षेत्र में मोटा, काबर, हडकाबर, मार, दोमट, छपरा, बलुई, परुआ, दुपरुआ और राखड़ मिट्टी मिलती हैं।

हमारी टीम का मानना है कि मिट्टियों का देशज वर्गीकरण सैकड़ों साल पुराना है जो एक ही गांव के पृथक-पृथक मिट्टियों वाले खेतों को बेहतर उत्पादन के आधार पर वर्गीकृत करता है। इस वर्गीकरण के कारण किसान को पता होता था कि उसका खेत कौन सी फसल के लिए उपयुक्त है। इस जानकारी के लिए वह किसी पर निर्भर नहीं था। उसे आवश्यक जानकारी अपने बुजुर्गों से मिल जाती थी।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में लोगों ने बताया कि जनजातीय लोगों को अपने गांव की मिट्टियों के गुणों, उत्पादकता तथा किसी खास फसल की बेहतर उत्पादकता से जुड़ी समझ थी। यह ज्ञान उन्हें पीढ़ियों द्वारा तथा स्वयं के अनुभव से प्राप्त हुआ था।

4.2 परंपरागत खेती
चोहरा की चौपाल में उमेश वैद्य ने बताया कि पुराने समय में चोहरा के आसपास के गांवों की परंपरागत फसलों में ज्वार, बाजरा, मूंगफली, कपास, मक्का, उड़द, तिल्ली, अलसी, तुअर, मूंग, सवां, कुटकी, देशी गेहूं, चना, बटरी, मसूर मुख्य थीं। बीजों के मामले में किसान आत्मनिर्भर थे। उमेश वैद्य बताते हैं कि किसानों के पास अलग-अलग जीवनकाल वाले बीज होते थे जिन्हें वे मौसम और खेत की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बोते थे। प्रकाश जारौलिया का कहना था कि पुराने परंपरागत बीज सभी दृष्टियों से बेहतर थे। उनके अनुसार नए बीजों पर आधारित फसलों में बहुत बीमारियां लगती हैं। उमेश वैद्य का कहना था कि पुरानी खेती की तुलना में आधुनिक खेती का आर्थिक पक्ष अधिक मजबूत है। किसानों की समझ को जान कर कई बार लगता है कि पुराना कृषि विज्ञान गांवों में जन्मता था, गांवों में पनपता था और सटीक जानकारियों के लिए किसी व्यवस्था का मोहताज नहीं था।

चोहरा की चौपाल में उपस्थित किसानों का कहना था कि सोयाबीन के आने के पहले उनके क्षेत्र में समतल भूमि पर खेती की हवेली पद्धति प्रचलन में थी। उमेश वैद्य और कृष्णमुरारी पचौरी बताते हैं कि हवेली पद्धति में गहरी काली मिट्टी वाले खेतों में ऊंची-ऊंची मेंढ़ बना कर बरसात का पानी भरा जाता था। बरसात के बाद धीरे-धीरे पानी निकाला जाता था। बतर आने पर खेत में गेहूं या चना बोया जाता था। इस पद्धति द्वारा केवल एक ही फसल ली जाती थी। उस फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती थी।

दीपक तिवारी, उमेश वैद्य, कृष्णमुरारी पचौरी तथा प्रकाश जारौलिया का कहना था कि उनके क्षेत्र में कुओं, नदियों और नलकूपों के सूखने में तेजी आने के कारण सिंचाई पर बुरा असर पड़ रहा है। किसानों की आय घट रही है। वे कहते हैं कि एक ओर तो जोत घट रही है तो दूसरी ओर सूखी खेती की ओर लौटने के कारण, उनकी गरीबी लौट रही है। जीवनयापन के लिए मजदूरी और पलायन का संकट बढ़ रहा है।दीपक तिवारी, उमेश वैद्य, कृष्णमुरारी पचौरी तथा प्रकाश जारौलिया का कहना था कि उनके क्षेत्र में कुओं, नदियों और नलकूपों के सूखने में तेजी आने के कारण सिंचाई पर बुरा असर पड़ रहा है। किसानों की आय घट रही है। वे कहते हैं कि एक ओर तो जोत घट रही है तो दूसरी ओर सूखी खेती की ओर लौटने के कारण, उनकी गरीबी लौट रही है। जीवनयापन के लिए मजदूरी और पलायन का संकट बढ़ रहा है। वे कहते हैं कि पानी बढ़ाने के लिए अनेक प्रयास हुए हैं और किए भी जा रहे हैं पर परिणाम के नाम पर वही ढाक के तीन पात की कहानी नजर आ रही है। टीकमगढ़ जिले के महाराजपुरा ग्राम के 75 वर्षीय किसान रमेश श्रीवास्तव और बोरी ग्राम के दुर्गाप्रसाद यादव बताते हैं कि पुराने समय में किसान ऊंचाई पर स्थित खेतों में बरसात के प्रारंभ में ही मिट्टी के गुणों के आधार पर कोदों, कुटकी जैसी फसलों की बुआई कर देते थे। इन फसलों वाले खेतों को मेंढ़ की आवश्यकता नहीं होती, इसलिए इन खेतों का अतिरिक्त बरसाती पानी, ढाल पर तथा उसके नीचे स्थित खेतों में बने छोटे-छोटे बांधों में जमा हो जाता था। इस पानी के साथ कुछ मात्रा में मिट्टी भी आती थी जो खोतों में जमा होकर उत्पादकता में वृद्धि करती थी। रमेश श्रीवास्तव कहते हैं कि निचले हिस्सों में स्थित खेतों में बरसाती पानी जमा करने के लिए लगभग तीन फुट ऊंची बंधियां (मेढ़) बनाई जाती थी। अतिरिक्त पानी को निकालने के लिए निचले हिस्से में मुखड़ा छोड़ा जाता था। मुखड़े का मुंह पत्थर से बंद रखा जाता था। ऐसे मिट्टी वाले खेतों में पानी जमा कर धान की फसल ली जाती थीं कुछ किसान बरसात बाद, उन खेतों में गेहूं की फसल लेते थे। रमेश श्रीवास्तव कहते हैं कि उनके इलाके में एक फसल लेने का रिवाज था। धान लगाने वाले किसान, रबी की फसल नहीं लेते थे। इसी तरह, रबी की फसल लेने वाला किसान, खरीफ फसल नहीं लेता था। यह व्यवस्था टीकमगढ़, दतिया एवं छतरपुर जिलों में अपनाई जाती थी। सोयाबीन आने के बाद परंपरागत कृषि प्रणाली गड़बड़ा गई है।

चेाहरा की चौपाल में मौजूद लोगों का कहना था कि वर्षा के वितरण और खेती के बीच अंतर-संबंध होता है। वे कहते हैं कि यदि उक्त संबंध संतुलित और फसल की आवश्यकतानुसार है तो इष्टतम उत्पादकता सुनिश्चित है। उनका कहना है कि परंपरागत खेती में मानसून की अनिश्चितता से निपटने की बेहतर क्षमता थी।

मण्डला जिले की मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए श्रुतिराम, कुशराम, गणेश परते इत्यादि लोगों का कहना था कि प्राचीन काल में उनके क्षेत्र के ज्यादातर लोग, कम से कम जोखिम वाली बीवर खेती करते थे। इस खेती में एक ही खेत में एक साथ विभिन्न किस्मों के बीज बोये जाते थे। मौसम की बेरुखी के बावजूद किसान की रोजी-रोटी चल जाती थी। बाढ़ और सूखे के साल में भी किसी न किसी फसल/फसलों का उत्पादन हो जाता था। वे कहते हैं कि प्राचीन काल में खेती से बिल्कुल भी प्रदूषण नहीं होता था। लोग बैल/पड़ा (पालतू कृषि जानवर) के माध्यम से जमीन की जुताई एवं गहाई करते थे। फसल को किसान स्वयं अपने हाथों से काटता था। इससे जमीन और वातावरण में प्रदूषण नहीं होता था।

मण्डला जिले की परंपरागत खेती के बारे में मानिकपुर और अमवार की चौपालों में डीलन सिंह मराबी, लामू सिंह ने बताया कि जनजातीय लोगों द्वारा जुलाई/अगस्त में धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, और तिली को तथा कोदों, कुटकी, राई और रमतिला को सितंबर-अक्टूबर माह में बोया जाता था। वे बताते हैं कि परंपरागत फसलों के अच्छे उत्पादन के लिए कीटनाशक के तौर पर गौमूत्र का उपयोग किया जाता था। बीजों को सुरक्षित रखने के लिए कोठी का उपयोग किया जाता था। बीज संरक्षण के लिए कुछ बीजों पर मिट्टी का लेप करके एवं कुछ बीजों को नीम की सूखी पत्ती में मिलाकर रखा जाता था। बुआई के पहले बीज परीक्षण किया जाता था। बीजों के अंकुरण को परखने के लिए उन्हें गीले कपड़े की पोटली में बांधकर उनका अंकुरण देखा जाता था।

मानिकपुर और अमवार की चौपालों में लोगों ने एक स्वर से कहा कि परंपरागत बीज अधिक सुरक्षित हैं। उनका विकास स्थानीय जलवायु और मिट्टी की अनुकूलता के अनुसार हुआ है। उनके संरक्षण की अवधि भी अधिक है। उनका कहना था कि पुराने स्थानीय बीज अधिक विश्वसनीय थे। उनको जल्दी बीमारी नहीं लगती। उनका अभिमत था कि हाईब्रिड बीज टिकाऊ नहीं हैं। उनमें बहुत अधिक मात्रा में खाद, पानी और दवाई लगती है। लोगों का कहना था कि आर्थिक दृष्टि से प्राचीन कृषि पद्धति अधिक सुरक्षित थी।

4.3 मिट्टी और परंपरागत खेती का संबंध
चोहरा की चौपाल में डॉ ओम प्रकाश चौबे तथा अन्य साथियों ने बताया कि उनके क्षेत्र की मिट्टी बहुत उपजाऊ है। उसमें नमी सहेजने का गुण है। उनके क्षेत्र के किसान एक या दो बारिश के बाद, आद्रा नक्षत्र में, खरीफ की बुआई करते थे। उनका विश्वास था कि मोटे अनाजों की फसलें, बिना कठिनाई के उत्पादन देती हैं। उन पर मौसम और जमीन की उर्वरा शक्ति का कुप्रभाव, काफी हद तक कम पड़ता था। कार्तिक माह में खेत तैयार कर स्वाति नक्षत्र में देसी गेहूं तथा हस्त नक्षत्र में चना बोया जाता था। बुजुर्गों का कहना था कि जमीन की ऊर्वराशक्ति बनाए रखने के लिए फसलों को बदल-बदलकर बोने का रिवाज था। डॉ ओमप्रकाश चौबे, उमेश वैद्य, अवध बिहारी पांडेय और प्रेम नारायण का मानना है कि परंपरागत खेती पूरी तरह बरसात के मिजाज, मिट्टी की किस्म और बीजों के अन्तरसंबंध पर निर्भर थी। लोगों का कहना था कि पुराने समय में किसान अपने खेत में वह फसल बोता था जो उसका खेत चाहता था। किसानों का मानना है कि लाभप्रद खेती के लिए वर्षा के माकूल वितरण के साथ-साथ धरती पर कम से कम आधा मीटर अच्छी मिट्टी की परत होना चाहिए। कृष्णमुरारी पचौरी कहते हैं कि पुरानी खेती में स्थानीय संसाधन ही खेती की आवश्यकताएं पूरी करते थे और गांव में धन गांव में रहता था। अब हालात बदल गए हैं।

मण्डला जिले की चौपालों में आए किसानों का कहना था कि खेत की स्थिति तथा उसमें मिलने वाली मिट्टी के गुणों के अनुसार ही फसल लगाई जाती है। खेत की स्थिति और मिट्टी के गुणों की उपेक्षा कर की गई बोनी से कई बार बीज भी नहीं निकलता।

संकलित विचारों के आधार पर हमारी टीम का मानना है कि अनपढ़ किसान से अच्छा कृषि वैाज्ञनिक कोई दूसरा नहीं हैं। आधुनिक मृदा विज्ञान के प्रवेश के पहले से ही उसे खेती और मिट्टी का टिकाऊ रिश्ता ज्ञात था। वे जो खेती करते थे उसमें उत्पादन मिलने की काफी सुनिश्चितता थी। अर्थात बुंदेलखंड अंचल के किसान जो खेती करते थे उसका आधार पूरी तरह तार्किक और वैज्ञानिक था।

बुंदेलखंड की परंपरागत खेती का इतिहास

बुंदेलखंड में परंपरागत खेती के विकास का इतिहास लगभग 5000 साल पुराना है। इस क्षेत्र में पशुपालन के बाद खेती ही आजीविका का सबसे पुराना आधार रहा है। इस अंचल का भू-भाग कहीं पहाड़ी है तो कहीं मैदानी तो कहीं ढालू। कहीं काली मिट्टी पाई जाती है तो कहीं दूसरी किस्म की मिट्टी। मिट्टी की परत की मोटाई और मिट्टी के गुणों में बहुत भिन्नता है। हमें लगता है कि बुंदेलखंड की परंपरागत खेती, प्राचीन राजकीय सहयोग और किसानों के बरसों के अनुभव का प्रतिफल है। संभव है, किसानों की आर्थिक स्थिति और उपलब्ध तत्कालीन साधनों ने प्रयासों की लक्ष्मण रेखा तय की हो, पर सैकड़ों सालों तक खेती करने के कारण, जो परंपरागत समझ बनी थी, वह किसी भी दृष्टि से कम नही रही होगी। कहा जा सकता है कि प्राचीन कृषि पद्धति 'करके देखो, परिणामों को समझो और फिर कम घाटे वाली निरापद खेती अपनाओं' के सिद्धांत पर आधारित होगी। इसी समझ के आधार पर उसने जैसी खेत की परिस्थितियां, वैसी फसल का सिद्धांत अपनाया होगा। संभव है, इसके बाद बुंदेलखंड के किसानों के लिए मौसम की अनिश्चितता, खेतों की भौगोलिक स्थितियां, उथली मिट्टी, भूमि का कटाव, फसल चयन, उत्पादकता की भिन्नता इत्यादि लाइलाज समस्याएं नहीं रही होंगी।

बुंदेलखंड के किसानों द्वारा खेतों में बंधियां बनाना, एक फसल लेना और खेत की स्थिति के अनुरूप फसल का चुनाव करना कुछ ऐसी गूढ़ तथा गंभीर बातें हैं तो परंपरागत खेती के उजले पक्ष और किसानों की व्याहारिक समझ को स्पष्ट करती हैं। कहा जा सकता है कि उन्होंने स्थानीय भूगोल और मिट्टी को समझकर नमी के संरक्षण का नायाब तरीका अपनाया। हवेली व्यवस्था, उसी सोच का परिणाम थी। उन्होंने गोबर के खाद का उपयोग कर जमीन की क्वालिटी और नमी संरक्षण की अवधि सुधारी।

काशीप्रसाद त्रिपाठी कहते हैं कि पुराने समय में बुंदेलखंड का इलाका व्यवसाय की दृष्टि से अविकसित और खेती आधारित इलाका था। इस इलाके में राजाओं को टैक्सों से बहुत कम आय होती थी। इसके बावजूद, चंदेल राजाओं ने तालाब निर्माण पर काफी धन व्यय किया और टिकाऊ तालाब बनवाए। चंदेल राजाओं की आय का मुख्य साधन कृषि राजस्व ही था। त्रिपाठी कहते हैं कि तालाबों का निर्माण हुआ तो खेती का रकबा बढ़ा। लोग रोजगार में लगे। व्यापारी व्यवसाय में, किसान खेती में और मजदूर, बेलदार एवं दक्ष कारीगर तालाब निर्माण और उनकी मरम्मत के कामों में लग गए। जब पूरे समाज के हाथ में काम आया तो समाज में सम्पन्नता आई। संभवतः यही पुरानी कृषि अर्थव्यवस्था थी। इस क्रम में कहा जा सकता है कि पुरानी कृषि पद्धति, स्थानीय संसाधनों का उपयोग कर प्राकृतिक संसाधनों को समृद्ध करती थी। उत्पादन अपनी तथा स्थानीय समाज की आवश्यकता की पूर्ति के लिए किया जाता था। कृषि पद्धति के असर से बीज हानिकारक, खेत अनुत्पादक, मिट्टी घटिया एवं सतही या भूजल प्रदूषित नहीं होता था। गांव का हर खेत, देशज कृषि अनुसंधान केन्द्र था।

आधुनिक खेती, प्राकृतिक संसाधन और यक्ष प्रश्न
चोहरा की चौपाल में मौजूद अधिकांश किसानों का कहना था कि अब परंपरागत खेती के स्थान पर आधुनिक खेती होने लगी है। यह खेती अधिक पानी चाहती है तथा इसमें उन्नत बीज, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों एवं खरपतवार नाशकों का बहुत अधिक उपयोग होता है। इसकी लागत भी बहुत अधिक है। चौपाल में व्यक्त भावना के अनुसार, आधुनिक खेती अपनाने के कारण जमीन के नीचे के पानी, मिट्टी और खेती से सह-संबंध में असंतुलन पैदा हो गया है। कुछ लोग कहते हैं कि उन्नत बीजों के आ जाने के कारण बुआई का गणित, अल्पावधि के प्रयोगशाला आधारित प्रयोगों पर आश्रित है, इसलिए उसका दीर्घावधि पक्ष कमजोर है। खेती में बाहरी कृत्रिम तत्वों की अनिवार्यता के कारण वर्तमान खेती का प्रकृति से संबंध कम हो रहा है। मिट्टी की सेहत खराब हो रही है।

खेती में बाहरी कृत्रिम तत्वों की अनिवार्यता के कारण वर्तमान खेती का प्रकृति से संबंध कम हो रहा है। मिट्टी की सेहत खराब हो रही हैहमारी टीम ने मध्य बुंदेलखंड में प्राकृतिक संसाधनों का परिदृश्य और खेती के नजरिए में हो रहे बदलाव को समझने का प्रयास किया। लगता है कि बुंदेलखंड में पहला वनसम्पदा के क्षरण का है। ज्ञातव्य है कि सन 1950 में बुंदेलखंड में लगभग 40 प्रतिशत जंगल थे जो अब 26 प्रतिशत से भी कम रह गए हैं। इस कारण जंगलों का प्राकृतिक योगदान साल-दर-साल कम हो रहा है। इसका सीधा असर खेती और आजीविका पर पड़ रहा है।

मध्य बुंदेलखंड में दूसरा बदलाव बरसात को लेकर है। पिछले कुछ सालों से बरसात के चरित्र में असामान्य बदलाव देखा जा रहा है। इस बदलाव के कारण सूखे की अवधि और बाढ़ की बारंबारता बढ़ रही है। ज्ञातत्य है कि गर्मी में मध्यप्रदेश का सर्वाधिक तापमान छतरपुर, नौगांव और खजुराहो में रेकार्ड किया जाता है। मौसम के असामान्य व्यवहार के कारण बुंदेलखंड में वर्षा दिवस घट रहे हैं, कम समय में अधिक पानी बरस रहा है और उसकी फसल हितैषी भूमिका घट रही है। किसी-किसी साल ठंड के मौसम में पाला पड़ रहा है।

मध्य बुंदेलखंड में तीसरा बदलाव खेती के पुराने नजरिए में है। यह बदलाव सन् 1960 के दशक के बाद हरित क्रांति के रूप में सामने आया। परिणामस्वरूप उन्नत खेती की आधुनिक अवधारणा लागू हुई और अधिक पानी चाहने वाले उन्नत बीज, रासायनिक खाद, कीटनाशक, ट्रैक्टर-बिजली से चलने वाले सेन्ट्रीफ्यूगल और सबमर्सिबल पम्प प्रचलन में आए। सरकार ने उन्नत खेती से जुड़े लगभग हर इनपुट को सब्सिडी और कर्ज के माध्यम से प्रोत्साहित किया। सरकार और वित्तीय संस्थाओं के संयुक्त प्रयासों से किसान की सोच में बदलाव आया और कर्ज आधारित खेती को प्रोत्साहन मिला।

खेती के नजरिए के तीसरे बदलाव के बारे में हमारा मानना है कि आधुनिक खेती, बाह्य इनपुट आधारित खेती है। वह एक जटिल डायनिमिक सिस्टम की तरह है जिससे तभी लाभ मिलता है जब पूरा सिस्टम, बिना व्यवधान के, अपेक्षानुसार काम करे। उसकी दूसरी आवश्यकता है जो पार्ट खराब हो उसे तत्काल हटा दो और नया पार्ट लगाओ। कुशल कामगार लगाओ। अर्थात आधुनिक खेती तभी सफल है जब पूरे वक्त आदर्श परिस्थितियां उपलब्ध हों। उल्लेख है कि आधुनिक खेती अपनाने के कारण, कतिपय प्रकरणों में, छोटी जोत वाले किसानों को प्रति हैक्टर अधिक उत्पादन मिला है पर यह स्थिति हर साल नहीं रही। कुछ लोगों को लगता है कि छोटे किसानों के लिए परंपरागत खेती का देशज माडल ही निरापद है। हमारी टीम को लगता है कि आधुनिक खेती और गहराता मौजूदा जलसंकट, पुराने नजरिए में आए बदलावों के कारण हैं। इस बदलाव का तुलनात्मक अध्ययन किया जाना चाहिए।

चोहरा चौपाल में मिली जानकारियों और बुंदेलखंड के छीजते प्राकृतिक संसाधनों के कारण बिगड़ती स्थिति ने हमारी टीम के सामने कुछ यक्ष-प्रश्न खड़े किए। वे प्रश्न बुंदेलखंड पैकेज के अंतर्गत उठाए गए कदमों की सफलता की संभावना पर भी समान रूप से लागू हैं। वे प्रश्न, मध्यप्रदेश के अन्य अंचलों से भी संबंध रखते है।

पहला प्रश्न- ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की संभाव्यता की पृष्ठभूमि में छीजते प्राकृतिक संसाधन वाले बुंदेलखंड में कौन-सी कृषि पद्धति (परंपरागत या आधुनिक) प्रासंगिक है?

दूसरा प्रश्न- आधुनिक खेती में परंपरागत कृषि पद्धति की तुलना में दुष्प्रभाव अधिक हैं। क्या आधुनिक खेती के दुष्प्रभाव का पूरा-पूरा या आंशिक हल खोजा जाना संभव है? बुंदेलखंड में घटती जोत और छीजते प्राकृतिक संसाधनों के क्रम में क्या वह हल किसानों की आर्थिक क्षमता के अंतर्गत होगा? क्या आधुनिक खेती के संसाधनों पर बढ़ते दबाव और मिट्टी की सेहत पर बढ़ते दुष्प्रभाव और स्वास्थ्य सेवाओं पर बढ़ते संभावित व्यय के क्रम में, क्या पारंपरिक खेती को अपनाना बुद्धिमानी हो सकता है?

तीसरा प्रश्न- बुंदेलखंड के कृषि-क्षेत्र में बेरोजगार होते ग्रामीणों के शहरों की तरफ हो रहे पलायन का निदान किस पद्धति में खोजा जा सकता है? क्या उस माडल से आधुनिक कृषि वैज्ञानिक सहमत हैं? क्या उसे किसानों की स्वीकार्यता के बाद अपनाया जा सकता है?

हमारी टीम का मानना है कि उपर्युक्त बिंदुओं पर अध्ययन प्रासंगिक हो सकता है।

मण्डला की चौपालों में आए लोगों का कहना था अच्छी बरसात वह होती है जिससे खेती अच्छी हो। पानी धीरे-धीरे गिरे ताकि धरती उसे ठीक से सोख सके। वह पानी फसल को मिल सके। नदी, तालाबों एवं कुओं में इतना पानी आ जाए कि साल भर पानी की कमी नहीं रहे तथा फसल भी ठीक से पक जाए।

4.4 वर्षा एवं उसकी विवेचना
चोहरा की चौपाल में आए लगभग सभी लोग अनुभवी किसान थे। हमारी टीम ने उनसे स्थानीय वर्षा, उसकी विवेचना, खेती से वर्षा के रिश्ते इत्यादि पर चर्चा की। मण्डला की चौपालों के अनुभवों को संकलित कर चंद्रहास पटेल ने भेजा। प्राप्त अनुभवों को निम्नानुसार प्रस्तुत किया जा रहा है।

4.4.1 वर्षा
चोहरा चौपाल में आए किसानों का मुख्य रूप से कहना था कि पुराने समय में उनके क्षेत्र में वर्षा की मात्रा की माप नहीं ली जाती थी। उनका कहना था कि पुराने समय में वर्षा की मात्रा के स्थान पर यह देखा जाता था कि उसका वितरण खरीफ फसलों की आवश्यकता के अनुसार है अथवा नहीं। क्या उसके आधार पर रबी की फसल लेना संभव होगा? लोगों का अनुमान था कि संभवतः पुराने समय में उनके क्षेत्र में पर्याप्त पानी बरसता था जो परंपरागत फसलों, निस्तार आवश्यकताओं तथा नदियों के बारहमासी बने रहने के लिए कम नहीं था। मण्डला जिले की मानिकपुर और अमवार की चौपालों में आए श्रुतिराम, गणेश परते इत्यादि का कहना था कि उनके क्षेत्र में लगभग 4 माह बरसात हाती है। उनके इलाके में पर्याप्त पानी बरसता है। उनकी नजर में पर्याप्त वर्षा का अर्थ है फसल की आवश्यकतानुसार पानी गिरना। फसल को हानि पहुंचाने वाली बरसात को वे अच्छा नहीं मानते। उनका कहना था कि पुराने समय में होने वाली वर्षा, परंपरागत फसलों, नदी-नालों, तालाबों एवं कुओं में साल भर पानी की उपलब्धता के लिए संभवतः पर्याप्त थी। वे आगे कहते हैं कि इन दिनों होने वाली वर्षा, हाइब्रिड बीजों वाली खेती, नदी-नालों, तालाबों एवं कुओं को पूरे साल भर रखने के लिए अपर्याप्त लगती है।

4.4.2 वर्षा का अनुमान
चौहरा चौपाल में आए किसानों ने बताया कि उनके पूर्वज वर्षा का पूर्वानूमान, नक्षत्रों तथा आकाश में दिखने वाले लक्षणों के आधार पर लगाते थे। वे नक्षत्रों के आधार पर खेती का सम्पूर्ण कार्यक्रम तय करते थे। उन्होंने बताया कि एक साल में 27 नक्षत्र होते हैं। उनके क्षेत्र में होने वाली वर्षा का संबंध केवल 12 नक्षत्रों से है। मण्डला की चौपालों में उपस्थित किसानों ने बताया कि उनके क्षेत्र के लोग नक्षत्र आधारित वर्षा के अनुमानों पर ज्यादा भरोसा करते हैं। उन्हें प्राकृतिक वर्षा चक्र का पारंपरिक ज्ञान है। वे उस ज्ञान के आधार पर सदियों से खेती करते चले आ रहे है। उसी ज्ञान और बरसात के आधार पर फसल की बुआई का निर्णय लिया जाता है।

एक साल में 27 नक्षत्र होते हैं। उनके क्षेत्र में होने वाली वर्षा का संबंध केवल 12 नक्षत्रों से है।4.4.3 वर्षा की विवेचना
चोहरा चौपाल में हमारी टीम ने लोगों से आधुनिक तरीके (वर्षा की मात्रा) से वर्षा की विवेचना करने का अनुरोध किया। किसानों का कहना है कि परंपरागत खेती का स्थानीय वर्षा चक्र से से गहरा नाता था। बरसात की विवेचना केवल खेती की जरूरतों को सामने रखकर ही की जा सकती है। वे, अन्य पहलुओं या आवश्यकताओं के आधार पर वर्षा की विवेचना को बहुत आवश्यक नहीं मानते। किसानों की बातों से हमें लगा कि उनकी दृष्टि में वर्षा की सकल मात्रा का बहुत अधिक महत्व नहीं है। उनका कहना है कि बरसात का अर्थ है सही समय पर पानी का बरसना ताकि फसल का अंकुरण, उसका विकास और पैदावार ठीक हो। उनकी नजर में बरसात की अवधि, विभिन्न अंतरालों पर उसकी मात्रा तथा खेती के लिए उसकी उपयोगिता ही महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक है। यह विवेचना किसानों की देशज विवेचना है।

लेखक ने बरसात संबंधी अनुमानों पर भारतीय मौसम विभाग के पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक नूतन दास से चर्चा की। उन्होंने बताया कि भारतीय मौसम विभाग की जानकारी के आधार पर कृषि विभाग, फसलों के उत्पादन कार्य के बारे में भविष्यवाणी करता है। मौसम विभाग द्वारा बाढ़ और तूफान की भी चेतावनी दी जाती है। चेतावनी के लिए पूरे देश में आवश्यक तंत्र स्थापित हैं। यह सही है कि वर्षा की भविष्यवाणियां किसी वर्ग/विशेष की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अर्थात खरीफ की फसलों की आवश्यकता, जलाशयों के भरने तथा पेयजल स्रोतों की क्षमता-बहाली या भूजल रिचार्ज के नजरिए से नहीं की जाती। वे कहते हैं कि अलग-अलग हितग्राहियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के मापदण्ड अलग-अलग हैं। इसलिए तदनुसार विवेचना करने या सटीक भविष्यवाणियां करने में कठिनाइयां होंगी। यह अभी भी अनिश्चितता भरा क्षेत्र है।

4.4.4 जनजातीय समुदाय का वर्षा संबंधी अनुमान
मण्डला जिले में मुख्यतः बैगा एवं गोंड जनजातियों के लोग निवास करते हैं। वे लोग परंपरागत तरीके से बरसात का अनुमान लगाते हैं। वे मिट्टी के चार घड़ों में पानी भरकर उन्हें मिट्टी के चार ढेलों के ऊपर रखते हैं। दूसरे दिन मिट्टी के ढेलों का अवलोकन किया जाता है। यदि चारों ढेले रिसे पानी से अच्छी तरह भीग जाते हैं तो उसे अच्छी बरसात का संकेत माना जाता है। चारों ढेलों के ठीक से नहीं भीगने को खण्डित बरसात का संकेत माना जाता है। चंद्रहास पटेल कहते हैं कि मण्डला क्षेत्र के जनजातियों के लोग बादलों या प्रकृति नियंत्रित अन्य लक्षणों को देखकर भी पानी बरसने का अनुमान लगाते हैं। वे तदनुसार अपने असमतल या ऊंचे-नीचे खेतों में कोदों-कुटकी, मक्का, राई, रमतिला, धान आदि की फसल बोते हैं। जनजातीय समुदाय के वर्षा अनुमान हमारे देशज ज्ञान की धरोहर हैं, इसलिए उसका अध्ययन होना चाहिए।

4.5 वर्षा से वनों का रिश्ता
चोहरा की चौपाल में उपस्थित लोगों का कहना था कि वे जंगल और वर्षा को एक दूसरे का पूरक मानते है। उनका विश्वास है कि जंगल को नष्ट कर बरसात को पूरी तरह विश्वसनीय बनाना संभव नहीं है। जंगल की सलामती के लिए मिट्टी की आवश्यकता से भी परिचित हैं। चौपाल में उपस्थित लोग कहते हैं कि वृक्षों की सुरक्षा अनिवार्य है। यदि वृक्षों की कटाई अनियंत्रित हो, जंगल से पानी और मिट्टी का नाता टूट जाए तो कुछ सालों के बाद जंगल समाप्त हो जाता है। जमीन बंजर हो जाती है। धीरे-धीरे घास का पैदा होना भी कठिन होने लगता है। समूचा वन क्षेत्र बंजर हो रेगिस्तान बनने लगता है। समूचे बुंदेलखंड में प्राकृतिक संसाधनों के छीजने के कारण समस्याएं पनप रही हैं। मण्डला जिले की चौपालों में आए अधिकांश लोग मानते हैं कि उनके क्षेत्र की वर्षा का सीधा संबंध वनों/जंगलों से है। उनको लगता है कि घने जंगलों से बादल आकर्षित होते हैं। बादलों के आकर्षित होने से अच्छी बरसात होती है। जंगल काटने/घटने के कारण उनके क्षेत्र की बरसात का व्यवहार गड़बड़ा रहा है। बरसात का चरित्र बदलने के कारण, किसी साल कम तो किसी साल अधिक बरसात होती है। कई बार बाढ़ की स्थिति बनती है। बरसात के व्यवहार का सीधा असर खेती पर पड़ता है।

5 लोकसंस्कृति में जलविज्ञान और प्रकृति से जुड़ी कहावतें


5.1 लोक संस्कृति में जलविज्ञान
बुंदेलखंड की चौपालों और सम्पर्क सूत्रों के माध्यम से प्राप्त विचारों और उनके विवेचनाओं से लगता है कि बुंदेलखंड के समाज ने प्रकृति तथा स्थानीय जलवायु से तालमेल बिठाना, आजीविका, जलप्रबंध एवं जल प्रणालियों का सामाजिक मान्यता प्राप्त टिकाऊ और भरोसेमंद तंत्र विकसित किया था। यह तंत्र, लोकजीवन का अविभाज्य अंग और आजीविका का सुदृढ़ आधार था। वर्णित जलप्रबंध एवं जल प्रणालियों का तानाबाना इंगित करता है कि प्राचीन काल में पानी से जुड़ी सभी गतिविधियां, स्थानीय इको-सिस्टम का अभिन्न हिस्सा थीं। इसी कारण, बुंदेलखंड में स्थानीय इको-सिस्टम पर आधारित जलविज्ञान, लोक-संस्कारों तथा लोक संस्कृति द्वारा पोषित जन-जन का विज्ञान था।

मण्डला जिले की चौपालों में आए अधिकांश लोगों का कहना था कि उनकी जनजातीय लोक संस्कृति में जल को देवता के रूप में मानते हैं क्योंकि जल से ही खेती होती है, पानी पीने को मिलता है, धरती पर हरियाली होती है और अनाज पकता है। पेड़-पौधों में फल-फूल लगते है। जहां पर मीठा पानी नहीं हैं वहां पर महामारी फैल जाती है और जीव-जंतु मर जाते हैं।

5.2 प्रकृति से जुड़ी कहावतें
बुंदेलखंड में प्रकृति से जुड़ी सैकड़ों कहावतें हैं। इन कहावतों का क्रमिक विकास सैकड़ों साल पहले उस काल खंड में प्रारंभ हुआ होगा, जब सुसंस्कृत होते समाज ने पशुपालन और खेती को आजीविका का साधन बनाया था। इन कहावतों के पीछे पालतू पशुओं की उपयोगिता की समझ, मौसम विज्ञान, फसल विज्ञान, ज्येातिष, वनस्पति विज्ञान, भूजलविज्ञान एवं जलाशय विज्ञान इत्यादि का अत्यन्त सशक्त पक्ष मौजूद है। बुंदेलखंड की अधिकांश कहावतों में घाघ और भड्डरी का उल्लेख होता है। कहावतों के माध्यम से, घाघ और भड्डरी ने, खेती की प्रत्येक गतिविधि का रोडमैप दिया है। ये कहावतें, बुंदेलखंड सहित मध्यप्रदेश के हर गांव में कही और सुनी जाती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में, समाज का बहुत बड़ा तबका उन पर विश्वास करता है। खेती का बहुत-सा काम अभी भी उनके अनुसार होता है। माना जाता है कि बारानी खेती और वर्षा की भविष्यवाणी की चर्चा घाघ और भड्डरी की देशज कहावतों के बिना अधूरी है।

घाघ और भड्डरी की कहावतें, खेती के सम्पूर्ण परिदृश्य का विवरण देती हैं पर उनके पीछे के अन्तर्निहित सिद्धांतों का ब्यौरा अनुपलब्ध है। भारतीय विश्वविद्यालयों में भी घाघ और भड्डरी की अवलोकन आधरित कहावतों पर बहुत कम अनुसंधान हुआ है। इस कमी के कारण घाघ और भड्डरी परंपरागत ज्ञान को समझने और आधुनिक विज्ञान से उसका तार्किक रिश्ता जोड़ने में कठिनाई का अनुभव होता है। कहावतों से किसानों की अभिरूचि के कारण हमें लगता है कि आधुनिक विज्ञान और घाघ भड्डरी की कहावतों के पीछे के लोक विज्ञान के बीच संबंध स्थापित करने की आवश्यकता है। ज्ञात हो, घाघ और भड्डरी, पति पत्नी थे और घाघ ने बहुत-सी कहावतें भड्डरी को संबोधित कर कही हैं। हमारी टीम ने बुंदेलखंड अंचल के लोगों द्वारा सुनाई बहुत-सी कहावतों का संकलन किया और मध्यप्रदेश की जनपदीय कहावतें (2010) तथा रामलग्न पाण्डेय (1999) द्वारा लिखित घाघ भड्डरी की कहावतों का अध्ययन किया। बुंदेलखंडी कहावतों को तीन वर्गों में बांटकर उनमें छुपी वैज्ञानिकता को पेश किया है। कहावतों के प्रस्तावित प्रमुख वर्ग निम्नानुसार हैं-

1. नक्षत्रों से संबंधित कहावतें और उनका वैज्ञानिक पक्ष
2. महीनों से संबंधित कहावतें और उनका वैज्ञानिक पक्ष

3. अनुभव जन्य कहावतें और उनका वैज्ञानिक पक्ष

1. नक्षत्रों से संबंधित कहावतें
रोहिणी नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
रोहिन बरसै, मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय।
कहै घाघ सुन भड्डरी, स्वान भात नहीं खाय।।

यदि रोहिणी नक्षत्र में बरसात हो जाए, मृगशिरा नक्षत्र में खूब गर्मी पड़े और आद्रा नक्षत्र के कुछ दिन निकल जाए तो बहुत अच्छी बरसात होगी। इतना धान पैदा होगा कि कुत्ते भी भात नहीं खाएंगे। इस कहावत में कहा गया है कि भले ही रोहिणी नक्षत्र में बरसात हो जाए पर यदि मृगशिरा नक्षत्र में खूब गर्मी पड़े और आद्रा नक्षत्र के कुछ दिन बिना बरसात के निकल जाएं तो बाद में खेती को लाभ पहुंचाने वाली बहुत अच्छी बरसात होगी। यही इस कहावत का अवलोकन आधारित वैज्ञानिक पक्ष है।

पुष्य और पुनर्वसु नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
पुक्ख पुनर्वसु भरै न ताल। फिर बरसेगा लौट असाढ़।।

अर्थात पुष्य और पुनर्वसु नक्षत्र की बरसात से यदि स्थानीय तालाब नहीं भर जाए तो वे अगले साल ही भर पाएंगे। इस कहावत का संकेत है कि बुंदेलखंड अंचल में बरसात की प्रारभिक अवधि में तीव्रता अधिक तथा बाद की अवधि में बरसात की तीव्रता कम होती थी। इस कहावत में बरसात के चरित्र का वर्णन किया गया है, जो सही है।

जल विज्ञानी बताते हैं कि बरसात की तीव्रता के कारण रन-आफ अधिक होता है और जलाशयों के भरने की अच्छी संभावना होती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि यदि प्रारंभिक तेज बरसात के बावजूद स्थानीय तालाब नहीं भरे तो वे बाद की धीमी बरसात से नहीं भर पाएंगे। अर्थात वे अब अगले साल तक खाली रहेंगे। यह कहावत, बुंदेलखंड अंचल की पुष्य और पुनर्वसु नक्षत्र की वर्षा के व्यवहार को जाहिर करती है।

जो पुरवा पुरवाई पावै। झूरी नदिया नाव चलावे।।

पूर्वा नक्षत्र में यदि पुरवाई हवा चले तो इतनी बरसात होती है कि सूखी नदियों में भी नाव चलाने की नौबत आने लगती है। इस कहावत से संकेत मिलता है कि बुंदेलखंड अंचल में पूर्वा नक्षत्र से खूब तेज बरसात होती है।

चित्रा नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
जब बरसा चित्रा में होय। सारी खेती जाये सोय।।

चित्रा नक्षत्र की बरसात से खेती को बहुत नुकसान होता है और सारी खेती नष्ट हो जाती है। यह कहावत चित्रा नक्षत्र की वर्षा के प्रभाव को दर्शाती है।

चित्रा गेहूं आद्रा धान। न उनके गेरुई न इनके घाम।।

चित्रा नक्षत्र में गेहूं बोने से उसे गेरुआ नहीं लगता और आद्रा नक्षत्र में धान बोने से उसकी फसल अच्छी होती है। यह कहावत चित्रा नक्षत्र में गेहूं और आद्रा नक्षत्र में धान बोने के प्रभाव को दर्शाती है।

मघा नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
मघा न बरसै भरै न खेत। माई न परसै भरे न पेट।।

मघा नक्षत्र की बरसात से खेत उसी तरह संतृप्त होता है जिस तरह मां के हाथ से खाना खाने से पुत्र को तृप्ति होती है। यह कहावत मघा नक्षत्र की वर्षा के खेती पर संभावित प्रभाव अर्थात मिट्टी के संतृप्त होने को दर्शाती है।

चटका मघा पटकि गा ऊसर। दूध भात में परिगा मूसर।।

यदि मघा नक्षत्र में बरसात नहीं होने के कारण ऊसर भूमि सूख गई तो धान की सारी खेती बरबाद हो जाती है। उल्लेखनीय है कि ऊसर भूमि पर केवल धान और घास पैदा होता है। कहावत का संदेश है कि अवर्षा के कारण ऊसर भूमि पर घास नहीं होगी तो दूध नहीं होगा। धान नहीं होगा तो भात नहीं होगा। घाघ की इस कहावते में मूसर शब्द का प्रयोग घास और धान की संभावित हानि को दर्शाता है।

चित्रा, अश्लेषा और मघा नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
जो बरखा चित्र में होय। सगरी खेती जाये खोय।।

चित्रा नक्षत्र में बरसात होने से सारी खेती बरबाद हो जाती है।

जो कहुं मघा बरसै जल। सब नाजों में होगा फल।।

मघा नक्षत्र में बरसात होने से खेती संवर जाती है। परिणामस्वरूप बहुत अच्छी फसल होती है।

चिरैया में चीर कार,
असरेखा में टार-टार।
मघा में कांदो सार।।

अर्थात चिरैया (पुष्य) नक्षत्र में अगहनी धान का खेत थोड़ा बहुत जोत कर रोप दिया जाए तो ठीक रहता है। अश्लेषा नक्षत्र में ढेलों को हटाकर भी धान लगा दिया जाए तो काम चल जाता है परंतु मघा नक्षत्र में तो खाद डालकर बुआई करने से धान का अच्छा उत्पादन मिलता है। ये सभी कहावतें पुष्य और अश्लेषा नक्षत्रों की खेती की आवश्यकताओं और मघा नक्षत्र में खाद के उपयोग के प्रभाव को दर्शाती हैं। यही उनका वैज्ञानिक पक्ष है।

आद्रा नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावतें
आद्रा मांही जो बोबई साठी। दुख को मार निकारे लाठी।।

आद्रा नक्षत्र में साठ दिन में पकने वाली परंपरागत धान को बोने से उसकी फसल अच्छी होती है। यह कहावत आद्रा नक्षत्र की वर्षा के साठ धान (साठ दिन में पकने वाली धान) पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव को दर्शाती है।

आद्रा और हस्ति नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
आद्रा सूखी तीन गये, सन साठी और तूल।
हस्ति न बरसे सब गये अगित पिछली भूल।।

आद्रा नक्षत्र की अवर्षा से सन, साठी धान और कपास की परंपरागत खेती नुकसान होती है। इस कहावत का पहला हिस्सा आद्रा नक्षत्र की अवर्षा के प्रभाव को दर्शाती है। कहावत के दूसरे हिस्से मंे कहा है कि हस्ति नक्षत्र की अवर्षा से सभी परंपरागत फसलें नष्ट हो जाती हैं। यह कहावत आद्रा और हस्ति नक्षत्र की अवर्षा के परंपरागत फसलों पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को दर्शाती है।

हथिया पूंछ डोलावै, घर बैठे गेहूं आवे।।

अर्थात हस्त नक्षत्र में हुई थोड़ी-सी बरसात भी गेंहूं के लिए बहुत लाभदायक होती है। यह कहावत हस्ति नक्षत्र की वर्षा के गेहूं की फसल पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव को दर्शाती है। इस नक्षत्र के दौरान हुई बरसात से खेतों को नमी मिल जाती है। यही नमी गेहूं की बारानी खेती को सफल बनाने में सहयोग करती है।

स्वाति और विशाखा नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
जो कउं बरसे स्वात विसांत।
चले ना राटा बजै न तांत।।

स्वाति नक्षत्र और विशाखा नक्षत्र के अंत में बरसात होने से उस साल रहट नहीं चलती और कपास की फसल नहीं होती। यह कहावत स्वाति नक्षत्र और विशाखा नक्षत्र के आखिरी दिनों की हुई वर्षा के कुप्रभाव को दर्शाती है। यही उसका वैज्ञानिक पक्ष है।

स्वाति नक्षत्र से संबंधित बुंदेलखंडी कहावत
एक पानी जो बरसै स्वाति।
कुरमिन पहिरै सोने के पाती।।

इस कहावत में कहा गया है कि स्वाति नक्षत्र (23 अक्टूबर से 05 नवम्बर) में एक बार भी बरसात हो जाए तो इतनी अच्छी फसल होगी कि कुर्मी-किसान (खेती में पारंगत जाति) की स्त्री सोने के गहने पहनेगी। यह कहावत स्वाति नक्षत्र की वर्षा के सकारात्मक प्रभाव को दर्शाती है।

2. महीनों से संबंधित कहावतें
चोहरा चौपाल में महीनों से संबंधित अनेक कहावतें सुनाई गईं। बुंदेलखंड अंचल से संबंधित कुछ कहावतों का वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक पक्ष निम्नानुसार हैं-

चैत्र माह से संबंधित कहावतें
चैते बरषा आई। औ सावन सूखा जाई।।

इस कहावत में कहा गया है कि यदि चौत्र माह में यदि पानी बरसता है तो श्रावण माह में बरसात नहीं होगी। अर्थात श्रावण माह सूखा जाएगा।

एक बूंद जो चेत में परे।
सहस बूंद सावन की हरे।।

यदि चैत्र में पानी बरसता है तो श्रावण माह में एक हजार बूंदों की कमी हो जाती है। अर्थात श्रावण माह की वर्षा घट जाती है।

ऊपर वर्णित दोनों कहावतों का संबंध बुंदेलखंड की वर्षा के वितरण तथा चरित्र से है। मानसूनी हवाओं के तंत्र के विकास के लिए इस अंचल का गर्म होना आवश्यक है।

चैत मास दसवीं खडी, जो कहुं कोरा जाय।
चौमासे भर बादरा, भली भांति बरसाये।।

चैत्र माह की दसवीं को आकाश बादल रहित हो तो कहा जाता है कि वर्षा ऋतु में चारों माह बरसात होगी।

चौत चमकै बीजरी, बरसै सुधि बैसाख।
जेठे सूरज जो तपै, निश्चय बरसा भाख।।

यदि चैत्र माह में बिजली चमके, बैसाख माह में बरसात हो और ज्येष्ठ माह में खूब गर्मी पड़े तो वर्षा ऋतु में निश्चय ही अच्छी बरसात होगी।

जेठ माह से संबंधित कहावतें
चौदस पूनों जेठ की, बरसा बरसे जोय।
चौमासे बरसे नहीं, नदियन नीर न होय।।

यदि जेठ माह की चतुर्दशी एवं पूर्णिमा को बरसात होती है तो वर्षा ऋतु के चार माह पानी नहीं बरसता।

जेठ चले पुरवाई। सावन सूखा जाइ।।

यदि जेठ माह में पुरवाई हवा चलती है तो सावन माह में बरसात नहीं होगी। हमारी टीम का मानना है कि इस कहावत का संबंध जेठ माह में बहने वाली हवा की दिशा तथा वर्षा ऋतु के श्रावण माह में होने वाली बरसात की मात्रा से है। जेठ माह में पुरवाई हवा चलने का असर अंचल में बनने वाले कम दबाव के क्षेत्र पर पड़ता है।

जेठ वदी दसवीं दिन, जो शनि वासर होय।
पानी न होय धरनि पर, बिरला जीवै कोय।।

इस कहावत में कहा है कि यदि जेठ माह के कृष्ण पक्ष की दसवीं तिथि को शनिवार पड़ जाए तो कहा जाता है कि बरसात नहीं होगी और बहुत कम लोग जीवित बचेंगे। यह कहावत अकाल का संकेत देती है।

असाढ़ माह से संबंधित कहावत
असाढ़ आठैं अंधियारी, जो निकले चंदा जलधारी।
चंदा निकले बादर फोड़श् साढ़े तीन महिना वर्षा योग।।

यदि असाढ़ माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को बादलों के बीच से चंद्रमा निकले तो साढ़े तीन माह बरसात होगी।

सावन माह से संबंधित कहावत
सावन शुक्ला सप्तमी जो गरजै अधिरात।
बरसे तो सूखा पड़े, नही समौ सुकाल।।

यदि श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को अर्द्धरात्रि में बादलों की गर्जना के साथ-साथ बरसात भी हो तो माना जाता है कि समय अच्छा नहीं है और सूखा पड़ेगा।

सावन सुकला सप्तमी, गगन स्वच्द जो होय।
कहैं घाघ सुन भड्डरी, पुहुमी खेती होय।।

यदि श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन आकाश बादल रहित हो तो माना जाता है कि खेती की स्थिति अच्छी नहीं है।

सावन बदि एकादशी, जो तिथि रोहिणी होय।
खेती समया उपजै, चिंता करें न कोय।।

यदि श्रावण माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को जितने दण्ड रोहिणी नक्षत्र होगा, उतनी ही बरसात होगी।

सावन मास बहै पुरवाई।
बरधा बेचि बेसाहों गाई।।

यदि श्रावण माह में पुरवाई हवा चलती है तो बरसात की संभावना कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में खरीफ की फसल नहीं होगी, इसलिए किसान को बैल बेचकर गाय खरीद लेना चाहिए। इस कहावत का संकेत है कि खरीफ की फसल के खराब होने के कारण किसान को अपनी गुजर-बसर करने के लिए गाय खरीद लेना चाहिए।

भादों माह से संबंधित कहावत
भादों की छट चांदनी, जो अनुराधा होय।
ऊबड़ खाबड़ बोय दे, अन्न घनेरा होय।।

यदि भादों माह की शुक्ल पक्ष की छठवीं तिथि को अनुराधा नक्षत्र हो तो सभी खेतों में बुआई कर दो। बहुत अच्छी फसल होगी।

भादों मासै ऊजरी, लखौं मूल रविवार।
तो यों भाखे भड्डरी, साख भली निरधार।।

यदि भादों माह की शुक्ल पक्ष में रविवार को मूल नक्षत्र हो तो कवि भड्डरी का कहना है कि बहुत अच्छी फसल होगी।

कार्तिक माह से संबंधित कहावत
पंचमी कातिक शुक्ल की, जो बुधवारी होय।
बीस बिसै वृष्टि पड़े, वर्ष मनोहर होय।।

यदि कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष में बुधवार को पंचमी तिथि पड़े तो उस वर्ष अच्छी बरसात होगी। पूरा साल आनंद से बीतेगा।

अगहन माह से संबंधित कहावत
अगहन बदी आठे घटा, बिज्जू समेती जोय।

तो सावन बरसे भलौ, साख सवाई होय।।

यदि अगहन माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी का बादल घिर आएं और बिजली चमके तो मानना चाहिए कि सावन माह में अच्छी बरसात होगी।

मार्गबदी आठे घन दरसे।
तो महिना भर सावन बरसे।।

यदि अगहन माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को बादल दिखाई दें तो मानना चाहिए कि सावन में पूरे माह अच्छी बरसात होगी।

अगहन में सरबा भर।
फिर करबा भर।।

यदि अगहन माह में रबी की फसल को बरसात का थोड़ा भी पानी प्राप्त हो जाए तो उसका फल, अन्य माहों की तुलना में अच्छा होता है। इस कहावत का संबंध अगहन माह की बरसात का रबी की फसल पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव से है।

अगहन बरसे हून, पूस बरसे दून।
माघ बरसे सवाई, फागुन बरसे मूर गंवाई।।

यदि अगहन माह में बरसात होती है तो फसल अच्छी, पूस माह में बरसात होती है तो फसल दो गुनी, माघ माह में बरसात होती है तो फसल सवा गुनी और फाल्गुन माह में बरसात होती है मूल धन अर्थात बीज भी नहीं मिलता। यह कहावत, विभिन्न माहों में होने वाली बरसात के रबी फसल पर पड़ने वाले प्रभाव को दर्शाती है।

माघ माह से संबंधित कहावतें
माघ मास में हिम पडै, बिजली चमके जोय।
जगत सुखी निश्चय रहे, वृष्टि घनेरी होय।।

यदि माघ माह में ओला वृष्टि हो और आकाश में बिजली चमके तो निश्चित ही बरसात होगी। बरसात होने के कारण लोग खुश होंगे।

माघ में बादर लाल घिरें।
सांची मानों पाथर परैं।।

यदि माघ माह में आकाश में लाल रंग के बादल दिखाई दें तो निश्चय ही ओलावृष्टि होगी।

माघ पूस बहै पुरवाई।
तब सरसों को माहू खाई।।

यदि माघ और पूस माह में पश्चिमी हवा बहती है तो सरसों की फसल को माहू (फसल को खाने वाला कीड़ा) खा जाता है।

पूस माह से संबंधित कहावत
पानी बरसे आधे पूस। आधा गेहूं आधा भूस।।

यदि पौष माह के 15 दिन बीतने के बाद बरसात होती है तो आधा गेहूं और आधा भूसा प्राप्त होता है अर्थात गेहूं की फसल अच्छी होगी। यह कहावत बुंदेलखंड अंचल में पौष माह के 15 दिन बाद हुई बरसात के प्रभाव को दर्शाती है।

फागुन माह से संबंधित कहावत
फागुन मास चले पुरवाई तब गेहूं को गिरुवा धाई।
नीचे आद ऊपर बदरई, पानी बरसे पुनि-पुनि आई।।

यदि फागुन माह में पुरवाई हवा चलती है तो गेहूं को गेरुआ रोग लग जाता है। यदि नीचे आद्रता हो और आकाश में बादल हों तो बारंबार बरसात होती है। यह कहावत बुंदेलखंड अंचल में फागुन माह के मौसम के चरित्र की परिचायक है तथा गेहूं की फसल पर पुरवाई हवा के प्रभाव को दर्शाती है। कहावत का दूसरा भाग बादलों और आद्रता के सह-संबंध को प्रदर्शित करता है।

3. अनुभव जन्य कहावतें और उनका वैज्ञानिक पक्ष
चौहरा की चौपाल में एकत्रित लोगों खासकर प्रकाश जारौलिया का कहना था कि उनके अंचल के बुजुर्गों को सैकड़ों अनुभव जन्य कहावतें याद थीं। प्रकाश जारौलिया कहते हैं कि ये कहावतें लोगों को सही-गलत का भेद कराती हैं। इन कहावतों का जन्म कब हुआ यह तो उन्हें नहीं मालूम पर वे इतना जानते हैं कि ये कहावतें कई पीढि़यों से प्रचलन में हैं। उनका संबंध जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से है। उल्लेख है कि मध्यप्रदेश के सभी अंचलों में सैकड़ों अनुभवजन्य कहावतें कही और सुनी जाती हैं पर उनमें बोली के अतिरिक्त कोई बुनियादी अंतर नहीं है।

पशुविज्ञान पर आधारित अनुभव जन्य कहावतें
बुंदेलखंड में प्रचलित कहावतों में दुधारू पशुओं की दूध देने की क्षमता और हल में जोतने वाले बैलों के स्वभाव, खेती से जुड़े गुणों और शारीरिक गठन के आधार पर उनकी उपयोगिता का विवरण दिया गया है। उक्त वर्ग की कुछ कहावतें जो डा. ओम प्रकाश चौबे ने संकलित कीं, निम्नानुसार हैं-

पतरी पिंडरी मोट रान पूंछ होय भुंई के परमान।
जाके होवे ऐसी गाय, होय दुधारू सबको भाय।
मोटी खाल दुधारू जान, पतरी खाल दूध की हानि।।

जिस गाय की पिंडली पतली, रान मोटी तथा पूंछ धरती को स्पर्श करती हो, वह अधिक दूध देने वाली होती है। जिस गाय की चमड़ी मोटी होती है वह दूध देने वाली और जिसकी त्वचा पतली होती है, वह कम दूध देने वाली होती हैं।

भूरी भैंस दो कण्ठा। काली के दूध समान हो मठा।।

भूरी भैंस के गले में यदि दो कण्ठा हों, उसका मठा (छाछ) भी भैंस के दूध के समान होता है।

मियनी बैल बड़ा बलवान। तनकि देर में करिहै ठाढ़े कान।।

मियनी बैल बहुत ताकतवर होता है। वह कुछ ही क्षण में कान खड़े कर लेता हे अर्थात बहुत चौकन्ना होता है।

नीला कन्धा बैगन खुरा। कभी न निकले बरघा बुरा।।

जिस बैल के कंधे का रंग नीला और खुरों का रंग बैंगनी हो, वह बैल कभी भी बुरा नहीं निकलता।

बैल मिलै कजरा। दाम दिऔ अगरा।।

यदि कजरा बैल मिलता है तो उसे अधिक दाम देकर भी खरीदना अच्छा होता है।

बैल मिलै लौह बेरिया। भई कुडैरी थैलिया।।

यदि लाल रंग का बैल मिले तो तुरंत खरीद लेना चाहिए।

लंबी पूंछ छोटे कान। ऐसे बरद मेहनती जान।।

लंबी पूंछ और छोटे कान वाला बैल मेहनती होता है।

छोटा मुंह ऐंठा कान। यही बरद की है पहचान।।

छोटे मुंह और उठे हुए कानों वाले बैल अच्छे होते हैं।

बड़सिंगा लनि लीजो मोल। कुएं में डारौ रुपया खोल।।

बड़े सिंग वाला बैल नहीं खरीदना चाहिए। उसकी खरीद पर किया गया खर्च बेकार होता है।

बड़ी मुतारें लंबे कान। हर देखे से तजे पिरान।।

जिस बैल की पेशाब की इन्द्रियां बड़ी और झूलती हुई होती हैं उसे नहीं खरीदना चाहिए। वह बैल मेहनती नहीं होता।

तीन पांव रंग एक हों, एक पांव रंग एक।
घर आये संपत्ति घटे, पिया मरे परदेश।।

जिस घोड़े के तीन पैर एक रंग के और चौथा पैर अन्य रंग का हो तो वह घोड़ा अशुभ होता है। उसके कारण धन और जन की हानि होती है।

हमने पशुओं से संबंधित कहावतों के बारे में भारतीय स्टेट बैंक आफ इंडिया के पूर्व मुख्य तकनीकी अधिकारी डा. एसजी कुलकर्णी से चर्चा की। डा. कुलकर्णी मूलतः पशु चिकित्सक हैं। पशुओं के गुणों को बताने वाली कहावतों के बारे में डा. कुलकर्णी का स्पष्ट मत था कि इन कहावतों के पीछे लंबे समय का अवलोकन है। यह अवलोकन एक ही प्रजाति के पशुओं को उनके गुणों के आधार पर, वर्गीकृत करता है तथा उनकी उयुक्तता या अनुपयुक्तता को दर्शाता है। डा. कुलकर्णी के अनुसार देशज कहावतों में वर्णित प्राचीन भारत में विकसित पशुविज्ञान के दृष्टिबोध को दर्शाता है। वे कहते हैं कि यह विशेषज्ञता पाश्चात्य पशुविज्ञान में नहीं दिखती।

आकाश में दिखने वाले संकेतों पर आधारित अनुभव जन्य कहावतें
दिन को बादर रात को तारे। चलो कंत जहं जीवें बारे।।

यदि बरसात के मौसम में दिन में बादल और रात्रि में तारे नजर आएं तो किसी की स्त्री अपने पति से कहती है कि अकाल के लक्षण दिख रहे हें इसलिए हम ऐसी जगह चलें जहां बच्चों के जीवित रहने की व्यवस्था हो सके। यह कहावत बरसात के मौसम में आकाश में दिखने वाले लक्षणों के आधार पर अकाल की संभावना को इंगित करती है।

लाल पियर जब होय अकास।
तब नहीं बरखा की आस।।

यदि आकाश का रंग लाल पीला होने लगे तो बरसात की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। यह कहावत बरसात के मौसम में आकाश में दिखने वाले रंगों के आधार पर बरसात की समाप्ति को इंगित करती है।

तीतर बरनी बादरी, विधवा काजर रेख।
वह बरसै वह घर करै, कहैं भड्डरी देख।।

तीतर बरनी बादरी, रहै गगन पर छाय।
कहैं घाघ सुन भड्डरी, बिन बरसे ना जाय।।

यदि तीतर (पक्षी) के रंग के बादल आसमान में छाए हों तो घाघ कवि अपनी स्त्री से कहता है कि हे भड्डरी, ये बादल बिना पानी गिराए नहीं जाएंगे। यह कहावत, वायुमंडल में तीतर के रंग के बादलों के वर्षा संबंधी व्यवहार पर आधारित है जिसे समाज ने कहावत के रूप में पेश किया है।

सुक्कर केरी बादरी, रही शनीचर छाय।
तो यों भाखे भड्डरी, बिन बरसे नहीं जाय।।

यदि शुक्रवार को आकाश में छाए बादल, शनिवार तक छाए रहें तो भड्डरी का कहना है कि वे बादल बिना पानी गिराए नहीं जाएंगे। यह कहावत, वायुमंडल में शुक्रवार से शनिवार तक छाए बादलों के वर्षा-संबंधी व्यवहार पर आधारित है, जिसे समाज ने, अवलोकन आधारित कहावत के रूप में पेश किया है।

भारतवर्ष की मौसम संबंधी कहावतों के बारे में पहला अध्ययन भारतीय मौसम विभाग द्वारा किया गया था। यह अध्ययन इंडियन जर्नल आफ मीटियोरालाजी एन्ड जियोफिजिक्स (खंड 4, जनवरी 1953, क्रमांक 1) में छपा था। उपर्युक्त जर्नल में छपे संपादकीय से ज्ञात होता है कि सन् 1948 में भारतीय कहावतों का अध्ययन करने के लिए वीवी. सोहनी की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई थी। इस कमेटी ने तमिल, पंजाबी, गुजराती, कन्नड़, बांग्ला, मलायालम, तुलुगू, हिन्दी ओडिशी, मराठी और असमिया भाषाओं में कही जाने वाली 5200 से अधिक कहावतों का संकलन किया था। इन कहावतों में बृहत्संहिता में उपलब्ध 204 श्लोक सहित कुल 567 कहावतों का संबंध मौसम से था। कमेटी ने 567 कहावतों को 37 वर्गो में बांट कर उनका सांख्यिकी अध्ययन किया। आजादी के बाद यह संभवतः पहला अध्ययन था। इस अध्ययन में जो कहावत जिस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रचलन में थी, उसका चयन किया गया। तदुपरांत निकटतम मौसम केन्द्रों से लंबी अवधि के मौसम संबंधी आंकड़े जुटाए गए और सांख्यिकी की बेतरतीब सर्वे विधि से अध्ययन किया। कमेटी की रिपोर्ट एस. बसु द्वारा उल्लिखित जर्नल में वर्ष 1953 में प्रकाशित हुई थी। एस. बसु का अभिमत था कि-

While it may be of academic interest to verify each one of the vast store of folk-lore, the preliminary examination reported by the committee did not lend encouragement to further efforts to prove or disprove every one of the large number of items collected.

एस. बसु ने अवलोकन या अनुभव आधारित कहावतों को सांख्यिकी विधि से किए अध्ययन में खारिज किया। कृषि वैज्ञानिक भी कहावतों पर बहुत विश्वास नहीं करते।

चौपालों में लोगों का कहना था कि भारतीय पद्धति में अनुभव आधारित समझ को सम्प्रेषित करने के लिए सूचना, शिक्षा तथा संचार जैसी आधुनिक पद्धतियों की आवश्यकता नहीं थी। अनुभव के सम्प्रेषण के लिए कहावतें, गीत, मुहावरे, वर्जनाएं इत्यादि गढ़ी जाती हैं जो अपनी बात अनेक तरीकों से सम्प्रेषित करती हैं। मौसम या अनुभव या नक्षत्र आधारित कहावतों का सम्प्रेषण आज भी प्रभावी है।

यह बिडम्बना ही कही जाएगी कि मौसम की भविष्यवाणियों की आधुनिक पद्धति में भारतीय विधियों के प्रति अनदेखी या उपेक्षा का भाव देखा जाता है।

जीवों और वनस्पतियों के व्यवहार पर अनुभव आधारित कहावतें
बोली गोह फुली बन कांस।
अब नाहीं बरखा की आस।।

जब गोह के बोलने की आवाज सुनाई देने लगे और जंगल में कांस फूल जाएं तो समझ जाओ कि वर्षा ऋतु खत्म होने वाली है। इस कहावत के अनुसार गोह का चिल्लाना और कांस के फूलने का समय वर्षा ऋतु की समाप्ति से मेल खाता है।

उलटे गिरगिट ऊंचे चढ़े।
बरसा होई भूंइ जल चढ़े।।

जब गिरगिट उल्टा होकर ऊपर की ओर चढ़े तो समझो बरसात होगी और धरती पर पानी की मात्रा बढ़ेगी।

कलसे पानी गरम है, चि़ड़िया न्हावे धूरि।
अंडा लै चींटी चढ़ै, तो बरखा भरपूर।।

यदि कलश (धातु के बर्तन) में रखा पानी गुनगुना लगे, चिड़िया (गौरैया पक्षी) धूल में स्नान करने लगे तथा चीटियां अपने अंडे लेकर ऊंचे स्थान की ओर जाने लगें तो मानना चाहिए कि अच्छी बरसात होने वाली है। यह कहावत, वायुमंडल में पानी की भाप की वृद्धि की परिचायक है। भाप की वृद्धि के कारण उमस बढ़ती है। ये लक्षण वर्षा की संभावना को इंगित करते हैं। इसके पीछे समाज का अनुभव है जिसे कहावत के रूप में पेश किया है।

आकार कोदो, नीम जवा।
गाडर गेहूं, बेर चना।।

जिस साल मदार (अकौआ) खूब फूले-फले तो उस साल कोदों अच्छी, जिस साल नीम खूब फूले-फले तो जौं की फसल अच्छी, जिस साल गादर घास अधिक पैदा हो उस साल गेहूं और जिस साल बेर की फसल अच्छी हो उस साल चने की अच्छी पैदावार होगी। यह समाज का अनुभव है जिसे कहावत के रूप में पेश किया गया है।

बुआई और निंदाई से संबंधित अनुभव आधारित कहावतें
बोओ गेहूं काट कपास। ना हो ढेला ना हो घास।।

कपास की फसल काट कर गेहूं की बोनी करना चाहिए। ध्यान रहे कि खेत में खरपतवार और घास नहीं होना चाहिए।

कातिक बोवै अगहन भरे। ताको हाकिम फिर का करै।।

यदि कार्तिक माह में गेहूं बो दिया और अगहन माह में उसकी सिंचाई कर दी तो लगान चुकाने में कठिनाई नहीं होगी। भरपूर फसल होगी।

अदरा में जो बोवै साठी। दुःखै मार निकारै लाठी।।

जो किसान आद्रा नक्षत्र में साठी धान बोता है वह अच्छी फसल पाता है और उसके दुख दूर हो जाते हैं। अर्थात साठ दिन वाली धान की बोआई के लिए सही नक्षत्र आद्रा नक्षत्र है। आद्रा नक्षत्र में बोनी करने से साठी धान की खूब पैदावार होती है।

जो कपास को नाहीं गोड़ी।
उसके हाथ न आवै कौड़ी।।

जो किसान कपास की फसल की गुड़ाई नहीं करेगा उसके हाथ में पैसा नहीं आएगा। अर्थात कपास की अच्छी पैदावार लेने के लिए गुड़ाई आवश्यक है।

गहिर न जोतै बोवै किसान।
सो घर कोठिला भरै धान।

जो किसान उथली जुताई कर धान बोता है उसका अन्न-भंडार अच्छी तरह भर जाता है। अर्थात धान का उत्पादन खूब होता है।

उत्तर चमकै बीजुरी, पूरब बहती बाउ।
घाघ कहें सुन भड्डरी, बरधा भीतर लाउ।।

यदि उत्तर दिशा में बिजली चमकती है और पूर्व की हवा बहती है, तो घाघ कवि कहते हैं कि हे भड्डरी, बैलों को घर के अंदर ला। जल्दी ही बरसात होगी।

रात दिना घम छांही।
घाघ कहैं तब वर्षा नाहीं।।

यदि दिन तथा रात्रि उमें कभी बादल दिखें और कभी नहीं दिखें तो घाघ कवि कहते हैं कि अब बरसात का मौसम गया।

यदि दिन में गरमी रात को ओस।
कहैं घाघ बरसा सौ कोस।।

इस कहावत के अनुसार यदि दिन में गर्मी और रात्रि में ओस गिरे तो घाघ कवि कहते हैं कि बरसात बीत गई। हमारा मानना है कि इस कहावत के पीछे बरसात के बाद के दिनों की गर्मी और ओस पड़ने से जुड़ा अनुभव है जिसे समाज ने कहावत के रूप में पेश किया है।

चंद्रहास पटेल ने जो कहावतें भेजी हैं; निम्नानुसार हैं-

शुक्रवार की बदली रही शनिचर छाय।
ये तो निश्चित मानलो बिन बरसे नहीं जाये।।

यदि बरसात के दिनों में शुक्रवार को आकाश में बादल घिरते हैं तो अवश्य बरसात होगी। वे बिना पानी बरसाए बिदा नहीं होंगे। यह कहावत सभी अंचलों में कही और सुनी जाती है।

गौरैया नहाये धूर। पानी आये जरूर।।

यदि बरसात के दिनों में गोरैया (चिड़िया) धूल में लोटने लगती है तब अवश्य ही पानी गिरता है। यह कहावत सभी अंचलों में कही और सुनी जाती है।

चंद्रहास पटेल कहते हैं कि जब धान और कोदों की फसलों को पानी की आवश्यकता होती है और पानी नहीं बरसता, तो लोग बरसात को बुलाने के लिए मेंढक से गुहार (मेढ़क रानी पानी दे, धान कोदो पाकन दे) लगाते हैं। वे कांस को फूलता देखकर बरसात की विदाई और निम्बोली (नीम का पका फल) के गिरने को अच्छी बरसात का संकेत मानते हैं। उल्लिखित सभी संकेत अनुभव आधारित हैं। चंद्रहास पटेल का मानना है कि भारतीय विज्ञान की अभिव्यक्ति, लोक-व्यवहार में प्रदर्शित होती है। यह विशेषता पाश्चात्य विज्ञान में नहीं है। पाश्चात्य विज्ञान की अभिव्यक्ति विषय की किताबों, आलेखों और शोध पत्रों तक सीमित है।

जल चौपाल, सप्रे संग्रहालय, संस्करण 2013

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

आओ बनायें पानीदार समाज

2

मध्य प्रदेश का सांस्कृतिक परिचय

3

निमाड़ की चौपाल

4

बघेलखंड की जल चौपाल

5

बुन्देलखण्ड की जल चौपाल

6

मालवा की जल चौपाल

7

जल चौपाल के संकेत

 

 

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