बुंदेलखंड के पठारों में मृदा एवं नमी संरक्षण

भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसका प्रमुख व्यवसाय है कृषि एवं पशुपालन। कृषि पर निर्भर जनसंख्या की आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं है जिसका प्रमुख कारण है खेती की अनुपयुक्तता। इसका अर्थ है - 60 से 80 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि पर सिंचाई के साधनों की कमी, खेती योग्य भूमि का ढालू होना, समुचित खाद एवं उन्नत किस्म के बीजों का समय पर उपलब्ध न होना, वर्षा की अनियमितता आदि। सामान्यत: सूखी अवस्थाओं में सीमान्त बारानी क्षेत्रों में प्राय: कम, अस्थिर और लाभहीन उत्पादन होता है। इस प्रकार की भूमि की उत्पादन क्षमता की किसी-न-किसी तरह से ह्रास होता है। जनसंख्या वृद्धि के कारण ऐसे भूमि को उपयोग में लाना बहुत आवश्यक हो गया है। पेड़ों की निरन्तर कटाई से वानस्पतिक परत में कमी हो रही है जिससे भूमि का कटाव होता है जिसके कारण पर्यावरण का संतुलन भी बिगड़ रहा है।

बुंदेलखंड में झांसी, ललितपुर, हमीरपुर, बांदा तथा जालौन जिले आते हैं। इनका कुल क्षेत्रफल लगभग 29.6 लाख हेक्टेयर है परन्तु केवल 18.9 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर ही खेती की जाती है। जबकि बुंदेलखंड में कुल 1.73 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर उद्यान लगे हुए हैं। जल संसाधनों की कमी, कम एवं असामयिक वर्षा, मिट्टी का उपयुक्त न होना, अत्यधिक ढालू एवं पथरीला होने से यह क्षेत्र बहुत पिछड़ा हुआ है।

बुंदेलखंड में मुख्यत: दो प्रकार की मिट्टी पाई जाती है।


1- काली मिट्टी :
काली मिट्टी में दो प्रमुख वर्ग की मिट्टी पाई जाती है - काबर और मार। इस तरह की मिट्टी मेंजल धारण क्षमता बहुत अधिक है और उत्पादन क्षमता भी अत्यधिक है।

2- लाल मिट्टी :
इस मिट्टी को राकर और परबा दो समूह में विभक्त किया जा सकता है। इस मिट्टी में जल धारण क्षमता एवं उत्पादन क्षमता बहुत कम है। इस मिट्टी की वृहद संरचना के कारण इसमें भू-कटाव बहुत अधिक होता है इसलिए कम ढाल पर भी भूमि एवं जल का संरक्षण आवश्यक है। शुष्क क्षेत्रों में पथरीली, बंजर तथा पठारों आदि पर फलदार वृक्ष जैसे नींबू, बेर, आंवला, अमरूद, अनार आदि आसानी से उगाए जा सकते हैं क्योंकि इनकी जल मांग भी अधिक नहीं होती। इस तरह की परती भूमि को उपयोग में लाने के लिए उद्यानीकरण आवश्यक है। ढालू भूमि पर मृदा एवं जल संरक्षण की उपयुक्त विधियाँ अपनाकर ऐसी भूमि का समुचित उपयोग ही नहीं होगा बल्कि फलों की समुचित पैदावार करके बुंदेलखंड क्षेत्र फलों को पैदा करने में आत्मनिर्भर भी बनेगा। बागों में मृदा व जल संरक्षण को मुख्यत: दो भागों में बांटा जा सकता है। यांत्रिक विधि द्वारा मृदा व जल संरक्षण ऊबड़-खाबड़ एवं पथरीली भूमि का यथा-संभव समतलीकरण करना आवश्यक होता है क्योंकि वर्षा जल अपने साथ पर्याप्त मात्रा में मिट्टी आदि को बहा ले जाता है। ढाल की प्रतिशत की अपेक्षा जल दो गुणी गति से बहता है जिससे ऊपरी सतह को बहा ले जाने के साथ-साथ खेतों में बड़े-बड़े खड्ढे आदि बन जाते हैं। कभी-कभी तो यह इतना विकराल रूप धारण कर लेता है कि बागों के पेड़-पौधे आदि गिर जाते हैं। हालांकि बुंदेलखंड क्षेत्र में पथरीली जमीन होने से समतलीकरण समान रूप से नहीं हो पाता।

मेड़बन्दी करना


समतलीकरण के पश्चात यह बहुत ही आवश्यक है कि खेत के चारों ओर मजबूत मेंड़ बना दी जाए ताकि भूक्षरण रोका जा सके। मेड़ों के परिणामस्वरूप वर्षा जल भूमि के अन्दर अधिक-से-अधिक मात्रा में चला जाता है और इस नमी का प्रयोग पौधे की गर्मी में आसानी से कर सकते हैं। मेड़बन्दी से न केवल वर्षा जल को रोकने में सफलता मिलती है बल्कि बुंदेलखंड में प्रचलित छुट्टा जानवरों की प्रथा का समाधान भी इस विधि द्वारा काफी हद तक किया जा सकता है। मेड़ों के ऊपर बाड़ कांटेदार पौधों, फसलों व पेड़ों को उगा कर उन्हें छुट्टा जानवरों से बचाया जा सकता है।

विभिन्न तरह की ढाल पर समतलीकरण एवं मेंड़बन्दी पर लागत व्यय

ढाल प्रतिशत

पुरानी विधि द्वारा लागत

(रू. प्रति हेक्ट.)

नई तकनीक द्वारा लागत (रू. प्रति हेक्ट.)

बचत/लाभ

(रू. प्रति हेक्ट.)

1.

4319

3504

815

2.

5124

4809

815

3.

5887

5072

815


पहाड़ों के निचले छोर पर विभिन्न नालियों को बनाना अत्यन्त आवश्यक है जिससे कि वर्षा का एकत्रित जल बिना कटाव किए वॉटरशेड के निचले भाग में पहुंच सके। साथ ही साथ ढाल की विपरीत दिशा में बहाव होने से वर्षा जल अधिक देर तक नाली में रहता है और जमीन पर्याप्त मात्रा में उसे सोख लेती है। इससे सूखे एवं जल के नष्ट होने, दोनों समस्याओं का समाधान आसानी से हो सकता है।

कंटूर पर स्टेगर्ड ट्रेंचेज बनाना/खोदना


जो स्थान बहुत अधिक ढलान वाले हैं और उन्हे समतल करना भी आसान नहीं है, वहां कंटूर पर स्टेगर्ड तरीके से गड्ढे खोदने चाहिए। इन गड्ढों के निचले हिस्से में फलदार वृक्षों का रोपण करना चाहिए। इस विधि से निम्नलिखित लाभ होते हैं:-

1. अधिक ढाल वाली पहाड़ी छोटे-छोटे हिस्सों में बट जाती है तथा स्टेगर्ड ट्रेंचेज लघु संचयन पांड का काम करती हैं।
2. खोदी हुई मिट्टी गड्ढे के निचले हिस्से पर रखने से उसमें काफी समय तक नमी बनी रहती है जो पौधों को मिलती है।
3. स्टेगर्ड ट्रेंचेज खुद जाने से बरसात का पानी तीव्र गति से बहने की बजाय मंद गति से बहता है जिससे मृदा का कटाव रूक जाता है और जल का संरक्षण होता है।
4. इस प्रकार की सॉयल वर्किंग विधि से पौधे लगाने से उनकी तीव्र वृद्धि होती है जो कि ढालू पहाड़ियों पर वानस्पतिक रोक (वेजिटेटिव बैरियर) का काम करती हैं तथा मृदा के कटाव को स्थाई रूप से रोकती है।

बुंदेलखंड में कम वर्षा तथा उसकी अनियमितता को देखते हुए वर्षा जल को तालाब अथवा गड्ढों में इकट्ठा करने की प्रक्रिया को जल एकत्रीकरण कहते हैं। एकत्रित हुए जल का प्रयोग सूखे के समय अथवा रबी के मौसम में किया जा सकता है। एक जलाशय में 6 हे.मी. जल इकट्ठा करके लगभग 10-15 हेक्टेयर भूमि में कम से कम दो सिंचाईयां की जा सकती हैं। जल के बहाव पर नियन्त्रण करने के लिए नालियों में छोटे-छोटे बांध जैसे बना देने चाहिए। निचले स्थानों में जल इकट्ठा करने की विधि को 'सबमरजेंस बंधीज' कहते हैं। इस पद्धति द्वारा भूमि एवं जल संरक्षण के साथ-साथ जल इकट्ठा करके तथा उसका उचित समय में उपयोग करके कृषि उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है। इस विधि से फसलों में बरसात में इकट्ठे किए हुए जल के उपयोग से होने वाली उपज के अन्तर को नीचे तालिका मे दर्शाया गया है।

फसलों की उपज पर वर्षा जल के एकत्रीकरण एवं उसे उपयोग का प्रभाव

फसल

उपज (कुल/हेक्टेयर)

असिंचित

सिंचित

ज्वार

14.7

17.0

मक्का

22.7

30.4

अरहर

3.9

6.3


स्त्रोत : प्रोसीडिंग समर इंस्टिटयूट देहरादून, 1991 पृष्ठ 29

वानस्पतिक रोक (वेजिटेटिव बैरियर)


वानस्पतिक रोक द्वारा मृदा में वर्षा जल को रोकना एक आधुनिक विधि है। इसके अन्तर्गत मेड़ों के बगल व ऊपर घास लगाने से बहाव को कम किया जा सकता है। इससे भूमि की ऊपरी परत बहने से बच जाती है। मेड़ों पर लगी घास को काटकर पशुओं को खिलाया जा सकता है। इससे चारे के साथ-साथ मृदा एवं जल संरक्षण भी होता है। प्रयोगों के आधार पर यह तय हुआ है कि घासों की वानस्पतिक रोक मृदा एवं जल संरक्षण के लिए उपयुक्त पाई गई है।

कुल जल बहाव (मि.मी.)

जल बहाव का

रोक (प्रतिशत)

ऊपज (टन/हैक्ट.)

1- यांत्रिक विधि

58.6

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