भारत में आपदा प्रबन्धन संरचना

भारत की भौगोलिक, जलवायुगत और जनसांख्यिकीय स्थितियाँ मिलकर इसे दुनिया का सर्वाधिक आपदा सम्भावित क्षेत्र बनाती है।

विशाल हिमालय दुनिया की सबसे लम्बी पर्वत शृंखला होने के साथ-साथ सबसे कम उम्र की पर्वत शृंखला भी हैं इसका अब भी विकास हो रहा है और पूरब और पश्चिम में स्थित दो प्रमुख दो रेखाओं के साथ यह अब भी भूगर्भीय चट्टानी गतिविधियों को समायोजित कर रहा है और गैर-ध्रुवीय क्षेत्र में सर्वाधिक मात्रा में हिमभण्डार का बोझ उठाए हैं। यह हिमाच्छादित क्षेत्र भारत के उत्तर में लगभग ढाई हजार किलोमीटर में फैला हुआ है। सिन्धु, गंगा और ब्रह्मपुत्र का बेसिन समूचे पर्वत क्षेत्र में तीन से छह सौ कि.मी. भीतर तक फैला हुआ है। ये नदियाँ अपने विस्तृत जलग्रहण क्षेत्र से संसार के सर्वाधिक लम्बे और घनी आबादी वाले मैदानी क्षेत्र में पानी के साथ-साथ मिट्टी और गाद भी लेकर आती हैं। इसी प्रकार प्रायद्वीपीय भारत के किंचित हिस्से भी अपनी भूगर्भीय तथा जलीय संरचना का बोझ उठा रहे हैं। इनकी वजह से भारत के कुल भू-क्षेत्र के लगभग 60 प्रतिशत में भूकम्प और भू-क्षरण का खतरा पैदा हो जाता है तथा लगभग 4 करोड़ हेक्टेयर भू-क्षेत्र जो इसके कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 8 प्रतिशत है, में नदियों के उफान और बाढ़ की सम्भावना बनी रहती है। पाँच लाख अथवा इससे अधिक आबादी वाले 35 प्रमुख नगर चौथे या पाँचवें दर्जे के भूकम्प सम्भावित क्षेत्र में स्थित है जहाँ रियेक्टर स्केल पर छह अथवा अधिक डिग्री की तीव्रता वाले भूकम्प की सम्भावना बनी हुई है।

आपदा प्रबन्धन अधिनियम के तहत दो प्रकार के कोष बनाए गए हैं- राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया कोष एवं राष्ट्रीय आपदा निराकरण कोष। ये कोष केन्द्र, राज्य तथा जिला स्तर पर बनाए गए हैं ताकि आपदाओं के समूचे चक्र से व्यापक रूप से निबटा जा सके।पूर्वोत्तर के कुछ हिस्से विश्व की सबसे अधिक वर्षा वाले क्षेत्र हैं जबकि पश्चिमोत्तर भारत के कुछ हिस्से सबसे कम वर्षा वाले इलाके हैं। इसी तरह संसार के सबसे ठण्डे इलाकों में से कुछ हिमालयी क्षेत्र में स्थित हैं जबकि थार रेगिस्तान का क्षेत्र संसार के सबसे गर्म इलाकों में शुमार होता है। वर्षा और जलवायु में इस भारी अन्तर के कारण भारत के अनेक अंचलों में सूखा, बाढ़, धूलभरी आँधी, बादल फटने, चट्टानें खिसकने, लू और शीतलहरी जैसे विविध प्रकार के खतरों का प्रकोप होता रहता है और जान-माल की क्षति होती रहती है। देश में अनेक सिंचाई परियोजनाएँ चल रही हैं बावजूद इसके हमारी साठ प्रतिशत धरती पर सूखे की सम्भावना बनी रहती है। इनमें से आधी भूमि तो गम्भीर सूखाग्रस्त इलाका है जहाँ वार्षिक वर्षा 750 मि.मी. से भी कम होती है। लगभग 83 हजार कि.मी. तटीय प्रदेश में मानसून के पहले और बाद के समय में आँधी, तूफान, पानी चढ़ने तथा डूबने की सम्भावना बनी रहती है।

ग्लोबल वार्मिंग की वजह से जलवायु में लगातार परिवर्तन हो रहा है जिसकी वजह से इस तरह की घटना भी लगातार बढ़ रही है। दिसम्बर 2004 में हिन्द महासागर में आई सुनामी ने दिखा दिया है कि भारत से दूर किसी इलाके में समुद्र की गहरी सतह में आए भूकम्प भी किस प्रकार हमारी भूमि पर जान-माल को भारी नुकसान पहुँचा सकते हैं। वैज्ञानिक गुजरात तट की ओर से भी ऐसी ही सुनामी की चेतावनी पहले ही दे चुके हैं।

प्राकृतिक आपदाओं की इस भीड़ के अलावा मानव-निर्मित आपदाओं की भी लम्बी सूची है। इनमें से कुछ नियमित रूप से और देश के विभिन्न इलाकों में घटित होती रहती हैं। सड़क दुर्घटनाएँ, जच्चा मृत्यु, कुपोषण, जल एवं वायु प्रदूषण आदि के कारण जीवन की भारी क्षति होती है लेकिन अचानक घटित न होने की वजह से इनको लेकर वह हलचल नहीं देखी जाती जो प्राकृतिक आपदाओं, आग लगने, मकान गिरने, बम धमाके आदि भी अपदाओं की सूची में शामिल हैं और इनकी वजह से सामान्य प्रशासन तथा सामाजिक-आर्थिक तन्त्र पर दबाव काफी बढ़ जाता है। इन खतरों में आणविक, जैविक और रासायनिक आपदाओं के साथ-साथ अब एवियन फ्लू जैसी महामारियाँ भी जुड़ गई है।

आश्चर्य तो इस बात का है कि आजादी की गुजरी अर्धशती के दौरान नियोजित विकास के बावजूद और इस विकास की गति तेज करने के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के इस्मेमाल के बावजूद भारत में आपदा प्रबन्धन के मामले में जननीति अभी भी जानलेवा बनी हुई है। अब तक आपदाओं को समन्वित और प्रभावी तरीके से रोकने और उन्हें घटित न होने देने की शायद ही कोई गम्भीर कोशिश की गई हो। सारा जोर आपदा घटित होने के बाद राहत और पुनर्वास कार्यों पर लगाया जाता रहा राज्यों में आपदओं की देखरेख राजस्व विभाग का एक इकाई करता है जिसके प्रमुख को राहत आयुक्त कहा जाता है। केन्द्र में आपदा प्रबन्धन की राष्ट्रीय स्तर पर केन्द्रीय संस्था कृषि एवं सहकारिता मन्त्रालय का सूखा राहत विभाग बना हुआ है। आपदा प्रबन्धन के लिए कोष उपलब्ध कराने वाले संगठन का नाम अब भी आपदा राहत कोष ही है जिसका प्रतीकात्मक महत्त्व है।

भारत में आपदा प्रबन्धन संरचना 2बीती सदी के आखिरी दशक और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक की चार विनाशकारी आपदाओं में 1993 और 2001 में क्रमशः लातूर और भुज में आए भूकम्प, 1999 का उड़ीसा का चक्रवात तथा 2004 में हिन्द महासागर में आए सुनामी की गिनती की जाती है। इनमें से प्रत्येक में 10,000 से अधिक जानें गईं। इनके आलोक में आईडीएनडीआर, योकोहामा और ह्योगो में किए गए प्रयासों की बदौलत आपदाओं सम्बन्धी जननीति के समूचे दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है और अब राहत और पुनर्वास के स्थान पर रोकथाम, तैयारी, अनुक्रिया और पुनर्सशक्तीकरण पर जोर दिया जाने लगा है। इस परिवर्तन की वजह यह अहसास था कि आपदाएँ विकास के लाभों को उदरस्थ करती जा रही है और न केवल सालाना 4,340 लोगों एवं 40,000 मवेशियों की जानें जा रही हैं बल्कि 25 लाखा मकान तथा 15 लाख हेक्टेयर भूमि की फसल भी नष्ट हो रही है। यही नहीं ढाँचागत सुविधाओं को भी भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है जो सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 2.25 प्रतिशत के करीब बैठता है। दूसरी ओर जनस्वास्थ्य और शिक्षा के लिए भी संसाधनों को जुटाना मुश्किल होता है।

जननीति में इस परिवर्तन की घोषणा करते हुए दसवीं पंचवर्षीय योजना में कहा गया है “प्राकृतिक आपदाओं के प्रबन्धन और निराकरण की पारम्परिक प्रविधि आपदा राहत के विचार तक सीमित रही है। इसे गैर-योजनागत व्यय माना जाता रहा है। लेकिन भारी आपदाओं के प्रभाव को केवल तात्कालिक राहत का प्रावधान कर समाप्त नहीं किया जा सकता है। आपदाओं के प्रभाव को केवल तात्कालिक राहत का प्रावधान कर समाप्त नहीं किया जा सकता है। आपदाओं का अर्थतन्त्र पर विनाशकारी प्रभाव पड़ सकता है, उनसे जीवन और अर्थ की भारी क्षति होती है और किसी क्षेत्र अथवा राज्य के विकास प्रयासों को बड़ा धक्का लग सकता है। साल-दर-साल देश जिस तरह के आर्थिक नुकसान और विकास गतिविधियों पर धक्के झेल रहा है, उनके मद्देनजर हमारी विकास प्रक्रिया को आपदाओं की रोकथाम और निराकरण के बारे में संवेदनशील होना होगा।”

योजना में भविष्य के लिए कार्य योजना का उल्लेख करते हुए कहा गया है, “भारत में आपदा प्रबन्धन की भावी कार्य योजना इस संकल्पना पर आधारित है कि मौजूदा समाज में प्राकृतिक और अन्य खतरों से बचा नहीं जा सकता। लेकिन भविष्य में भी यही स्थिति बनी रहे, यह जरूरी नहीं है। समाज में भविष्य में कोई भी आपदा घटित होने की स्थिति में उससे प्रभावशाली तरीके से निबटने के लिए कार्यक्रम तैयार किया जा सकता है। समग्र जोखिम प्रबन्धन के लिए बहुआयामी नीति बनाए जाने की जरूरत है। इसमें एक तरफ तो रोकथाम, तैयारी, अनुक्रिया तथा पुनर्सशक्तीकरण को शामिल किया जाए, दूसरी तरफ जोखिम कम करने और उनका प्रभाव समाप्त करने के लिए विकासात्मक प्रयास किए जाएँ। तभी हम धारणीय विकास की उम्मीद कर सकते हैं।”

भारत में आपदा प्रबन्धन संरचना 3इस दर्शन को आधार बनाकर एक एकीकृत राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संरचना विकसित की गई है जिसमें अर्थव्यवस्था, पर्यावरण और विकास की परस्पर निर्भरता पर प्रकाश डाला गया है और उन्हें गरीबी निवारण, क्षमता आपदा रोकथाम व तैयारी के लिए अन्य विभिन्न ढाँचागत और गैर-ढाँचागत मुदों से जोड़ा गया है ताकि आपदा सम्बन्धी जोखिमों का प्रभावी तरीके से निराकरण किया जा सके। इस संरचना के पीछे यह विचार निहित है कि भारत की भौगोलिक एवं जलवायुगत परिस्थितियों के मद्देनजर यहाँ प्राकृतिक आपदाएँ अवश्यम्भावी हैं लेकिन हरेक खतरा आपदा बन जाए यह जरूरी नहीं। रोकथाम, तैयारी, अनुक्रिया और पुनर्सशक्तीकरण की समुचित रणनीति, योजना और कार्यक्रम बनाकर आपदाओं से होने वाले सम्भावित नुकसानों को काफी हद तक कम किया जा सकता है और प्रभावित समुदायों पर पड़ने वाले बोझ को कम से कम कर सामान्य जीवन व्यवहार को बहाल किया जा सकता है।

देश में आपदा रोकथाम और तैयारी के लिए अनेक कदम उठाए गए हैं। समूचे देश के लिए प्राकृतिक आपदा क्षेत्र निर्धारक नक्शे (मानचित्र-1) तैयार कर लिए गए हैं तथा आपदा विशेष के लिए सूक्ष्म निर्धारक मानचित्र बनाए जा रहे हैं। इसके लिए रिमोट सेटिंग और भू-गर्भीय सूचना तकनीकी पर आधारित उन्नत प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस तरह बाढ़, तूफान आदि पर विभिन्न अध्ययन किए जा रहे हैं और स्थानीय स्तर पर जोखिमों का आकलन कर उन्हें समाप्त करने की नीति बनाई जा रही है। इन अनुमानों के आधार पर आपदाओं की दीर्घकालीक रोकथाम के लिए विभिन्न परियोजनाएँ तैयार की जा रही हैं।

विभिन्न आपदाओं के लिए एक व्यापक पूर्व चेतावनी प्रणाली विकसित की जा रही है। चक्रवातों की पूर्व जानकारी हासिल करने के लिए पूर्वी और पश्चिमी तटीय भू-भाग में उन्नत डोपलर रडार प्रणाली का नेटवर्क स्थापित किया गया है। सभी प्रमुख नदियों के बेसिन पर कुल 166 बाढ़ पूर्वसूचना केन्द्र स्थापित किए गए हैं जो नदियों और जल-संग्रह क्षेत्रों में पानी के स्तर की निगरानी करते हैं। उन्नत और बहुउदेशीय सुनामी पूर्व चेतावनी प्रणाली पर काम चल रहा है। मध्यम क्षमता वाली मौसम सम्बन्धी भविष्यवाणी की प्रणाली पहले से काम कर रही है जो सूखे की स्थिति पर निगरानी रखती है और साप्ताहिक आधार पर सम्बद्ध क्षेत्र के किसानों को उनकी सूचना और सलाह देती है।

आपदा प्रबन्धन के लिए अत्याधुनिक सूचना और संचार प्राद्योगिकी के प्रयोग की दिशा में महत्त्वपूर्ण पहल की गई है। गृह मन्त्रालय में राष्ट्रीय आपात प्रचालन केन्द्र (ईओसी) स्थापित किए गए हैं। ये केन्द्र उपग्रह आधारित ध्वनि-आँकड़ा-संचार तन्त्र से युक्त हैं।आपदा प्रबन्धन के लिए अत्याधुनिक सूचना और संचार प्राद्योगिकी के प्रयोग की दिशा में महत्त्वपूर्ण पहल की गई है। गृह मन्त्रालय में राष्ट्रीय आपात प्रचालन केन्द्र (ईओसी) स्थापित किए गए हैं। ये केन्द्र उपग्रह आधारित ध्वनि-आँकड़ा-संचार तन्त्र से युक्त हैं। इनमें एक संचार के असफल होने की स्थिति में दूसरा काम कर सके, इसलिए तिहरी संचार व्यवस्था है। ऐसे ही ईओसी राज्यों की राजधानियों और जिला मुख्यालयों में भी स्थापित किए जा रहे हैं। आपात स्थिति में आपदा स्थल पर वायुमार्ग से ले जाने के लिए सचल ईओसी की भी व्यवस्था की गई है। भारतीय आपदा संसाधन नेटवर्क से देश के 565 जिले ऑनलाइन जुड़े हुए हैं। आपातकाल में सहायता उपलब्ध कराने के लिए इन पर विभिन्न जगहों पर सार्वजनिक अथवा निजी-सार्वजनिक स्वामित्व वाले उपकरणों और अन्य भौतिक सामग्रियों की जानकारी सुलभ है। एक अन्य भारतीय आपदा ज्ञान तन्त्र (आईडीकेएन) नामक ऑनलाइन पोर्टल को भी विकसित किया जा रहा है जो तकनीकी संस्थानों और विशेषज्ञों को आपदा प्रबन्धन व्यूह को विभिन्न चरणों में उपयोगी उपकरणों, प्रारूपों, दिशा-निर्देशों तथा अन्य संसाधनों की जानकारी उपलब्ध कराएगा।

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की सहायता से एक समुदाय आधारित आपदा जोखिम प्रबन्धन कार्यक्रम आरम्भ किया गया है। यह कार्यक्रम 17 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के 169 बहु-आपदा सम्भावित जिलों में क्रियान्वित किया जा रहा है। इस कार्यक्रम में गाँववासियों को अपने जोखिमों का मिलजुल कर आकलन करने और ग्राम स्तरीय आपदा प्रबन्धन योजना विकसति करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इसमें संसाधन मानचित्र, जोखिम मानचित्र, आश्रय और बाहर निकालने सम्बन्धी मानचित्र तथा आपदा केन्द्रित निवारण गतिविधियों की पहचान करना शामिल होते हैं। ग्रामीण अपनी योजना के परीक्षण के लिए उनका अभ्यास करते हैं और अपने को हमेशा तैयार रखते हैं। ग्राम स्तरीय आपदा प्रबन्धन योजना को क्षैतिज रूप से ब्लॉक और जिला योजनाओं तथा ऊर्ध्वाकार रूप से सम्बद्ध रेखीय विभागों के उस क्षेत्र की योजनाओं से समन्वित किया जाता है।

आपदा प्रबन्धन पर व्यापक मानव संसाधन विकास योजना तैयार करने, प्रशिक्षण प्रारूप तैयार करने तथा शोध एवं प्रलेखन कार्य आरम्भ करने, आपदा प्रबन्धन को शिक्षा की मुख्यधारा में लाने और राष्ट्रीय स्तर पर नीति निर्धारण में मदद करने के लिए एक राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान (एनआईडीएम) की स्थापना की गई है। आपदा प्रबन्धन पर राष्ट्रीय मानव संसाधन योजना तैयार की गई है और विभिन्न क्षेत्रों के लिए प्रशिक्षण प्रारूप बनाए गए हैं। शोध एवं प्रशिक्षण संस्थानों के साथ ज्ञान तथा संसाधनों के लेन-देन और राज्य एवं जिला स्तर पर प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने के लिए नेटवर्किंग की गई है। आपदा प्रबन्धन को मिडल तथा हाईस्कूलों, इंजीनियरी और स्थापत्य कला के पाठ्यक्रमों में शामिल किया गया है तथा चिकित्सा और नर्सिंग के लिए पाठ्यक्रम तैयार किए जा रहे हैं।

उच्च विशेषज्ञता प्राप्त राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन बल (एनडीआरएफ) के आठ बटालियन गठित किए जा रहे हैं। किसी भी प्राकृतिक अथवा मानवकृत आपदा से निबटने के लिए यह बल अत्याधुनिक उपकरणों से लैस होगी। इनमें से चार बटालियनों को आणविक, जैविक तथा रासायनिक आपदाओं से निबटने में प्रशिक्षित किया जाएगा और इनके लिए जरूरी उपकरण उपलब्ध कराए जाएँगे। दो बटालियनों को पर्वतों पर खोज एंव बचाव कार्यों तथा बाकी दो को समुद्री खोज एवं बचाव कार्यों में प्रशिक्षित किया जाएगा।

आपदा प्रबन्धन को कृषि एवं सहकारिता मन्त्रालय से हटाकर गृह मन्त्रालय के अधीन ले आया गया है और वहाँ आपदा प्रबन्धन से जुड़े सभी मामालों पर कार्यवाही के लिए अलग से एक आपदा प्रबन्धन विभाग बनाया गया है। इसी तरह राज्यों को भी अपने राजस्व एवं राहत विभागों को आपदा प्रबन्धन विभागों के रूप में पुनर्गठित करने की सलाह दी गई है।

हाल ही में प्रभाव में आए आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 में आपदा प्रबन्धन के लिए विस्तृत कानूनी एवं संस्थागत ढाँचे की अनुशंसा की गई है। अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता वाले एक राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण का गठन किया गया है। इसमें एक उपाध्यक्ष और पाँच सदस्य होंगे। प्राधिकरण आपदा प्रबन्धन सम्बन्धी नीतियाँ, योजनाएँ और दिशा-निर्देश तैयार करने और देश में उनके क्रियान्वयन को समन्वित करने के लिए उत्तरदायी होगा।

केन्द्रीय गृह सचिव की अध्यक्षता वाली एक राष्ट्रीय स्तर पर सभी प्रमुख विभागों के सचिव तथा एकीकृत रक्षाबलों के प्रमुख इसके सदस्य होंगे। राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण की नीतियों और योजनाओं को क्रियान्वित करना तथा सरकार और प्राधिकरण द्वारा जारी निर्देशों का अनुपालन सुनिश्चित करना इस समिति का दायित्व होगा।

प्रत्येक राज्य में राज्य आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण का गठन किया जाएगा जिसकी अध्यक्षता सम्बद्ध मुख्यमन्त्री करेंगे तथा उनके द्वारा नामित व्यक्ति इसके सदस्य होंगे। राज्य प्राधिकरण का दायित्व आपदा प्रबन्धन सम्बन्धी राज्य स्तरीय नीतियाँ और योजनाएँ बनाना तथा दिशा-निर्देशों के अनुरूप तैयार की गई राज्य योजनाओं का अनुमोदन करना होगा। राज्य प्राधिकरण राज्य सरकार के विभागों तथा जिला प्रशासन द्वारा तैयार की गई योजनाओं को भी संस्तुति प्रदान करेंगे और उनके लिए अपेक्षित कोष की अनुशंसा कर उनके क्रियान्वयन को भी समन्वित करेंगे।

सभी राज्यों में राज्य के प्रधान सचिव की अध्यक्षता में राज्य कार्यकारी समिति का गठन किया जाएगा। राज्य सरकार के सम्बद्ध सचिवगण इसके सदस्य होंगे। यह समिति राज्य स्तरीय प्राधिकरण के कार्य निष्पादन में सहायता प्रदान करेगी। साथ ही साथ, राष्ट्रीय योजना और राज्य योजना को क्रियान्वित करना तथा राज्य में आपदा प्रबन्धन कार्यों का समन्वयन और निगरानी भी इसका दायित्व होगा।

राज्यों के प्रत्येक जिले में जिला आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण का गठन किया जाएगा जिसकी अध्यक्षता जिलाधिकारी और जिला परिषद अध्यक्ष सामूहिक रूप से करेंगे। जिला प्राधिकरण जिला स्तरीय योजना, समन्वयन तथा क्रियान्वयन एजेंसी के रूप में काम करेंगे। यह राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय प्राधिकरणों के दिशा-निर्देशों के अनुरूप काम करेंगे। जिला प्राधिकरण आपदा सम्भावित क्षेत्रों की पहचान करेंगे और उनके अनुरूप जिला आपदा प्रबन्धन योजना तैयार कर आपदा रोकथाम एवं इसके प्रभावों के निराकरण के उपाय करेंगे। इस काम में वे राज्य सरकार के विभागों, जिला प्रशासन तथा स्थानीय निकायों की मदद लेंगे।

पंचायती राज संस्थान, नगर पालिकाएँ, जिला बोर्ड, कैन्टोन्मेण्ट बोर्ड, नगर नियोजन प्राधिकरण आदि संस्थाएँ आपदा प्रबन्धन से सक्रियतापूर्वक जुड़ी रहेंगी तथा संवेदनशील क्षेत्रों के लोगों के साथ मिलकर काम करेंगी। स्थानीय अधिकरणों द्वारा आरम्भ सभी निर्माण परियोजनाएँ आपदा रोकथाम एवं निराकरण के मानकों के अनुरूप होंगी। प्रभावित इलाकों में राज्य और जिला योजना के अनुसार राहत, पुनर्वास एवं पुनर्निर्माण गतिविधियाँ चलाने की जिम्मेदारी स्थानीय अधिकारियों की होगी।

आपदा प्रबन्धन अधिनियम के तहत दो प्रकार के कोष बनाए गए हैं- राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया कोष एवं राष्ट्रीय आपदा निराकरण कोष। ये कोष केन्द्र, राज्य तथा जिला स्तर पर बनाए गए हैं ताकि आपदाओं के समूचे चक्र से व्यापक रूप से निबटा जा सके। इन कोषों के गठन का तरीका और प्रविधि तथा साथ ही साथ, मौजूदा दो कोषों- राष्ट्रीय आपदा राहत कोष एवं राष्ट्रीय आपदा आकस्मिकी कोष के साथ इनके सम्बन्धों का निर्धारण एक महत्त्वपूर्ण मुदा है। इसी तरह वार्षिक और पंचवर्षीय योजनाओं के तहत जारी विभिन्न आपदा निराकरण स्कीमों और कार्यक्रमों के साथ उक्त कोषों के सम्बन्धों का निर्धारण भी महत्त्वपूर्ण है। आने वाले दिनों में इस सन्दर्भ में निर्णय लिया जाएगा।

उम्मीद है कि इस नवीन आपदा प्रबन्धन संरचना से देश भर में अल्पकालिक अथवा की गई दीर्घकालिक सब प्रकार के आपदाओं के जोखिम कम करने में उल्लेखनीय मदद मिलेगी।

(लेखक राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान के कार्यकारी निदेशक हैं)

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