भारत पर बाढ़ का खतरा!

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पश्चिम अंटार्टिक में बर्फ की चादर के पिघलने की दर में तेजी आ रही है। उम्मीद की जा रही है कि इस घटना से समुद्र के जल स्तर में चार मिलीमीटर की बढ़ोतरी हो सकती है। गौरतलब है कि पिछले चार दशकों के दौरान पश्चिम अंटार्टिक प्रदेश में बर्फ के ग्लेशियरों की पिघलने की दर में 77 फीसदी का इजाफा दर्ज किया गया है।

ग्लोबल वार्मिंग की वजह से पिछले तीन दशकों में हिमालय की हिंदुकुश श्रेणी 5168 किमी से घटकर 3902 किमी रह गई है। इससे जीवन पाने वाली पांच नदियों- अमुदरिया, गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु और इरावदी- के किनारे बाढ़ का खतरा भी बढ़ा है। बर्फ के पिघलने की दर में आ रही तेजी की वजह से समुद्र के जल स्तर में कुछ सेंटीमीटर की बढ़ोतरी पहले ही हो चुकी है और यही वजह है कि पर्यावरणविदों को अब यह चिंता सताने लगी है कि आने वाले समय में हमारी मुश्किलें समुद्री बाढ़ की वजह से बढ़ सकती हैं।

इंस्टीट्यूशन ऑफ मेकेनिकल इंजीनियर्स में ऊर्जा व पर्यावरण विभाग के प्रमुख टिम फॉक्स ने एक रिपोर्ट जारी कर चेतावनी देते हुए कहा है कि समुद्र का जल-स्तर बढ़ने से बाढ़ का खतरा कई गुना बढ़ जाएगा। इसका सबसे ज्यादा नुकसान बांग्लादेश को होगा, जबकि भारत नुकसान उठाने वाले देशों में दूसरे स्थान पर होगा।

अंटार्टिक प्रदेश में बर्फ पिघलने की दर में तेजी आने की वजह ग्लोबल वार्मिंग है। ग्लोबल वार्मिंग की एक बड़ी वजह तेजी से शहरी आबादी में हो रहा विस्तार है। एक उम्मीद के अनुसार 2050 तक दुनिया की 75 फीसदी आबादी शहरों में निवास करेगी, जबकि विकासशील देशों की 95 फीसदी आबादी इस अवधि तक नगरों-उपनगरों में बस जाएगी। भारतीय जनता पार्टी ने 16वीं लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अपने चुनावी घोषणापत्र में सौ नए शहर बसाने और देश की नदियों को आपस में जोड़ने की बात कही है। निश्चित तौर पर ये दोनों घोषणाएं ग्लोबल वार्मिंग और बाढ़ की वजह से होने वाले नुकसान को बढ़ाने में मदद पहुंचाएंगी।

नदी जोड़ने के पक्षकारों का एक तर्क यह भी है कि नदियां जो जलराशि समुद्र में विसर्जित करती हैं, उनकी धाराएं मोड़कर उस जलराशि को हम अपने उपयोग में ला सकेंगे। हालांकि नदियों की धाराओं को मोड़ने और उसे समुद्र में गिरने देने से रोकने के खतरे का हिसाब फिलहाल नहीं लगाया जा रहा है।

नदियां अपनी यात्रा बर्फ के पहाड़ों के पिघलने से शुरू करती हैं और यात्रा पूरी करके समुद्र में मिल जाती हैं। समुद्र में मिलने वाली नदियों की धाराएं समुद्री लहरों को रोकने का काम करती हैं लेकिन जब नदियों की असंख्य धाराओं को समुद्र में गिरने से पहले यदि रोकने की कोशिश होगी तो समुद्र बिना किसी रोकटोक के मैदानी इलाकों की ओर बढ़ता चला जाएगा। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र ने समुद्री बाढ़ के बारे में चिंता जताते हुए ‘शुक्रवार’ से बातचीत में कहा, ‘एक ओर अंटार्टिक में बर्फ की चादर के पिघलने की दर में तेजी आने से समुद्र के जल स्तर में बढ़ोतरी हो रही है। वहीं देश के नीति-नियंता कई दशकों से देश में पीने का पानी, सिंचाई, बाढ़-सुखाड़ आदि हरेक समस्याओं से पार पाने के लिए नदियों को जोड़ने की बात करते रहे हैं।

केंद्र में नई सरकार बनाने वाली पार्टी भी लगातार ऐसा ही कह रही है। उन्हें प्रकृति के कैलेंडर को हमारे कैलेंडर से अलग करके देखना चाहिए। वे मुंबई के नरीमन प्वाइंट में समुद्री लहरों को पीछे धकेलकर विकास के खामियाजे पर जरूर एक बार गौर फरमाएं। नरीमन प्वाइंट में आधा या एक किलोमीटर समुद्री लहरों को पीछे धकेला गया। समुद्र ने यह बात कहीं नोट कर ली अब उसने नरीमन प्वाइंट से सिर्फ 50 किलोमीटर दूरी पर विरार में जमीन काटना शुरू कर दिया।’

प्रकृति में बर्फ की चादरों का पिघलना कोई नई घटना नहीं है। पृथ्वी के विकास के साथ ही उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों में बर्फ के पिघलने की घटना आकार लेती रही है और समुद्र में जल स्तर का निर्धारण इसी परिघटना की वजह से अब तक नियमित और नियंत्रित होती रही है लेकिन ग्लोबल वार्मिंग की वजह से बर्फ की पिघलने की दर में लगातर वृद्धि दर्ज की जा रही है और यही वजह है कि समुद्र में जल स्तर के बढ़ने की घटना भी अनियमित और अनियंत्रित हो रही है। अनुपम कहते हैं, ‘यह हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि धरती पर मिट्टी की तुलना में पानी का हिस्सा प्रकृति ने ज्यादा दिया है। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव भी जमे हुए पानी की धुरी हैं इसलिए पानी के आगे किसी देश या किसी सियासत की हैसियत नहीं रह जाती है कि उसके खेल के आगे टिक जाए।

नीदरलैंड और हॉलैंड जैसे विकसित देशों ने कुछ दशक पूर्व समुद्र के भीतर घुसकर बसने और विकास करने की कोशिश की लेकिन बहुत नुकसान उठाने के बाद उन देशों ने समुद्र के साथ तालमेल बिठाकर जीना सीख लिया है। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे उत्तर बिहार के लोगों ने नदियों और उसमें हर साल आने वाली बाढ़ के साथ जीना सीख लिया।’

समुद्री बाढ़ की वजह से खेती योग्य उपजाऊ जमीन में कमी आएगी। मिट्टी में नमक की मात्रा इतनी बढ़ जाएगी कि खेत बंजर भूमि में बदल जाएंगे। भूमिगत जल में खारापन बढ़ जाएगा और इसे पीने योग्य बनाने में साधारण पानी की तुलना में ३० गुना अधिक लागत आएगी।
 

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